यह और कुछ नहीं, गुंडई है। खुलेआम गुंडई! पहले आप घर में करते थे, अब चौराहों पर चौड़े होकर कर रहे हैं। धर्म, परिवार, समाज और सियासत का वास्ता देकर अपनी औरतों को आपने सदियों तक चुप कराया । पर वो चुप नहीं हुईं ? वह खड़ा होने का साहस कर गयीं। तो अब आप सड़क और सरकार के सामने सरेआम नंगा हो उतर आए हैं।
आप किसी के अधिकार को खत्म करने को लेकर धरना—प्रदर्शन कर रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों को मजबूर कर रहे हैं कि लोकतंत्र में आपकी औरतों की अधिकार बहाली की वे मुखालफत करें। आप कौम के नौजवानों तक को मुर्ख बना रहे हैं कि यह धर्म पर हमला है, औरत को अधिकार देने की पहल नहीं।
आप किसी के अधिकार को खत्म करने को लेकर धरना—प्रदर्शन कर रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों को मजबूर कर रहे हैं कि लोकतंत्र में आपकी औरतों की अधिकार बहाली की वे मुखालफत करें। आप कौम के नौजवानों तक को मुर्ख बना रहे हैं कि यह धर्म पर हमला है, औरत को अधिकार देने की पहल नहीं।
हद तो यह कि इन मूर्खताओं के बावजूद आप धर्मं और खुद को प्रगतिशील कहते हैं? महान ईस्लाम और मुसल्लम ईमान वाले मुसलमान होने की बात कहते हैं? हद तो यह है कि जब आपके धर्म में औरतों की हालत पर बहस हो रही है तो आप कभी कूद कर हिन्दू धर्म की तो कभी किसी और धर्म की गंदगी उभार कर अपनी गलाजत को सही ठहराने की तरकीब तलाशते हैं. आपकी चिंता यह नहीं होती कि अपनी गन्दगी दूर कर दूसरे की मोरियों को उभार कर पूरे समाज से औरतों के दोयम स्थिति को ठीक किया जाये बल्कि आप अपनी टट्टी ढंकने के लिए दूसरे की टट्टी उभार देते हैं और सोचते हैं बच गया धर्म, हो गए हम मुसलमान।
आखिर आप भारत को कैसा लोकतंत्र बनाना चाहते हैं जो औरतों के जुल्म को धर्म के चिलमन में जायज ठहरा दे।
पर दिक्कत क्या है कि ऐसा सिर्फ आप औरतों के लिए चाहते हैं। अपने लिए पैमाना आपका बिल्कुल अलग है। क्या यह ठीक वैसी ही गुंडई है नहीं है जैसी आपके साथ हिंदूवादी और सरकार करती है। तब तो आप चाहते हैं कि मुल्क आपके साथ खड़ा हो जाए, तब आपको मानवाधिकार, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और बराबरी के सवाल चतुर्दिक नजर आते हैं। तब आपको लगता है देश में संविधान की सरकार नहीं चल रही, संघियों की शाखा जारी है।
पर दिक्कत क्या है कि ऐसा सिर्फ आप औरतों के लिए चाहते हैं। अपने लिए पैमाना आपका बिल्कुल अलग है। क्या यह ठीक वैसी ही गुंडई है नहीं है जैसी आपके साथ हिंदूवादी और सरकार करती है। तब तो आप चाहते हैं कि मुल्क आपके साथ खड़ा हो जाए, तब आपको मानवाधिकार, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और बराबरी के सवाल चतुर्दिक नजर आते हैं। तब आपको लगता है देश में संविधान की सरकार नहीं चल रही, संघियों की शाखा जारी है।
मगर आप अपनी महिलाओं के मामले में सरे राह डंडा लिए खड़े हैं और आधुनिक होते समय में आप दम ठोंककर कहते हैं — वह हमारी औरते हैं, उनका फैसला हम करेंगे...लोकतंत्र नहीं, सरकार नहीं। फिर यही भाषा आपके लिए हिंदू धार्मिक कट्टरपंथी, उन्मादी और दंगाई बोलें तो देश क्यों बोले? क्यों आपके साथ धर्मनिरपेक्षता का ढोल बजे और क्यों कोई कहे कि देश सबका है, क्यों न कहे कि यह देश हिंदुओं का है।
ऐसे में यह याद रखिए कि जो कौम और जिनके नुमाईंदे अपनी महिलाओं के साथ नहीं खड़े हो सकते, जो अपनी आधी आबादी के हक में नहीं हो सकते, उन्हें यह सोचने और चाहने का कोई हक नहीं कि पूरा देश उनके हक—हकूक के साथ खड़ा हो जाए, धार्मिक उत्पीड़न के खिलाफ आवाज बुलंद करे।
अगर यह देश और इसका लोकतंत्र मुसलमान मर्दों के दबाव में झुक जाता है और तीन तलाक जैसे अमानवीय धार्मिक प्रथा को बरकरार रखने के लिए मजबूर होता है तो यह सिर्फ मुस्लिम औरतों की हार नहीं होगी। यह हार आप मर्दों की बड़ी होगी क्योंकि इससे आप हिंदूवादियों को वह लॉजिक देंगे जिससे वह सांस्थानिक स्तर पर दशकों तक साबित करते रहेंगे कि आप कितने लोकतंत्र विरोधी, धार्मिक दकियानूस और स्त्री विरोधी हैं।
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