Jul 6, 2011

असहमति अन्ना से हो भ्रष्टाचार से नहीं


हमारे यहाँ ऐसे बुद्धिजीवियों की कमी नहीं जो  आन्दोलनों से रहते तो दूर हैं, पर सूँघने की इनकी नाक बड़ी लम्बी होती है। हर ओर इन्हें साजिश ही नजर आती है..

कौशल किशोर

आज अन्ना हजारे और उनके भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को लेकर कई सवाल उठाये जा रहे हैं। साहित्यकार मुद्राराक्षस ने हाल ही में आरोप लगाया है कि अन्ना भाजपा व राष्ट्रीय सेवक संघ का मुखौटा हैं और अन्ना के रूप में इन्हें ‘आसान झंडा’मिल गया है। जन लोकपाल समिति में ऐसे लोग शामिल हैं,जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। अन्ना हजारे की यह माँग कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में ले आया जाय, संविधान के विरुद्ध है।

मुद्राराक्षस ने यहाँ तक सवाल उठाया है कि अन्ना और उनकी सिविल सोसायटी पर संसद और संविधान की अवमानना का मुकदमा क्यों न दर्ज किया जाय?  ऐसे में अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की पड़ताल जरूरी है क्योंकि आज यह आन्दोलन अपने अगले चरण की ओर अग्रसर है और जन आंदोलन की शक्तियाँ वैचारिक और सांगठनिक तैयारी में जुटी हैं।

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। हमारे संसदीय जनतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर मुख्य राजनीति का निर्माण करते हैं, लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि तमाम पार्टियाँ सत्ता की राजनीतिक पार्टिर्यों में बदल गई हैं। उसके अर्थतंत्र का हिस्सा बनकर रह गई हैं aur अन्ना हजारे इसी यथार्थ की उपज हैं।

अन्ना हजारे के व्यक्तित्व और विचार में कमियाँ और कमजोरियाँ मिल सकती हैं। वे गाँधीवादी हैं। खुद गाँधीजी अपने तमाम अन्तर्विरोधों के बावजूद स्वाधीनता आन्दोलन के बड़े नेता रहे हैं। इसी तरह अन्ना हजारे के विचारों और काम करने के तरीकों में अन्तर्विरोध संभव है,लेकिन इसकी वजह से उनके आन्दोलन के महत्व को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है।

 इस आन्दोलन का सबसे बड़ा महत्व यही है कि इनके द्वारा उठाया गया भ्रष्टाचार का मुद्दा आज केन्दीय मुद्दा बन गया है जिसने समाज के हर तबके को काफी गहरे संवेदित किया है और इसे खत्म करने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं। अन्ना हजारे और उनके आंदोलन की इस उपलब्धि को क्या अनदेखा किया जा सकता है कि 42सालों से सरकार के ठंढ़े बस्ते में पड़ा लोकपाल विधेयक बाहर आया,उसे मजबूत और प्रभावकारी बनाने की चर्चा हो रही है,और इस पर सर्वदलीय बैठक आयोजित हुई।

हमारे यहाँ ऐसे बुद्धिजीवियों की कमी नहीं जो हर आन्दोलनों से रहते तो दूर हैं, पर सूँघने की इनकी नाक बड़ी लम्बी होती है। हर ओर इन्हें साजिश ही नजर आती है। ये अन्ना द्वारा नरेन्द्र मोदी की तारीफ पर तो खूब शोर मचाते हैं,लेकिन इस सम्बन्ध में अन्ना ने जो सफाई दी, ह इन्हें सुनाई नहीं देता है। किसानों की आत्म हत्या,बहुराष्ट्रीय निगमों का शोषण,चालीस करोड़ से ज्यादा लोगों का गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन के लिए बाध्य किया जाना जैसे मुद्दे तो इन्हें संवेदित करते हैं लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जब प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात आती है तो वह उन्हें देश में आजादी के बाद पहली बार अल्पसंख्यक सिख समुदाय के प्रधानमंत्री को अपमानित करने का षडयंत्र नजर आता है।

अपनी बौखलाहट में ये अन्ना और सिविल सोसाइटी पर जाँच बैठा कर मुकदमा चलाने की माँग करते हैं। ये इस सच्चाई को भुला बैठते हैं कि प्रधानमंत्री किसी समुदाय विशेष का न होकर वह सरकार का प्रतिनिधि होता है। हमारे इन बौद्धिकों को अन्ना द्वारा किसान आत्महत्याओं पर भूख हड़ताल न करने पर शिकायत है लेकिन किसान आंदोलनों पर सरकार के दमन पर ये चुप्पी साध लेते हैं।

कहा जा रहा है कि अन्ना हजारे जिस लोकपाल को लाना चाहते हैं,वह संसद और सविधान की अवमानना है। पर सच्चाई क्या है ?हमारी सरकार कहती है कि यहाँ कानून का राज है। लेकिन विडम्बना यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हमारे यहाँ कोई मजबूत कानून की व्यवस्था नहीं है। मामला चाहे बोफोर्स घोटाले का हो या भोपाल गैस काँड का या पिछले दिनों के तमाम घोटालों का हो,इसने हमारे कानून की सीमाएँ उजागर कर दी हैं। तब तो एक ऐसी संस्था का होना हमारे लोकतंत्र के बने रहने के लिए जरूरी है। यह संस्था जनता का लोकपाल ही हो सकती है जिसके पास पूरा अधिकार व क्षमता हो और वह सरकार के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त व स्वतंत्र हो तथा जिसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर सारे लोगों को शामिल किया जाय।

प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात को लेकर मतभेद है लेकिन अतीत में प्रधानमंत्री जैसे पद पर जब अंगुली उठती रही है तब तो यह और भी जरूरी हो जाता है। सर्वदलीय बैठक में कई दलों के प्रवक्ता ने प्रधानमंत्री को इस दायरे में लाने की बात कही है और स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनसे मिलने गये सम्पादकों से कहा कि वे लोकपाल के दायरे में आने को तैयार हैं। फिर समस्या क्या है ?

अन्त में,भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लम्बी है। मजबूत और प्रभावकारी लोकपाल का गठन इसका पहला चरण हो सकता है। हम अन्ना हजारे से सहमत हो सकते है, असहमत हो सकते हैं या उनके विरोधी हो सकते है लेकिन यदि हम समझते है कि भ्रष्टाचार हमारे राष्ट्र,समाज,जीवन,राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति को दीमक की तरह चाट रहा है तो समय की माँग है कि इस संघर्ष को अन्ना हजारे और उनके चन्द साथियों पर न छोड़कर देश के जगरूक नागरिक,देशभक्त,बुद्धिजीवी, ईमानदार राजनीतिज्ञ लोकतांत्रिक संस्थाएँ,जन संगठन आगे आयें और इसे व्यापक जन आंदोलन का रूप दें।
 
 
जनसंस्कृति मंच लखनऊ के संयोजक और सामाजिक संघर्षों में सक्रिय.


 
 
 
 

1 comment:

  1. mudrarakashs pagla gai hai ki anna par mukdama chlaya jaya.kis bat ka mukdma .mudrarakshs aur congrees mai kya fark hai samjh may nahi aya. issue currupption hai .not anna hazare.

    ReplyDelete