मंदिरों को दान दिए जाने वाले धन में से कितना सफेद होता है और कितना काला, यह कहना कठिन है। पिछले कुछ बरसों में बाबाओं और भगवानों की बाढ़ सी आ गई है और उनके चेहरे टी. वी. चैनलों और अखबारों में अक्सर देखे जाने लगे हैं...
राम पुनियानी
ऐसा लगता है कि हमारी इस फ़ानी दुनिया में सबसे अधिक धन उन लोगों के पास नहीं है जो दिन-रात उसके पीछे दौड़ते रहते हैं। असली धन कुबेर तो वे हैं जो मायामोह से ऊपर उठ चुके हैं, जिनके लिए धन-संपत्ति का कोई मोल नहीं है और जिनके जीवन का लक्ष्य, मात्र इश्वर की आराधना और समाजसेवा है। पुट्टपर्थी के भगवान सत्यसाईं बाबा न केवल 40,000 करोड़ रूपये से अधिक की संपत्ति के मालिक थे वरन् उनके शयनकक्ष में भी टनों सोना और नोटों के ढ़ेर थे।
देश के योग शिक्षकों’ के बेताज बादशाह और विदेशों में जमा कालेधन को देश में वापिस लाने के लिए अपनी जान तक न्यौछावर करने को तत्पर बाबा रामदेव, लगभग 1,100 करोड़ रूपये की संपत्ति के नियामक और नियंता हैं। यह तथ्य बाबा रामदेव द्वारा दिल्ली के रामलीला मैदान में किए गए “आमरण अनशन“ के बाद सामने आया। और यह तो दो उदाहरण मात्र हैं। कई अन्य बाबा, जिनमें श्री श्री रविशंकर मोरारी बापू, आसाराम बापू व मां अमृतानंदामाई शामिल हैं, भी करोड़ों-अरबों में खेल रहे हैं। कबीर, तुकाराम, नरसी मेहता और रैदास जैसे नीची जातियों के संतों के विपरीत, आज भगवानों के बाजार के सभी प्रमुख उत्पाद, भारी-भरकम संपत्ति के मालिक हैं।
आस्था के एक अन्य केन्द्र- मंदिर- भी अकूत संपदा के स्वामी हैं। यह सर्वज्ञात है कि तिरूपति के बालाजी, शिर्डी के साईंबाबा व मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिरों में सोने और नोटों के पहाड़ हैं। यह संपत्ति मुख्यतः भक्तों द्वारा दान दिए गए धन से इकट्ठा हुई है। हाल में कुछ भाजपा-शासित राज्यों, जैसे कर्नाटक में सरकारों ने भी मंदिरों को दान देना शुरू कर दिया है। कई भक्तजन यह दावा करते हैं कि इस संपत्ति का उपयोग जनहित के लिए किया जाता है। यह अर्धसत्य है। अभी हाल में, कुछ नास्तिकों ने यह हिसाब लगाया कि सत्यसाईं बाबा की संपत्ति का मात्र 0.5 प्रतिशत हिस्सा जनहित के कार्यों पर व्यय किया गया।
मंदिरों को दान दिए जाने वाले धन में से कितना सफेद होता है और कितना काला, यह कहना कठिन है। पिछले कुछ बरसों में बाबाओं और भगवानों की बाढ़ सी आ गई है और उनके चेहरे टी. वी. चैनलों और अखबारों में अक्सर देखे जाने लगे हैं। यही कारण है कि इन बाबाओं की संपत्ति आजकल चर्चा का विषय बन गई है।
बाबाओं और भगवानों की संपत्ति के खुलासे से लगे धक्के से देश उबरा भी नहीं था कि हाल में (जुलाई 2011) यह सामने आया कि तिरूअनंतपुरम् के पद्मनाभस्वामी मंदिर में अथाह संपत्ति छिपी हुई है। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर इस मंदिर के लाकर खोले गए। ऐसा प्रतीत होता है कि पद्मनाभस्वामी, धरती के सबसे धनी भगवान हैं। कई सदियों से इस मंदिर के तहखानों में लाखों करोड़ रूपयों की संपत्ति भरी हुई है। इस संपत्ति का कुछ हिस्सा भक्तों द्वारा दिए गए दान से आया था। खजाने को भरने में सबसे बड़ा योगदान त्रावणकोर के राजा मार्तण्ड वर्मा का था। और राजा मार्तण्ड वर्मा की आमदनी का स्रोत था गरीब किसानों से वसूला गया लगान, गुलामों के व्यापार पर लगाया गया कर और उन राजाओं की संपत्ति, जिनके राज्यों पर मार्तण्ड वर्मा ने विजय प्राप्त की थी। संपत्ति का स्रोत चाहे कुछ भी रहा हो परंतु आज इसका मालिक मंदिर का ट्रस्ट है। दिमाग को चकरा देने वाले इतने बड़े खजाने के सामने आने से यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि आखिर इस संपत्ति पर असली अधिकार किसका है।
मार्तण्ड वर्मा ने कई छोटे-छोटे राजाओं को कुचलकर और उनकी संपत्ति लूटकर यह खजाना इकट्ठा किया था। कहा जाता है कि एक ब्राहम्ण पुरोहित के प्रभाव में आकर उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति और अपनी तलवार पद्मनाभस्वामी मंदिर को समर्पित कर दी और स्वयं को पद्मनाभदास घोषित कर इस संपत्ति के संरक्षक बन गए। इस संपत्ति के कुछ हिस्से का इस्तेमाल ब्राहम्णों के लिए लंगर चलाने में किया गया। परंतु अधिकांश हिस्सा मंदिर के तहखानों में सुरक्षित रहा आया। इस मंदिर का प्रबंधन एक समिति के हाथ में है और खजाने के नियंत्रक हैं मार्तण्ड वर्मा के उत्तराधिकारी।
क्या किसी भगवान या देवता को इतनी संपत्ति की जरूरत हो सकती है? क्या संपत्ति के इस पहाड़ से समाज को कोई लाभ पहुंचा है? इसमें कोई संदेह नहीं कि इस संपत्ति का कुछ हिस्सा आध्यात्मिक उदेश्यों की पूर्ति के लिए खर्च किया जा रहा है परंतु क्या किसी व्यक्ति की भौतिक जरूरतें, उसकी आध्यात्मिक जरूरतों से कमतर होती हैं? कुछ हिन्दू संगठनों और कांग्रेस सहित कई पार्टियों के नेताओं ने यह मांग की है कि इस खजाने को जस का तस रहने दिया जाए।
स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में चुने हुए जनप्रतिनिधियों का शासन स्थापित हुआ। राजाओं- जो यह दावा करते थे कि उन्हें राज करने का दैवीय अधिकार है- के प्रीवीपर्स समाप्त कर दिए गए। इस परिपेक्ष्य में इस प्रश्न पर विचार किया जाना जरूरी है कि क्या इस संपत्ति के उपयोग का निर्धारण केवल कानूनी प्रावधानों की रोषनी में किया जाना चाहिए? या फिर पूरे समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए इसका इस्तेमाल होना चाहिए। भगवान किससे ज्यादा खुश होंगे? इस संपत्ति के चन्द लोगों की मुट्ठी में रहने से या इसके पूरे समाज की भलाई के काम में इस्तेमाल से?
यह मांग की जा रही है कि भारतीयों द्वारा विदेशों में जमा धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर उसका इस्तेमाल समाज कल्याण के लिए किया जाए। क्या यही नीति बाबाओं और मंदिरों की संपत्ति के संबंध में भी नहीं अपनाई जानी चाहिए? जो लोग गला फाड़-फाड़ कर काले धन के राष्ट्रीयकरण की मांग कर रहे हैं-और इसमें कुछ गलत भी नहीं है-वे मंदिरों और बाबाओं की संपत्ति के बारे में चुप क्यों हैं? यह सचमुच एक पहेली है कि जो लोग काले धन के मुद्दे पर अनशन और आंदोलन करते रहते हैं, उनके होंठ तब क्यों सिल जाते हैं जब बात उस संपत्ति की आती है जो किसी बाबा या चन्द ट्रस्टियों के कब्जे में है।
मंदिर हमेशा से धन-संपदा के केन्द्र रहे हैं। कई राजाओं ने इस संपत्ति की खातिर मंदिरों को जमींदोज किया। महमूद गजनवी की नजर सोमनाथ मंदिर के विशाल खजाने पर थी परंतु उसने मंदिर पर हमला करने के लिए यह बहाना ढूढ़ा कि वहां बुतपरस्ती होती है, इस्लाम जिसकी इजाजत नहीं देता। इस और इसी तरह की अन्य ऐतिहासिक घटनाओं का इस्तेमाल, साम्प्रदायिक ताकतों ने समाज को विभाजित करने के लिए किया। तथ्य यह है कि हिन्दू राजा भी मंदिरों को लूटने में पीछे नहीं रहे। कल्हण की राजतरंगिनी में वर्णित है कि कश्मीर के 11वीं सदी के राजा हर्षदेव के दरबार में “देवोत्पतननायक“ नामक एक अधिकारी होता था जिसका काम था मंदिरों से कीमती मूर्तियों को उखाड़कर राजा के खजाने में पहुंचाना।
धार्मिक आस्था से जुड़े मुद्दे इन दिनों देश में छाए हुए हैं। गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याओं को सुलझाने से ज्यादा तरजीह मंदिरों के निर्माण को दी जा रही है। जहां आमजनों की आस्था का सम्मान किया जाना ज़रूरी है वहीं यह भी जरूरी है कि देश की संपत्ति का उपयोग जनहित में हो। पद्मनाभस्वामी मंदिर में दबे खजाने और इसी तरह की अन्य संपत्तियों को संपूर्ण समाज के नियंत्रण में लाया जाना आज की ज़रूरत है। इन खजानों की एक-एक पाई का इस्तेमाल गरीबी उन्मूलन और कमजोर व दरिद्र लोगों के सशक्तिकरण के कार्यक्रम चलाए जाने पर किया जाना चाहिए। भगवान का काम बिना पैसों के चल जाएगा।
आस्था के एक अन्य केन्द्र- मंदिर- भी अकूत संपदा के स्वामी हैं। यह सर्वज्ञात है कि तिरूपति के बालाजी, शिर्डी के साईंबाबा व मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिरों में सोने और नोटों के पहाड़ हैं। यह संपत्ति मुख्यतः भक्तों द्वारा दान दिए गए धन से इकट्ठा हुई है। हाल में कुछ भाजपा-शासित राज्यों, जैसे कर्नाटक में सरकारों ने भी मंदिरों को दान देना शुरू कर दिया है। कई भक्तजन यह दावा करते हैं कि इस संपत्ति का उपयोग जनहित के लिए किया जाता है। यह अर्धसत्य है। अभी हाल में, कुछ नास्तिकों ने यह हिसाब लगाया कि सत्यसाईं बाबा की संपत्ति का मात्र 0.5 प्रतिशत हिस्सा जनहित के कार्यों पर व्यय किया गया।
मंदिरों को दान दिए जाने वाले धन में से कितना सफेद होता है और कितना काला, यह कहना कठिन है। पिछले कुछ बरसों में बाबाओं और भगवानों की बाढ़ सी आ गई है और उनके चेहरे टी. वी. चैनलों और अखबारों में अक्सर देखे जाने लगे हैं। यही कारण है कि इन बाबाओं की संपत्ति आजकल चर्चा का विषय बन गई है।
बाबाओं और भगवानों की संपत्ति के खुलासे से लगे धक्के से देश उबरा भी नहीं था कि हाल में (जुलाई 2011) यह सामने आया कि तिरूअनंतपुरम् के पद्मनाभस्वामी मंदिर में अथाह संपत्ति छिपी हुई है। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर इस मंदिर के लाकर खोले गए। ऐसा प्रतीत होता है कि पद्मनाभस्वामी, धरती के सबसे धनी भगवान हैं। कई सदियों से इस मंदिर के तहखानों में लाखों करोड़ रूपयों की संपत्ति भरी हुई है। इस संपत्ति का कुछ हिस्सा भक्तों द्वारा दिए गए दान से आया था। खजाने को भरने में सबसे बड़ा योगदान त्रावणकोर के राजा मार्तण्ड वर्मा का था। और राजा मार्तण्ड वर्मा की आमदनी का स्रोत था गरीब किसानों से वसूला गया लगान, गुलामों के व्यापार पर लगाया गया कर और उन राजाओं की संपत्ति, जिनके राज्यों पर मार्तण्ड वर्मा ने विजय प्राप्त की थी। संपत्ति का स्रोत चाहे कुछ भी रहा हो परंतु आज इसका मालिक मंदिर का ट्रस्ट है। दिमाग को चकरा देने वाले इतने बड़े खजाने के सामने आने से यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि आखिर इस संपत्ति पर असली अधिकार किसका है।
मार्तण्ड वर्मा ने कई छोटे-छोटे राजाओं को कुचलकर और उनकी संपत्ति लूटकर यह खजाना इकट्ठा किया था। कहा जाता है कि एक ब्राहम्ण पुरोहित के प्रभाव में आकर उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति और अपनी तलवार पद्मनाभस्वामी मंदिर को समर्पित कर दी और स्वयं को पद्मनाभदास घोषित कर इस संपत्ति के संरक्षक बन गए। इस संपत्ति के कुछ हिस्से का इस्तेमाल ब्राहम्णों के लिए लंगर चलाने में किया गया। परंतु अधिकांश हिस्सा मंदिर के तहखानों में सुरक्षित रहा आया। इस मंदिर का प्रबंधन एक समिति के हाथ में है और खजाने के नियंत्रक हैं मार्तण्ड वर्मा के उत्तराधिकारी।
क्या किसी भगवान या देवता को इतनी संपत्ति की जरूरत हो सकती है? क्या संपत्ति के इस पहाड़ से समाज को कोई लाभ पहुंचा है? इसमें कोई संदेह नहीं कि इस संपत्ति का कुछ हिस्सा आध्यात्मिक उदेश्यों की पूर्ति के लिए खर्च किया जा रहा है परंतु क्या किसी व्यक्ति की भौतिक जरूरतें, उसकी आध्यात्मिक जरूरतों से कमतर होती हैं? कुछ हिन्दू संगठनों और कांग्रेस सहित कई पार्टियों के नेताओं ने यह मांग की है कि इस खजाने को जस का तस रहने दिया जाए।
स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में चुने हुए जनप्रतिनिधियों का शासन स्थापित हुआ। राजाओं- जो यह दावा करते थे कि उन्हें राज करने का दैवीय अधिकार है- के प्रीवीपर्स समाप्त कर दिए गए। इस परिपेक्ष्य में इस प्रश्न पर विचार किया जाना जरूरी है कि क्या इस संपत्ति के उपयोग का निर्धारण केवल कानूनी प्रावधानों की रोषनी में किया जाना चाहिए? या फिर पूरे समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए इसका इस्तेमाल होना चाहिए। भगवान किससे ज्यादा खुश होंगे? इस संपत्ति के चन्द लोगों की मुट्ठी में रहने से या इसके पूरे समाज की भलाई के काम में इस्तेमाल से?
यह मांग की जा रही है कि भारतीयों द्वारा विदेशों में जमा धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर उसका इस्तेमाल समाज कल्याण के लिए किया जाए। क्या यही नीति बाबाओं और मंदिरों की संपत्ति के संबंध में भी नहीं अपनाई जानी चाहिए? जो लोग गला फाड़-फाड़ कर काले धन के राष्ट्रीयकरण की मांग कर रहे हैं-और इसमें कुछ गलत भी नहीं है-वे मंदिरों और बाबाओं की संपत्ति के बारे में चुप क्यों हैं? यह सचमुच एक पहेली है कि जो लोग काले धन के मुद्दे पर अनशन और आंदोलन करते रहते हैं, उनके होंठ तब क्यों सिल जाते हैं जब बात उस संपत्ति की आती है जो किसी बाबा या चन्द ट्रस्टियों के कब्जे में है।
मंदिर हमेशा से धन-संपदा के केन्द्र रहे हैं। कई राजाओं ने इस संपत्ति की खातिर मंदिरों को जमींदोज किया। महमूद गजनवी की नजर सोमनाथ मंदिर के विशाल खजाने पर थी परंतु उसने मंदिर पर हमला करने के लिए यह बहाना ढूढ़ा कि वहां बुतपरस्ती होती है, इस्लाम जिसकी इजाजत नहीं देता। इस और इसी तरह की अन्य ऐतिहासिक घटनाओं का इस्तेमाल, साम्प्रदायिक ताकतों ने समाज को विभाजित करने के लिए किया। तथ्य यह है कि हिन्दू राजा भी मंदिरों को लूटने में पीछे नहीं रहे। कल्हण की राजतरंगिनी में वर्णित है कि कश्मीर के 11वीं सदी के राजा हर्षदेव के दरबार में “देवोत्पतननायक“ नामक एक अधिकारी होता था जिसका काम था मंदिरों से कीमती मूर्तियों को उखाड़कर राजा के खजाने में पहुंचाना।
धार्मिक आस्था से जुड़े मुद्दे इन दिनों देश में छाए हुए हैं। गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसी समस्याओं को सुलझाने से ज्यादा तरजीह मंदिरों के निर्माण को दी जा रही है। जहां आमजनों की आस्था का सम्मान किया जाना ज़रूरी है वहीं यह भी जरूरी है कि देश की संपत्ति का उपयोग जनहित में हो। पद्मनाभस्वामी मंदिर में दबे खजाने और इसी तरह की अन्य संपत्तियों को संपूर्ण समाज के नियंत्रण में लाया जाना आज की ज़रूरत है। इन खजानों की एक-एक पाई का इस्तेमाल गरीबी उन्मूलन और कमजोर व दरिद्र लोगों के सशक्तिकरण के कार्यक्रम चलाए जाने पर किया जाना चाहिए। भगवान का काम बिना पैसों के चल जाएगा।
पोवई आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर राम पुनियानी वरिष्ठ स्तंभकार हैं. उनका यह हिंदी लेख लोकसंघर्ष ब्लॉग से साभार प्रकाशित किया जा रहा है.
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