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May 10, 2017

जुड़वा दिमाग जैसे हैं मोदी और ट्रंप

पूर्व आइपीएस विकास नारायण राय इन दिनों अमेरिका में हैं। वे लगातार भारतीय समाज, सुरक्षा और राजनीति पर लिखते रहते हैं। अबकी उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री मोदी की अचंभित करने वाली समानताओं, मसखरेपन, इतिहास ज्ञान और समाजदृष्टि पर बहुत ही तथ्यात्मक और दिलचस्प टिप्पणी की है,  पढ़िए पूरा लेख विस्तार से...

अमेरिका से जनज्वार के लिए  विकास नारायण राय 

 
रूरी नहीं जो राष्ट्र नेता इतिहास बनाने निकलते हैं, उन्हें इतिहास की समझ भी हो| ऐसे में उनके हाथों घोर अनर्थ होने या भारी भ्रान्ति फ़ैलने की संभावना बनी रहती है| नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी, तोजो, याह्या खान, सद्दाम हुसैन जैसों के आत्मघाती उदाहरण साक्षात हैं|

मोदी और ट्रम्प फिलहाल उन्हीं पद चिन्हों पर न भी चलते दिख रहे हों पर उनकी इतिहास शून्यता गंभीर राजनीतिक आशंकाओं को हवा दे रही है और साथ ही उन्हें मखौल का पात्र भी बना रही है| लगता है, जैसे राजनीतिक शिखर छूने की जल्दी में ये दोनों महानुभाव इतिहास बनाने नहीं स्वयं इतिहास बनने के कगार पर हों|

मोदी और ट्रम्प को एक खाने में रखने वालों को भी आज शायद ही उनके समर्थकों की एक जैसी हताशा भरी नियति से हैरानी हो| फ़िलहाल दोनों के भक्त उनके चुनाव प्रचार के दौर का थूका हुआ चाटने को मजबूर नजर आते हैं| ट्रम्प में रूस की सामरिक दिलचस्पी की छाया उनके राष्ट्रपति अभियान पर लगातार बनी रही थी, और अब अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करते पहलुओं की छानबीन अमेरिकी सेनेट की न्यायिक समिति कर रही है|

स प्रकरण का आपराधिक पक्ष एफबीआई की जाँच का विषय है| चुनाव के दौरान रूस में अपनी व्यावसायिक स्थिति को लेकर ट्रम्प ने जो झूठे-सच्चे पैंतरे बदले, उन्हें सही ठहरा पाना उत्तरोत्तर कठिन होता जा रहा है| यहाँ तक कि ट्रम्प ने, अमेरिकी इतिहास में पहली बार, राष्ट्रपति की जांच कर रही एफबीआई के डायरेक्टर को ही बरखास्त कर दिया|

मोदी ने अपने चुनाव अभियान में पाकिस्तान के विरुद्ध युद्धोन्माद खड़ा करने में ‘छप्पन इंच के सीने’ से लेकर ‘एक के बदले सौ सर’ जैसी अव्यावहारिक डींगें जम कर हांकी थीं| तीन वर्षों के उनके इतिहास-दृष्टि रहित शासन में काश्मीर की उत्तरोत्तर बिगड़ती स्थित ने उनके समर्थकों की बोलती बंद कर दी है|

वे समझ नहीं पा रहे हैं कि अपने ‘नरेंद्रबली’ की पिलपिलाती छवि को कैसे फ़िल्मी ‘महाबली’ के रूप में दुरुस्त करें| मोदी का रास्ता सीमित होते-होते एकमात्र पाकिस्तान से युद्ध के विकल्प की ओर बढ़ रहा है| दो परमाणु शक्तियों के बीच यह एक मिलीभगत का युद्ध ही होगा, जिसके लिए अमेरिका का रजामंद होना जरूरी है| लगता नहीं कि ट्रम्प के अमेरिका के पास इसके लिए अभी समय है|

क्या वे अपने कार्य भार में इतिहास बोध के महत्व को कभी समझ पायेंगे- मोदी और ट्रम्प? डेढ़ दशक भी नहीं हुये, मोदी की साख इतनी कम होती थी कि उनको प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के हेलिकॉप्टर में घुसने नहीं दिया जाता था| आज वे स्वयं धाकड़ प्रधानमन्त्री बने बैठे हैं|

ट्रम्प को भी शायद ही किसी ने गंभीरता से लिया हो जब वे अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार बनने की दौड़ में उतरे| न सिर्फ वे भारी बहुमत से उम्मीदवार बने बल्कि उन्होंने बेहद करीबी मुकाबले में हिलेरी क्लिंटन को हराकर राष्ट्रपति पद भी हथिया लिया|

दोनों, ट्रम्प और मोदी, अपनी-अपनी तरह से अनुभव के धनी कहे जायेंगे और ट्रम्प के शब्दों में ‘डील’ करने में माहिर भी| तब भी, उनकी अभूतपूर्व राजनीतिक सफलताओं के बावजूद, उनकी राष्ट्रीय स्वीकार्यता पर बढ़ते प्रश्न चिन्ह की मुख्य वजह रही है उनकी कार्यशैली से ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का नदारद होना|

ट्रम्प को अपने नव-नियुक्त एनएसए जनरल फ्लिन को उनके रूस से संबंधों के सार्वजनिक होने पर बरखास्त करना पड़ा| जबकि मोदी की हालिया चुनावी सफलताओं पर इवीएम जालसाजी के आरोप चिपकने लगे हैं| ट्रम्प के सत्ता संभालते ही अमेरिका में मुस्लिम प्रवेश पर रोक वहां की अदालतों में एक दिन भी नहीं ठहर सकी| भारत में नियमित मुस्लिम वर्जना मोदी की विकास यात्रा में असहनीय बोझ हो चली है| जाहिर है, ऐतिहासिकता से मुंह मोड़ कर राष्ट्रीय नेतृत्व देने के अपने खतरे हैं|
  
किसी को बताने की जरूरत नहीं कि ‘पप्पू’ कहने पर भारतीय राजनीति का कौन सा चेहरा याद आता है| अमेरिकी राजनीति में लगता है ट्रम्प भी उसी स्थिति की ओर बढ़ रहे है| और मोदी? याद कीजिये, बिहार चुनाव में मोदी ने अफ़ग़ानिस्तान से लगे तक्षशिला को बिहार का हिस्सा घोषित कर डाला था| यहाँ तक कि विज्ञान कांग्रेस में, गणेश के धड़ से हाथी का सर जोड़ने की दन्त कथा को उन्होंने प्राचीन भारत में अति विकसित सर्जरी के ‘इतिहास’ से जोड़ दिया| खासी किरकिरी के बाद अब वे अपना इतिहास बोध सुरक्षित स्तरों पर ही व्यक्त करते हैं|

सलन, ‘साठ साल बनाम साठ महीनों’ जैसी प्रचार चर्चाओं में| या विदेशी दौरों में शेखी मारकर कि उनसे कितने दशक पहले तक कोई भारतीय प्रधानमन्त्री उस देश में नहीं पहुंचा| मानना पड़ेगा, इन सब के लिए भारतीय मीडिया की मेहरबानी कैसे हासिल करनी है, मोदी बखूबी समझते हैं| ट्रम्प ने अमेरिका में ‘फेक मीडिया’ शब्द ईजाद किया जबकि मोदी ने उसे भारत में कार्यान्वित भी कर दिखाया|

काश! उन्हें भारत-पाक के बीच बार-बार असफल रही क्रिकेट डिप्लोमेसी या वाजपेयी की लाहौर बस यात्रा को व्यर्थ करने वाली पाकिस्तानी फ़ौज की कारगिल पैंतरेबाजी में निहित ऐतिहासिक सन्देश की समझ भी होती| तो वे नवाज शरीफ के जन्म दिन पर लाहौर बिना बुलाये धमकने जैसे सतही कूटनीति में भारत-पाक तनावों का हल ढूंढने के बजाय, कश्मीर में कोई सार्थक राजनीतिक-सामरिक पहल कर रहे मिलते|

काश! नक्सल आयाम के आर्थिक-सामाजिक पहलू का इतिहास भी मोदी के सामरिक परिप्रेक्ष्य का हिस्सा हो सकता! तब वे इस समस्या का महज सैनिक हल हासिल करने की एक आयामी जिद में देश का समय और ऊर्जा न गँवा रहे होते| इतिहास बोध से संपन्न मोदी ने, उत्तर-पूर्व में शांति लाने के कांग्रेसी मॉडल की असफलता को ही दोहराते रहने के बजाय, दशकों तक अशांत रहे त्रिपुरा राज्य की, कम्युनिस्ट शासन में हासिल, ऐतिहासिक स्थिरता से सबक लिया होता|

तिहास किसी को माफ़ नहीं करता| देश के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू तो स्वयं किसी प्रबुद्ध इतिहासकार से कम न थे| उनकी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’, जो उन्होंने 1942-46 में ‘भारत छोड़ो’ के दौरान अहमदनगर किले में बंदी रहते हुये लिखी थी, को इतिहास क्रम में भारत की उदार संस्कृति और दर्शन से परिचय की खान कहा जा सकता है|

ह नेहरू के इतिहास बोध का ही करिश्मा था कि उन्होंने विश्व युद्धों से जर्जर दो ध्रुवीय विश्व में भारत के नेतृत्व में एक तीसरे तटस्थ ध्रुव की नींव रखी, और दो सदी की औपनिवेशिक दासता से बाहर निकले गरीब देश को आधुनिकता के प्रकाश से आलोकित रखा| पर चीन के महाशक्ति मंसूबों की ऐतिहासिक समझ की चूक ने उनसे भारी सामरिक भूल कराई, जिसकी कीमत देश को 1962 के युद्ध में मनोबल तोड़ने वाली पराजय के रूप में चुकानी पड़ी| 
     
मेरिका में 1961 के क्यूबा मिसाइल संकट को टालने का श्रेय आसानी से राष्ट्रपति केनेडी की इतिहास मर्मज्ञता को दिया जाता रहा है| वही अमेरिका आज अपने पैंतालीसवें राष्ट्रपति ट्रम्प को इतिहास का अनिच्छुक पाठ पढ़ते देखना चाहता है| हुआ यूँ कि ‘डील’ में माहिर ट्रम्प ने एक साक्षात्कार में खुद की तुलना अमेरिका के सातवें राष्ट्रपति एंड्रू जैक्सन से कर डाली| यहाँ तक भी गनीमत थी क्योंकि इतने भर से उनका जाना-पहचाना बड़बोलापन ही झलकता|

शर्ते, उसी झोंक में आगे वे यह न जोड़ देते कि एंड्रू जैक्सन होते तो अमेरिका का गृह युद्ध न हुआ होता, उसका समाधान निकाल लिया जाता| अमेरिका के इस सातवें राष्ट्रपति (1829-37) का निधन दास प्रथा को लेकर हुए गृह युद्ध से सोलह वर्ष पूर्व हो गया था और इतिहास में उन जैसे दास मालिक को गृह युद्ध से कभी जोड़ा भी नहीं गया|

जैक्सन को 1812 में न्यू ओरलेंस के युद्ध में ब्रिटिश फ़ौज को हराने वाली सेना का नेतृत्व करने पर राष्ट्रीय नायक की ख्याति मिली थी| 1824 में उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना की और राजनीतिक जीवन में धनाढ्य वर्ग के विपरीत सामान्य लोगों के लिए काम किया| उनके कार्यकाल में अमेरिकी आदिवासियों का नियत बस्तियों में दारुण विस्थापन उनके नाम पर एक काला धब्बा माना जाता है|

ट्रम्प ने जैक्सन को एक दृढ़ व्यक्ति और बड़े दिलवाला कहा| 1830 के दशक में साउथ कैरोलिना अमेरिका से अलग होना चाहता था और तब जैक्सन ने उसे युद्ध की धमकी देकर यह इरादा छोड़ने पर बाध्य किया| उस समय समीकरण था एक राज्य बनाम शेष राष्ट्र का| दो दशक बाद, दक्षिण के ग्यारह राज्य एक साथ अलग होने को बजिद थे| उनके साथ युद्ध का मतलब गृह युद्ध ही था|

तिहासकार एकमत हैं कि जिस युद्ध को अब्राहम लिंकन जैसा दूरदर्शी राष्ट्रपति नहीं रोक सका, उसे जैक्सन की सैन्यवादी रणनीति कैसे भी नहीं रोक सकती थी| हाँ, इतिहास शून्य ट्रम्प को जरूर लगता है कि जैक्सन से तुलना कर वे स्वयं को एक दृढ़ और बड़े दिलवाला राष्ट्रपति कहलवा लेंगे, और आम व्हाइट अमेरिकी का हितैषी भी|
  
मोदी के एंड्रू जैक्सन सरदार पटेल हैं, ट्रम्प की तर्ज पर बिना उनके ऐतिहासिक अवदान को समझे ही| पटेल रियासतों के भारत में विलय के लिए जाते हैं, जबकि मोदी के राजनीतिक नेतृत्व में, देश के आधा दर्जन प्रांतों में सशस्त्र अराजकता बद से बदतर होती गयी है| पटेल ने लोकतांत्रिक संविधान और नौकरशाही के इस्पाती ढांचे को मजबूत किया, मोदी ने संविधान में पलीता लगाने और नौकरशाही को पिछलग्गू बनाने का काम किया है|

से में मोदी की इस समझ को क्या कहें कि पटेल की विश्व में सबसे ऊंची लौह मूर्ति लगाकर वे स्वयं को सरदार कहलवा लेंगे| देश का मुख्य राजनीतिक कार्यकारी इतिहास की समझ से शून्य हो तो उस देश को कब अपमान के दौर से गुजरना पड़ जाये, कहना मुश्किल है| ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की गंभीर कमी को वह ‘जोश’ से पूरी करता है और नाजुक भूलें करता है|

मने मोदी को, नोटबंदी से काला धन, आतंकवाद और भ्रष्टाचार ख़त्म करने का दावा करते देखा| हमने ट्रम्प को, मेक्सिको सीमा पर दीवार से अमेरिकियों के आर्थिक संकट के हल का सपना बेचते देखा| क्या हम उनमें इतिहास बुद्धि की कामना कर सकते हैं!  

Apr 7, 2017

अब जयललिता का ताबूत मांग रहा वोट


तमिलनाडु के आरके नगर विधानसभा में 12 अप्रैल को होने वाले उपचुनाव के प्रचार का तरीका ऐसा भी हो सकता है, शायद किसी ने सोचा भी न होगा। पन्नीरसेल्वम गुट के एआईएडीएमके ने जे. जयललिता की डमी और ताबूत के साथ चुनाव अभियान शुरू किया है। यह ताबूत हू—ब—हू उसी ताबूत की नकल है, जिसमें 5 दिसम्बर को जयललिता को उनके मरने के बाद रखा गया था। डमी को जयललिता की सबसे पसंदीदा हरी साड़ी में तैयार किया गया है, जिसे भारतीय तिरंगे से कवर किया गया है। एआईएडीएमके (पुरची थालामी अम्मा) का यह दांव उन मतदाताओं से सहानुभूति वोट हासिल करने के लिए है, जो जयललिता को भगवान की तरह पूजते थे और उनके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते थे।

गौरतलब है कि जयललिता की मौत के बाद एआईएडीएमके लगातार विवादों में है, पार्टी के अंदर शशिकला और पन्नीरसेल्वम दो गुटों के अगुवा बन गये। 23 मार्च को चुनाव आयोग ने एआईएडीएमके के चुनाव चिन्ह 'दो पत्ते' को सील कर दोनों गुटों को नए चुनाव चिन्ह जारी किए थे। शशिकला गुट को 'टोपी' और पन्नीरसेल्वम गुट को 'बिजली का खंभा' ​चुनाव चिन्ह जारी किया गया था। वहीं दोनों गुटों का नाम भी बदल दिया गया। शशिकला गुट को एआईएडीएमके अम्मा का नाम दिया गया और पन्नीरसेल्वम को एआईएडीएमके पुरची थालामी अम्मा।

आरके नगर विधानसभा में 12 अप्रैल को होने वाले उपचुनाव के लिए जयललिता की भतीजी दीपा जयकुमार पन्नीरसेल्वम गुट से उम्मीदवार हैं तो शशिकला के भतीजे टीटीके दिनकरन को उनके गुट ने चुनाव मैदान में उतारा है। देखना दिलचस्प होगा कि इस चुनाव में लोगों की भावनाओं को कैश करने की पैंतरेबाजी काम आती है या फिर शशिकला गुट उपचुनाव पर जीत की मुहर लगाता है।  

जनता की सहानुभूति बटोरने के लिए अम्मा की डमी को जिस तरह से इस्तेमाल किया जा रहा है, उसकी तरह—तरह से आलोचनाएं होनी शुरू हो गई हैं। एआईएडीएमके के अन्य दलों द्वारा भी अम्मा के नकली ताबूत और डमी बॉडी के माध्यम से चुनाव प्रचार करने पर आपत्ति जतायी जा रही है और आशंका जताई जा रही है कि इसकी शिकायत चुनाव आयोग में दर्ज होगी। 

'द न्यूज मिनट' से हुई बातचीत में द्रविड़ मुनेत्र कझगम की नेता कनिमोझी ने भी पन्नीरसेल्वम गुट द्वारा लोगों की भावनाओं को कैश करने के इस कदम की आलोचना की है और कहा कि जयललिता के अनुयायियों को उनके प्रति सम्मान दिखाना चाहिए, न कि वोटों के लिए कुछ भी करना चाहिए।