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पैंतीस साल पहले मुजफ्फरनगर गोली कांड उर्फ मुस्लिम नसबंदी कांड के लिए गठित आयोग की जांच इसलिए सार्वजनिक नहीं हो सकी क्योंकि वह दस्तावेज जिस बक्से में बंद हैं, उसकी चाबी खो गयी है...
डा. संजीव
जनसंख्या वृद्धि कम करने के लिए हमारे देश में नसबंदी का आयोजन आम है,लेकिन 35 साल पहले जैसा नसबंदी कैंप उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के खालापार में लगा था,उसको याद कर आज भी लोकतंत्र शर्मशार होता है। साथ में हकीकत भी सरेआम होती है कि अल्पसंख्यकों के मामले में न्याय महज एक संयोग और मजाक से अधिक कुछ नहीं है। गौरतलब है कि अल्पसंख्यक हित का ढोल बजाने वाली पार्टी कांग्रेस की आपातकालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बड़े पुत्र संजय गांधी के इशारे पर 16 अक्टूबर 1976 को खालापार में 35 मुसलमानों को पुलिस वालों ने मार डाला था, जब वे बड़जोरी से किये जो रहे नसबंदी की मुखालफत कर रहे थे।
मुजफ्फरनगर गोली कांड उर्फ मुस्लिम नसबंदी कांड के इतने वर्षों बाद पीड़ितों की आंखों का पानी सूख गया है, पर इंसाफ की उम्मीद आज भी उनकी आंखों में टिमटिमा रही है। 16 अक्टूबर 1976 से अबतक पैंतीस साल का अरसा बीत गया,लेकिन अब तक न तो किसी नेता ने और न किसी सरकार ने उनकी सुध ली है। यह बात अलग है कि सरकार ने गोलीकांड के बाद जांच आयोग का गठन किया और आयोग ने जांच पड़ताल भी की, लेकिन आयोग के कागजात तीस सालों से एक अलमारी में बंद पड़े हैं और राजनीतिक दलों के लिए भी अब यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। पीड़ितों की सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि इस कांड के गुनाहगारों को कानून के कटघरे में आज तक खड़ा नहीं किया जा सका है। उल्लेखनीय है कि मुजफ्फरनगर कलेक्ट्रेट परिसर में जांच आयोग की रिपोर्ट जिस बक्से में बंद है, उसकी चाबी तीस साल पहले खो गयी थी।
1977 के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने इमरजेंसी के मुद्दे के साथ नसबंदी कांड पर भी कांग्रेस के खिलाफ मतदान किया था। ‘नसबंदी कांड’तब प्रमुख चुनावी मुद्दा बन गया था। मुसलमानों ने कांग्रेस के खिलाफ वोट देकर जनता पार्टी को जिताया था। लेकिन इस मामले का दूसरा पहलू यह है कि गोलीकांड के पीड़ित परिवारों को आज तक न्याय तो दूर,मुआवजा और रोजगार तक नहीं मिला। मामले की जांच कर रहे आयोग के कागजात 30 साल से एक अलमारी में बंद पड़े हैं। इस गोलीकांड में 35 लोग मारे गये थे लेकिन आज तक इस मामले के दोषियों का पता ही नहीं चल पाया है।
हालत यह है कि जांच आयोग बैठने के बाद भी न तो किसी को मुआवजा मिला और न ही किसी को रोजगार। पीड़ितों के परिजनों का कहना है कि उनके साथ उस समय बड़ा मजाक हुआ जब प्रदेश की मुलायम सिंह यादव सरकार में इमरजेंसी के पीड़ितों को लोकतंत्र सेनानी का दर्जा देकर उन्हें सम्मानित किया और आर्थिक सहायता देने की घोषणा की। इस मामले में समाजसेवी और इस घटना के गवाह मनेश गुप्ता,मुफ्ती जुल्फिकार का कहना है कि यह घटना प्रशासनिक भूल का नतीजा था। कुछ दिन बाद यहां संजय गांधी का दौरा था। उनके परिवार नियोजन के एजेंडे में नसबंदी के केसों की संख्या बढ़ाने के लिए ही पुलिस जोर जबरदस्ती का सहारा ले रही थी। पुलिस लोगों को पकड़कर नसबंदी के लिए मजबूर कर रही थी। समय के साथ लोग इस नसबंदी कांड को भूलते गये लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि इन मुद्दों पर राजनीतिक रने वाले नेता चुनावों में सफल होकर सांसद, विधायक बनने के बाद पीड़ितों के जख्मों पर आज तक मरहम लगाने में आखिर कामयाब नहीं हो पाये।
शहर के खालापार का नसबंदी गोलीकांड प्रदेश ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा में रहा। 18 अक्टूबर,1976को पुलिस ने जबरन नसबंदी का विरोध कर रहे लोगों को गोलियों से भून डाला। जनता पुलिस के बीच हुए टकराव में जनता पुलिस की थ्री नोट थ्र्री गोली का मुकाबला पत्थरों से कर रही थी। इस गोलीबारी में 35लोगों की मौत हुई थी। मरने वालों में मौहम्मद सलीम (18), इलियास (14), इकबाल (12), रहमत (25), देवेन्द्र कुमार (25), जीत कुमार (26), जुल्फिकार, इंतजार, शब्बीर उर्फ बारू रियासत (25), जहीर अहमद उर्फ कालू रहमत, सईद, जमषेद (18), सत्तार (18), सुक्का खेड़ी फिरोजपुर, सिद्दीकी (18), शेर अहमद (16), नफीस (18), अब्दुल (16), मंजूर (16), मौहम्मद इब्राहिम (24), निजामुद्दीन (23), मौहम्मद हबीब (25), के अलावा 12 अन्य लोग मारे गये थे। इतने ही लोग घायल हो गये थे। इमरजेंसी के कारण इस घटना ने आग में घी का काम किया था। इमरजेंसी हटने के बाद जब 1977 में आम चुनाव हुए तो कांग्रेस के विरोध में मुस्लिम लामबंद हो गये थे।
नसबंदी कांड प्रदेश के साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर जनता पार्टी का प्रमुख चुनावी मुद्दा था। इसी कारण उसके पक्ष में लहर चली और कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सभी सीटें हार गई। रायबरेली में इंदिरा गांधी और अमेठी से संजय गांधी को भी हार का मुंह देखना पड़ा था। मुजफ्फरनगर से जनता पार्टी के टिकट पर सईद मुर्तजा इसी मुद्दे पर चुनाव जीत कर लोकसभा पहुंचे थे। उस समय नई सरकार बनने के बाद लोगों को उम्मीद बंधी थी कि पीड़ितों को न्याय व मुआवजा व रोजगार मिलेगा। सरकार ने मामले की जांच के लिए आयोग का गठन किया था। आयोग ने मामले की जांच के बयान लिए गए लेकिन कुछ समय आगे बढ़ने के बाद ही मामला ठंडा पड़ गया।
यही कारण है कि मिश्र आयोग की जांच के फाइल-पत्रावली, कागजात और लोगों की गवाही जिले के रिकार्ड रूम की एक अलमारी में पिछले 30 साल से ताले में बंद है। इसकी चाभी भी मिश्र आयोग के सचिव अपने साथ ले गये थे। उस समय यह सीलबंद अलमारी खालापार कांड के नाम से जानी जाती थी। कागजात किस हालत में है इसकी सुध किसी न नहीं ली है। खालापार के फक्करशाह चौक में बर्फ बेचकर अपने परिवार का गुजारा करने वो मौहम्मद राशिद ने बताया कि इस कांड में उनके पिता जमाल मारे गये थ। मोनू के भाई सत्तार भी पुलिस की गोली के शिकार हुए थे। दर्जी वाली गली के अशरफ घायल हुए थे। इन सभी पीड़ित परिवारों को आज भी इंसाफ मिलने का इंतजार है, लेकिन इंसाफ मिलेगा कब किसी को नहीं पता।
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