आप इस शख्स को ध्यान से देखिए। कैसे यह विकसित होते भारत को बदनाम कर रहा
है। मरी हुई बीवी को कंधे पर लाद के ले जा रहा है। वह भी 10 किलोमीटर। इसे
गौर से पहचान लीजिए। यह उसी कालाहांडी का है जहां भूख से मरने वालों ने देश
की समृद्धि पर दाग लगाई थी, हमारी सभ्यता को दागदार किया था। हो सके तो
इसे देश निकाला देने के लिए अभियान चलाइए। और यकीन कीजिए यह मोदी या नवीन
पटनायक की तरह चार घंटे नहीं सोता होगा। न ही अंबानी, अडानी या टाटा की तरह
हाड़तोड़ मेहनत करता होगा। मेहनत करने वाले कहीं ऐसे मरते हैं। यह दुर्गति
तो मुफ्त में रोटियां तोड़ने वालों की ही होती है। अन्यथा इसकी पत्नी
सरकारी अस्पताल में भगवान भरोसे क्यों मरती। अगर मर भी जाति तो सरकार की
हजारों एंबुलेंस क्या इसे घर तक छोड़ के नहीं आतीं। जरूर इसने मदद नहीं
मांगी होगी। किसी नेता से फोन भी नहीं कराया होगा। पक्का बदमिजाज होगा। मरे
हमें क्या!
Aug 25, 2016
वोट बैंक नहीं होता सवर्ण
दलित वोट बैंक, पिछड़ा वोट बैंक, मुस्लिम वोट बैंक।
लेकिन आपने कभी सवर्ण वोट बैंक का नाम सुना है।
नहीं न!
लेकिन आपने कभी सवर्ण वोट बैंक का नाम सुना है।
नहीं न!
सवर्ण समझदार वोटर होते हैं। ये वोट बैंक नहीं है। हो भी नहीं सकते। यह
पढ़े—लिखे और खानदानी होते हैं। यह जाति, पैसे, क्षेत्र और विचारधारा के
आधार पर वोट नहीं देते। सिर्फ विकास, शांति, सुरक्षा, सुविधा, रोजगार देने
वाले नेताओं और पार्टियों को वोट देते हैं। सही और अच्छे प्रत्याशी चुनते
हैं।
लेकिन दलित, पिछड़े और मुसलमान वोट देने में पैसा, जाति, क्षेत्र, गोत्र, संप्रदाय, विचाारधारा देखते हैं। वह पिछड़ेपन, दंगा, हिंसा, असुरक्षा, असुविधा, महंगाई, बीमारी और बलात्कार फैलाने वाले नेताओं और पार्टियों को वोट देते हैं।
अब आप पूछेंगे, ये कौन कहता है?
भारतीय मीडिया कहता है जी। उन दफ्तरों में बैठे पत्रकार कहते हैं जी। जिसको भरोसा न हो वह हिंदी पत्रकारों की एक खुली डिबेट रखे पता चल जाएगा कि हमारी पत्रकारिता और पत्रकार किस खेत की मूली है।
लेकिन दलित, पिछड़े और मुसलमान वोट देने में पैसा, जाति, क्षेत्र, गोत्र, संप्रदाय, विचाारधारा देखते हैं। वह पिछड़ेपन, दंगा, हिंसा, असुरक्षा, असुविधा, महंगाई, बीमारी और बलात्कार फैलाने वाले नेताओं और पार्टियों को वोट देते हैं।
अब आप पूछेंगे, ये कौन कहता है?
भारतीय मीडिया कहता है जी। उन दफ्तरों में बैठे पत्रकार कहते हैं जी। जिसको भरोसा न हो वह हिंदी पत्रकारों की एक खुली डिबेट रखे पता चल जाएगा कि हमारी पत्रकारिता और पत्रकार किस खेत की मूली है।
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