Mar 26, 2011

प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव का निधन



प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव रहे  कमला प्रसाद ने पूरे देश के प्रगतिशील और जनपक्षधरता वाले रचनाकारों को उस वक्त देश में इकट्ठा करने का बीड़ा उठाया जब प्रतिक्रियावादी, अवसरवादी और दक्षिणपंथी ताकतें सत्ता, यश और पुरस्कारों का चारा डालकर लेखकों को बरगलाने का काम कर रहीं हैं।

उनके इस काम को देश की विभिन्न भाषाओं और विभिन्न संगठनों के तरक्कीपसंद रचनाकारों का मुक्त सहयोग मिला और एक संगठन के तौर पर प्रगतिशील लेखक संघ देश में लेखकों का सबसे बड़ा संगठन बना।

इसके पीछे दोस्तों, साथियो और वरिष्ठों द्वारा भी कमांडर कहे जाने वाले कमलाप्रसादजी के सांगठनिक प्रयास प्रमुख रहे। उन्होंने जम्मू-कश्मीर से लेकर, पंजाब, असम, मेघालय, प. बंगाल और केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में संगठन की इकाइयों का पुनर्गठन किया, नये लेखकों को उत्प्रेरित किया और पुराने लेखकों को पुनः सक्रिय किया।

उनकी कोशिशें अनथक थीं और उनकी चिंताएँ भी यही कि सांस्कृतिक रूप से किस तरह साम्राज्यवाद, साम्प्रदायिकता और संकीर्णतावाद को चुनौती और शिकस्त दी जा सकती है और किस तरह एक समाजवादी समाज का स्वप्न साकार किया जा सकता है। ‘वसुधा’ के संपादन के जरिये उन्होंने रचनाकारों के बीच पुल बनाया और उसे लोकतांत्रिक सम्पादन की भी एक मिसाल बनाया।

कमलाप्रसादजी रीवा विश्वविद्यालय  में हिन्दी के विभागाध्यक्षरहे,मध्य प्रदेश कला परिषद के सचिव रहे, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के अध्यक्ष रहे और तमाम अकादमिक-सांस्कृतिक समितियों के अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे, अनेक किताबें लिखीं, हिन्दी के प्रमुख आलोचकों में उनका स्थान है, लेकिन हर जगह उनकी सबसे पहली प्राथमिकता प्रगतिशील चेतना के निर्माण की रही।

उनके न रहने से न केवल प्रगतिशील लेखक संघ को,बल्कि वंचितों के पक्ष में खड़े होने और सत्ता को चुनौती देने वाले लेखकों के पूरे आंदोलन को आघात पहुँचा है। मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संगठन तो खासतौर पर उन जैसे शुरुआती कुछ साथियों की मेहनत का नतीजा है। उनके निधन से पूरे देश के लेखक, रचनाकार, पाठक, साहित्य व कलाओं का वृहद समुदाय स्तब्ध और शोक में है।

कमलाप्रसादजी ने जिन मूल्यों को जिया, जिन वामपंथी प्रतिबद्धताओं को निभाया और जो सांगठनिक ढाँचा देश में खड़ा किया,वो उनके दिखाये रास्ते पर आगे बढ़ने वाले लोग सामने लाएगा। और प्रेमचंद, सज्जाद जहीर, फैज, भीष्म साहनी, कैफी आजमी, परसाई जैसे लेखकों के जिन कामों को कमलाप्रसादजी ने आगे बढ़ाया था, उन्हें और आगे बढ़ाया जाएगा। मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की राज्य कार्यकारिणी उन्हें अपनी श्रृद्धांजलि अर्पित करती है।

मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ का शोक प्रस्ताव

Mar 25, 2011

नहीं सुना राजगुरु और सुखदेव का नाम

संजय स्वदेश

भगत सिंह का बलिदान दिवस 23 मार्च अब   बीत चुका   है। हर साल की तरह इस बार भी एकाद संगठन के प्रेस नोट से अखबार के किसी कोने में भगत सिंह के  श्रद्धांजलि की खबर भी छप चुकी  होगी.शहर में कही धूल खाती भगत सिंह की मूर्ति पर माल्यपर्ण भी हो चुका होगा। कहीं संगोष्ठी हुई  होगी तो कहीं भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता बता कर उनसे प्रेरणा लेने की बात कही गयी होगी. फिर सब कुछ पहले जैसे समान्य हो जाएगा और अगले वर्ष फिर बलिदास दिवस पर यही सिलसिला दोहराया जाएगा।

मगर भगत सिंह के विचारों से किसी का कोई लेना देना नहीं होगा. यदि लेना-देना होता तो आज युवा दिलों में भ्रष्टाचार के खिलाफ धधकने वाली ज्वाला केवल धधकती हुई घुटती नहीं। यह ज्वाला बाहर आती। सड़कों पर आती। सरकार की चूले हिला देती। फिर दिखती कोई मिश्र की तरह क्रांति। भ्रष्टाचारी सत्ता के गलियारे से भाग जाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है। युवाओं का मन किसी न किसी रूप में पूरी तरह से गतिरोध की स्थिति में जकड़ चुका है।
बाएं से भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव : मुल्क के लिए कुर्बानी  

वह भगत सिंह को क्यों याद करें। उस क्या लेना-देना क्रांति से। आजाद भारत में क्रांति की बात करने वाले पागल करार दिये गये हैं। छोटे-मोटे अनेक उदहारण है। एक-दो उदाहरण को छोड़ दे तो अधिकतर कहां खो गये, किसी को पता नहीं।

गुलाम भारत में भगत सिंह ने कहा था-जब गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजे  में जकड़ लेती हैं तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरुरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण  छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह जरूरी है कि क्रांति की स्पिरिट ताजा की जाए, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो

शहीद भगत सिंह के नाम भर से केवल कुछ युवा मन ही रोमांचित होते हैं। करीब तीन साल पहले नागपुर में भगत सिंह के शहीद दिवस पर वहां के युवाओं से बातचीत कर स्टोरी की। केवल इतना ही पूछा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जानते हो, ये कौन थे। अधिकर युवाओं का जवाब था - भगत सिंह का नाम सुना है। उनके बाकी दो साथियों के नाम पता नहीं था। वह भी भगत सिंह को शहीद के रूप में इसलिए जानते थे,क्योंकि उन्होंने भगत सिंह पर अधारित फिल्में देखी थी या उस पर चर्चा की थी।

देश के अन्य शहरों में भी यदि ऐसी स्टोरी करा ली जाए तो भी शत प्रतिशत यही जवाब मिलेंगे। लिहाजा सवाल है कि आजाद भारत में इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने की जहमत कौन उठाये। वह जमाना कुछ और था जो भगत सिंह जैसे ने देश के बारे में सोचा। आज भी हर कोई चाहता है कि समाज में एक और भगत सिंह आए। लेकिन वह पड़ोसी के कोख से पैदा हो। जिससे बलिदान वह दे और राज भोगे कोई और।

भगत सिंह ने अपने समय के लिए कहा था कि गतिरोधी की स्थितियां लोगों को अपने शिकंजा में कसे हुए है। लेकिन आज गतिरोध की स्थितियां वैसी है। बस अंतर इतना भर है कि स्थितियों का रूप बदला हुआ है। मुर्दे इंसानों की भरमार आज भी है और क्रांतिकारी स्पिरिट की बात करने वाले हम जैसे पालग कहलाते हैं।
 
 
दैनिक नवज्योति के कोटा संस्करण से जुड़े संजय स्वदेश देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व पोटर्ल से लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं.उनसे sanjayinmedia@rediffmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.



 

लूट के खिलाफ धरना

आदिवासी का दर्जा पायी जातियों के लिए पंचायत चुनाव में सीटें आरक्षित न करने के कारण कई गांव में पंचायतों का गठन नहीं हो पाया,जिससे संवैधानिक संकट पैदा हो गया है...


राजेश सचान 

जन संघर्ष मोर्चा की तरफ से 20जनवरी से सोनभद्र जिला कचहरी में राष्ट्रीय सम्पत्ति की लूट के खिलाफ पर्यावरण और आम आदमी की जीवन रक्षा के लिए अनिश्चितकालीन धरना दिया जा रहा है।

इस इलाके की हालत यह है कि जिला प्रशासन के हेडक्वार्टर से चंद किलोमीटर ही दूर सोन नदी के बीच में ढेर सारे पुल बनाए गए है। प्रशासन यह भी नहीं बताता कि किस अधिकार के तहत पुल बने है और कौन इनको संचालित कर रहा है। पर्यावरण संकट के साथ किसानों की सिचांई के लिए बनी सोन लिफ्ट परियोजना पर भी संकट आ गया है, इसके पम्प में पानी की कमी से सिल्ट जमा हो रहा है परिणामतः किसानी बरबाद हो रही है।

इसी तरह वन क्षेत्र में जो कानून बने है उनकी अवहेलना करके क्रशर चल रहे है। सेचुंरी एरिया व वाइल्ड जोन में जहां ट्रांजिस्टर भी बजाना मना है, वहां खुलेआम ब्लास्टिंग करायी जा रही है। यहां की पहाडियों को खत्म कर लखनऊ और अन्य जगहों का सुदंरीकरण किया जा रहा है। पानी का कितना गहरा संकट है अभी से लोग इसे महसूस कर रहे है। पानी के इस संकट के चलते रिहन्द बांध का प्रदूषित पानी पीने को लोग मजबूर होते है।

इस प्रदूषित पानी को पीने से पहले भी कमरी ड़ाड, लभरी, गाढ़ा जैसी जगहों पर लोग मर चुके है और अभी भी बेलहत्थी गांव के रजनी टोला में पंद्रह बच्चे मर चुके है। बावजूद इसके जल संकट के हल की और न ही प्रदूषित पानी से लोगों को बचाने की कोई व्यवस्था है। उलटा जेपी समूह पानी के संकट को और बढ़ाने में लगा हुआ है इस समूह द्वारा बिजली बनाने के लिए जमीन से जल को निकाला जा रहा है।

अनपरा,ओबरा तापीय परियोजनाओं में बड़े पैमाने पर सरकारी सम्पत्ति की लूट हो रही है। इस लूट के कारण यह पूरी क्षमता से नहीं चल पा रही है। यहां 20 -25 वर्षो से एक ही स्थान पर नियमित रूप से मजदूर काम करते है,इन मजदूरों का प्रबंधन इन परियोजनाओं का प्रबंधतंत्र ही करता है लेकिन मात्र कमीशनखोरी लिए इन परियोजनाओं में ठेकादारों के जरिए मजदूरों से काम करवाया जा रहा है। स्थिति इतनी बुरी है कि जिलाधिकारी के निर्देशन में हुए समझौतों का भी अनुपालन औद्योगिक इकाईयां नही करती है।

 खुलेआम श्रम कानूनों का उल्लंघन  किया जा रहा है। वनाधिकार कानून को जनपद में विफल कर दिया गया है। आदिवासियों तक के दावों को उपजिलाधिकारी स्तर पर खारिज कर दिया गया है और जिन्हें  दिया भी गया है उन्हे चार बीधा की काबिज जमीन पर दस बिस्वा का पट्टा थमा दिया गया है,कोलों को आदिवासी का दर्जा ही नहीं मिला परिणामस्वरूप वह आदिवासी होने के बावजूद इस कानून के लाभ से वंचित हो गए है, रिहन्द विस्थापितों और अन्य वनाश्रित जातियों के दावों को तो रद्दी की टोकरी के ही हवाले कर दिया गया है।

 जनपद में आदिवासी का दर्जा पायी जातियों के लिए पंचायत चुनाव में सीटें आरक्षित न करने के कारण कई गांव में पंचायतों का गठन नहीं हो पाया, जिससे संवैधानिक संकट पैदा हो गया है। जिला प्रशासन ने कई गांवों में प्रशासनिक समिति के गठन की अवैधानिक कार्यवाही करते हुए चुने हुए प्रधानों के अधिकार तक छीन लिए है।

में यहां चैतरफा लूट हुई है, इस बात को विभिन्न जांच टीमों तक ने स्वीकार किया है। इस योजना में करोड़ों रूपया मजदूरों की मजदूरी बकाया है। जनपद का आदिवासी भुखमरी की स्थिति में जी रहा है और गेठी कंदा जैसे जहरीली जड़ को खाने को मजबूर है। किसानों के सिचांई हेतु बनी परियोजनाएं लम्बित पड़ी है और जो चल भी रही है उनकी दशा दयनीय है। ऐसी स्थिति में जनपद को पर्यावरणीय क्षति और प्राकृतिक व सरकारी सम्पदा की हो रही लूट से बचाने और जनपद के किसानों, मजदूरों व आम आदमी की जिन्दगी से जुड़े विभिन्न मुद्दों को लेकर यह अनिश्चितकालीन धरना शुरू किया गया है।

इस धरने का समर्थन समाजवादी जनता पार्टी,सोशलिस्ट पार्टी (लोहियावादी)जैसे तमाम दलों ने किया,अधिवक्ताओं ने भी बडे पैमाने पर इस आंदोलन का समर्थन किया है। इस धरने में औद्योगिक इकाईयों में काम करने वाले मजदूर,किसान और आदिवासी पहली बार एक मंच पर आकर अपनी लड़ाई को लड़ रहे है।

धरने के इतने दिन बीत जाने के बाद भी जिला प्रशासन का रवैया गैरजबाबदेह और संवेदनहीन बना हुआ है। पूरा प्रशासन लोकतांत्रिक आंदोलन को विफल करने में लगा है। बहरहाल आंदोलन जारी है प्रशासन की अवहेलना के खिलाफ पूरे जिलें में पुतले जलाए जा रहे है। आने वाले समय में क्रमिक अनशन, आमरण अनशन और जेल भरों की तैयारी की जा रही है।          



             

Mar 24, 2011

जापान के जरिये प्रकृति का कड़ा संदेश


पहले सुनामी फिर जापान में परमाणु विकीरण के समाचार ने जापान सहित पूरी दुनिया को दहला कर रख दिया। परमाणु विकीरण के खतरे को भी प्रकृति द्वारा उत्पन्न भूकंप के खतरे से कम खतरनाक नहीं कहा जा सकता...

तनवीर जाफरी

पृथ्वी पर बसने वाली मानव जाति को समय-समय पर अपने रौद्र एवं प्रचंड रूप से आगाह कराती रहने वाली प्रकृति ने गत 11 मार्च को  जापान पर एक बार फिर अपना कहर बरपा किया। पहले तो रिएक्टर पैमाने पर 8.9 मैग्रीच्यूड तीव्रता वाले ज़बरदस्त भूकंप ने देश को झकझोर कर रख दिया।


मौसम वैज्ञानिक अब 8.9 की तीव्रता को 9 मैग्रीच्यूड की तीव्रता वाला भूकंप दर्ज किए जाने की बात कह रहे हैं। यदि इसे 9मैग्रीच्यूड की तीव्रता वाला भूकंप मान लिया गया तो यह पृथ्वी पर आए अब तक के सभी भूकंपों में पांचवें नंबर का सबसे बड़ा भूकंप होगा। अभी जापान भूकंप के इस विनाशकारी झटके को झेल ही रहा था कि कुछ ही घंटों के बाद इसी भूकंप के कारण प्रशांत महासागर के नीछे  स्थित पैसेफिक प्लेट अपनी जगह से खिसक गई जिससे भारी मात्रा में समुद्री पानी ने सुनामी लहरों का रौद्र रूप धारण कर लिया।


जापान प्रशांत महासागर क्षेत्र में ऐसी सतह पर स्थित है जहां ज्वालामुखी फटना तथा भूकंप का आना एक सामान्य सी घटना है। इन्हीं भौगोलिक परिस्थितियों के कारण जापान के लोग मानसिक तथा भौतिक रूप से ऐसी प्राकृतिक विपदाओं का  सामना करने के लिए सामान्तया हर समय तैयार रहते हैं। जापान के लोगों की जागरूकता तथा वहां की सरकार व प्रशासनिक व्यवस्था की इसी चौकसी व सावधानी का ही परिणाम था कि भूकंप तथा प्रलयकारी सुनामी आने के बावजूद आम लोगों के जान व माल की उतनी क्षति नहीं हुई जितनी कि भूकंप व सुनामी के प्रकोप की तीव्रता,भयावहता तथा आक्रामकता थी।

जहां इस  भूकंप ने जान व माल का भारी नुकसान किया वहीं मानव निर्मित विपदाओं ने भी प्राकृतिक विपदा से हाथ मिलाने का काम किया। नतीजतन चालीस वर्ष पुराना फुकुशिमा डायची परमाणु संयंत्र भूकंप के चलते कांप उठा। इस अप्रत्याशित कंपन ने फुकुशिमा परमाणु रिएक्टर की कूलिंग प्रणाली को अव्यवस्थित कर दिया जिसके कारण टोक्यो से मात्र 240 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस संयंत्र के चार रिएक्टरों में एक के बाद एक कर धमाके हुए।

इसके बाद परमाणु विकीरण के समाचार ने जापान सहित पूरी दुनिया को दहला कर रख दिया। इस समय जहां इस संयंत्र के 20 किलोमीटर क्षेत्र को विकीरण के संभावित खतरे के परिणामस्वरूप खाली करा लिया गया है वहीं दुनिया के तमाम देश जापान से आयातित होने वाली खाद्य पदार्थों की रेडिएशन के चलते गहन जांच-पड़ताल भी कर रहे हैं। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि परमाणु विकीरण के खतरे को भी प्रकृति द्वारा उत्पन्न भूकंप के खतरे से कम बड़ा खतरा मापा नहीं जा सकता। स्वयं जापान के ही हीरोशिमा व नागासाकी जैसे शहर परमाणु विकीरण के नुकसान झेलने वाले शहरों के रूप में प्रमुख गवाह हैं।

बताया जा रहा है कि इस भयानक भूकंप के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर जापान में भू विस्थापन भी हुआ है। इस असामान्य कंपन के परिणामस्वरूप जापान की तट रेखा अपने निर्धारित स्थान से 13 फुट नीचे  की ओर खिसक गई है। इस प्रलयकारी भूकंप तथा इसके पश्चात आई सुनामी ने जापान की अर्थव्यवस्था को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। जबकि सारे विश्व की अर्थव्यवस्था भी जापान की त्रासदी से अछूती नहीं रह सकी है। इस त्रासदी के बाद एशियाई शेयर बाज़ार नीचे गिर गए थे।

जापान के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति  प्राप्त उद्योग सोनी, टोयटा, निसान तथा होंडा में उत्पादन बंद कर दिया गया है। सुनामी के परिणामस्वरूप उठीं 30फीट ऊंची प्रलयकारी लहरों ने सेंदई शहर को पूरी तरह तबाह कर दिया। पूरा शहर या तो समुद्री लहरों के साथ बह गया या फिर शेष कूड़े-करकट व कबाड़ के ढेर में परिवर्तित हो गया। प्रकृति के इस शक्तिशाली प्रकोप ने मकान,गगनचुंबी इमारतें,जहाज़, विमान,ट्रेनें,पुल,बाज़ार फ्लाईओवर आदि सबकुछ अपनी आगोश में समा लिया। कारों तथा अन्य वाहनों की तो सुनामी की रौद्र लहरों में माचिस की डिबिया से अधिक हैसियत ही प्रतीत नहीं हो रही थी।

प्रकृति के इसी विनाशकारी प्रकोप को झेलते हुए आज जीवित बचे लगभग 5 लाख लोग स्कूलों तथा अन्य सुरक्षित इमारतों में शरण लेने पर मजबूर हैं। इन खुशहाल जापानवासियों को वहां भोजन की कमी, बढ़ती हुई ठंड तथा पीने के पानी की कि़ल्लत जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। देश के कई बंदरगाह,तमाम बिजली संयंत्र तथा तेल रि$फाईंनरी बंद कर दिए गए हैं।

एक तेल रिफाईंनरी में तो भीषण आग भी लग गई थी। ऐसे दु:खद व संकटकालीन समय में पूरी दुनिया के देश जापान की मदद के लिए आगे आ रहे हैं। इनमें हमेशा की तरह अमेरिका सहायता कार्यों में सबसे आगे-आगे चलकर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका व जि़ मेदारी निभा रहा है। आशा की जा रही है कि जापान के लोग अपनी सूझ-बूझ,अपनी बुद्धिमानी तथा आधुनिक तकनीक व विज्ञान का सहारा लेते हुए यथाशीघ्र इस प्रलयकारी त्रासदी से उबर पाने में सफल होंगे तथा वहां की अर्थव्यवस्था एक बार फिर सुधर जाएगी।


 जापान के  हिरोशिमा शहर में नरमुंड गिनते स्वास्थयकर्मी  

परंतु प्रकृति के इस या इस जैसे अन्य भूकंप व सुनामी जैसे प्रलयकारी तेवर को कई बार देखने,झेलने व इसे महसूस करने के बाद भी आखिर हम इन प्राकृतिक घटनाओं से अब तक क्या कोई सबक ले सके हैं? क्या भविष्य में हम इन घटनाओं से कोई सबक लेना भी चाहते हैं? आज के वैज्ञानिक युग की हमारी ज़रूरतें क्या हमें इस बात की इजाज़त देती हैं कि हम प्रकृति से छेड़छाड़ करते हुए अपनी सभी ज़रूरतों को यूं ही पूरा करते रहें?

 परमाणु शक्ति पर आधारित बिजली संयंत्र ही क्या हमारी विद्युत आपूर्ति के एक मात्र सबसे सुलभ एवं सस्ते साधन रह गए हैं? क्या परमाणु संयंत्रों की स्थापना मनुष्यों की जान की कीमत के बदले में किया जाना उचित है? या फिर इतना बड़ा खतरा मोल लेने के बजाए हमारे वैज्ञानिकों को परमाणु के अतिरिक्त किसी ऐसे साधन की भी तलाश कर लेनी चाहिए जो आम लोगों के लिए खतरे का कारण न बन सकें। या फिर परमाणु उर्जा की ही तरह किसी ऐसी उर्जा शक्ति का भी विकास किया जाना चाहिए जो परमाणु विकीरण के फैलते ही उस विकीरण को निष्प्रभावी कर दे तथा वातावरण को विकीरण मुक्त कर डाले।

जापान की भौगोलिक स्थिति पर भी पूरे विश्व को चिंता करने की ज़रूरत है। भू वैज्ञानिक इस बात को भली भांति समझ चुके हैं कि जापान पृथ्वी के भीतर मौजूद दो प्लेटों की सतह पर स्थित देश है। बताया जा रहा है कि जापान में प्रत्येक घंटे छोटे-छोटे ाूकंप आते ही रहते हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे स्थानों से विस्थापित होने के बजाए जापान के लोग उन्हीं जगहों पर आबाद रहने के लिए आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक का सहारा लेते हैं।

भूकंप रोधी मकान तथा भूकंप रोधी गगन चुंबी इमारतें बनाने के नए-नए तरी$के अपनाए जाते हैं। परंतु प्रकृति का प्रकोप है कि अपनी अथाह व असीम शक्ति के आगे मानव निर्मित किन्हीं सुरक्षा मापदंडों या उपायों को कुछ भी समझने को तैयार नहीं। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं कि भविष्य में जापान के इन भूकंप प्रभावित इलाक़ों में पुन: ऐसी या इससे अधिक तीव्रता का भूकंप नहीं आएगा या इससे भयानक सुनामी की लहरें नहीं उठेंगी।

याद रहे कि 2004 में इंडोनेशिया में आए सुनामी की तीव्रता इससे कहीं अधिक थी। जापान में जहां 30 फीट ऊंची लहरें सुनामी द्वारा पैदा हुई थी वहीं इंडोनेशिया में 80फीट ऊंची लहरों ने कई समुद्री द्वीप पूरी तरह तबाह कर दिए थे। भारत भी उस सुनामी से का$फी प्रभावित हुआ था। चीन भी विश्व के सबसे प्रलयकारी भूकंप का सामना कर चुका है।

लिहाज़ा भू वैज्ञानिकों को विश्व के सभी देशों के साथ मिलकर भूकंप व सुनामी जैसी विनाशकारी प्राकृतिक विपदाओं से प्रभावित क्षेत्रों का संपूर्ण अध्ययन करना चाहिए। ऐसे क्षेत्रों के लोगों को उसी क्षेत्र में रहकर जीने व रहने के उपाय सिखाना शायद टिकाऊ,कारगर या विश्वसनीय उपाय हरगिज़ नहीं है। यह तो ऐसी प्राकृतिक विपदाओं का सामना सीना तान कर करने जैसी इंसानी हिमाक़त मात्र है।

लिहाज़ा स्थाई उपाय के तौर पर ऐसे क्षेत्रों में बसने वाले लोगों को अन्यत्र सुरक्षित स्थानों पर बसाए जाने के उपाय करने चाहिए। हमारे वैज्ञानिकों तथा दुनिया के सभी शासकों को यह बात ब$खूबी समझनी चाहिए कि पृथ्वी के गर्भ में स्थित पृथ्वी को नियंत्रित रखने वाली प्लेटें तो अपनी जगह से हटने से रहीं। लिहाज़ा क्यों न मनुष्य स्वयं ऐसे $खतरनाक क्षेत्रों से स्वयं दूर हट जाए ताकि मानव की जान व माल को कम से कम क्षति पहुंचे। ऐसी प्राकृतिक विपदाएं मानव जाति में परस्पर पे्रम,सहयोग,सौहाद्र्र तथा एक-दूसरे के दु:ख-दर्द को समझने व महसूस करने का भी मार्ग दर्शाती हैं।

आशा की जानी चाहिए कि इस विनाशकारी भूकंप तथा सुनामी के बाद जापान के परमाणु रिएक्टर में उत्पन्न खतरे के बाद जिस प्रकार दुनिया के सभी देशों ने अपनी-अपनी परमाणु नीतियों के संबंध में पुनर्विचार करना शुरु किया है तथा जर्मनी जैसे देश ने परमाणु उर्जा उत्पादन के दो रिएक्टर प्लांट ही इस घटना के बाद बंद कर दिए हैं। उम्मीद की जा सकती है कि यह त्रासदी परमाणु रूपी मानव निर्मित त्रासदी से मनुष्य को मुक्ति दिलाने में भी बुनियाद का पत्थर साबित होगी।




लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafari1@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.






Mar 22, 2011

'गर्म हवा जैसी फ़िल्में रोज नहीं बना करतीं'


 
यूं   तो सआदत हसन मंटो, इसमत चुगताई, भीष्म साहनी और राही मसूम रज़ा जैसे कई लेखकों ने विभाजन की त्रासदपूर्ण पीड़ा का बयान अपने दस्तावेजों में किया और इस विषय पर बहुत सी फिल्में भी बनीं। मगर ’गर्म हवा’ और ’तमस’ का अपना अलग महत्व है। ’गर्म हवा’ इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पहली फिल्म थी जिसने बंटवारे के ध्वंस के बाद छायी कथित शान्ति की पड़ताल की। एक चीखती चुप्पी जिसमें घुटता हुआ आदमी समाज ही नहीं खुद से भी बिलग हो कर अपनी पहचान तलाशता है। अपने सकारात्मक अंत के अलावा इस फिल्म का एक ऐतिहासिक महत्व यह भी है कि यह बलराज साहनी द्वारा अभिनीत अन्तिम फिल्म थी। साहनी जी का अभिनय और एमएस सथ्यू के सधे हुए निर्देशन का कमाल है ’गर्म हवा’। यह फिल्म न सिर्फ कान फेस्टिबल में दिखायी गयी बल्कि आस्कर के लिए भी नामांकित हुई थी...


'गर्म हवा’ के निर्देशक  एमएस सथ्यू से पवन मेराज की बातचीत

सत्तर के दशक में रिलीज हुई फिल्म गर्म हवा कि आज के दौर क्या प्रासंगिकता है ?


कभी-कभी ऐसी फिल्में बन जाती हैं जो अपने मायने कभी नहीं खोतीं। वैसे भी आजकल हम धर्म, जाति और क्षेत्रीयता को लेकर अधिक संकीर्ण होकर सोचने लगे हैं। इन सब सच्चाईयों को देखते हुए गर्म हवा की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।

ऐसे समय में कला की समाज के प्रति क्या जिम्मेदारी बनती है?
समाज के यथार्थ को सामने लाना ही कला की मुख्य जिम्मेदारी है। मैं इस बात का हामी नहीं कि कला सिर्फ कला के लिए होती है। कला के सामाजिक सरोकार होते हैं।
लेकिन व्यवसायिक सिनेमा भी तो यथार्थ को सामने लाता है,फिर समानान्तर सिनेमा इससे अलग कैसे ?

 वे फिल्मों के जरिये बुनियादी तौर पर पैसा बनाते हैं। उनके लिए समस्याएं भी बिकाऊं माल है। गरीबी से लेकर विधवा के आंसू तक को बेचते हैं। समस्याओं को देखने का नजरिया, समाज के प्रति सरोकार और समानान्तर सिनेमा को बनाने का तरीका ही इसे व्यवसायिक सिनेमा से अलग करता है।

अपने तरीके (ट्रीटमेन्ट) में ’गर्म हवा’ कैसे अलग है ?

पहली बात तो यह कि हम एक विचारधारा से जुड़े हुए लोग थे इसीलिए यह फिल्म बन पायी। पूरी फिल्म इसमत चुगताई की एक कहानी से प्रभावित है। एक पत्र राजेन्द्र बेदी की कहानी से भी प्रेरित था। आपको हैरानी होगी पूरी फिल्म आगरा और फतेपुर सीकरी में शूट की गयी और इसमें बनावटी चीज कुछ भी नहीं है।
आज इस तरह सोचना भी मुश्किल है क्योंकि आज की फिल्मों में बहुत बनावटीपन है। कहानी हिन्दुस्तान की होती है शुटिंग विदेश में...(हंसते हैं।) शादियां तो ऐसे दिखाई जाती हैं गोया सारी शादियां पंजाबी शादियों की तरह ही होती हैं। इस फिल्म में दृश्यों की अर्थवत्ता और स्वाभाविकता को बनाये रखने के लिए कम से कम सोलह ऐसे सीन हैं जिसमें एक भी कट नहीं है। कैमरे के कलात्मक मूवमेन्ट द्वारा ही यह संभव हो सका। आज के निर्देशक ऐसा नहीं करते।

बिना कट किये पूरा सीन फिल्माना तो कलाकारों के लिए भी चुनौती रही होगी ?

 वे सब थियेटर के मजे हुए कलाकार थे, जिन्हें डायलाग से लेकर हर छोटी से छोटी बात याद रहती थी। यहाँ तक यह भी कि कितने कदम चलना है और कब घूमना है .रंगमंच का अनुभव कलाकारों को परिपक्व बना देता है इसलिए कभी कोई दिक्कत पेश नहीं आयी।

’इस फिल्म में जब नायिका मर जाती है तो पिता के रोल में बलराज साहनी की आंखों से कोई आंसू नहीं गिरता, यह अस्वाभाविक नहीं था ?

असल में बलराज जी की जिन्दगी में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। उनकी एक बेटी ने आत्महत्या कर ली थी और बलराज उस समय शूटिंग से लौट कर आये थे और उन्होंने कुछ इसी तरह सीढ़ियां चढ़ीं थी जैसा फिल्म में था। बलराज उस समय इतने अवसन्न हो गये थे कि रो भी नहीं पाये। उस वक्त उनसे पारिवारिक रिश्तों के चलते मैं वहीं था। फिल्म बनाते समय मेरे जेहन में वही घटना थी पर मैं बलराज जी से सीधे-सीधे नहीं कह सकता था इसलिए मैंने सिर्फ इतना कहा कि आपको इस सीन में रोना नहीं है। बलराज समझ गये थे और उन्होंने जो किया वो आपके सामने है।
लेकिन इस फिल्म का अन्त बहुत सकारात्मक था ?

दरअसल यह भी बलराज जी का ही योगदान था और उन्होंने ही इस तरह के अन्त को सुझाया। दो बीघा जमीन,गर्म हवा और दूसरी कई फिल्मों में अपने शानदार अभिनय के बावजूद उन्हें कभी नेशनल अवार्ड नहीं मिला तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वे कम्यूनिस्ट पार्टी के मेम्बर थे।

फिल्म रिलीज होने के बाद खुद बलराज जी की क्या प्रतिक्रिया थी ?

दुर्भाग्य से फिल्म रिलीज होने तक जिन्दा नहीं रहे। फिल्म के अन्त में वे कहते कि मैं इस तरह अब अकेला नहीं जी सकता और संघर्ष करती जनता के लाल झण्डे वाले जुलूस में शामिल हो जाते हैं,वही उनके अभिनय जीवन का भी अन्तिम शाट था।

आपने अभी बताया कि बलराज साहनी कम्यूनिस्ट पार्टी के मेंबर थे। क्या आप मानते हैं कि एक कलाकार की राजनैतिक भूमिका होना जरूरी है?

जी हां बिलकुल !कोई भी चीज राजनीति से अलग नहीं है। कलाकार का भी एक राजनीतिक सरोकार होता है जो उसकी कला में दिखता भी है। अगर कोई यह कहता है कि उसका राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है तो वह अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है।

कला समाज को प्रभावित करती है, समाज कला को किस तरह प्रभावित करता है ?

मैं दोनों को अलग करके नहीं देखता। समाज के तात्कालिक प्रश्न ही कलाकृति का आधार बनते हैं। वे बुराईयां जिन्हें हम लम्बे समय से स्वीकार करते आ रहे हैं,एक कलाकार उन्हें अपनी कला के जरिए समाज के सामने दुबारा खोलकर रखता है और अपने प्रेक्षक को उन पर सोचने पर मजबूर कर देता है।

सत्तर के दशक में वामपंथी राजनीति के उभार से कला, साहित्य और फिल्म प्रभावित रही, इप्टा जैसा सांस्कृतिक आंदोलन भी चला। लेकिन अब वह उतार पर नज़र आता है,ऐसा क्यों ?
जहां तक आंदोलन का सवाल है तो इसने हमें एक बेहतर दुनिया का सपना दिया। हम सब इससे प्रभावित थे। मैंने पहले भी कहा आन्दोलन से जुड़े होने के कारण ही हम लोग ’गर्म हवा’ बना सके। लेकिन यह ग्लोबलाईजेशन का दौर है और हम बदलती परिस्थितियों के हिसाब से खुद को नया नहीं बना सके, इसीलिए ऐसा हुआ। माक्र्स ने भी कहा था कि यह परिवर्तन का दर्शन है। हमें इस तरफ भी सोचना होगा।

लेकिन आज आन्दोलन की हर धारा इस पर विचार कर रही है और नेपाल में माओवादियों का प्रयोग आपके सामने है ?

हां,वहां कुछ बातें अच्छी हैं। आजकल के जमाने में कई लोग माओवादियों को वामपंथ विरोधी मानते हैं। ऐसा करने वालों में वामपंथी भी शामिल हैं। हालांकि नेपाल में मोओवादियों ने अच्छा उदाहरण पेश किया है।

आपको नहीं लगता कि ’गर्म हवा’ जैसी फिल्में एक विशेष वर्ग में सिमट कर रह जाती हैं?

जैसे साहित्य में घटिया साहित्य ज्यादा छपता और पढ़ा जाता है,उसी तरह फिल्मों में भी है। मल्टीप्लेक्स में वेलकम जैसी फिल्म देखने वाले ऐसी फिल्में नहीं देख सकते। फिल्म देखना भी एक कला है जिसके लिए आंखें होनी चाहिए। इसकी ट्रेनिंग  शुरू से ही लोगों को दी जानी चाहिए।

समानान्तर सिनेमा के सामने आज कौन सी चुनौतियां हैं ?

फिल्म बनाना एक महंगा काम है और इसके लिए प्रायोजक कीजरूरत होती है। जैसे लगान की चर्चा आस्कर नामांकन में जाने की वजह से भी बहुत हुई लेकिन इसकी टीम ने फिल्म को वहां प्रदर्शित करने में करोड़ों रूपये फूंक दिये जिसमें नई फिल्म बन सकती थी।

मजे की बात यह है कि लगान के पास आस्कर में नामांकन का वही सर्टिफिकेट है जो ’गर्म हवा’ को आज से 30-35 साल पहले मिला था। यह फिल्म कान फिल्म फेस्टिबल में भी दिखाई गयी और तब आस्कर के चयनकर्ताओं ने इसे आस्कर समारोह में दिखाने को कहा। मैं सिर्फ पैसे की तंगी के चलते वहाँ नहीं जा सका। हां फिल्म मैंने जरूर भेज दी थी जिसका प्रमाण पत्र मेरे पास आज भी पड़ा है।

क्या पैसे की तंगी ने फिल्म बनने की प्रक्रिया में भी बाधा डाली ?

फिल्में सिर्फ पैसे से नहीं पैशन से भी बनती हैं, लेकिन पैसा भी चाहिए। उस जमाने में 2.50 लाख निगेटिव बनने में लगा। हमारे पास साउण्ड रिकार्डिंग के भी पैसे नहीं थे। हम लोग आगरा और सीकरी में शूटिंग कर रहे थे। साउण्ड रिकार्डिंग का सामान बम्बई से आता था और उसके साथ एक आदमी थी।

इसका 150 रू0 प्रतिदिन का खर्च था और हमारे पास इतने भी नहीं थे अन्नतः सारी शूटिंग बिना साउण्ड रिकार्डिंग के ही हुई। फिल्म बाद में बम्बई जा कर डब की गयी। तकरीबन 9 लाख कुल खर्चा आया पूरी फिल्म तैयार होने में। कई कलाकारों को मैं उनका मेहनताना भी नहीं दे सका। मेरे ऊपर बहुत सा कर्जा हो गया और नौ साल लगे इससे उबरने में।

इसके अलावा और क्या-क्या समस्याएं आयीं ?

रिलीज के लिए सेंसर सर्टीफिकेट नहीं मिला एक साल की जद्दोजहद के बाद इन्दिरा जी ने खुद पूरी फिल्म देखीं और कहा रिलीज कर दो,लेकिन यूपी में नहीं (मुस्कुराते हैं)। वहां चुनाव होने वाले थे। इस तरह की तैयार फिल्म 74 में सबसे पहले बंगलौर में रिलीज हो सकी।

आज रंगमंच में भी काफी सक्रिय रहे फिल्म और रंगमंच में आप मुख्यतः क्या अन्तर पाते हैं ?
अपनी बात कहने की दो अलग-अलग विधाएं हैं। कैमरे की वजह से काफी सहूलियत हो जाती है लेकिन रंगमंच एक संस्कार है। यहां कलाकार और दर्शक का तादात्म्य स्थापित होता है। यह विधा बहुत पुरानी है और कभी नहीं मरेगी।

आपकी दूसरी फिल्मों को ’गर्म हवा’ जितनी चर्चा नहीं मिली ?

’गर्म हवा’ जैसी फिल्में कोई रोज नहीं बना सकता। ऐसी फिल्में बस बन जाती हैं कभी-कभी। पाथेर पांचाली, सुवर्ण रेखा जैसी फिल्में हमेशा नहीं बन सकतीं।



Mar 21, 2011

एक आदमी के 'फिल्म' बनने की कथा


अमिताभ बच्चन को देखकर अभिनेता बनने का स्वप्न देखने वाले शिवा की जिंदगी  एक दुःस्वप्न तक पहुंच गयी। अब वह क़र्ज और जिम्मेदारियों  से लदी हुई एक विचित्र फ़िल्मी  पटकथा जीने को मजबूर है...


अजय प्रकाश

वह एक ऐसा अभिनेता है जिसे हर पल सूदखोरों के हाथों बेइज्जत होने का डर सताता रहता है। उसे बैंककर्मियों से भी खतरा है, जो कर्ज के बदले कभी भी उसके घर की कुर्की कर सकते हैं। प़डोस के राशन दुकानदार से भी डर है जो सुबह-शाम बिना नागा बकाये की वसूली के लिए ‘शिवा-शिवा’ चिल्लाता रहता है। देवरिया जिले केरुद्रपुर कस्बे के शिवा की यह दास्तान किसी फिल्म सरीखी लगती है लेकिन यह फिल्मी पटकथा नहीं, उसकी रोज-रोज की जिंदगी है जिसे वह अपने पांच बच्चों और पत्नी के साथ पिछले कई वर्षों से निभा रहा है।


शिव शर्मा : एक  सपना जो बर्बादी तक ले आया  
 ऐसा नहीं है कि शिवा में काबिलियत नहीं रही। इसी के दम पर उसे चार भोजपुरी फिल्मों में काम करने का मौका मिला था और उसने मुंबई से लेकर देवरिया तक सैक़डों सफल स्टेज शो भी किये थे। हाल ही में गोरखपुर में भोजपुरी के एक समाचार चैनल ने कॉमेडियन का ऑडिशन लिया जिसमें शिवा पहले स्थान पर रहा। मगर शिवा को सूचित नहीं किया गया। अब शिवा ने चैनल के खिलाफ इस उम्मीद में मुकदमा किया है कि शायद सुनवाई इस तरह हो सके।

मुंबई के शांताराम थियेटर से हुई ठगी की शुरुआत से लेकर भोजपुरी फिल्मों में मिले रोल तक शिवा ने एक के बाद एक इतने झटके खाये कि उसके जीवन यापन का जरिया आज भी बाल काटना ही बना हुआ है,जिसे कभी उसने अभिनेता बनने की सी़ढी के तौर पर शुरू किया था। फिलहाल वह 6.50लाख रुपये का कर्जदार है। यह कर्ज उसके सिनेमाई सपने की देन है,जिसकी उम्मीद उसने अब भी नहीं छो़डी है।

शिवा के कलाकार बनने की कहानी 1980में कानपुर से शुरू हुई। उस समय तक नयी आर्थिक नीतियों का भारत पर असर नहीं था और कानपुर उŸार भारत के सबसे ब़डे औद्योगिक शहर के सम्मान को जी रहा था। शिवा का बचपन कानपुर के शिवाला में गुजरा, जहां उनके पिता फजलगंज के लक्ष्मी कॉटन मिल्स में मजदूरी करते थे। शिवा बताते हैं, ‘मेरे पिता के पास हमें गाइड करने का वक्त ही नहीं था।’

शिवाला की गलियों में शिवा को घूमने और सिनेमा देखने का चस्का लगा। धीरे-धीरे सिनेमाहाल ही घर और अमिताभ बच्चन रोल मॉडल लगने लगे। शिवा कहते हैं,‘अमिताभ की फिल्मों में गरीब घरों की कहानियां, उनका संघर्ष, पुरबिया जुबान और इन सबके खिलाफ अमिताभ का विद्रोही तेवर मुझे उनका दीवाना बनाते गये। अमिताभ जी की ‘दीवार’फिल्म ने मुझमें इतना साहस भर दिया कि मैं खुद को अभिनेता के रूप में ढालने लगा।’

इस फेर में शिवा ने एकाध बार पिता की जेब से पैसे चुराकर फिल्में देखीं। घर से पैसा बंद हुआ तो कबा़ड और लोहा-लक्क़ड चुना और फिर पहलवान साबुन फैक्ट्री में काम किया। शिवा ब़डा हुआ तो अमिताभ बच्चन की ही तरह के कप़डे पहनने लगा। दोस्त के सुझाव पर शिवा अभिनेता बनने मुंबई पहुंचा। इधर-उधर भटकने के दौरान एक सैलून में काम मिला। काम के बदले खाना और सोने के लिए दुकान के पायदान वाली जगह मिलने लगी।

शिवा बताते हैं,‘दुकान बंद होने के बाद मैं वहीं अखबार बिछा कर सो जाता और दुकान की सफाई कर मैं दूसरे काम पर भी निकल जाता,जिससे कुछ कमाई हो जाती। हफ्ते भर की कमाई को मैं छुट्टी के दिन मंगलवार को अमिताभ के घर के सामने इंतजार में खर्च कर देता। आखिरकार छह साल बाद एक दिन अमिताभ के दर्शन हुए। अमिताभ को देख कर मुझे आभास हुआ मानो मेरे अंदर परमात्मा समाहित हो रहा हो।’

इस दौरान शिवा की जिंदगी में एक दूसरी कहानी कलाकार बनने की भी चलती रही। ‘शांताराम ग्रुप के कारण मैं बतौर कलाकार उभरा। इससे लोग यह मानने और चर्चा करने लगे कि शिवा की मिमिक्री, डांस और कॉमेडी का कोई जोर नहीं है। ‘दीवार’ फिल्म का वह डायलॉग ‘खुश तो तुम बहुत होगे’ लोग मुझसे हर स्टेज शो में आज भी सुनते हैं। इसके अलावा मैं प्राण, नाना पाटेकर, जगदीप, महमूद, मिथुन चक्रवर्ती और न जाने कितने ही कलाकारों की आवाज निकालता था।’

इसके बाद शिवा की पहचान बनी और इसी के साथ ठगे जाने का सिलसिला भी शुरु हुआ। मुंबई में काका इंटरनेशल के बैनर तले बन रही फिल्म ‘न घर का न घाट का’शिवा की पहली फिल्म थी। काम के बदले उससे 1990में पांच हजार रुपये लिये गये,लेकिन पैसा लेने वाले लोग भाग गये। शिवा के मुताबिक, ‘यह मेरी सालभर की कमाई थी जो मुझे बाल काटने के एवज में मिली थी।’


शिवा शर्मा का परिवार : सपना अभी बाकि है
 फिर शिवा ने पैसे जो़डने के लिए फोटो सेशन, मेकअप और स्ट्रगलर कलाकारों के एलबम बनाने का काम शुरू किया। तभी एक बार फिर उसकी जिंदगी में कानपुर लौट आया। ह़डताल के कारण पिता की कमाई बंद हो गयी तो परिवार पालने की जिम्मेदारी शिवा पर आ प़डी। वह इस प्रयास में लगा ही था कि कुछ महीनों में उसके पिता की मौत हो गयी।

शिवा बताते हैं,‘निधन से पहले पिताजी मेरी शादी कर गये थे,लेकिन गौना उनकी मृत्यु के बाद हुआ। पत्नी के आने के बाद ब़ढे खर्च से निपटने के लिए मैंने बाल आदि काटने के हुनर का इस्तेमाल किया और एक ब़डी दुकान खोल दी। दुकान चल प़डी और मैं कमाई का बचा हिस्सा लेकर मुंबई के प्रोड्यूसरों और निर्देशकों के पीछे भागता रहा। सैलून में मेरी उपस्थिति कम होने के कारण कारीगरों ने मनमानी शुरू की और दुकान का वह जलवा नहीं रहा।

अभिनेता और अच्छी कमाई के नाम पर कर्जदार भी बहुत मिले और सूदखोरों ने खुले हाथ से कर्ज दिये। मुंबई में बैठे भोजपुरी फिल्म निर्देशकों और निर्माताओं ने रोल देने और अच्छा पैसे देने के लालच में रुद्रपुर तहसील के आसपास के गांवों में सेट की जिम्मेदारी थमा दी। मुझे याद है कि ‘तुलसी’ फिल्म की साइट के इंतजाम में लाखों रुपये खर्च हुए और आज तक मेहनताने में मात्र 16 रुपये मिले। ‘तुलसी’ में मैंने बतौर अभिनेता काम भी किया।’

इसके बाद शिवा को भोजपुरी की दो और फिल्मों ‘हमार रजउ दरोगा नंबर वन,’‘पिया तोहसे नैना लागे’ में काम मिला और निर्मल पांडे, मोहन जोशी जैसे मंजे हुए कलाकारों के साथ काम करने का मौका भी। मगर आमदनी फूटी कौ़डी नहीं। सिनेमा के पर्दे पर देखने वालों को लगता कि शिवा अब ऊंची चीज हो गया है, पर असलियत तो वही जानता था कि कैसे ऋण लेकर घी पी रहा है।

बाद में उसे पूर्वांचल क्षेत्र में मनोज तिवारी,राधेश्याम रसिया,तरुण तूफानी और गुड्डू रंगीला जैसे भोजपुरी फिल्मों के नामचीन कलाकारों के शो में एंकरिंग और डांस का मौका मिलने लगा। इसके बावजूद शिवा ने किसी से अपनी बदहाल स्थिति की चर्चा नहीं की। शिवा कहते हैं,‘मैं सोचता था, अगर लोगों को यह बात पता चल जायेगी तो मुझे काम नहीं मिलेगा और अभिनेता बनने का सपना धरा रह जायेगा।’

रुद्रपुर में गिरने को हो रहे पैतृक घर की ओर देखते हुए शिवा कहते हैं,‘आज मेरी हालत इस घर की तरह है जो कभी भी ढह सकता है, लेकिन आखिरी उम्मीद इसे भी अपनी नींव पर है और मुझे भी।’शिवा इस तंगहाली के बावजूद यह मानते हैं कि ‘मैं कलाकार हूं और मरने से पहले इसे मैं किसी कीमत पर नहीं छो़ड सकता।’ अच्छी बात यह है कि जिले के लोग आज भी उन्हें पूर्वांचल का ब़डा कलाकार मानते हैं।

'' द पब्लिक एजंडा'' से साभार


Mar 20, 2011

होली की हार्दिक शुभकामनाएं

रंगों के त्योहार होली पर पाठकों और लेखकों हार्दिक शुभकामनाएं. आइए इस अवसर पर हम दूसरों के जीवन में खुशियों के  रंग भरें और उनके चेहरे पर मुस्कान लाएं.

जनज्वार टीम

Mar 19, 2011

भूमिका में स्त्री




रामजी यादव


मैंने बचपन से देखा है बस यही

उछाह में भर कर गाने लगना

जैसे चलाना हो कुआं खोदने के लिए पहला फावड़ा

और हुलास से भर देना सारे वातावरण को



मैं जब भी ध्यान करता हूं सिहरने लगता हूं

सुध खोकर रोना पूरे राग में

जिंदगी के गद्य को कविता में बदलते हुए

ढेरों-ढेरों कहावतों, मुहावरों और निष्कर्षों से

एकाग्र कर देना सारे सत्य और विगलित यथार्थ को

मेरी मां की यही दो विशेषतायें हैं



मां की भूमिका इन्हीं दो महाबंधों के बीच

चलती रही उम्रभर

थोड़ी सी जिद रही जीने की थोड़ी सी उम्मीद

कि मनाया जायेगा उसे नाराज होने पर



वह उस वर्ग की है जो अपनी भूमिका को ही

मान चुका है अपनी हैसियत

और हैसियत से हिलता नहीं जौ भर



गोबर उठाना, पाथना

उसिन देना भात और बटलोई में दाल चढ़ा देना

चुटकी भर हल्दी और नमक के साथ

मिला देना अपनी ऊब विषण्णता और थकान भी उसमें

न कुछ सूझे तो गाली देना स्त्रियोचित

और हार कर रोने लगना सचमुच

जिसकी तस्दीक सिर्फ आंसू करते हैं

पोछती जाती है जिन्हें बार-बार पल्लू से



जब दुलहिन थी मां

पकाया करती थी ससुराल में जौ की रोटी

खेसारी की दाल

उबालकर दाल रख देती थी दौरी से तोपकर



मैं नहीं हुआ होऊंगा तब तक

दिन बिताया होगा मां ने कोठार, कछरों, घड़ों और गगरियों

से परिचित होने में

और जैसे-जैसे जानती गयी होगी ससुराल में

जौ और खेसारी की उपज

तो कैसे हुई होगी दुखी

और कितना कोसा होगा अपनी किस्मत को?



उन दिनों गेहूं नहीं बोया जाता था हमारे खेतों में

थोड़ा-बहुत बदल लिया जाता था जब कभी मेहमान आते

वे आते ही मेह की तरह बिना बताये

और उसी तेजी से मां बैठ जाती जांत पर बुआ के साथ

फटाक से पीस लेती सेर-दो सेर पिसान



फिर पूरे मन से बनाती उजली-उजली रोटियां

कि देखते ही एक और खाने का मन करे किसी का भी



बताया था उसने एक बार

चुपके से रख ली दो रोटी अलग से

फिर लग गयी रसोई में



पता नहीं किसके आदेश पर कि जो कहता रहा भौंरे की तरह

भन्नाते हुए कि

जे गिहथिन खाती है चुपके से रोटी बिना बताये और

लिये आदेश मालिक से

उसके सात पुरखे हो जाते हैं कुपित

और खंडहर हो जाता है एक दिन उसका घर



रख दिया दोनों रोटियां उस दुलहिन ने वापस कठवत में

और समझती रही पता नहीं कब तक अपराधिनी स्वयं को



कि बचाया जिस स्त्री ने दो रोटियों को

अपनी विराट इच्छाओं की उफनती नदी में बह जाने से

और बचा लिया इस तरह एक परिवान को विपन्न होने से



जो लाखों-लाख स्त्रियां हैं ऐसी ही

और जो बचे हुए हैं परिवार के परिवार

जो गांव के गांव बनते हुए उगाते हुए गेहूं और उम्दा चावल

भेज रहे हैं ‘ाहरों को बड़ी आबादी खटने के लिए



अफसर ने कम्प्यूटर आपरेटर और हम्माल

राजमिस्त्री, अढ़िया ढोते मजदूर, कवि और चैकीदार

अध्यापक और नेता जो चलाते हैं यह राजसत्ता

जो भूल चुकी है श्रम का अर्थ

एकमुश्त सिखाती है चोरी और दमन

और झूठ बोलने के हजारों हजार तरीके



उस स्त्री की भूमिका का क्या है महत्व?

उन स्त्रियों को कैसे देखेंगे आप जो

धज में भले हों अलग लेकिन मन का एक

विराट आकाश है बिना देखा गया?





साहित्य की सभी विधाओं में दखल . देश में चल रहे संघर्षों और संघर्षशील  जनों के विमर्श को साहित्य के केंद्र में लाने  के पक्षधर. उनसे  yadav.exploremedia@gmail.com   पर संपर्क किया जा सकता है.