Jul 15, 2011

साहित्य का फ़िल्मकार

मणि कौल अकेले फिल्मकार हैं, जिनकी कला के मूल में सबसे पहले साहित्य और कविता,फिर संगीत और शिल्प की प्रेरणाएं रहीं...

मंगलेश डबराल

एक फिल्म में एक स्त्री थी जो सड़क पर,एक खास जगह पर खाना लेकर आती थी और अपने पति का इंतजार करती थी। उसका ट्रक ड्राइवर पति खाना लेने के लिए रुकता और फिर घरघराते हुए ट्रक को लेकर चला जाता। यह क्रम बार-बार दोहराया जाता था जिसे देखते हुए बंबइया फिल्मों के पिलपिले दिमाग वाले दर्शकों को ऊब भी होती थी। लेकिन यह भारतीय स्त्री की स्थिति और नियति का एक सार्थक बिंब था।

मोहन राकेश की कहानी पर आधारित मणि कौल की यह फिल्म ‘उसकी रोटी’सन् 1969 में बनी थी और इसे फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ आलोचक पुरस्कार मिला। मृणाल सेन की पहली हिंदी फिल्म 'भुवन सोम’ भी सन् 1969 में ही प्रदर्शित हुई थी। दरअसल हिंदी सिनेमा में इन दो फिल्मों के माध्यम से एक नया युग शुरू हुआ जिसे ‘नयी धारा’का सिनेमा या ‘समांतर सिनेमा’कहा गया। इसके बाद ‘सारा आकाश’,‘अंकुर’,‘भूमिका’,‘माया दर्पण’जैसी फिल्मों से हिंदी में सामांतर सिनेमा की जीवंत धारा बनी। बंबई के व्यावसायिक सिनेमा को गहरी चुनौती देने लगी। दुर्भाग्य से इस नयी धारा को सरकारी संस्थाओं से प्रोत्साहन नहीं मिला और सार्थक सिनेमा धीरे-धीरे धुंधला पड़ता गया।

मणि कौल निस्संदेह सार्थक सिनेमा के अग्रणी फिल्मकार थे। चौबीस दिसंबर 1944को जन्मे मणि कौल पुणे के फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान के छात्र थे जहां बांग्ला के प्रमुख फिल्मकार ऋत्विक घटक ने उन्हें पढ़ाया था। घटक की फिल्म-शैली बहुत सघन और कुछ-कुछ अतिनाटकीय थी। बाद में मणि कौल ने फ़्रांस के एक बड़े और प्रयोगधर्मी फिल्मकार रॉब्येर ब्रेसां से की फिल्म कला की शिक्षा ली जिनका सिनेमा अतिनाटकीयता और तादात्म्य शैली से बिलकुल उलट था और वे अभिनेताओं को फिल्म की दूसरी चीजों की तरह सिर्फ एक वस्तु मानते थे।

मणि कौल पर सिनेमा की इन दोनों लगभग विपरीत शैलियों का प्रभाव पड़ा। फिल्म कला के अलावा मणि कौल ने भारतीय सौंदर्य शास्त्र और संगीत और चित्रकला का भी गहरा अध्ययन किया था। वे ध्रुपद के गहरे जानकार और गायक थे और उन्होंने संगीत पर ‘ध्रुपद’ और ‘सिद्धेश्वरी’ जैसे बहुचर्चित वृतचित्र भी बनाये। उसकी रोटी के बाद दुविधा मणि कौल की दूसरी उल्लेखनीय और पहली रंगीन फिल्म थी जिसके लिए उन्हें निर्देशन का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। राजस्थानी कथाकार विजय दान देथा द्वारा संकलित एक लोककथा पर आधारित इस फिल्म में मणि कौल ने सचमुच एक लोककथा जैसा परिवेश निर्मित किया था और यह व्यापार करने के लिए दिशावर यानी परदेश गये पति की उपेक्षित पत्नी की नियति को चित्रित करती थी।

इस फिल्म की शैली को लेकर मणि कौल की आलोचना भी हुई और कहा गया कि वे कठोर सामाजिक यथार्थ को एक रूपवादी ढंग से पेश कर रहे हैं। दरअसल मणि कौल सिनेमा में यथार्थवाद और नव-यथार्थवाद दोनों को विखंडित करके उसे एक कला अनुभव में बदलना चाहते थे जबकि हमारा प्रचलित सिनेमा एक आदर्शपरक यथार्थवाद के वर्णन से बाहर नहीं आया था। यह भी कहा गया कि मणि कौल की शैली यूरोपीय फिल्मों से उधार ली हुई है, उसकी जड़ें हमारी जमीन में नहीं हैं, और उनका सिनेमा अपनी परंपरा से विद्रोह नहीं करता।

मणि कौल अकेले फिल्मकार है जिनकी कला के मूल में सबसे पहले साहित्य और कविता,फिर संगीत और शिल्प की प्रेरणाएं रहीं। उनकी ज्यादातर फिल्में हिंदी की कृतियों पर ही आधारित थीं। ‘उसकी रोटी’ और ‘आषाढ़ का एक दिन’ मोहन राकेश की रचनाओं पर बनी तो ‘दुविधा’, ‘सतह से उठता आदमी’ और ‘नौकर की कमीज’ क‘मशः विजयदान देथा, मुक्तिबोध और विनोद कुमार शुक्ल की कृतियों पर ‘नजर’,‘द क्लाउड डोर’ और ‘इडियट’जैसी बाद की कृतियों का आधार भी दोस्तोव्स्की की रचनाएं और बहुत सी कविताएं थी। मणि कौल अपने माध्यम के अनोखे चिंतक थे और उन्होंने अपने खास सौंदर्यबोध के साथ बिना किसी व्यवसायिक समझौते के,स्वांतः सुखाय ढंग से फिल्में बनायीं जो सिनेमा के व्यवसायिक तंत्र में नहीं समा सकती थी। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर सबसे अधिक फिल्में बनाने वाले कलाकार को सिनेमा के हाशिए पर ही रहना पड़ा।

इस हाशिए पर रहते हुए मणि कौल को लोकप्रियता या कामयाबी भले ही नहीं मिली,लेकिन वह स्वतंत्रता जरूर हासिल हुई कि अपनी सौंदर्य दृष्टि के साथ अपना सिनेमा बना सके। दरअसल मणि कौल का सिनेमा इतना निजी था कि कभी-कभी वे सौंदर्यशास्त्र को ही फिल्माने लगते थे। वे अपने गुरु ब्रेसां के शिल्प से भी परे जाकर व्यक्तियों और वस्तुओं के आपसी संबंधों को इतना विच्छिन्न कर देते थे कि सिर्फ एक समग्र सौंदर्यशास्त्रीय संबंध उजागर होता था। इस लिहाज से उनकी कई फिल्में फिल्म विधा की उच्चस्तरीय पाठ्य पुस्तकों की तरह थीं।

मणि कौल का निधन ऐसे समय में हुआ जब समांतर सिनेमा की जीवंत धारा लगभग सूख चुकी है और उसके प्रमुख फिल्मकार और अभिनेता,शाम बेनेगल,सईद मिर्जा, कुमार शहानी, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा, नसीरूद्दीन शाह, ओमपुरी, शबाना आजमी या तो व्यावसायिक समझौते कर चुके हैं या थक कर बैठ चुके हैं। अब एक ऐसा हिंदी सिनेमा बन रहा है जिसमें कलात्मकता और व्यावसायिकता, साहित्य और बाजार,शिष्टता और गालियां सब आपस में घुलमिल चुके हैं, सार्थक और बाजारू सिनेमा एक हो चुके हैं। आश्चर्य नहीं कि मणि कौल के अंतिम संस्कार पर उनके एक गहरे प्रशंसक फिल्मकार अनुराग कश्यप जब उन्हें श्रद्धांजलि देने आये तो उन्हें देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि फिल्मी दुनिया का कोई व्यक्ति वहां मौजूद नहीं था।


 
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित और हिंदी पत्रिका द पब्लिक एजेंडा के कार्यकारी संपादक. यह लेख इस बार के पब्लिक एजेंडा में प्रकाशित हुआ है.
 
 

 

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