Jan 19, 2010

शरद दत्त और मदन कश्यप को शमशेर सम्मान

लौट आ, ओ धार

लौट आ, ओ धार!
टूट मत ओ साँझ के पत्थर
हृदय पर।
(मैं समय की एक लंबी आह!
मौन लंबी आह!)
लौट आ, ओ फूल की पंखडी!
फिर
फूल में लग जा।
चूमता है धूल का फूल
कोई, हाय!!
- शमशेर बहादुर सिंह

इस वर्ष हिंदी साहित्य का प्रतिष्ठित ‘शमशेर सम्मान’ सृजनात्मक गद्य के लिए शरद दत्त को और कविता के लिए मदन कश्यप को दिया जायेगा। कवियों के कवि कहे जाने वाले शमशेर बहादुर सिंह की जयंती 13 जनवरी की पूर्व संध्या पर ‘अनवरत’ के संयोजक प्रतापराव कदम ने इस सम्मान की घोषणा की थी। खंडवा की संस्था ‘अनवरत’ द्वारा हर वर्ष ‘शमशेर सम्मान’ हिंदी साहित्यकारों को दिया जाता है।

शमशेर बहादुर सिंह की पुण्यतिथि के अवसर पर नई दिल्ली में यह सम्मान 12 मई 2010 को वरिष्ठ एवं महत्वपूर्ण रचनाकार के हाथों प्रदान किया जायेगा। इस अवसर पर सम्मानित रचनाकार के अवदान पर भी चर्चा होगी। सम्मानित रचनाकार को प्रशस्ति पत्र,सम्मान निधि,स्मृति चिन्ह,पोट्रेट दिया जायेगा है। इससे पहले यह सम्मान मंगलेश डबराल,विरेन डंगवाल, राजेशजोशी, विष्णु नागर , पंकज सिंह , उदय प्रकाश, विजय कुमार, लीलाधर मंडलोई आदि हिंदी के महत्वपूर्ण कवियों को मिल चुका है.

दिल्ली दूरदर्शन केंद्र के निदेशक और प्रोड्यूसर रहे शरद दत्त को वरिष्ठ साहित्यकारों व फिल्मी हस्तियों पर सारगर्भित और चर्चित वृत्त चित्र बनाने का श्रेय जाता है.उन्होंने पहली बार दूरदर्शन पर दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन के साक्षात्कार प्रस्तुत किये. कुन्दनलाल सहगल, रामविलास शर्मा , नागार्जुन, टी शिवशंकर पिल्लै, फैज अहमद फैज, शिवराम कारंत, न्यू थियेटर्स आदि पर बनाये गए उनके वृत्त चित्र खूब सराहे गए. सआदत हसन मन्टो की सम्पूर्ण रचनाओं का सम्पादन भी किया है. हिन्दी अकादमी पुरस्कार,मीडिया अवार्ड नेशनल मीडिया अवार्ड,दो बार सिनेमा पर अपनी पुस्तकों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार नावाने गए शरद दत्त ने भारतीय सेना पर भी ५० से अधिक वृत्त चित्रों का निर्माण किया है ।

जन-आंदोलनों,राजनीति,पत्रकारिता व संस्कृति कर्म में सक्रिय कवि मदन कश्यप कई प्रतिष्ठित समाचार पत्र व पत्रिकाओं के संपादन से जुड़े रहे हैं। उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- लेकिन उदास है पृथ्वी, नीम रोशनी में, कुरुज और कवि ने कहा। उनके वैचारिक लेखों के दो संग्रह भी प्रकाशित हैं-मतभेद और लहूलुहान लोकतंत्र।उन्हें कविता के लिए बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान और किरण मंडल सम्मान मिल चुका है।

इस सम्मान का चयन वरिष्ठ रचनाकारों की एक समिति करती है। इस बार के की शमशेर सम्मान निर्णायक समिति के सदस्य विष्णु नागर, लीलाधर मंडलोई और कर्मेंदु शिशिर थे।

Jan 17, 2010

ज्योति बसु नहीं रहे

ज्योति बसु को श्रद्धांजलि

वरिष्ठ वयोवृद्ध मार्क्सवादी नेता ज्याति बसु की आज मौत हो गयी। ज्योति बसु भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के अग्रणी नेताओं में से एक थे, जिन्होंने पश्चिम  बंगाल में 23 वर्ष  तक लगातार मुख्यमंत्री रहकर संसदीय राजनीति में विशेष ख्याति पायी। पिछले एक हफ्ते से गंभीर रूप से बीमार चल रहे बसु की आज हुई मौत के बाद माकपा कार्यालयों में पार्टी का झंडा उनके सम्मान में झुका दिया गया है। बसु 96 वर्ष  के थे और कलकत्ता में रह रहे थे।

बसु के विरोधी हों या समर्थक उन्हें भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बाद सबसे बड़ा नेता मानते हैं। भारत में कम्युनिस्ट राजनीति को स्थापित करने वालों में से बसु एक रहे हैं। भारतीय राजनीतिक समाज नक्सलबाड़ी विद्रोह में उनकी भूमिका को और संसदीय राजनीति में माक्र्सवाद के अंगद के रूप में हमेशा  याद रखेगा। क्योंकि उनके कामों और व्यक्तित्व की तारीफ करें या आलोचना इन दोनों भूमिकाओं का जिक्र किये बगैर बात पूरी नहीं हो पायेगी।

जनज्वार अपने पाठकों, शुभचिंतकों  और चाहने वालों की ओर से

ज्याति बसु को श्रद्धांजलि अर्पित करता है.........

‘जब कभी भी लौटकर उन राहों से गुजरेंगे हम
जीत के ये गीत कई-कई बार फिर हम गायेंगे
भूल कैसे पायेंगे मिट्टी तुम्हारी साथियों
जर्रे-जर्रे में तुम्हारी ही समाधि पायेंगे।’

http://www.livehindustan.com/news/desh/national/39-39-91496.html

Jan 14, 2010

सरकारी नवटंकी है, महंगाई पर लाचारी- गुरुदास दास गुप्ता

आवश्यक वस्तुओं और खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों का मुखर और तार्किक विरोध संसदीय-गैरसंसदीय कम्युनिस्ट पार्टियां ही कर रही हैं। फरवरी में राष्ट्रव्यापी बंद की तैयारी में जुटी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ट्रेड यूनियन 'एटक'  के राष्ट्रीय महासचिव और सांसद गुरुदास दास गुप्ता से महंगाई के मसले पर अजय प्रकाश की बातचीत


मुद्रास्फीति लगातार घट रही है,लेकिन महंगाई तेजी से बढ़ती जा रही है। क्या कारण है?

मुद्रास्फीति के घटने और महंगाई के बढ़ने का कोई रिश्ता नहीं है। दोनों अलग-अलग चीजें हैं। मुद्रास्फीति घटेगी तो महंगाई भी घटेगी वाला तर्क लोगों को बहलाने वाला है। जो मीडिया इस मसले पर जनता को जागरूक कर सकता है,उसकी प्राथमिकता में महंगाई के मुकाबले स्टॉक मार्केट का उतार-चढ़ाव छाया रहता है।

खाद्य वस्तुओं के दामों में इजाफा होने से क्या किसानों का भी लाभ बढ़ा है?

बिल्कुल भी नहीं। महंगाई बढ़ने से सिर्फ राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों को फायदा हो रहा है। सरकार की जनविरोधी नीतियों के कारण किसानों की हालत यह हो गयी है कि मुनाफे की कौन कहे,उन्हें खेती की लागत नहीं मिल रही है। फसलों की कीमतों में जो वृध्दि हो रही है,उसका एक पैसा भी किसान के घर नहीं जा रहा है, बल्कि हर साल खाद, पानी, बीज और दवा की बढ़ती कीमतों को पूरा करना ही किसानों के बूते से बाहर हो गया है। हाल ही में केंद्र सरकार के उचित लाभकारी मुल्य के खिलाफ गन्ना किसानों को एमएसपी के लिए संघर्ष करना स्पष्ट करता है कि सरकार कैसे पूंजीपतियों के पक्ष में सरेआम कानून बना रही है।

पिछले कुछ वर्षों में महंगाई अभूतपूर्व ढंग से बढ़ी है,आपकी पार्टी इसके मुख्य कारण क्या मानती है?

मेरा अनुमान है कि 2004से महंगाई के बढ़ने का सिलसिला तेजी शुरू हुआ है। हम लोगों ने संसद में,सरकार के लोगों से मिलकर, सभाएं करके, लिखित-मौखिक हर तरह से सरकार को चेताया कि भूंमंडलीकरण के अंधी दौड़ में भारतीय अर्थव्यवस्था को न लपेटिए। लेकिन सरकार नहीं मानी। संसद में करोड़पति सांसदों को बटोरने वाली सरकारों को इसका आभास ही नहीं कि जनता महंगाई की चक्की में पिस रही है और वे मुक्त बाजार व्यवस्था के पक्ष में जयजयकार कर रहे हैं।
यह सरकारी नीतियों का कमाल है कि राशन प्रणाली को मुनाफाखोरी के लिए बर्बाद कर दिया गया। केंद्र को केरल सरकार से सीखना चाहिए कि किस तरह वहां की सरकार ने राशन प्रणाली को बेहतर तरीके से लागू कर महंगाई पर काबू पाया है। साथ ही वहां के गरीब और वंचित तबके अन्य राज्यों के मुकाबले महंगाई की मार कम झेल रहे हैं। औद्योगिक पूंजीपतियों की कठपुतली और और व्यापारिक घरानों के इशारों पर संचालित होने वाली सरकार की असलियत है कि उसकी आयात-निर्यात नीति भी देश की जरूरत से नहीं,बल्कि पूंजीपतियों के मुनाफे को ध्यान में रख तय की जाती है।

देश की बड़ी आबादी के पास दो वक्त का भोजन नहीं है। ऐसे में महंगाई मानव विकास की दर को कहां ले जायेगी?

इसकी चिंता किसको है। सत्ताधारी वर्ग चाहे वे राजनीतिज्ञ हों या समाज के समृध्द लोग, सभी को सेंसेक्स और रुपये की बढ़ती चमक के अलावा कुछ नहीं दिखता है। पिछले साठ वर्षों में यह पहली बार है कि मंदी और मुनाफे की दो विरोधाभासी अर्थव्यवस्थाएं एक साथ इतने तीखे ढंग से आमने-सामने हैं।

सरकार की इन जनविरोधी नीतियों के खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टियों की क्या तैयारी है?

पार्टी संसदीय दल के नेता होने के नाते मैंने संसद के शीतकालीन सत्र में महंगाई को काबू कर पाने में अक्षम मनमोहन सरकार से श्वेत पत्र जारी करने की मांग की थी। लेकिन उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। हर मोर्चे पर विफल यूपीए सरकार महंगाई कम करने में जो अक्षमता जाहिर कर रही है वह अपने आकाओं को खुश करने के लिए है। योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह आहुलवालिया,केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार,वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह महंगाई के सामने लाचारी का रोना रो रहे हैं। फिलहाल सरकार इस की नवटंकी के खिलाफ सीपीआइ के अलावा अन्य कम्युनिस्ट पार्टियां महंगाई के खिलाफ एक व्यापक जनांदोलन की तैयारी में लगी हुई हैं। फरवरी या मार्च में हम महंगाई के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी बंद की तैयारी में हैं।

Jan 3, 2010

नौ तरह की लीलाएं करने वाले 'नौछमी'

आंध्र प्रदेश के राज्यपाल पद से इस्तीफा देकर देहरादून पहुंचे उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की बुढौती सांसत में कट रही है. नगर-डगर, गाँव- बाज़ार हर जगह बाबा रंगीला के आन्ध्र प्रदेश राजभवन की चर्चा है जहाँ वे पिछले दिनों राज्यपाल रहते हुए एक साथ तीन महिलाओं के बीच पाए गए थे. यानी सेंडविच मसाज करा रहे थे.
बात मज़े कि है सो सब मज़ा ले रहे हैं...............कुछ दुखित हो लोकतंत्र- लोकतंत्र चिल्ला रहे हैं............मानो कि तिवारी ने इससे पहले इतना बड़ा अपराध ही नहीं किया.............
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहते हुए नारायण दत्त तिवारी ने क्या अपराध किये थे, इसका कच्चा चिठ्ठा प्रदेश के लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी ने पांच साल पहले ही अपने गीत के माध्यम से जनता के बीच सरेआम कर दिया था........लेकिन रास्ट्रीय स्तर पर ''नौछमी नारैणा', नामक यह एल्बम चर्चा में तब आया है जब आन्ध्र प्रदेश में तिवारी बाबा ८६ साल की उम्र में कैमरे के सामने रासलीला में लीन पाए गए.

नौछमी नारैणा के गायक नरेन्द्र सिंह नेगी से वरिष्ट युवा पत्रकार विकास कुमार सिंह की बातचीत...........


पांच साल पहले रिलीज एलबम 'नौछमी नारैणा', आंध्र के पूर्व राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी सेक्स कांड के बाद फिर से चर्चा में है, आखिर इस कैसेट में ऐसा क्या है?

यह नारायण दत्त तिवारी के राजनीतिक लीलाओं पर आधारित है।

नौछमी का मतलब क्या है?
नौ किस्म के खेल करने वाले या नौ तरह की लीलाएं करने वाले को नौछमी कहते हैं। भगवान श्रीकृश्ण को नौछमी नारैणा भी कहा जाता है।

यह एलबम पहले उत्तराखण्ड में हिट था और अब पूरे हिंदीभाशी प्रदेषों में, इससे आपको भी कोई आर्थिक लाभ हुआ है?

यह हिट है या नहीं, यह तो एलबम बनाने वाली कंपनी ही बता सकती है। मेरे पास न तो कोई इसका कोई आंकड़ा है और न ही लाभ का हिसाब।

यह एलबम किस कंपनी ने बनाया है?

राणा कैसेट्स नामक कंपनी ने। अब उस कंपनी से मेरा कोई नाता भी नहीं है।

आपने अपने गीत में नारायण दत्त तिवारी के बारे में क्या कुछ कहा है?

मैंने जो कुछ भी कहा है वह अखबारों और पत्रिकाओं में छपता रहा है। हाल के प्रकरण से यह और भी जाहिर हो गया है। हमने कुछ नया नहीं किया है।

जब षुरुआत में नौछमी नारैणा एलबम रिलीज हुआ था तो कैसा रिस्पांस मिला था?

कांग्रेस के कुछ लोगों ने प्रतिबंध लगा दिया था, जबकि कई कांग्रेसी इसे छुप-छुपकर देखते भी थे। लेकिन उत्ताराखण्ड के लोगों ने इसे खूब पसंद किया।

ऐसे एलबम बनाने की प्रेरणा कैसे मिली?

प्रेरणा जैसी कोई चीज नहीं है। यह प्रसंग तो उत्ताराखण्ड के अखबारों में छपता रहा था और मैंने उसी को आधार बनाया।


क्या आप कभी नारायण दत्त तिवारी से मिले हैं?

हां, एक बार मैं उनसे मिला हूं। उन्होंने मुझे चाय पर बुलाया था।

उनसे क्या बातचीत हुई?

उनसे कोई बातचीत नहीं हुई। वे उस दिन अपने भक्तजनों को सत्ता की रेवड़ियां बांटने में मषगूल रहे। फिर मैं लौट आया।

आपने तिवारी जी को ही क्यों टारगेट किया?

व्यापक जनसमुदाय से जिन मुद्दों का जुड़ाव होता है मैं उन्हें टारगेट करता हूं। इस दायरे में कभी तिवारी जी होते हैं तो कभी कोई और। मैंने कांग्रेस, भाजपा और अन्य दलों की कारगुजारियों पर पर भी गीत तैयार किये हैं।

जब आपके एलबम की चर्चा हो रही है तो कैसा लग रहा है?

यह मुझे पता नहीं चल रहा, कैसेट कंपनी वाले बेहतर बता सकते हैं।

Dec 28, 2009

भारत पिछड़ा हुआ अमेरिका बन चुका है

समाजशास्त्री आशीष नंदी से अजय प्रकाश  की  बातचीत

पिछले दिनों आपने लिखा था कि हमारी त्रासदी है कि हम दुख की भाषा भूल गये हैं, क्या समाज एक सुख-भ्रांति में जी रहा है?

अंग्रेजी में एक कहावत है-'देयर इज नो फ्री लंच'। यानी सब कुछ में कुछ कीमत भरनी होती है। हमारी सामाजिक स्थिति भी ऐसी ही हो चुकी है। यह जो आधुनिकता,तेज आर्थिक विकास,बडे शहरों का तेजी से विस्तार,उपभोक्ता वस्तुओं की भरमार और बेहिसाब बढ़ते करोड़पतियों के बीच हमने जो कुछ खोया है,उसका कोई अफसोस हमारे समाज में नहीं दिख रहा है। प्रगति की चाहत में हम लगातार बेसुध होकर दौड़ रहे हैं, लेकिन कहां दौड़ रहे हैं, दौड़ने में किन चीजों को पीछे छोड़ दिये हैं, कौन लोग राह में रह गये हैं, इसे न देखते हैं और न ही उसके बारे में सोचना चाहते हैं। इसलिए कि उसका दुख या शोक हम अपने पर नहीं लेना चाहते। यह कुछ नयी परिघटना है।


किस रूप में नयी परिघटना है?

जैसे यूरोप आदि के देशों में जब आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण हुआ था तो वहां हर देश कई ख्यातिप्राप्त चिंतक, अर्थशास्त्री, कवि, दार्शनिक कलाकार पैदा हुए। कविता में विलियम ब्लैक, आलोचना में रस्किन, इतिहास में कॉर्ल पलानी, आधुनिकता के पिता कहे जाने वाले कॉर्ल वेबर जैसे विद्वानों की उन देशों में एक लंबी परंपरा रही है। मगर यह परंपरा और ऐसी पीढ़ी हिंदुस्तान में दिख नहीं रही। इसके उलट हम पिछले दौ सौ साल से यह सुन रहे हैं कि हमें यूरोप जैसा बनना पड़ेगा,हम यूरोप जैसा नहीं बन पा रहे हैं इसलिए वे लोग हम पर राज करते आ रहे हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में हम पीछे क्या खो रहे हैं,इसके बारे में हिंदुस्तानी समाज में कोई संवेदनशीलता नहीं दिख रही है।

तो हमारा समाज किस दिशा में आगे बढ़ रहा है?

सब कुछ बुरा ही नहीं हुआ है। बल्कि आजादी के बाद जिन बदलावों के बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे,वे भी हमारे समाज में ही घटित हुए। कोई नहीं सोच सकता था कि हिंदुस्तान में एक दलित महिला मुख्यमंत्री बनेगी,वह भी उत्तर प'देश जैसे राज्य में। पूरे देश के पैमाने पर देखा जाये तो मुख्यमंत्रियों में बहुसंख्यक पिछड़ी जातियों से हैं। इसे मैं भारतीय समाज में एक बड़े बदलाव के रूप देखता हूं।

लेकिन इसी के साथ सामाजिक विभाजन भी बढ़ा है?

ऐसा इसलिए हुआ है कि हमारे यहां लोकतंत्र के वास्तविक मूल्यों को मानने वाले कम और ढोंग या पाखंड करने वाले ज्यादा हैं। अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहकर पीठ थपथपाने वाले नेताओं का बड़ा सच यह है कि वोट के लोकतंत्र का इस्तेमाल वे जातीय विभाजन को बढ़ाने में कर रहे हैं। कई मामले में ऐसा हुआ है कि जहां जातीय फासले नहीं थे,वहां भी माहौल बना दिया गया। राजस्थान के गुर्जर आंदोलन को देखिए तो बाकायदा उनके नेता कहते हैं कि वे चूंकि कबीलों में विश्वास करते हैं और पिछड़े हुए हैं इसलिए उन्हें आदिवासी का दर्जा दिया जाये। ऐसी मांग मैंने पहले नहीं सुनी थी। मगर इसके समानांतर परीधि और हाशिये के जो लोग मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं,उससे हमारे समाज की सर्जनात्मकता व्यापक होगी।

संसद में लगभग चार सौ सांसद करोड़पति हैं, जिनमें से कुछ अरबपति भी हैं। इसके उलट मुल्क की ४० करोड़ से अधिक आबादी को भरपेट अन्न नहीं मिलता। इस अंतर्विरोध को आप कैसे देखते हैं?

ये आंकड़े हम सभी भारतीयों को शर्मिंदा करने वाले हैं। कुछ शर्मिंदा होते भी हैं लेकिन बहुतेरे लोग इसको भूलना चाहते हैं,ढंकना चाहते हैं। हमारे यहां एक तरफ राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियां चल रही हैं और दूसरी तरफ उतनी ही तेजी से झोपड़पट्टियों और गरीब बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है या पहले ही उजाड़ दिया गया है। मेरे लिए ये सब झकझोर देने वाली घटनाएं भी हैं। मैं सोचता हूं,यह कैसा देश है जहां दूसरों के स्वागत के लिए अपने लोगों को तबाह किया जा रहा है। न्यूयार्क, लंदन, शिकागो जैसी जगहों में भी स्लम हैं और हार्लेम तो दुनिया की मुख्य स्लम बस्तियों में से एक है। गौर करने वाली बात है कि अभी हाल ही में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का दफ्तर स्लम की तरफ बनाया गया है। लेकिन क्या हमारा कोई अदना-सा सांसद भी ऐसी किसी बस्ती की तरफ रहना पसंद करेगा।
जाहिर है, हमारा शासक वर्ग सिर्फ स्लम को ही नहीं ऐसी हर समस्या को, जिसको वह नहीं चाहता है,भुला देना चाहता है नहीं तो ढंक देना चाहता है। यह हिंदुस्तानी शासक वर्ग की कार्यशैली की सामान्य आदत है कि जिसे वह नहीं चाहता है, मुख्य सामाजिक दायरे से उठाकर फेंक देता है। दूसरी बात यह कि जिन मुद्दों या मुल्कों को हम नहीं पसंद करते, पहले तो हम उन पर बात ही नहीं करते,अगर बात करने को तैयार भी हुए तो उनका अध्ययन तो कत्तई नहीं करना चाहते। उदाहरण के तौर पर, अमेरिका में विजिटिंग कार्ड पर इस्लाम लिखकर कोई शोध का काम आप पा सकते हैं,लेकिन हिंदुस्तान के शिक्षा संस्थानों में पाकिस्तान के अध्ययन के लिए एक अच्छा विभाग नहीं है। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में इसके लिए एक छोटा-मोटा विभाग था,वह अब और भी खराब हो गया है। हमेशा चिल्लाते हैं कि हमें सबसे बड़ा खतरा पाकिस्तान से ही है,मगर अभी तक उस मुल्क के बारे में सिलसिलेवार और व्यापक अध्ययन का एक भी केंद्र भारत में नहीं है। सिर्फ इसलिए कि हम उसे नहीं चाहते। हमारी एक मान्यता बन गयी कि वह मुल्क खराब है इसलिए पाकिस्तान के बारे में जानने को क्या रह गया है!

समाज विज्ञानी होने के नाते आपकी दृष्टि में भारतीय मध्यवर्ग की क्या भूमिका होने वाली है?

हर देश के मध्यवर्ग से कुछ ऐसे लोग निकलते हैं जो इन विषम स्थितियों में नये विकल्प और संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। यह वर्ग दिग्दर्शन भले ही न करे, मगर समाज को संकेत देता है, कुछ सूत्र बताता है। लेकिन हमारे मध्यवर्ग की यह क्षमता कमजोर हुई है। इसका कारण मुझे मध्यवर्ग में शामिल हुए वे नये लोग लगते हैं जो लोकतंत्र में सफलता के किस्सों की तरह हैं। लोकतंत्र की अपनी विशेषताओं की वजह से हमारे यहां इस वर्ग का दायरा बड़ा हो गया है। पिछले 40-45वर्षों से मध्यवर्ग में नब्बे प्रतिशत से अधिक उंची जातियां शामिल थीं,लेकिन इस वक्त मध्यवर्ग में आधी आबादी निम्न मध्यवर्ग की है। इसलिए इस तबके का समाजीकरण पूरा नहीं हो पाया है। नतीजा यह हुआ कि पुराने मध्यवर्ग का जो मानक था उसके हिसाब वे अब चलते नहीं हैं।
पहले मध्यवर्ग के घरों में जाने पर शास्त्रीय गायकों के भी कैसेट मिल जाया करते थे, दो-चार स्तरीय किताबें भी बुकशेल्फ में हुआ करती थीं,लोग सत्यजित राय का भी नाम जानते थे। बताने के लिए ही सही, उनके यहां मूल्यों को बचाने वाली ऐसी चीजें मिल जाया करती थीं। इस ढोंग में भी पुरानी अच्छी चीजों को बचाये रखने का एक मूल्य था। लेकिन अभी जो मध्यवर्ग आया है,इसमें वह लिहाज भी नहीं है। उपभोक्तावाद और चौबीस घंटे का मनोरंजन इसकी फितरत बन चुकी है। कहने का मतलब यह कि जो नया मध्यवर्ग उभरकर आया है उसके सांस्कृतिक मूल्य उस वर्ग के नहीं हैं, सिर्फ आर्थिक स्थिति बेहतर होने की वजह से वह मध्यवर्ग का हो गया है। एक संस्कृति-संपन्न मध्यवर्ग बनने के लिए कम से कम दो पीढ़ियों की जरूरत है। यही असल समस्या है भारतीय मध्यवर्ग की।

क्या संपन्न तबके के इस रवैये से समाज में वंचित तबकों का हिंसा में लगातार भरोसा बढ़ रहा है?

यह हो रहा है और आश्चर्यजनक ढंग से,तेजी से हो रहा है। पहले समाज का पढ़ा-लिखा आदमी सामाजिक समस्याओं पर सोचता था,गांव के गरीबों,वंचितों की भलाई हो इसमें अपनी ऊर्जा लगाता था। आज संपन्न तबके के बीच 'इन बातों को छोड़ो और भूल जाओ' का सामाजिक चलन बढ़ता जा रहा है। उन्हें लगता है कि बेजवह उनकी खुशहाल जिंदगी में वंचित लोगों के बारे बात कर बोझिल बनाया जा रहा है। वे उपभोक्तावादी जीवन में इतना रचबस गये हैं कि उन्हें और कुछ भी मंजूर नहीं।
कई स्तरों की समस्याओं से जूझ रहे हमारे देश के मध्यवर्गीय परिवारों में आम बात है कि वे बच्चों को अमेरिका-इंग्लैड भेजना चाहते हैं। लोग पहले भी विदेश जाते थे,मगर देश में वापस आकर कुछ करना है, इस बारे में भी सोचते थे। फिलहाल हालत यह है कि जो देश में भी है, वह विदेश के सपनों और साधनों में जीता है, जो चले गये हैं उनके वापस आने की बात कौन करे! मां-बाप को भी लगता है कि उनके बच्चों को संपूर्ण सुरक्षा मिल गयी है और उनका सामाजिक स्तर ऊपर उठ गया है।
मौजूदा सामाजिक स्थिति और मध्यवर्ग की बदलती सोच का दो टूक सच यह है कि भारत एक पिछड़ा हुआ अमेरिका या यूरोप बन चुका है। ऐसे में मध्यवर्ग बस इतने की तैयारी में लगा है कि जब तक भारत यूरोप या अमेरिका नहीं बनता, तब तक सिर्फ उन देशों में जाने वालों की पौध तैयार करते रहो।




द पब्लिक एजेंडा से साभार

Dec 26, 2009

झारखण्ड से के.एन.पंडित गिरफ़्तार

विस्थापन विरोधी जनविकास आन्दोलन के केन्द्रीय संयोजक के.एन.पंडित को रांची पूलिस ने 23 दिसम्बर गिरफ्तार कर लिया है. उन्हें दमनकारी कानून 'गैरकानूनी गतिविधी निरोधक कानून' के तहत हिरासत में लेकर जेल भेज दिया गया है.



झारखण्ड में चुनाव मतपेटियां खुलते ही लोकतन्त्रिक पर्व की समाप्ति हो गई। चुनावी खेल में राजनैतिक दलों को पैसा मुहैया कराने वाले धन कुबेरों और बड़े पूजिपतियों को खुश करने की कार्रवाई शुरू हो गई है। जल-जंगल-जमीन बचाने के चुनावी वायदों को रद्धी की टोकरी में फेंक जनपक्षीय लोगों और सामाजिक कार्यकत्ताओं को चुपचाप रहने की चेतावनी देते हुए सरकारी मशीनरी ने झारखण्ड़ के वरिष्ट जुझारू ट्रेड़ यूनियन नेता पंडित को गिरफतार कर लिया ताकि जनता के हक हकूक के लिए खासतौर पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और बड़े पूजिपतियों द्वारा किये जा रहे जमीन अधिग्रहण के खिलाफ लड़ाई को दमन द्वारा मौन किया जा सके।

यह गिरफतारी केन्द्र सरकार द्वारा जनता पर छेड़े गए युद्ध का ही हिस्सा है जिसके तहत सरकार भारत की प्राकृतिक सम्पदा को साम्राज्यवादी हाथों में सौंपने के लिए जंगल-जंगलात में बसने वाली जनता, खासतौर पर आदिवासियों को सैन्य हमले कर उजाड़ने की साजिष कर रही है। झारखण्ड में चुनावों के दौरान प्रतिनियुक्त की गई अर्ध सैन्य बलों की 225 कंपनियों को झारखण्ड में ही तैनात कर जनता की खिलाफ सैन्य अभियान शुरू करने का फैसला केन्द्र सरकार ने कर लिया है। झारखण्ड के तमाम जनवादी सोच वाले लोगों ने सैन्य मुहिम की खिलाफत की है। सैन्य अभियान का मुखर विरोध करने वालों में के.एन.पंडित अग्रणी भूमिका में थे। उन्होंने 4 दिसम्बर को दिल्ली में आयोजित जनता पर युद्ध के खिलाफ गोष्ठी में कड़े शब्दों में सरकार की निंदा की थी और युद्ध के खिलाफ लड़ने का आह्वान किया था।

पूर्व में भी झारखण्ड़ में बाबुलाल मरांडी सरकार द्वारा 3200 लोगों खासतौर आदिवासियों पर पोटा लगाए जाने के विरोध में बने पोटा विरोधी मोर्चा में उन्होने हिस्सेदारी की थी। विस्थापन के विरूद्ध लड़ाई हो या राजनैतिक बंदियों को रिहाई का मसला वे हमेशा जनता के हक में खड़े होकर अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे हैं।

विस्थापन विरोधी जन विकास आन्दोलन तमाम जनवाद पसन्द जनता और बुद्धिजीवियों को आह्वान करता है कि के.एन. पंडित की रिहाई के लिए आवाज बुलन्द करें और जनता पर चलाए जाने वाले युद्ध का पूरजोर विरोध करें.

साथ ही बहुराष्ट्रीय और बड़े उद्योगपतियों के साथ किये गए तमाम एम ओ यू रद्द किए जाए और जनता पर चलाए जाने वाले सैन्य अभियान को तुरन्त रोका जाए और सभी अर्ध सैन्य बलों को वापिस बुलाया जाए।


प्रेस विज्ञप्ति

विस्थापन विरोधी जन विकास आन्दोलन

Dec 24, 2009

शर्म के मारे बेटे-बहू गांव नहीं आना चाहते हैं

अजय प्रकाश

घर में दो जून का अन्न न हो और बीमारी ऐसी हो जाये जो स्वास्थ के साथ चरित्र भी ले जाये तो परिवार किस हालत में जीता है, वह रामसखी दूबे जानती हैं। वह जानती हैं कि एचआइवी एड्स रोग से बड़ा अभिशाप है। जानती तो सरकार भी है, इसलिए उपाय का दावा भी करती है। लेकिन गांव की दीवारों पर राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको ) ने जो नारे लिखे हैं उनका असर बहुत कम है। हड़हा के ग्रामीण से बात करने पर जाहिर हो जाता है कि रोगी स्वास्थ्य बाद में गंवाता है, रोग का पता चलते ही उसका चरित्र सरेराह चौक- चौराहों पर उछाला जाने लगता है।

हड़हा गांव की बूढ़ी रामसखी के घर में गरीबी पहले से थी फिर भी वह बेटे-बहुओं के साथ जैसे-तैसे जी रही थीं। संतोष इस बात का भी था कि उनकी यह स्थिति अकेले की नहीं है। रामसखी दूबे का यह गांव उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में है जहां की आबादी का आधा से अधिक हिस्सा आधा पेट खाकर सुबह होने का इंतजार करता है। उनका परिवार भी ज्यादातर गांव वालों की तरह प्रशासन के सामने हाथ जोड़कर, दो-चार रूपये थमाने वालों के आगे हाथ फैलाकर और मौका आने पर इन्हीं हाथों को नेताओं की जयजयकार में उठा कर, जीये जा रहा था। यानी वे लोग वर्षों से अन्न की कमी और भूख को भुगत रहे थे। मगर जबसे गांव-समाज को पता चला है कि उनके घर में एचआइवी एड्स के रोगी हैं तबसे वे जिंदगी को भुगत रहे हैं। लेकिन देश के ऐसे हजारों परिवारों की पीड़ा को ‘नाको ’ के 1254 मुख्य केंद्र जो अन्य हजारों नियंत्रण उपकेंद्रों को संचालित करते हैं, कम नहीं कर पा रहे हैं।

रामसखी, उसकी बहू उमादेवी और बेटा नंदलाल दूबे कहते हैं, ‘हमें नहीं याद कि ढंग का अन्न खाने को कब मिला था, मगर लोगों की हिकारत-नफरत हमारी रोज की खुराक बन गयी है।’ चित्रकूट जिले के बरगढ़ क्षेत्र के हड़हा में इस परिवार के साथ हिकारत का यह सिलसिला दो साल पहले उस समय शुरू हुआ था जब नंदलाल दूबे की पत्नी उमादेवी अपने दो वर्षीय बेटे अंकित के इलाज के लिए इलाहाबाद गयी थीं। उमादेवी बताती हैं कि, ‘बेटे अंकित के बुखार में मैंने कई हजार रूपये गवां दिये और बेटा मरने की हालत में पहुंच गया तो मैंने डॉक्टर को जान से मारने की ठान ली। तब जाकर डॉक्टर ने जांच की और पता चला कि मेरा बेटा एचआइवी पॉजिटिव है।’ रामसखी के घर में एचआईवी पॉजिटिव उजागर ह¨ने का यह पहला मामला था। इसके बाद अंकित की मां उमादेवी, बाप नंदलाल दूबे और बहन साक्षी भी जांच में पाजीटिव पाये गये। घर के इन रोगियों का ठीक से अभी इलाज भी नहीं शुरू हुआ था उससे पहले ही रामसखी के दूसरे बेटे फूलचंद दूबे, उसकी पत्नी निशा और बेटी अनु भी पाजिटिव पाये गये। डॉक्टरी जांच में एक ही घर के इन सात व्यक्तियों को एड्स रोगी माना गया है।

इसी गांव की 25 वर्षीय युवती गुड़िया कको भी एड्स है। जबकि उसके पति की इसी रोग से पिछले वर्ष मौत हो गयी थी। एक ही गांव में नौ एड्स ररोगियों की वजह से बाजार में इस गांव का नाम पूछने पर लोग इसे ‘एड्स’ वाला गांव कहते हैं। हड़हा से थोड़ी दूर पर चित्रकूट के बरगढ़ क्षेत्र में ही कोनिया गांव है। इस गांव के रामेश्वर प्रसाद मिश्र के दो बेटों जनार्दन प्रसाद मिश्र, सुरेश प्रसाद मिश्र और उनकी बीबियों कि भी आठ साल पहले इसी बीमारी से मौत हो गयी थी। अब घर में 80 वर्षीय रामेश्वर प्रसाद मिश्र के अलावा उनकी पत्नी और दिमागी रूप से विक्षिप्त एक बेटा है। रामेश्वर प्रसाद मिश्र बताते हैं कि, ‘बेटे मुंबई में रेलवे कैंटीन में काम करते थे। वहां के डॉक्टरों ने बता दिया कि एड्स इतना बढ़ गया है कि अब मरने के इंतजार के सिवा कोई रास्ता नहीं है। फिर तो उसके बाद सुरेश की, फिर जनार्दन की बीवी की और सबसे बाद में सुरेश की बीबी की एक के बाद एक एड्स से मौत हो गयी।’ रामेश्वर प्रसाद की 75 वर्षीय पत्नी कहती हैं, ‘बाकी दो बेटे मुंबई में ही काम करते हैं और घर में हम बुढ़े-बुढ़िया गांव बहिष्कार और लानत-मलानत सहने को मजबूर हैं। शर्म के मारे बेटे-बहू गांव नहीं आना चाहते हैं।’


हालांकि रामसखी का बेटा नंदलाल मुंबई या किसी दूसरे महानगर में नहीं गया था जहां से उसे एड्स का संक्रमण हुआ। वह तो गृहजिले चित्रकूट में गाड़ी चलाने का काम करता था। नंदलाल ने स्वीकार किया कि ‘शादी से पहले एक औरत से शारीरिक संबंध था। लेकिन उसे नहीं पता कि रोग औरत से आया या फिर एक बार टांग टूटने पर खून चढ़ा था उससे। जहां तक घर वालों की बात है तो नंदलाल की बीबी उमादेवी भी पति को ही रोग का सुत्रधार मानती हैं।

उत्तर प्रदेश राज्य एड्स नियंत्रण सोसायटी के अनुसार लगभग डेढ़ लाख लोगों की काउंसिलिंग हुई है और एक लाख से अधिक लोगों की जांच प्रदेश भर में फैले केन्द्रों पर की गयी है। लेकिन जमीनी हकीकत का पता हड़हा, कोनिया के पीड़ितों से चलता है। एड्स पीड़ित नंदलाल ने बताया कि ‘उसके घर में सात मरीज हैं फिर भी इलाज नहीं शुरू हुआ है। केवल सर्वोदय सेवाश्रम के कार्यकर्ताओं की ओर से ही मदद मिल पाती है।’ सर्वोदय सेवाश्रम के सचिव अभिमन्यु सिंह ने बताया कि, ‘इस क्षेत्र में गरीबी, भुखमरी और सूखा ने लोगों के जीवन को पहले से तबाह कर रखा है, अगर सरकार ने बेहतर प्रयास नहीं किया तो एड्स रोगियों की संख्या में इजाफा होने से रोकना मुश्किल होगा।’



रामसखी जिंदगी से कैसे रोज दो चार हो रही है, परिवार में एड्स होने के बाद गाँव समाज कैसा व्यहार करता है........इन बातों को उसकी जुबानी सुनाने के लिए यहाँ क्लिक करें


http://www.youtube.com/watch?v=6E-n8Rge-8o









Dec 22, 2009

पत्रकार है कि आईबी का दलाल



अजय प्रकाश


हिंदी अख़बार दैनिक भास्कर के राष्ट्रीय संस्करण के मुख्य पृष्ठ पर राजेश आहूजा के नाम से आज एक खबर छपी है- 'माओवादियों का 'विदेश मंत्री' था कोबाद'. इस खबर के शीर्षक को लिखने साथ ही राजेश आहूजा इतने उत्साहित हुए हैं कि इंट्रो में लिख पड़तें हैं 'पूछताछ में हुआ खुलासा, भाकपा (माले) के कई देशों से बनाये संपर्क'. पत्रकार ने अपनी कलम से सीपीआइ (माओवादी) के महासचिव गणपति को भाकपा (माले) के प्रमुख नेताओं में शामिल कर दिया है. सीपीआइ (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य कोबाद गाँधी को भाकपा ( माले) का नेता बनाने वाले राजेश आहूजा ने रिपोर्ट में आगे क्या गुल खिलाया है उसके लिए यहाँ उनकी खबर को स्कैन कर चिपका दिया है.


स्कैन कॉपी पढकर अगर आपके मुंह से निकल जाये कि 'पत्रकार है कि आईबी का दलाल'तो अपने मुंह पर ताला न लगाइयेगा. काहे कि हम अंडरवियर-बनियान के विज्ञापनों के बीच लिखने वाले पत्रकारों  की जो औकात बची वह भी गायब हो जाएगी.  डर है कि जो मीडिया मालिक आज हमें जवानी जगाने के तेलों और दवाओं के बीच लिखने -बोलने की जगह दे रहे हैं, वह हमारी चुप्पी से उत्साहित होकर कहीं कल को तेल बेचने के लिए न पकड़ा दें.

दरअसल अकेले राजेश आहूजा की सत्ता प्रतिष्ठानों को तेल लगाने और दलाली खाने का नमूना भर नहीं है बल्कि उस पेज के लिए जिम्मेदार पेज इंचार्ज, संपादक समेत उन सभी लोगों की चाहत का नतीजा है जो मालिकों के चहेते हैं.