Mar 21, 2011

एक आदमी के 'फिल्म' बनने की कथा


अमिताभ बच्चन को देखकर अभिनेता बनने का स्वप्न देखने वाले शिवा की जिंदगी  एक दुःस्वप्न तक पहुंच गयी। अब वह क़र्ज और जिम्मेदारियों  से लदी हुई एक विचित्र फ़िल्मी  पटकथा जीने को मजबूर है...


अजय प्रकाश

वह एक ऐसा अभिनेता है जिसे हर पल सूदखोरों के हाथों बेइज्जत होने का डर सताता रहता है। उसे बैंककर्मियों से भी खतरा है, जो कर्ज के बदले कभी भी उसके घर की कुर्की कर सकते हैं। प़डोस के राशन दुकानदार से भी डर है जो सुबह-शाम बिना नागा बकाये की वसूली के लिए ‘शिवा-शिवा’ चिल्लाता रहता है। देवरिया जिले केरुद्रपुर कस्बे के शिवा की यह दास्तान किसी फिल्म सरीखी लगती है लेकिन यह फिल्मी पटकथा नहीं, उसकी रोज-रोज की जिंदगी है जिसे वह अपने पांच बच्चों और पत्नी के साथ पिछले कई वर्षों से निभा रहा है।


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 ऐसा नहीं है कि शिवा में काबिलियत नहीं रही। इसी के दम पर उसे चार भोजपुरी फिल्मों में काम करने का मौका मिला था और उसने मुंबई से लेकर देवरिया तक सैक़डों सफल स्टेज शो भी किये थे। हाल ही में गोरखपुर में भोजपुरी के एक समाचार चैनल ने कॉमेडियन का ऑडिशन लिया जिसमें शिवा पहले स्थान पर रहा। मगर शिवा को सूचित नहीं किया गया। अब शिवा ने चैनल के खिलाफ इस उम्मीद में मुकदमा किया है कि शायद सुनवाई इस तरह हो सके।

मुंबई के शांताराम थियेटर से हुई ठगी की शुरुआत से लेकर भोजपुरी फिल्मों में मिले रोल तक शिवा ने एक के बाद एक इतने झटके खाये कि उसके जीवन यापन का जरिया आज भी बाल काटना ही बना हुआ है,जिसे कभी उसने अभिनेता बनने की सी़ढी के तौर पर शुरू किया था। फिलहाल वह 6.50लाख रुपये का कर्जदार है। यह कर्ज उसके सिनेमाई सपने की देन है,जिसकी उम्मीद उसने अब भी नहीं छो़डी है।

शिवा के कलाकार बनने की कहानी 1980में कानपुर से शुरू हुई। उस समय तक नयी आर्थिक नीतियों का भारत पर असर नहीं था और कानपुर उŸार भारत के सबसे ब़डे औद्योगिक शहर के सम्मान को जी रहा था। शिवा का बचपन कानपुर के शिवाला में गुजरा, जहां उनके पिता फजलगंज के लक्ष्मी कॉटन मिल्स में मजदूरी करते थे। शिवा बताते हैं, ‘मेरे पिता के पास हमें गाइड करने का वक्त ही नहीं था।’

शिवाला की गलियों में शिवा को घूमने और सिनेमा देखने का चस्का लगा। धीरे-धीरे सिनेमाहाल ही घर और अमिताभ बच्चन रोल मॉडल लगने लगे। शिवा कहते हैं,‘अमिताभ की फिल्मों में गरीब घरों की कहानियां, उनका संघर्ष, पुरबिया जुबान और इन सबके खिलाफ अमिताभ का विद्रोही तेवर मुझे उनका दीवाना बनाते गये। अमिताभ जी की ‘दीवार’फिल्म ने मुझमें इतना साहस भर दिया कि मैं खुद को अभिनेता के रूप में ढालने लगा।’

इस फेर में शिवा ने एकाध बार पिता की जेब से पैसे चुराकर फिल्में देखीं। घर से पैसा बंद हुआ तो कबा़ड और लोहा-लक्क़ड चुना और फिर पहलवान साबुन फैक्ट्री में काम किया। शिवा ब़डा हुआ तो अमिताभ बच्चन की ही तरह के कप़डे पहनने लगा। दोस्त के सुझाव पर शिवा अभिनेता बनने मुंबई पहुंचा। इधर-उधर भटकने के दौरान एक सैलून में काम मिला। काम के बदले खाना और सोने के लिए दुकान के पायदान वाली जगह मिलने लगी।

शिवा बताते हैं,‘दुकान बंद होने के बाद मैं वहीं अखबार बिछा कर सो जाता और दुकान की सफाई कर मैं दूसरे काम पर भी निकल जाता,जिससे कुछ कमाई हो जाती। हफ्ते भर की कमाई को मैं छुट्टी के दिन मंगलवार को अमिताभ के घर के सामने इंतजार में खर्च कर देता। आखिरकार छह साल बाद एक दिन अमिताभ के दर्शन हुए। अमिताभ को देख कर मुझे आभास हुआ मानो मेरे अंदर परमात्मा समाहित हो रहा हो।’

इस दौरान शिवा की जिंदगी में एक दूसरी कहानी कलाकार बनने की भी चलती रही। ‘शांताराम ग्रुप के कारण मैं बतौर कलाकार उभरा। इससे लोग यह मानने और चर्चा करने लगे कि शिवा की मिमिक्री, डांस और कॉमेडी का कोई जोर नहीं है। ‘दीवार’ फिल्म का वह डायलॉग ‘खुश तो तुम बहुत होगे’ लोग मुझसे हर स्टेज शो में आज भी सुनते हैं। इसके अलावा मैं प्राण, नाना पाटेकर, जगदीप, महमूद, मिथुन चक्रवर्ती और न जाने कितने ही कलाकारों की आवाज निकालता था।’

इसके बाद शिवा की पहचान बनी और इसी के साथ ठगे जाने का सिलसिला भी शुरु हुआ। मुंबई में काका इंटरनेशल के बैनर तले बन रही फिल्म ‘न घर का न घाट का’शिवा की पहली फिल्म थी। काम के बदले उससे 1990में पांच हजार रुपये लिये गये,लेकिन पैसा लेने वाले लोग भाग गये। शिवा के मुताबिक, ‘यह मेरी सालभर की कमाई थी जो मुझे बाल काटने के एवज में मिली थी।’


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 फिर शिवा ने पैसे जो़डने के लिए फोटो सेशन, मेकअप और स्ट्रगलर कलाकारों के एलबम बनाने का काम शुरू किया। तभी एक बार फिर उसकी जिंदगी में कानपुर लौट आया। ह़डताल के कारण पिता की कमाई बंद हो गयी तो परिवार पालने की जिम्मेदारी शिवा पर आ प़डी। वह इस प्रयास में लगा ही था कि कुछ महीनों में उसके पिता की मौत हो गयी।

शिवा बताते हैं,‘निधन से पहले पिताजी मेरी शादी कर गये थे,लेकिन गौना उनकी मृत्यु के बाद हुआ। पत्नी के आने के बाद ब़ढे खर्च से निपटने के लिए मैंने बाल आदि काटने के हुनर का इस्तेमाल किया और एक ब़डी दुकान खोल दी। दुकान चल प़डी और मैं कमाई का बचा हिस्सा लेकर मुंबई के प्रोड्यूसरों और निर्देशकों के पीछे भागता रहा। सैलून में मेरी उपस्थिति कम होने के कारण कारीगरों ने मनमानी शुरू की और दुकान का वह जलवा नहीं रहा।

अभिनेता और अच्छी कमाई के नाम पर कर्जदार भी बहुत मिले और सूदखोरों ने खुले हाथ से कर्ज दिये। मुंबई में बैठे भोजपुरी फिल्म निर्देशकों और निर्माताओं ने रोल देने और अच्छा पैसे देने के लालच में रुद्रपुर तहसील के आसपास के गांवों में सेट की जिम्मेदारी थमा दी। मुझे याद है कि ‘तुलसी’ फिल्म की साइट के इंतजाम में लाखों रुपये खर्च हुए और आज तक मेहनताने में मात्र 16 रुपये मिले। ‘तुलसी’ में मैंने बतौर अभिनेता काम भी किया।’

इसके बाद शिवा को भोजपुरी की दो और फिल्मों ‘हमार रजउ दरोगा नंबर वन,’‘पिया तोहसे नैना लागे’ में काम मिला और निर्मल पांडे, मोहन जोशी जैसे मंजे हुए कलाकारों के साथ काम करने का मौका भी। मगर आमदनी फूटी कौ़डी नहीं। सिनेमा के पर्दे पर देखने वालों को लगता कि शिवा अब ऊंची चीज हो गया है, पर असलियत तो वही जानता था कि कैसे ऋण लेकर घी पी रहा है।

बाद में उसे पूर्वांचल क्षेत्र में मनोज तिवारी,राधेश्याम रसिया,तरुण तूफानी और गुड्डू रंगीला जैसे भोजपुरी फिल्मों के नामचीन कलाकारों के शो में एंकरिंग और डांस का मौका मिलने लगा। इसके बावजूद शिवा ने किसी से अपनी बदहाल स्थिति की चर्चा नहीं की। शिवा कहते हैं,‘मैं सोचता था, अगर लोगों को यह बात पता चल जायेगी तो मुझे काम नहीं मिलेगा और अभिनेता बनने का सपना धरा रह जायेगा।’

रुद्रपुर में गिरने को हो रहे पैतृक घर की ओर देखते हुए शिवा कहते हैं,‘आज मेरी हालत इस घर की तरह है जो कभी भी ढह सकता है, लेकिन आखिरी उम्मीद इसे भी अपनी नींव पर है और मुझे भी।’शिवा इस तंगहाली के बावजूद यह मानते हैं कि ‘मैं कलाकार हूं और मरने से पहले इसे मैं किसी कीमत पर नहीं छो़ड सकता।’ अच्छी बात यह है कि जिले के लोग आज भी उन्हें पूर्वांचल का ब़डा कलाकार मानते हैं।

'' द पब्लिक एजंडा'' से साभार


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