मंगलेश डबराल
वरिष्ठ कवि
वरिष्ठ कवि
निदा फाजली का जाना हिंदी-उर्दू कविता का बड़ा नुकसान है। वे उर्दू के ऐसे शायर थे जिन्होंने उर्दू कविता को संभ्रातता और शहरीपने से बाहर कर भक्तिकाल के विद्रोही कवियों कबीर, मीरा के साथ एकरूप किया, किसानों और आम आदमी तक ले गए। उन्होंने उर्दू शायरी को सरल बनाया और इतना सरल कि जितनी पहले कभी नहीं थी। जैसे उनका दोहा देखिए,
बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलिशान, अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान।
निदा से मेरी पहली मुलाकात 1971-72 में हुई थी। मैं एक शायर मित्र शाहिद माहुली के साथ दिल्ली में किराए के कमरे में रहता था। वह माउली के दोस्त थे और वहां उनका अक्सर आना जाना था। वहीं से उनसे मेरी दोस्ती हुई। वह बहुत ही फक्कड़ और मजाकिया किस्म के आदमी थे।
एक बार भोपाल आकाशवाणी ने कुछ लोगों को बुलाया। सुबह हम पटरी पर चाय पीने गए। वह मुस्लिम बस्ती थी। चाय वाले लड़के ने कहा, ‘पहले पैसा दोगे तो चाय पिलाउंगा।’ निदा तैयार हो गए। चाय पीकर हम उठे तो निदा का कुर्ता चाय वाले के फट्टे की कांटी में फंसकर फट गया। तभी निदा की निगाह एक वकील के बोर्ड पर पड़ी।
सुबह-सुबह मुवक्किलों को देख खुश होते हुए वकील बोले, ‘कहिए जनाब, मैं आपलोगों की क्या खिदमत कर सकता हूं।’ कुर्ते के कोने को दिखाते हुए निदा पूछे, ‘जनाब, यह फट गया है, क्या कोई मामला बनता है। मैं चाहता हूं चाय की दुकान वाला इसका हर्जाना भरे।’ वकील गंभीर होते हुए बोला,‘मामला बनता तो है। आइए बैठकर बात करते हैं।’ बाद में आने की बात कहकर हमलोग पीछे मुडे़ और उसके बाद जो हंसी का दौर चला वह जीवन भर हर मुलाकात पर जारी रहा।
ख्यात शायर शहरयार और निदा दोनों उस दौर में उभरे जब प्रधानमंत्री नेहरू के दिखाए सुंदर सपनों से देश दूर हो रहा था। पर शहरयार के मुकाबले उनकी नज्मों में उम्मीद, जिंदगी की एक आस हमेशा बनी रही। वह कभी आखिरी तौर पर निराश नहीं हुए। उन्होंने कभी नहीं माना कि हिंदुस्तान से गंगा-जमुनी संस्कृति को खत्म किया जा सकता है। शायद यही आस थी कि ग्वालियर दंगों के बाद जब निदा के मां-बाप पाकिस्तान चले गए तो उन्होंने हिंदुस्तान में ही रहना मुनासिब समझा। उन्होंने अपनी जीवनी का पहला भाग ‘दीवारों के बीच’ सबसे पहले हिंदी में लिखा, जिसमें एक किशोर के रूप में विभाजन और ग्वालियर से जुड़ी मार्मिक यादें हैं। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हिंदी और उर्दू के बीच बढ़ते फासलों को कम करने का निदा ने सजग प्रयास किया, अपनी गजलों में बिल्कुल नया प्रयोग किया। उनका एक मर्मस्पर्शी दोहा है,
‘मैं रोया परदेस में भींगा मां का प्यार, दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्टी बिन तार।’
यह सरलता और पहुंच आप उर्दू शायरी में बहुत कम पाएंगे, इसीलिए कई बार निदा कबीर को प्रतिध्वनित करते हैं। पारसी में एक कहावत है, ‘नज्म वह है जिसका कोई नस्र यानी गद्य नहीं हो सके’। निदा की शायरी इसका उदाहरण है।
निदा फाजली ग्वालियर से जाने के बाद मुंबई में रहे, लेकिन उनपर कभी फिल्मी रंग नहीं चढ़ा। प्रतिरोध के प्रति उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता कभी नहीं छोड़ी। वह देश में बढ़ती असहिष्णुता, हिंसा के सवाल पर मुखर रहे। साहस, उम्मीद और जिंदगी जीने की जिद उनमें कितनी भरपूर थी, उनकी यह नज्म बड़ी साफ कर देती है,
‘उठ के कपड़े बदल, घर से बाहर निकल... जो हुआ सो हुआ
रख के कांधे पर हल खेत की ओर चल... जो हुआ सो हुआ....
(अजय प्रकाश से बातचीत पर आधारित)
एक बार भोपाल आकाशवाणी ने कुछ लोगों को बुलाया। सुबह हम पटरी पर चाय पीने गए। वह मुस्लिम बस्ती थी। चाय वाले लड़के ने कहा, ‘पहले पैसा दोगे तो चाय पिलाउंगा।’ निदा तैयार हो गए। चाय पीकर हम उठे तो निदा का कुर्ता चाय वाले के फट्टे की कांटी में फंसकर फट गया। तभी निदा की निगाह एक वकील के बोर्ड पर पड़ी।
सुबह-सुबह मुवक्किलों को देख खुश होते हुए वकील बोले, ‘कहिए जनाब, मैं आपलोगों की क्या खिदमत कर सकता हूं।’ कुर्ते के कोने को दिखाते हुए निदा पूछे, ‘जनाब, यह फट गया है, क्या कोई मामला बनता है। मैं चाहता हूं चाय की दुकान वाला इसका हर्जाना भरे।’ वकील गंभीर होते हुए बोला,‘मामला बनता तो है। आइए बैठकर बात करते हैं।’ बाद में आने की बात कहकर हमलोग पीछे मुडे़ और उसके बाद जो हंसी का दौर चला वह जीवन भर हर मुलाकात पर जारी रहा।
ख्यात शायर शहरयार और निदा दोनों उस दौर में उभरे जब प्रधानमंत्री नेहरू के दिखाए सुंदर सपनों से देश दूर हो रहा था। पर शहरयार के मुकाबले उनकी नज्मों में उम्मीद, जिंदगी की एक आस हमेशा बनी रही। वह कभी आखिरी तौर पर निराश नहीं हुए। उन्होंने कभी नहीं माना कि हिंदुस्तान से गंगा-जमुनी संस्कृति को खत्म किया जा सकता है। शायद यही आस थी कि ग्वालियर दंगों के बाद जब निदा के मां-बाप पाकिस्तान चले गए तो उन्होंने हिंदुस्तान में ही रहना मुनासिब समझा। उन्होंने अपनी जीवनी का पहला भाग ‘दीवारों के बीच’ सबसे पहले हिंदी में लिखा, जिसमें एक किशोर के रूप में विभाजन और ग्वालियर से जुड़ी मार्मिक यादें हैं। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हिंदी और उर्दू के बीच बढ़ते फासलों को कम करने का निदा ने सजग प्रयास किया, अपनी गजलों में बिल्कुल नया प्रयोग किया। उनका एक मर्मस्पर्शी दोहा है,
‘मैं रोया परदेस में भींगा मां का प्यार, दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्टी बिन तार।’
यह सरलता और पहुंच आप उर्दू शायरी में बहुत कम पाएंगे, इसीलिए कई बार निदा कबीर को प्रतिध्वनित करते हैं। पारसी में एक कहावत है, ‘नज्म वह है जिसका कोई नस्र यानी गद्य नहीं हो सके’। निदा की शायरी इसका उदाहरण है।
निदा फाजली ग्वालियर से जाने के बाद मुंबई में रहे, लेकिन उनपर कभी फिल्मी रंग नहीं चढ़ा। प्रतिरोध के प्रति उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता कभी नहीं छोड़ी। वह देश में बढ़ती असहिष्णुता, हिंसा के सवाल पर मुखर रहे। साहस, उम्मीद और जिंदगी जीने की जिद उनमें कितनी भरपूर थी, उनकी यह नज्म बड़ी साफ कर देती है,
‘उठ के कपड़े बदल, घर से बाहर निकल... जो हुआ सो हुआ
रख के कांधे पर हल खेत की ओर चल... जो हुआ सो हुआ....
(अजय प्रकाश से बातचीत पर आधारित)
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