भाकपा (माओवादी) खुद को नक्सलबाड़ी का उत्तराधिकारी बताती है लेकिन वो नहीं है। उसके जैविक संबंध लिट्टे जैसे आतंकी संगठनों से हैं जो जातीय पहचान की राजनीति करते हैं...
आउटलुक अंग्रेजी के नए अंक की कवर स्टोरी 'नक्सलबाड़ी के 50 साल' पर है, जिसका संपादकीय राजेश रामचंद्रन ने लिखा है। राजेश रामचंद्रन आउटलुक के संपादक हैं और माओवादी राजनीति को जानने और लिखने वाले प्रमुख पत्रकारों में से एक हैं। वामपंथी आदर्शवाद, नक्सलबाड़ी और माओवाद पर केंद्रित उनका यह संपादकीय माओवादी राजनीति पर कई सवाल खड़े करता है। हिंदी पाठकों की सुविधा के लिए जनज्वार यहां संपादकीय का अनुवाद प्रस्तुत कर रहा है।
हमेशा जवान और मरा हुआ
राजेश रामचंद्रन, संपादक, आउटलुक
आदर्शवाद जानलेवा है। यह चेतावनी, जो शहीदी इश्तिहार में हमेशा बड़े अक्षरों में लिखी होनी चाहिए, 1967 के बसंत में धुंधली पड़ गई। तब नए गणतंत्र की स्थापना के बाद आजादी को दो दशक बस हुए थे।
अभी इकबाल जिंदा था। चापलूसों और पुराने सामंतों का सिंडीकेट मजबूती के साथ सत्ता पर जमा तो हुआ था लेकिन हिंदूस्तान एक नई ताकत था और इन युवाओं को लगा कि वे इसे और अधिक मानवीय, न्यायपूर्ण और समतामूलक बना सकते हैं।
तब क्या था, उन लोगों ने मशाल जलाई और फिर उस लौ को बचाने के लिए स्वयं को भष्म कर लिया। इनमें से अधिकांश युवा, गुस्सेल और सुंदर लोग थे जो अधेड़ या व्यावहारिक होने तक नहीं रूके रहे।
उनके जीवन और मृत्यू ने राजनीति, सिनेमा, साहित्य और बहुत कुछ प्रभावित किया। और आज नक्सलबाड़ी के पचास साल बाद हमें यह मौका मिला है जहां हम यह जानने की कोशिश कर सकते हैं कि क्या उनकी मौत बेकार गई?
ऐसा संभव ही नहीं है कि हम इन लोगों की प्रशंसा न करें जिन लोगों ने अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया और बदले में बिना कुछ लिए। उनको लगता था कि वे दुनिया बदल देगें। उनसे पहले की पीढ़ी ने, जो गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी थे और जिन्होंने कम्युनिष्ट पार्टी का गठन किया था, उन्होंने सच का बदलाव किया था।
लेकिन ये लोग जल्दबाजी में थे। वो भूल गए या शायद नहीं देख पाए कि हिंसा से हिंसा पैदा होती है, हिंसा और अधिक हिंसा को न्यायोचित ठहराती है और कमजोर लोग ही हिंसक दौर में सबसे अधिक जुल्म सहते हैं।
पश्चिम बंगाल और केरल में हुए भूमि सुधार बहुत हद तक नक्सलबाड़ी उभार के लिए जिम्मेदार हैं। शायद तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सामंतवाद और सामंती उत्पीड़न को कहीं और से चुनौती नहीं मिल सकती थी। बिहार में दलितों की ओर से रणवीर सेना के गुण्डों से और कौन मुकाबला कर सकता था?
नक्सलबाडी अब पश्चिम बंगाल के सिलिगुढ़ी जिले की किसी बाड़ी या गांव का नाम नहीं रह गया था बल्कि यह उत्पीड़ितों के अधिकार की हिंसक कोशिश हो गया था, जिसमें बाहर से आए आदर्शवादी भी शामिल थे।
लेकिन आदर्शवाद एक ऐसी चीज़ है जो आग की ओर जाते पतंगों को धक्का देने का काम तो कर सकता है, पर ढांचा खड़ा करने, संगठन बनाने और जनता को शांतिपूर्ण तरीकों से ताकतवर बनाने के लिए वह काफी नहीं होता। शायद इसी कारण नक्सलबाड़ी ने साहित्य और सिनेमा को चुनावी राजनीति से अधिक प्रभावित किया।
भारतीय आदर्शवादी उस समय सकते में आ गए जब बंगलादेश की जनता पर पाकिस्तान द्वारा थोपे गए उत्पीड़न के पक्ष में चीन खड़ा हो गया। उसके बाद जल्द ही चीन विशाल अर्थव्यवस्था में बदल कर विश्व पूंजीवाद की चालक शक्ति बन गया। ऐसे में धीरे—धीरे पुराने नक्सलवादियों को एहसास हुआ कि चीन का अध्यक्ष चीन का ही हो सकता है किसी और का नहीं। दुनिया बदली और जो लोग नहीं बदल पाए उनके अंदर संत्रास और संशय ने आकार लिया। और अब उस तरह के नक्सलवादी नहीं बचे हैं।
भाकपा (माओवादी) खुद को नक्सलबाड़ी का उत्तराधिकारी बताती है लेकिन वो नहीं है। उनके जैविक संबंध लिट्टे जैसे आतंकी संगठनों से हैं जो जातीय पहचान की राजनीति करते हैं।
दिल्ली में रहने वाला एक माओवादी विचारक कुछ समय तक लिट्टे का प्रवक्ता था जो प्रभाकरण के यूरोप भाग जाने की कहानियां सुनाया करता था जबकि प्रभाकरण नंदीकडल में मारा गया। यह माओवादी दिल्ली के हाईफाई स्कूल में अपने बच्चे के दाखिले के एवज में पार्टी के महासचिव गणपति का साक्षात्कार दिलाने को तैयार था।
हम सब जानते हैं कि वो एक झूठा साक्षात्कार होता। ऐसे झूठ कई बार मुझे इनकी राजनीति पर सोचने को मजबूर करती है। जंगल में ये लोग केन्द्रीय पुलिस बल के जवानों की हत्या करते हैं जो गरीब होते हैं और आजीविका के लिए पुलिस में भर्ती हुए हैं। ये लोग विश्वविद्यालयों में कश्मीर के इस्लामी अलगाववादियों को समर्थन देते हैं। ये अबेडकरवादी होने का दावा करते हैं लेकिन संविधान से इन्हें नफरत है।
सच तो यह है कि ये रूमानियत भी नहीं है।
भाई वो कैसा माओवादी विचारक था जो अपने बच्चे को हाई प्रोफाइल स्कूल में दाखिला दिलने के लिये लेन देन कर रहा था. लेखक ऐसे भी माओवादी विचारक से मिल कर अपनी राय बनाये हैं जैसा वो फर्जी विचारक वैसा फर्जी लेखक भी लग रहे हैं. उनकी माओवाद और लिट्टे में जैविक सम्बद्ध देख रहे हैं. लेखक को तो ऐसे विचारक का नाम बताना चाहिये.
ReplyDeleteऐसे बेवकूफ जिसको माक्स वादसे प्रेरित माओवाद और लिट्टे में जैविक संबंध देखना राजनैतिक बेवकूफी है।
ReplyDeleteराजेश रामचंद्रन जी जबर्दस्त विचारक लग रहे हैं उन्हें कुछ तीर्थ स्थानों पर घूम आना चाहिए। शायद तीसरा नेत्र खुल जाय तो कुछ और बता सकें।
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