Jul 1, 2017

जब वन संरक्षण के लिए जारी हुआ वारंट



क्या कभी सुना कि वनों को बचाने के लिए प्रयासरत लोगों को प्रशासन की ओर से पुरस्कार देने की बजाय उनके नाम वारंट जारी किया गया हो? हैरानी इसलिए भी कि यह घटना तब हुई, जब देश को आजाद हुए तीन दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका था....
देहरादून से मनु मनस्वी
‘पर्यावरण बचाओ’, ‘जंगल बचाओ’ की पीपनी बजाकर टीआरपी बटोरने वाले अपने इंडिया में अब तक पर्यावरण संरक्षण के नाम पर काम कम और शोशेबाजी ही ज्यादा हुई है। हकीकत में काम उतना नजर नहीं आता, जितना होना चाहिए था। हां, पर्यावरण के कुछ कथित ठेकेदारों ने इसकी आड़ में तमाम पुरस्कारों से अपने ड्राइंगरूम जरूर गुलजार कर लिए।

इस देश की व्यवस्था ही ऐसी है कि जो न हो जाए, कम है। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अनाप-शनाप तमगे बटोरकर रातों-रात स्टार बनने वाले तथाकथित ठेकेदारों ने भले ही पर्यावरण बचाने के नाम पर कोरी नौटंकी भर की हो, लेकिन इसकी बदौलत वे सरकारी सम्मान और जरूरी सुविधाएं तो हासिल कर ही लेते हैं, बाकी देश और पर्यावरण जाए भाड़ में, इन्हें कोई मतलब नहीं।
वन, पर्यावरण और गंगा सफाई ऐसे सदाबहार मुद्दे हैं, जो इन ठेकेदारों के लिए रोजगार का जरिया बने हुए हैं। इन्हीं मुद्दों से उनकी रोजी रोटी चल रही है। दुर्भाग्य से इन सबमें पीछे रह जाते हैं पर्यावरण संरक्षण के वे सच्चे सिपाही, जिन्हें न तो कभी किसी पुरस्कार की ख्वाहिश रही, न ही किसी तारीफ की।वे तो बस निस्वार्थ भाव से अपना काम करते रहे।
इन्हीं लोगों के निस्वार्थ त्याग का नतीजा था कि देश में नया वन अधिनियम प्रकाश में आ सका। हालांकि आज भी अवैध रूप से वनों का कटान जारी है, किंतु वन अधिनियम के अस्तित्व में आ जाने से वन माफिया पर कुछ अंकुश तो लगा ही है, जो ब्रिटिशकालीन राज की वन नीति में नहीं था। वहां तो वन माफिया को अवैध कटान की खुली छूट राजस्व के नाम पर सरकार ने खुद दे रखी थी।
गौरतलब है कि उत्तराखंड के जंगलों को वन माफिया से बचाने के लिए 1970 की शुरुआत में गढ़वाल के ग्रामीणों ने अहिंसात्मक तरीके से एक अनूठी पहल करते हुए पेड़ों से चिपककर हजारों-हजार पेड़ों को कटने से बचाया। यह अनूठा आंदोलन ‘चिपको आंदोलन’ नाम से प्रसिद्ध हुआ था। यह आंदोलन वर्तमान उत्तराखंड के चमोली जिले के हेंवलघाटी से गौरा देवी के नेतृत्व में शुरु होकर टिहरी से लेकर उत्तर प्रदेश के कई गांवों में इस कदर फैला कि इसने वन माफिया की नींद उड़ा दी।
इस आंदोलन में महिलाओं ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। आलम यह था कि कहीं भी किसी जंगल में वनों के कटने की खबर मिलती तो गांव की महिलाएं पेड़ों को बचाने के लिए आगे आ जातीं। वे न वन माफिया का विरोध करतीं और न उनसे उलझतीं। बस पेड़ों से चिपककर खड़ी हो जातीं। अब निहत्थी महिलाओं पर आरी कैसे चलाई जा सकती थी। सो हर बार वन माफिया खाली हाथ लौट जाते। धीरे-धीरे वन माफिया के हौसले पस्त होते गए और चिपको आंदोलन परवान चढ़ता रहा।
यह वो दौर था, जब अंग्रेजों के समय बनाई गई वन नीति ही देश में लागू थी। देश का अपना वन अधिनियम प्रकाश में नहीं आया था। वन उपज से राजस्व के नाम पर पुरानी वन नीति वन माफिया के अनुकूल थी, जिसकी आड़ लेकर वन माफिया धड़ल्ले से वनों के कटान में लगे हुए थे और जो भी उनकी राह में आता, उसे इसका दंड भुगतना पड़ता।
ऐसा ही एक मामला जनवरी 1978 का है। सुंदरलाल सकलानी नामक एक ठेकेदार ने वर्ष 1978 में वन विभाग उत्तरप्रदेश से 95 हजार रुपए में लाॅट संख्या 40 सी/77-78 शिवपुरी रेंज टिहरी गढ़वाल में चीड़ आदि के करीब 671 पेड़ काटने का ठेका लिया।
17 जनवरी 1978 को जब ठेकेदार के मजदूरों द्वारा कटान कार्य की भनक ग्रामीणों को लगी, तब चिपको आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं ने पेड़ों से चिपककर इस कटान का विरोध किया। ग्रामीणों के क्रोध और अपना नुकसान होता देख ठेकेदार सुंदरलाल सकलानी ने चिपको आंदोलनकारियों को धमकी दी, लेकिन वे पेड़ न कटने देने की अपनी जिद पर अड़े रहे।
अंततः कटान कार्य में बाधा पड़ती देख ठेकेदार ने कटान रोक तो दिया, परंतु इसकी शिकायत तत्कालीन मजिस्ट्रेट नरेन्द्रनगर से की, जिस पर मजिस्ट्रेट ने ऐसा वारंट जारी किया, जिस पर आश्चर्य तो होता ही है, बल्कि यह ब्रिटिशकालीन राज की तानाशाही की भी याद दिलाता था। साथ ही यह उस समय प्रचलित वन नीति के अस्तित्व पर सवाल भी खड़े करता था कि आखिर यह वन नीति किसके लिए बनाई गई थी?
अपने हक की लकड़ी पाने तक के लिए गिड़गिड़ाते ग्रामीणों के लिए ब्रिटिशकालीन वन नीति किसी सजा से कम नहीं थी। वह भी तक, जबकि ग्रामीण वृक्षों को अपने पुत्र की तरह समझकर उन्हें सहेजते थे।
बहरहाल, ठेकेदार सुंदरलाल सकलानी की शिकायत के बाद मजिस्ट्रेट ने इस घटना में आरोपी पांच व्यक्तियों रामराज बडोनी पुत्र श्री सत्यप्रसाद बडोनी, ग्राम साबली, टिहरी गढ़वाल, दयाल सिंह पुत्र श्री हरि सिंह, निवासी पाली गांव, कुंवर सिंह उर्फ कुंवर प्रसून पुत्र श्री गबर सिंह, निवासी कुड़ी गांव, जीवानंद श्रीयाल पुत्र श्री शंभूलाल, ग्राम जखन्याली व धूम सिंह पुत्र बेलम सिंह, निवासी पिपलैथ नरेन्द्रनगर के विरुद्ध वारंट जारी कर प्रत्येक पर एक हजार रुपए का जुर्माना लगाया।
कारण बताते हुए वारंट में लिखा गया कि दोषियों द्वारा ठेकेदार का विरोध कर सरकारी काम में बाधा पहुंचाई गई, जिससे ठेकेदार और मजदूरों के बीच आपसी रंजिश बढ़ रही है और किसी भी समय शांति भंग होने की आशंका है।
स अजीबोगरीब और अपनी तरह के इकलौते वारंट के जारी होने के बाद पांचों आरोपी भूमिगत हो गए और प्रशासन की पकड़ में नहीं आए। उस समय एक हजार रुपए का जुर्माना बड़ी रकम थी। ये सभी तथाकथित आरोपी प्रशासन की आंखों से बचते हुए लगातार चिपको आंदोलन को परवान चढ़ाते रहे और अहिंसात्मक रूप से वनों को बचाने के अपने मिशन पर लगे रहे।
इनमें से कुंवर प्रसून और रामराज बडोनी ने तो बाद में पत्रकारिता के माध्यम से भी इस आंदोलन को परवान चढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई। इसी वर्ष इस घटना के बाद उत्तराखंड की वीरांगनाओं ने जन आंदोलन के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा, जब अनेकों महिलाओं समेत पर्यावरण के हितैषियों ने 9 फरवरी 1978 को नरेन्द्रनगर टाउनहाॅल में टिहरी वृत के वनों की हो रही नीलामी के खिलाफ अहिंसात्मक तरीके से प्रदर्शन किया।
प्रदर्शनकारी ढोल, नगाड़े व थालियां बजाते हुए 8 फरवरी की शाम को ही नरेन्द्रनगर पहुंच गए। अहिंसात्मक तरीके से चल रहा यह प्रदर्शन प्रशासन को बर्दाश्त नहीं हुआ और सुबह पांच बजे प्रदर्शनकारियों को घसीटकर सड़क पर फेंक दिया गया। प्रदर्शनकारियों ने भी हार नहीं मानी और ठिठुरती सुबह ठंडी सड़क पर भजन-कीर्तन करते रहे।
आंदोलनकारियों का कहना था कि जब नैनीताल, अल्मोड़ा, कोटद्वार और देहरादून में वनों की नीलामी नहीं हुई तो टिहरी वृत के वनों को ‘वैज्ञानिक दोहन’ के नाम पर क्यों नीलाम किया जा रहा है? उनकी मांग थी कि वन नीति में परिवर्तन किए जाने तक नीलामी रोक दी जाए।
सत्ता तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए महिलाओं के नेतृत्व में लोगों ने शांतिपूर्ण ढंग से प्रतिकार करते हुए पुलिस का घेरा तोड़कर नीलामी हाॅल में प्रवेश किया। इस अहिंसात्मक प्रदर्शन से घबराकर अधिकारी ने 9 तारीख को नीलामी स्थगित कर आश्वासन दिया कि अगले दिन 10 तारीख को अगली नीलामी की घोषणा की जाएगी। आश्वासन के बाद सत्याग्रही हाॅल में ही बैठकर वन चेतना के गीत गाने लगे और अगले दिन का इंतजार करने लगे।
आधी रात को जब सत्याग्रही नींद के आगोश में थे, तो अचानक पुलिस दल ने घेरा डालकर सबको गिरफ्तार कर लिया। आंदोलनकारियों का आरोप था कि कुछ महिलाओं के साथ अभद्रता भी की गई। तीन घंटे तक नरेन्द्रनगर थाने के बाहर ट्रक में ठूंसे रखने के बाद पौने पांच बजे के करीब उन्हें टिहरी जेल पहुंचाया गया।
गिरफ्तार किए गए 23 आंदोलनकारियों में से नौ महिलाएं थीं और इन सभी में से अधिकांश हेंवलघाटी के थे, जो चिपको आंदोलन का प्रमुख केन्द्र रहा। इन महिलाओं में थीं गोरी देवी, पिंगला देवी, ज्ञानदेई देवी, मीमी देवी, पारो देवी, मुस्सी देवी, सुदेशा, श्यामा देवी एवं जानकी देवी थीं, जबकि अन्य थे दयाल सिंह, रामराज बडोनी, आलोक उपाध्याय, विजय जरधारी, जगदंबा कोठियाल, उपेन्द्र दत्त, हुक्म सिंह, दयाल सिंह, प्रताप शिखर, वचन सिंह, धूम सिंह, कुंवर प्रसून, सोबन सिंह तथा गिरवीर सिंह।
इस सूची में उन पांच में से चार आंदोलनकारी भी सम्मिलित थे, जिनके नाम वह अजीबोगरीब वारंट जारी हुआ था। इस घटना ने ब्रिटिशकालीन जुल्मोसितम की यादें ताजा कर दी थीं। इस घटना के संबंध में हेंवलघाटी वन सुरक्षा समिति जाजल द्वारा एक विज्ञप्ति भी जारी की गई थी।
इन दो घटनाओं ने उस समय पूरे देश को झकझोरकर रख दिया और अखबारों में ये खबरें प्रमुखता से प्रकाशित हुईं। आखिरकार तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने इस पर संज्ञान लिया और नतीजा यह हुआ कि देश को नया वन अधिनियम प्राप्त हुआ।
जिन पांच लोगों के नाम वारंट जारी किया गया था उन्हें न तो किसी सरकार ने तवज्जो दी और न ही कभी उनकी सुध ही ली गई। इन सत्याग्रहियों को भले ही सरकार से कुछ न मिला हो, परंतु उन्हें इस बात की खुशी है कि उनके प्रयासों से देश में नया वन अधिनियम अस्तित्व में आ सका, जिसके लिए वे संघर्षरत थे।
हालांकि उन्हें इस बात का मलाल भी है कि कई ऐसे लोगों को पर्यावरण के नाम पर पुरस्कारों से नवाजा गया है, जो धरातल पर कहीं नहीं ठहरते और जिन लोगों ने वनों के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया, वे गुमनामी में जीने को मजबूर हैं।
जिस गौरा देवी ने चिपको आंदोलन के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया, उनके गांव के हालात अब भी जस के तस हैं। यहां तक कि उनके बारे में विस्तृत जानकारी तक उपलब्ध नहीं है, जबकि सोशल मीडिया के जरिये कई तथाकथित पर्यावरणविदों ने अपनी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर बखान किया और जमकर उसका लाभ हासिल किया।
इन आंदोलनकारियों में से एक ऋषिकेश स्थित शीशमझाड़ी में रह रहे रामराज बडोनी का कहना है कि सरकार को वनों के विषय में जानकारी रखने वाले ऐसे आंदोलनकारियों से अवश्य समय-समय पर राय लेते रहनी चाहिए, जिन्होंने जीवन भर वनों के बीच ही गुजारा है।
केवल एअरकंडीशंड कमरों में बैठकर पर्यावरण की सुरक्षा की कल्पना करना ही बेमानी है। लेकिन यहां तो ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाली स्थिति है। बाहर से आकर पर्यावरण विद सरकार को बताते हैं कि प्रदेश के वनों को बचाने के लिए क्या करना है। यह बेहद दुखद है।
बहरहाल, दुखद है कि उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद वन संपदा से समृद्ध उत्तराखंड में वनों का अवैध कटान जारी है। राज्य में वन तस्कर बेखौफ होकर वनों को नंगा कर रहे हैं और महकमा अपने निठल्लेपन का ठीकरा एक दूसरे पर फोड़कर ही खुश है। महकमे और माफिया की मिलीभगत के चलते हर वर्ष सैकड़ों-हजारों अच्छे भले पेड़ों की बलि ले ली जाती है।
सबूत मिटाने के लिए पेड़ों के ठूंठ तक का नामोनिशां मिटा दिया जाता है और जनता व प्रशासन की आंखों में धूल झोंकने के लिए वनाग्नि का हवाला देकर काले कारनामों पर पर्दा डाल दिया जाता है। यदि राज्य सरकार प्रदेश के वनों को बचाने में सफल हो पाती है तो ही वनों के लिए संघर्षरत इन सत्याग्रहियों का संघर्ष सफल कहा जाएगा।

ऐसे 'बहादुर’, 'चरित्रवान’ और 'देशभक्त’ थे गांधी के हत्यारे



नाथूराम एक टपोरी किस्म का व्यक्ति था जिसे कतिपय हिंदू उग्रवादियों ने गांधी की हत्या के लिए भाडे पर रखा हुआ था। जेल में उसकी चिकित्सा रपटों से पता चलता है कि उसका मस्तिष्क अधसीसी के रोग से ग्रस्त था...
अनिल जैन, वरिष्ठ पत्रकार
महात्मा गांधी के हत्यारे गिरोह के सरगना नाथूराम गोडसे को महिमामंडित करने के जो प्रयास इन दिनों किए जा रहे हैं, वे नए नहीं हैं। गोडसे का संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बताया जाता रहा है और इसीलिए गांधीजी की हत्या के बाद देश के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया था।

हालांकि संघ गोडसे से अपने संबंधों को हमेशा नकारता रहा है और अपनी इस सफाई को पुख्ता करने के लिए वह गोडसे को गांधी का हत्यारा भी मानता है और उसके कृत्य को निंदनीय करार भी देता है। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के सत्तारूढ होने के बाद ही गोडसे को महिमामंडित करने का सिलसिला तेज हो गया?
इस सिलसिले में एकाएक उसका मंदिर बनाने के प्रयास शुरू हो गए। उसकी 'जयंती’ और 'पुण्यतिथि’ मनाई जाने लगी। उसे 'चिंतक’ और यहां तक कि 'स्वतंत्रता सेनानी’ और 'शहीद’ भी बताया जाने लगा। सवाल है कि तीन साल पहले केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के साथ ही गोडसे भक्तों के इस पूरे उपक्रम के शुरू होने को क्या महज संयोग माना जाए या कि यह सबकुछ किसी सुविचारित योजना के तहत हो रहा है?
गांधी के जिस हत्यारे को इस तरह महिमामंडित किया जा रहा है, उसके बारे में यह जानना दिलचस्प है कि वह गांधी की हत्या से पहले तक क्या था? क्या वह चिंतक था, ख्याति प्राप्त राजनेता था, हिंदू महासभा का जिम्मेदार पदाधिकारी या स्वतंत्रता सेनानी था?
दरअसल नाथूराम गोडसे कभी भी इतनी ऊचाइयों के दूर-दूर तक भी नहीं पहुंच पाया था। पुणे शहर के उसके मोहल्ले सदाशिव पेठ के बाहर उसे कोई नहीं जानता था, जबकि तब वह चालीस वर्ष की आयु के समीप था। नाथूराम स्कूल से भागा हुआ छात्र था। नूतन मराठी विद्यालय में मिडिल की परीक्षा में फेल हो जाने पर उसने पढ़ाई छोड दी थी। उसका मराठी भाषा का ज्ञान कामचलाऊ था। अंग्रेजी का ज्ञान होने का तो सवाल ही नहीं उठता।
उसके पिता विनायक गोडसे डाकखाने में बाबू थे, जिनकी मासिक आय पांच रुपए थी। नाथूराम अपने पिता का लाडला था क्योंकि उसके पहले जन्मे उनके सभी पुत्र मर गए थे। इसीलिए अंधविश्वास के वशीभूत होकर मां ने नाथूराम की परवरिश बेटी की तरह की। उसे नाक में नथ पहनाई जिससे उसका नाम नाथूराम हो गया। उसकी आदतें और हरकतें भी लडकियों जैसी हो गई।
नाथूराम के बाद उसके माता-पिता को तीन और पुत्र पैदा हुए थे जिनमें एक था गोपाल, जो नाथूराम के साथ गांधी-हत्या में सह अभियुक्त था। नाथूराम की युवावस्था किसी खास घटना अथवा विचार के लिए नहीं जानी जाती। उस समय उसके हमउम्र लोग भारत में क्रांति का अलख जगा रहे थे, जेल जा रहे थे, शहीद हो रहे थे। स्वाधीनता संग्राम की इस हलचल से नाथूराम का जरा भी सरोकार नहीं था।
अपने नगर पुणे में वह रोजी-रोटी के ही जुगाड में लगा रहता था। इस सिलसिले में उसने सांगली शहर में दर्जी की दुकान खोल ली थी। उसके पहले वह बढ़ई का काम भी कर चुका था और फलों का ठेला भी लगा चुका था।
पुणे में मई 191० में जन्मे नाथूराम के जीवन की पहली खास घटना थी सितम्बर 1944 में जब हिंदू महासभा के नेता लक्ष्मण गणेश थट्टे ने सेवाग्राम में धरना दिया था। उस समय महात्मा गांधी भारत के विभाजन को रोकने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना से वार्ता करने मुंबई जाने वाले थे। चौतीस वर्षीय नाथूराम थट्टे के सहयोगी प्रदर्शनकारियों में शरीक था। उसका इरादा खंजर से बापू पर हमला करने का था, लेकिन आश्रमवासियों ने उसे पकड लिया था।
उसके जीवन की दूसरी बडी घटना थी एक वर्ष बाद यानी 1945 की, जब ब्रिटिश वायसराय ने भारत की स्वतंत्रता पर चर्चा के लिए राजनेताओं को शिमला आमंत्रित किया था। तब नाथूराम पुणे की किसी अनजान पत्रिका के संवाददाता के रूप मे वहां उपस्थित था।
गांधीजी की हत्या के बाद जब नाथूराम के पुणे स्थित आवास तथा मुंबई में उसके के घर पर छापे पडे थे तो मारक अस्त्रों का भंडार पकडा गया था जिसे उसने हैदराबाद के निजाम पर हमला करने के नाम पर बटोरा था। यह अलग बात है कि इन असलहों का उपयोग कभी नहीं किया गया। मुंबई और पुणे के व्यापारियों से अपने हिंदू राष्ट्र संगठन के नाम पर नाथूराम ने बेशुमार पैसा जुटाया था जिसका उसने कभी कोई लेखा-जोखा किसी को नहीं दिया।
उपरोक्त सभी तथ्यों का बारीकी से परीक्षण करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि अत्यंत कम पढा-लिखा नाथूराम एक टपोरी किस्म का व्यक्ति था जिसे कतिपय हिंदू उग्रवादियों ने गांधी की हत्या के लिए भाडे पर रखा हुआ था। जेल में उसकी चिकित्सा रपटों से पता चलता है कि उसका मस्तिष्क अधसीसी के रोग से ग्रस्त था। यह अडतीस वर्षीय बेरोजगार, अविवाहित और दिमागी बीमारी से त्रस्त नाथूराम किसी भी मायने में सामान्य मन:स्थिति वाला व्यक्ति नहीं था।
उसने गांधीजी की हत्या का पहला प्रयास 2०जनवरी, 1948 को किया था। अपने सहयोगी मदनलाल पाहवा के साथ मिलकर नई दिल्ली के बिडला भवन पर बम फेंका था, जहां गांधीजी दैनिक प्रार्थना सभा कर रहे थे। बम का निशाना चूक गया था। पाहवा पकड़ा गया था, मगर नाथूराम भागने में सफल होकर मुंबई में छिप गया था।
दस दिन बाद वह अपने अधूरे काम को पूरा करने करने के लिए फिर दिल्ली आया था। नाथूराम को उसके प्रशंसक एक धर्मनिष्ठ हिंदू के तौर पर भी प्रचारित करते रहे हैं लेकिन तीस जनवरी की ही शाम की एक घटना से साबित होता कि नाथूराम कैसा और कितना धर्मनिष्ठ था। गांधीजी पर पर तीन गोलियां दागने के पूर्व वह उनका रास्ता रोककर खडा हो गया था।
पोती मनु ने नाथूराम से एक तरफ हटने का आग्रह किया था क्योंकि गांधीजी को प्रार्थना के लिए देरी हो गई थी। धक्का-मुक्की में मनु के हाथ से पूजा वाली माला और आश्रम भजनावाली जमीन पर गिर गई थी। लेकिन नाथूराम उसे रौंदता हुआ ही आगे बढ गया था 2०वीं सदी का जघन्यतम अपराध करने।
जो लोग नाथूराम गोडसे से जरा भी सहानुभूति रखते हैं उन्हें इस निष्ठुर हत्यारे के बारे में एक और प्रमाणित तथ्य पर गौर करना चाहिए। गांधीजी को मारने के दो सप्ताह पहले नाथूराम ने काफी बडी राशि का अपने जीवन के लिए बीमा करवा लिया था ताकि उसके पकडे और मारे जाने पर उसका परिवार आर्थिक रूप से लाभान्वित हो सके।
एक कथित ऐतिहासिक मिशन को लेकर चलने वाला व्यक्ति बीमा कंपनी से हर्जाना कमाना चाहता था। अदालत में मृत्युदंड से बचने के लिए नाथूराम के वकील ने दो चश्मदीद गवाहों के बयानों में विरोधाभास का सहारा लिया था। उनमें से एक ने कहा था कि पिस्तौल से धुआं नहीं निकला था। दूसरे ने कहा था कि गोलियां दगी थी और धुआं निकला था। नाथूराम के वकील ने दलील दी थी कि धुआं नाथूराम की पिस्तौल से नहीं निकला, अत: हत्या किसी और की पिस्तौल से हो सकती है। माजरा कुछ मुंबइयां फिल्मों जैसा रचने का एक भौंडा प्रयास था। मकसद था कि नाथूराम संदेह का लाभ पाकर छूट जाए।
नाथूराम का मकसद कितना पैशाचिक रहा होगा, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गांधीजी की हत्या के बाद पकडे जाने पर खाकी निकर पहने नाथूराम ने अपने को मुसलमान बताने की कोशिश की थी। इसके पीछे उसका मकसद देशवासियों के रोष का निशाना मुसलमानों को बनाना और उनके खिलाफ हिंसा भडकाना था।
ठीक उसी तरह जैसे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के साथ हुआ था। पता नहीं किन कारणों से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हत्यारे के नाम का उल्लेख नहीं किया लेकिन उनके संबोधन के तुरंत बाद गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने आकाशवाणी भवन जाकर रेडियो पर देशवासियों को बताया कि बापू का हत्यारा एक हिंदू है। ऐसा करके सरदार पटेल ने मुसलमानों को अकारण ही देशवासियों का कोपभाजन बनने से बचा लिया।
कोई भी सच्चा क्रांतिकारी या आंदोलनकारी जेल में अपने लिए सुविधाओं की मांग नहीं करता है। लेकिन नाथूराम ने गांधीजी को मारने के बाद अंबाला जेल के भीतर भी अपने लिए सुविधाओं की मांग की थी, जिसका कि वह किसी भी तरह से हकदार नहीं था। वैसे भी उसे स्नातक या पर्याप्त शिक्षित न होने के कारण पंजाब जेल नियमावली के मुताबिक साधारण कैदी की तरह ही रखा जाना था।
नाथूराम और उसके सह अभियुक्तों की देशभक्ति के पाखंड की एक और बानगी देखिए: वह आजाद भारत का बाशिंदा था और उसे भारतीय कानून के तहत ही उसके अपराध के लिए मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी। फिर भी उसने अपने मृत्युदंड के फैसले के खिलाफ लंदन की प्रिवी कांउसिल में अपील की थी। उसका अंग्रेज वकील था जान मेगा। अंग्रेज जजों ने उसकी अपील को खारिज कर दिया था। गांधीजी की हत्या का षडयंत्र रचने में नाथूराम का भाई गोपाल गोडसे भी शामिल था, जो अदालत में जिरह के दौरान खुद को गांधी-हत्या की योजना से अनजान और बेगुनाह बताता रहा।
अदालत ने उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। गोपाल जेल में हर साल गांधी जयंती के कार्यक्रम में बढ-चढकर शिरकत करता था। ऐसा वह प्रायश्चित के तौर पर नहीं बल्कि अपनी सजा की अवधि में छूट पाने के लिए करता था, क्योंकि जेल के नियमों के मुताबिक ऐसा करने पर सजा की अवधि में छूट मिलती है। तो इस तरह गोपाल गोडसे अपनी सजा की पूरी अवधि के पहले ही रिहाई पा गया था।
महात्मा गांधी को मुस्लिम परस्त मानने वाले इस तथाकथित हिंदू ह्दय सम्राट के पुणे में सदाशिव पेठ स्थित घर का नंबर 786 था जिसके मायने होते हैं : बिस्मिल्लाहिर रहमानिर्रहीम। सदाशिव पेठ में वह अक्सर गुर्राता था कि उसका भाई नाथूराम शहीद है। वह खुद को भी एक राष्ट्रभक्त आंदोलनकारी बताता था और बेझिझक कहा करता था कि एक अधनंगे और कमजोर बूढे की हत्या पर उसे कोई पश्चाताप अथवा अफसोस नहीं है।
नाथूराम के साथ जिस दूसरे अभियुक्त को फांसी दी गई थी वह था नारायण आप्टे। नाथूराम का सबसे घनिष्ठ दोस्त और सहधर्मी। ब्रिटिश वायुसेना में नौकरी कर चुका आप्टे पहले पहले गणित का अध्यापक था और उसने अपनी एक ईसाई छात्रा मनोरमा सालवी को कुंवारी माँ बनाने का दुष्कर्म किया था। हालांकि उसकी पत्नी और एक विकलांग पुत्र भी था। शराबप्रेमी आप्टे ने गांधी हत्या से एक दिन पूर्व यानी 29 जनवरी, 1948 की रात पुरानी दिल्ली के एक वेश्यालय में गुजारी थी और उस रात को उसने अपने जीवन की यादगार रात बताया था। यह तथ्य उससे संबंधित अदालती दस्तावेजों में दर्ज है।
गांधी हत्याकांड का चौथा अभियुक्त विष्णु रामकृष्ण करकरे हथियारों का तस्कर था। उसने अनाथालय में परवरिश पाई थी। गोडसे से उसका परिचय हिंदू महासभा के कार्यालय में हुआ था। एक अन्य अभियुक्त दिगम्बर रामचंद्र बडगे जो सरकारी गवाह बना और क्षमा पा गया, पुणे में शस्त्र भण्डार नामक दुकान चलाता था। नाटे, सांवले और भेंगी आंखों बडगे ने अपनी गवाही में विनायक दामोदर सावरकर को हत्या की साजिश का सूत्रधार बताया था लेकिन पर्याप्त सबूतों के अभाव में सावरकर बरी हो गए थे।
इन दिनों कुछ सिरफिरे और अज्ञानी लोग योजनाबद्ध तरीके से नाथूराम गोडसे को उच्चकोटि का चिंतक, देशभक्त और अदम्य नैतिक ऊर्जा से भरा व्यक्ति प्रचारित करने में जुटे हुए हैं। यह प्रचार सोशल मीडिया के माध्यम से चलाया जा रहा है। उनके इस प्रचार का आधार नाथूराम का वह दस पृष्ठीय वक्तव्य है जो बडे ही युक्तिसंगत, भावुक और ओजस्वी शब्दों में तैयार किया गया था और जिसे नाथूराम ने अदालत में पढा था। इस वक्तव्य में उसने बताया था कि उसने गांधीजी को क्यों मारा। कई तरह के झूठ से भरे इस वक्तव्य में दो बडे और हास्यास्पद झूठ थे।
एक यह कि गांधीजी गोहत्या का विरोध नहीं करते थे और दूसरा यह कि वे राष्ट्रभाषा के नहीं, अंग्रेजी के पक्षधर थे। दरअसल, यह वक्तव्य खुद गोडसे का तैयार किया हुआ नहीं था। वह कर भी नहीं सकता था, क्योंकि न तो उसे मराठी का भलीभांति ज्ञान था, न ही हिंदी का, अंग्रेजी का तो बिल्कुल भी नहीं।
अलबत्ता उस समय दिल्ली में ऐसे कई हिंदूवादी थे जिनका हिंदी और अंग्रेजी पर समान अधिकार और प्रवाहमयी शैली का अच्छा अभ्यास था। इसके अलावा वे वैचारिक तार्किकता में भी पारंगत थे। माना जा सकता है कि उनमें से ही किसी ने नाथूराम की ओर से यह वक्तव्य तैयार कर जेल में उसके पास भिजवाया होगा और जिसे नाथूराम ने अदालत में पढा होगा।
आप्टे की फांसी के दिन (15 नवम्बर 1949) अम्बाला जेल के दृश्य का आंखों देखा हाल न्यायमूर्ति जीडी खोसला ने अपने संस्मरणों में लिखा है, जिसके मुताबिक गोडसे तथा आप्टे को उनके हाथ पीछे बांधकर फांसी के तख्ते पर ले जाया जाने लगा तो गोडसे लड़खड़ा रहा था। उसका गला रूधा था और वह भयभीत और विक्षिप्त दिख रहा था। आप्टे उसके पीछे चल रहा था।
उसके भी माथे पर डर और शिकन साफ दिख रही थी। तो ऐसे 'बहादुर’, 'चरित्रवान’ और 'देशभक्त’ थे ये हिंदू राष्ट्र के स्वप्नदृष्टा, जिन्होंने एक निहत्थे बूढे, परम सनातनी हिंदू और राम के अनन्य-आजीवन भक्त का सीना गोलियों से छलनी कर दिया। ऐसे हत्यारों को प्रतिष्ठित करने के प्रयास तो शर्मनाक हैं ही, ऐसे प्रयासों पर सत्ता में बैठे लोगों की चुप्पी भी कम शर्मनाक और खतरनाक नहीं।

रूह कंपा देने वाली है पिता और चाचा की यह अमानवीयता




एक के बाद एक प्रकाश में आ रही अमानवीयता की घटनाओं के बीच एक पिता और चाचा द्वारा किया गया यह अपराध अक्षम्य तो है ही, औरत के प्रति असंवेदनशीलता का चरम भी है...
पंजाब के लुधियाना जिले के जान्डी में 28 जून को तीन महीने की एक गर्भवती महिला का उसके देवर और पति ने जबर्दस्ती पेट दबाकर भ्रूण गिरा दिया, क्योंकि उसके पेट में एक कन्या भ्रूण पल रहा है। महिला के साथ जबरन पेट दबाकर किए गए गर्भपात में महिला की जान चली गई। महिला को पहले से एक बेटी थी।
इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के मुताबिक लुधियाना के जान्डी में रहने वाले इरविंदर सिंह की पत्नी मनजीत कौर गर्भवती थी। यह बात जानने पर उसने भ्रूण का लिंग जानने के लिए मनजीत के न चाहने के बावजूद टेस्ट करवाया। जब उसे पता चला कि मनजीत के पित इरविंदर को पता चला कि गर्भ में लड़की पल रही है तो वो गुस्से में पागल हो गया।
उसने पहले तो पत्नी को गर्भपात के लिए गोलियां खिलाईं, पर जब गोलियों से भी मनजीत का गर्भपात नहीं हुआ तो इरविंदर ने अपने भाई निर्मल सिंह के साथ मिलकर उसका पेट इतनी तेजी से दबाया कि भ्रूण बाहर आ गया। जोर—जबर्दस्ती से हुई इस घटना में मनजीत की जान चली गई।
एक महिला जो यह जानने के बाद कि वह गर्भ से है, अपनी आने वाली औलाद को लेकर हजारों सपने देखने लगती है। मनजीत की आंखों में भी कुछ ऐसे ही सपने पल रहे थे। इसीलिए वह लिंग परीक्षण टेस्ट भी नहीं करवाना चाहती थी, क्योंकि वह जानती थी कि अगर गर्भ में पल रहा भ्रूण कन्या होगा तो ये लोग उसे इस दुनिया में आने ही नहीं देंगे। और हुआ भी कुछ ऐसा ही।
2011 में इरविंदर सिंह के साथ मनजीत की शादी हुई थी। पोस्ट ग्रेजुएट मनजीत के पिता के मुताबिक उनकी बेटी घरेलू हिंसा की शिकार थी। जब से मनजीत ने एक बेटी को जन्म दिया था इरविंदर उसके साथ खराब व्यवहार करने लगा था। पति—पत्नी के बीच काफी तनाव रहता था। ये जानने के बाद कि कोख में आया दूसरा भ्रूण भी लड़की है, वो पागल हो गया था, इसलिए उसने अपने भाई के साथ मिलकर मनजीत का पेट जबरन दबाया जिसमें गर्भपात के साथ—साथ मनजीत की भी मौत हो गई।
वहीं मनजीत के ससुरालियों ने उसके पिता के आरोपों को खारिज करते हुए पुलिस को बताया कि भ्रूण का टेस्ट हमने नहीं उसके पिता ने करवाया था। अभी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि भ्रूण परीक्षण किसने करवाया था।
सवाल ये नहीं है कि भ्रूण का टेस्ट किसने करवाया, सवाल यह भी है कि प्रतिबंधित होने के बावजूद यह सब इतने धड़ल्ले से चल रहा है। अगर यह प्रतिबंधित होता, तो एक अजन्मे बच्चे और उसकी मां को इतनी दर्दनाक मौत नहीं मिलती।
पुलिस ने दोनों आरोपियों इरविंदर सिंह और निर्मल सिंह को गिरफ्तार कर लिया है। एसएसपी सुरजीत सिंह ने बताया कि आरोपी इरविंदर सिंह ने यह बात कबूल कर ली है कि उसने गर्भपात के लिए गोलियां खरीदी थीं। पर उनका कहना है कि भ्रूण की जांच तब हुई जब वह अपने मायके गयी थी।

भाजपा विधायक की गुंडागर्दी से सहमे मुसलमान

विधायक के बेटे से हुआ झगड़ा, सब्जी व्यापारी के बेटे को उठाकर ले गए विधायक के लोग

लखीमपुर खीरी, जनज्वार। उत्तर प्रदेश के जिला लखीमपुर खीरी के गोला विधायक अरविंद गिरी के बेटे और भाजपा समर्थकों ने आज दिन में गोला मंडी में खुलकर गुंडागर्दी का प्रदर्शन किया और योगी की मुस्तैद पुलिस उन गुंडों का मुंह ताकती रह गई। मंडी के व्यापारी इस उम्मीद में थे कि पुलिस इन पर कोई कार्रवाई करेगी, मगर पुलिस विधायक जी के आदेश का इंतजार करती रही।
विधायक के इशारे पर हुई गुंडागर्दी के बाद कुछ ऐसा हाल था मंडी का
करीब दो—तीन दिन पहले भाजपा के गोला विधायक अरविंद गिरी के बेटे अमन गिरी और गोला मंडी व्यापारी इसाक के बेटे अरशद के बीच गोला के अलीगंज रोड पर ओवरटेकिंग को लेकर झगड़ा हो गया। झगड़े के बाद विधायक के बेटे ने अमन गिरी ने भाजपा समर्थकों और अपने जानने वालों के साथ अरशद और उसके दो और साथियों की पिटाई की। इस बात का अरशद के घर वालों को जब पता चला तो वे पुलिस में शिकायत के बजाय इस उम्मीद में चुप हो गए कि विधायक जी आएंगे तो उनसे मिलकर बातचीत होगी। घटना के वक्त विधायक शहर में मौजूद नहीं थे।
लेकिन आज विधायक के आने के बाद गोला मंडी में कोहराम मच गया। करीब दो सौ लोगों की भीड़ ने गोला मंडी में पहुंचकर व्यापारियों के सारे कागजात फाड़ दिए, उनकी सब्जियां बिखेर दीं और उनके साथ मारपीट की। कहा जा रहा है कि यह सबकुछ विधायक अरविंद गिरी के इशारे पर किया गया।
इस घटना से मुसलमान इसलिए सहमे हुए हैं क्योंकि गोला मंडी में ज्यादातर दुकानें मुस्लिम व्यापारियों की हैं और वे किसी भी तरह का बवाल नहीं चाहते।
गोला के पूर्व विधायक विनय तिवारी का कहना है कि भाजपा विधायक ने यह गुंडागर्दी साम्प्रदायिक मंशा से की है, ताकि हिंदुओं—मुस्लिमों में टकराव की स्थिति पैदा कर उसका फायदा उठाया जा सके। पर समाजवादी पार्टी सामाजिक समरसता को किसी भी कीमत पर भंग नहीं होने देगी। साथ ही पूर्व सपा विधायक ने यह भी कहा कि वह प्रशासन से मिलकर मामले को निपटाने की कोशिश करेंगे।
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