May 2, 2011

प्रचंड मुग्धता नहीं, शीर्ष को बचाने की कोशिश

 नेपाल के राजनीतिक हालात और नेपाली माओवादी पार्टी की भूमिका को लेकर आयोजित इस बहस में   1-क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है? ,,2-क्रांतिकारी लफ्फाजी या अवसरवादी राजनीति  , 3- दो नावों पर सवार हैं प्रचंड  और    'प्रचंड' आत्मसमर्पणवाद के बीच उभरती एक धुंधली 'किरण'  के बाद अब  आनंद स्वरुप वर्मा ने जवाब लिखा है. उम्मीद है उनका यह जवाब बहस को सुगठित करेगा और हम नेपाली माओवादी पार्टी के  रणनीतिक विकल्पों को और व्यावहारिक  हो समझ सकेंगे...मॉडरेटर


प्रचण्ड और बाबूराम दोनों ने अपने इंटरव्यू में कहा है कि हम शांति प्रक्रिया को पूरा करने का प्रयास करेंगे और अगर इसमें रुकावट पैदा की गयी तो विद्रोह में जाएंगे। मुझे इन दोनों के कथन में कोई विरोधाभास  नहीं दिखायी देता फिर मेरे ‘यू टर्न’लेने की बात कहां से पैदा हुई...


आनंद स्वरूप वर्मा

जनज्वार में मेरे लेख 'क्या माओवादी क्रांति की उलटी गिनती शुरू हो गई' को लेकर जो  प्रतिक्रियाएं आयी हैं उन पर विस्तार से जवाब देने का मेरे पास अभी समय नहीं है, क्योंकि मैं एक सप्ताह के लिए दिल्ली से बाहर जा रहा हूं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिस हिस्से में मैं रहूंगा वहां बिजली संकट के कारण और अपनी पारिवारिक व्यस्तता के कारण इंटरनेट की सुविधा का इस्तेमाल भी नहीं कर पाऊंगा इसलिए जो कुछ लिखना है वह वापस दिल्ली लौटने पर ही संभव है। फिर भी कुछ तथ्यों को पाठकों की जानकारी के लिए रखना चाहता हूं:

1. मैंने शुरू से यह कहा है और अपने लेखों के जरिए बार-बार इस पर जोर दिया है कि राजतंत्र की समाप्ति के साथ नेपाली क्रांति का महज एक चरण पूरा हुआ है। नेपाली क्रांति अभी जारी है लेकिन फिलहाल संघर्ष का मोर्चा बदल गया है। यह तब तक जारी रहेगी जब तक नेपाल की सामाजिक संरचना में आमूल परिवर्तन न हो जाए जो कि माओवादियों का घोषित लक्ष्य है और यह लक्ष्य उन्हें   समाजवाद के चरण में ले जाएगा। नेपाली क्रांति का नेतृत्व समूह और एक एक कार्यकर्ता भी यही कहता है कि ‘क्रांति जारी छ (है)।’

2. जनयुद्ध से संविधान सभा के जरिए सत्ता हासिल करने का शांतिपूर्ण संक्रमण किसी अर्द्धसामंती और अर्द्धऔपनिवेशिक देश में किया जाने वाला पहला प्रयोग है और इसकी वजह से कई तरह के विभ्रम का पैदा होना स्वाभाविक है। परंपरागत तौर पर अतीत में जो क्रांतियां संपन्न हुई हैं उनमें ऐसी विशिष्ट स्थिति नहीं थी इसलिए कहा जा सकता है कि नेपाल में यह एक प्रयोग है जो सफल होगा या असफल यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्रांतिकारी शक्तियां कितनी कुशलता से नए अंतर्विरोधों और नयी समस्याओं का समाधान कर सकती हैं। यह कोई नहीं कहता कि राजतंत्र की समाप्ति के साथ नेपाल की क्रांति का कार्यभार पूरा हो गया। जाहिर है कि मैं भी ऐसा नहीं मानता।

3. नेपाल की राजनीति में भारत का हस्तक्षेप कोई नयी बात नहीं है। निकट अतीत के इतिहास को देखें तो राजा त्रिभुवन के समय से ही यह हस्तक्षेप जारी है। 1950में संपन्न दिल्ली समझौता (जिसके बाद राणाशाही समाप्त हुई और राजा त्रिभुवन के रूप में शाह वंश को फिर से स्थापित किया गया) के खिलाफ नेपाल के अंदर वे ताकतें सक्रिय थीं जो किसानों के बीच संघर्ष चला रही थीं और जिन्होंने दिल्ली समझौता को पूरी तरह खारिज किया था। यह प्रतिरोध इतना उग्र था कि भैरहवा में डा. के.आई.सिंह और उनके साथियों के नेतृत्व में चल रहे संघर्ष का दमन करने के लिए भारतीय सेना वहां पहुंची  थी। भीम दत्त पंत के समय भी यह स्थिति देखने को मिली थी।

4. महाराजा महेन्द्र ने जब बी.पी.कोइराला की निर्वाचित सरकार को भंग किया, कोइराला को जेल में डाला और निरंकुश पंचायती व्यवस्था की स्थापना की,उस समय भी महेन्द्र को भारत का पूरा समर्थन प्राप्त था। महेन्द्र के बाद बीरेन्द्र के शासनकाल में भी पंचायती व्यवस्था जारी रही और भारत के साथ मधुर  संबंध बने रहे। कहा जा सकता है कि भारत के समर्थन से ही 30वर्षों तक निरंकुश पंचायती व्यवस्था बनी रही।

5. 1990 में बहुदलीय व्यवस्था कायम होने के बाद नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना हुई और भारत ने ‘दो स्तंभों का सिद्धांत’घोषित किया। इसका कहना था कि नेपाल का विकास संवैधानिक राजतंत्र और बहुदलीय प्रजातंत्र के जरिए ही संभव है। माओवादियों ने इस सिद्धांत का हमेशा विरोध किया और कहा कि किसी भी रूप में राजतंत्र का बने रहना नेपाली जनता के हित में नहीं है।

6. 1996 में जिस जनयुद्ध की शुरुआत हुई उसका घोषित लक्ष्य नेपाल में नवजनवादी क्रांति को संपन्न करना था। यह लक्ष्य आज भी बना हुआ है-फर्क इतना है कि सशस्त्र संघर्ष को अभी विराम दे दिया गया है लेकिन पीएलए का समर्पण नहीं किया गया है जैसा कि कुछ खेमों द्वारा प्रचारित किया जाता है। पीएलए के हथियार एक कंटेनर में अभी भी रखे हुए हैं जिनकी चाबी माओवादी नेतृत्व के पास है। पहले इसकी देखरेख ‘अनमिन’(यूनाइटेड नेशंस मिशन इन नेपाल)करती थी लेकिन अनमिन के जाने के बाद अब यह काम एक संसदीय समिति कर रही है जिसमें माओवादी पार्टी के भी प्रतिनिधि हैं।

7. 2005 में चुनवांग बैठक में लिए गए फैसले के अनुसार माओवादियों ने बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियों  के साथ 12 सूत्री समझौता किया और इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए 2006 का व्यापक शांति समझौता, अंतरिम सरकार का गठन, संविधन सभा का चुनाव, राजतंत्र की समाप्ति आदि संपन्न हुए। चुनवांग बैठक में यह राय बनी थी कि राजतंत्र की समाप्ति और गणराज्य की घोषणा के बाद जो नयी परिस्थिति पैदा होगी उसमें बुर्जुआ ताकतें इस गणराज्य को पूंजीवादी गणराज्य का रूप देना चाहेंगी और हम यानी माओवादी यह प्रयास करेंगे कि इसे सही अर्थों में जनता का गणराज्य बनाया जाए।

8. गणराज्य की स्थापना के बाद अंतर्विरोधों का स्वरूप बदल गया लेकिन राज्य का वर्ग चरित्र नहीं बदला और वह अर्द्ध सामंती तथा अर्द्ध औपनिवेशिक बना रहा। अब एक तरफ माओवादी और दूसरी तरफ सामंतवाद का प्रतिनिधित्व करने वाली नेपाली कांग्रेस और एमाले का एक हिस्सा सामने आ गए। लड़ाई सामंतवाद को समाप्त करने की दिशा लेने लगी। सामंतवादी ताकतों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों को भारत के शासक वर्ग का भरपूर समर्थन मिला जो अभी भी जारी है। यही वजह है कि भारत का शासक वर्ग किसी भी हालत में यह नहीं देखना चाहता कि नेपाल में माओवादियों का अस्तित्व बना रहे। सैद्धांतिक कारणों से अमेरिका भी यह नहीं चाहता और यहां अमेरिका तथा भारतीय शासक वर्ग के हित समान हो गए हैं।

9. मेरा यह मानना है और जिसे मैंने अपने लगभग हर लेख और इंटरव्यू में कहा है कि अगर नेपाल की जनता की एकजुटता बनी रही और नेपाली क्रांति का नेतृत्व करने वाली पार्टी में किसी तरह का सैद्धांतिक विचलन नहीं आया तो भारत और अमेरिका की हर साजिश को विफल किया जा सकता है। क्या भारत और अमेरिका ने कभी चाहा था कि जनयुद्ध सफल हो?क्या कभी चाहा था कि राजतंत्र समाप्त हो?क्या कभी चाहा था कि संविधान सभा के चुनाव हों?क्या कभी चाहा था कि संविधान सभा के चुनाव में माओवादी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आ जाएं? और क्या कभी चाहा था कि कोई माओवादी नेपाल का प्रधानमंत्री बन जाए? लेकिन उसके न चाहने के बावजूद यह सारा कुछ इसलिए संभव हो सका क्योंकि नेपाल की जनता एकजुट थी और उसके संघर्ष को नेतृत्व देने वाली पार्टी दृढ़ता के साथ अपने एजेंडा को लागू करने में लगी थी। भारत का पलड़ा कटवाल प्रसंग के बाद से भारी हुआ और उसके बाद लगातार इसका हस्तक्षेप बढ़ता गया जिसका अत्यंत फूहड़ स्वरूप प्रधानमंत्री पद के चुनाव के समय तब देखने को मिला जब पूर्व विदेश सचिव श्याम शरण चुनाव के दौरान नेपाल गए और मधेसी पार्टियों के नेताओं को समझाया कि वे माओवादियों के पक्ष में मतदान न करें। गलत या सही,पर मुझे बराबर यह लगता है कि पार्टी की आंतरिक कमजोरी के कारण भारत एक हद तक हाबी हो सका।

उपरोक्त बातें मैंने बराबर कहीं हैं और पिछले 3महीनों के नेपाली अखबारों/पत्र-पत्रिकाओं मसलन ‘जनादेश’, ‘मासिक कोशी’, ‘सुखानी आवाज’, ‘नया पत्रिका’ आदि में प्रकाशित हुई हैं। फरवरी 2011 में काठमांडो के ‘एबीसी चैनल’ द्वारा प्रसारित अपने इंटरव्यू में भी मैंने इन बातों को दुहराया है जिस पर काठमांडो स्थित भारतीय दूतावास ने उक्त चैनल पर परोक्ष रूप से दबाव डालने की कोशिश की कि इस इंटरव्यू का दुबारा प्रसारण न किया जाए। यह अलग बात है कि चैनल ने लगातार इसका प्रसारण किया।

इन बातों के कहने का मकसद यह है कि नीलकंठ के सी ने अपने लेख में मेरी बातों को संदर्भ से अलग कर मुझे कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया है। पहले तो यह मैं बता दूं  कि अपने लेख की शुरुआत में,यद्यपि प्रशंसा के भाव से उन्होंने बताया है कि मैंने खुद को ‘पत्रकार के दायरे से बाहर नहीं निकाला’,वह गलत है। मैंने कभी पत्रकारिता के बने बनाए दायरे को नहीं माना और पत्रकार की ऐक्टिविस्ट की भूमिका पर हमेशा जोर दिया। जिन दिनों दक्षिण अफ्रीका के नस्लवाद के खिलाफ मैं लिखता था उन दिनों भी ब्रिटिश दूतावास के बाहर उसकी दक्षिण अफ्रीकी नीति के खिलाफ प्रदर्शनों का आयोजन भी करता था। 1990 में पंचायती व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष कर रही जनता के पक्ष में मैं लिखता भी रहा और नेपाली दूतावास के बाहर धरना-प्रदर्शन का आयोजन भी करता रहा। जनयुद्ध के पक्ष में लिखते समय भी मेरी यह भूमिका बरकरार रही और एक मौके पर तो अपने साथियों के साथ मैं गिरफ्तार भी हुआ। इसलिए यह कहना कि पहली बार पत्रकारिता के दायरे से बाहर निकला हूं गलत है।

लेख के तीसरे पैराग्राफ में उन्होंने खुद ही कुछ शब्द मेरे मुंह में डाल दिए हैं और फिर उन पर अपने तर्क की इमारत खड़ी की है। मैंने कभी यह नहीं कहा कि माओवादियों का लक्ष्य ‘शांति प्रक्रिया को पूरा करना है, संविधान बनाना है, ...’मैंने अपने लेख में यह कहा था कि ‘एक तरफ तो आप (प्रचण्ड) यह कहते हैं कि शांति प्रक्रिया को पूरा करना है, संविधान बनाना है... और दूसरी तरफ कार्यकर्ताओं की आंतरिक बैठकों में विद्रोह की बात करते हैं।’फिर नीलकंठ जी को यह कंफ्यूजन कैसे हो गया कि ‘आनंद स्वरूप वर्मा ने भूल से ऐसा लिख दिया।’इसी तरह मैंने किरण को ‘लफ्फाज’ और बाबूराम को ‘दूरदर्शी’ भी नहीं कहा जिसका तोहमत मुझ पर लगाया जा रहा है।

समकालीन तीसरी दुनिया’ के जनवरी 2011 अंक में प्रचण्ड, बाबूराम भट्टराई और किरण तीनों के साक्षात्कार प्रकाशित हैं और उन्हें पढ़ने से एक चीज स्पष्ट हो जाती है कि लाइन को लेकर अंतर्विरोध कहां है। किसी भी क्रांति में कुछ फौरी (इमेडिएट)कार्यभार होते हैं और कुछ दूरगामी। संविधान की रचना और शांति प्रक्रिया को एक निष्कर्ष तक पहुंचाना नेपाली क्रांति का फौरी कार्यभार है। यह तय है कि संविधान सभा में  माओवादियों का दो तिहाई बहुमत नहीं है और इस कारण वैसा संविधान नहीं बन सकता जैसा वे चाहते हैं लेकिन इसे भी बुर्जुआ ताकतें नहीं पूरा होने देना चाहती हैं। प्रचण्ड और बाबूराम दोनों ने अपने इंटरव्यू में कहा है कि हम शांति प्रक्रिया को पूरा करने का प्रयास करेंगे और अगर इसमें रुकावट पैदा की गयी तो विद्रोह में जाएंगे। मुझे इन दोनों के कथन में कोई विरोधाभाष नहीं दिखायी देता फिर मेरे ‘यू टर्न’लेने की बात कहां से पैदा हुई। किरण जी की बात भिन्न है। उन्हें डर है कि इस प्रक्रिया में कहीं पार्टी संसदवाद और संशोधनवाद के दलदल में न फंस जाए। उनकी यह चिंता जायज है। मेरा मानना है कि अगर चुनवांग बैठक के फैसले को पार्टी ने स्वीकार किया है तो उसके अनुसार आगे बढ़ना चाहिए। किरण जी का कहना है कि चुनवांग बैठक के फैसले से वह सहमत तो हैं लेकिन उन्हें डर है कि कहीं यह ‘टैक्टिक्स’की बजाय ‘स्टेटेजी’न बन जाए। इसी को ध्यान में रखकर मैंने इस समय विद्रोह की बात करना ‘यूटोपिया’ कहा था। इसके आधार पर नीलकंठ जी कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंच गए कि मैं समाजवाद को ‘यूटोपिया’ और पूंजीवाद को ‘यथार्थ’ मान बैठा।

जी हां, नीलकंठ जी मुझसे यह आशा करना गलत होता कि मैं ‘प्रचण्ड को बताता कि उनके वैचारिक विचलन के कारण ही आत्मगत तैयारी कम हुई है।’ कारण जो भी हो, लेकिन आप भी यह तो मानते हैं कि आत्मगत तैयारी में कमी आयी है। इसी को रेखांकित करते हुए मैंने अभी विद्रोह की बात को यूटोपिया कहा था। रहा सवाल प्रचण्ड को बताने का तो मैं आपकी पार्टी का सदस्य नहीं हूं। यह काम आप बखूबी कर सकते हैं। आपने लिखा है कि ‘प्रचण्ड मुग्ध्ता में वे प्रचण्ड को क्रांति का पर्यायवाची मान लेते हैं।’ यह आपके दिमाग की उपज है। मैं नेपाल की पार्टी एनेकपा (माओवादी) को एक क्रांतिकारी पार्टी मानता हूं जिसके अध्यक्ष प्रचण्ड हैं। इस क्रांतिकारी पार्टी को ध्वस्त करने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो तरह-तरह की साजिशें चल रही हैं उनमें एक प्रमुख साजिश यह है कि शीर्ष नेतृत्व यानी प्रचण्ड की छवि पर प्रहार करो और पार्टी को कमजोर करो। अपने इस कथन के पक्ष में मैं भारत के अखबारों में छपी दर्जनों ऐसी खबरें दिखा सकता हूं जिसका मकसद प्रचण्ड की छवि को ध्वस्त करना और प्रचण्ड को बदनाम करना है। नेपाली जनता का मित्र होने के नाते मैं अपना कर्तव्य समझता हूं कि इस साजिश के खिलाफ सक्रिय रहूं। इसमें ‘प्रचण्ड मुग्ध्ता’नहीं है बल्कि जो कोई भी उस शीर्ष पद पर होता उसे बचाने के लिए मैं यही करता। मैं अपना यह भी अधिकार मानता हूं कि अगर कोई विचलन दिखायी देता है तो उसे इंगित करूं ओर तभी मैंने यह लेख लिखा।

आपके लेख की प्रतिक्रिया में किन्हीं खरेल या पंत ने कहा है कि अशोक मेहता और आनंद स्वरूप वर्मा जैसे लोग ‘शांति और संविधान की लाइन’ की तारीफ में जुटे हैं। नेपाली क्रांति के पक्ष/विपक्ष में खड़े शरद यादव/डीपी त्रिपाठी/सीताराम येचुरी,अशोक मेहता/एसडी मुनि,आनंद स्वरूप वर्मा/गौतम नवलखा - इन सबको क्या आप एक ही पलडे़ पर रखेंगे? क्या आपको इन सबके दृष्टिकोणों का पता नहीं है कि वे क्यों नेपाली क्रांति के पक्ष में हैं अथवा खड़े दिखायी दे रहे हैं?

अंत में नीलकंठ जी को यह बताना चाहूंगा कि शुभचिंतकों की सकारात्मक आलोचना के प्रति सहिष्णुता का भाव रखें। आवेग में क्षेत्रीयतावाद और नस्लवाद जैसे शब्दों के इस्तेमाल से बचें। 1980 से ही मैं किसी न किसी रूप में नेपाली जनता के संघर्ष के साथ जुड़ा हूं। इसे नेपाली जनता पर ही छोड़ दें कि मैं ‘नेपाली जनता का शुभचिंतक’हूं या ‘एक भारतीय उग्र राष्ट्रवादी’। यदि उन्हें महसूस होता हो कि उत्तेजना में उन्होंने मेरे विरुद्ध कटु शब्दों का इस्तेमाल किया है, जो उन्हें नहीं करना चाहिए था, तो इसके लिए वह केवल एक पंक्ति में खेद व्यक्त कर सकते है।


 

जनपक्षधर पत्रकारिता के महत्वपूर्ण स्तंभ और मासिक पत्रिका 'समकालीन तीसरी दुनिया' के संपादक. 
 
 
 

7 comments:

  1. दो सवालों पर मैं बात केन्द्रित करते हुए छोटी सी टिपण्णी करना चाहता हूँ.
    १. वर्मा जी के लेखों को ध्यान पुर्बक पढने पर पता चलता है की वे अक्टूबर २००५ की चुनबांग बैठक को एक क्रन्तिकारी परिघटना मानते है जहाँ से प्रचंड और बाबुराम के कहने से मात्र जनयुद्ध को स्थगित कर दिया गया और जिस निर्णय पर आज माओबादी में यह बहस छिड़ी हुई है, कि जनयुद्ध स्थगित करने के लिए पूरी पार्टी की आम सहमती नहीं ली गयी थी और इस बात को २०१० नोवंबर की गोरखा जिले में संपन्न पलुन्ग्तार बैठक में किरण के दस्तावेज में प्रमुखता से उठाया गया था. इसके पहले नोवेम्बर २००८ में खरिपठी और फिर नोवेम्बर २०१० में पलुन्ग्थर बैठक में नेपाली माओबादी पार्टी का किरण के नेत्रत्व वाला हिस्सा आज चुनबांग बैठक को पुनार्मुल्यंकित करने की जरुरत पर बल दे रहा है.
    २. आज तो क्रांति के फौरी कर्यभार संबिधान सभा को एकीकृत माओबादी ने अपना मुख्य कार्यभार बना लिया है. एकीकृत होने के पहले क्रांति में बहुमत में रहने वाला क्रन्तिकारी हिस्सा आज एकायक अल्पमत में कैसे आ गया है. जबकि तथाकथित क्रन्तिकारी पार्टी के साथ एकता करने के बाद एकीकृत कही जाने वाली माओबादी पार्टी से कितने नेता एकीकरण का बिरोध करने पर वहां से निकले ( मातृका यादव जैसे केंद्रीय नेता से लेकर निचले स्तर में बहुत सारे लोग और जबकि माओबादी सेना से २५०० के आस पास लोग) और जबकि एकीकरण में राजबादी नेताओं से लेकर (राधाकृष्ण मैनाली जैसे बाम नेता जो राजा ज्ञानेंद्र के २००५ में सत्ता हाथ में लेने के समय उसमे मंत्री थे) और एक दौर में माओबादी जनयुद्ध को फासीवादी ट्रेंड का कहने वाले प्रकाश के एकता केंद्र मसाल सामिल हुए, उस तःथ्य की वेर्माजी हमें अवगत नहीं कराते हैं.
    यही दो प्रमुख कारण थे जिनके कारण माओबादी पार्टी ने ही यू टर्न ले पायी है और इन दोनों तथ्य की ओर वेर्माजी हमें अवगत कराने की जरुरत नहीं समझते.
    अंत में एक बात और कि वर्मा जी पर कि गयी नस्लीय टिप्पणी के लिए नीलकंठ के सी को पब्लिकली माफ़ी मांगनी चाहिए, वर्मा जी ने नेपाल के पर्वतीय इलाके में निवास करने वाले जनता की मानसिकता के बारे में एक मनोबज्ञानिक बात कही है जो कि मेरे ख्याल में सच के करीब है.
    नेपाली क्रांति का एक अदना सा समर्थक.....हाल दिल्ली

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  2. अखिलेश यादव, बुढ्वल, नेपालTuesday, May 03, 2011

    वर्मा जी आप वामपंथी हैं या आत्मपंथी....

    उन्ही के लेख से - 'जिन दिनों दक्षिण अफ्रीका के नस्लवाद के खिलाफ मैं लिखता था उन दिनों भी ब्रिटिश दूतावास के बाहर उसकी दक्षिण अफ्रीकी नीति के खिलाफ प्रदर्शनों का आयोजन भी करता था। 1990 में पंचायती व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष कर रही जनता के पक्ष में मैं लिखता भी रहा और नेपाली दूतावास के बाहर धरना-प्रदर्शन का आयोजन भी करता रहा। जनयुद्ध के पक्ष में लिखते समय भी मेरी यह भूमिका बरकरार रही और एक मौके पर तो अपने साथियों के साथ मैं गिरफ्तार भी हुआ।'- वर्मा जी और उनके सहोदर वंपन्थ्यों जरा बताओ कि इस आत्मपंथी होना नहीं तो और क्या कहेंगे'. ....... 'भारत नेपाल जनेकता मंच' ने जो भी किया वह सब वर्मा ने किया. जय हो इस आत्मपंथ की.'

    अंत में लिखते हैं 'मैं ‘नेपाली जनता का शुभचिंतक’हूं या ‘एक भारतीय उग्र राष्ट्रवादी’। यदि उन्हें महसूस होता हो कि उत्तेजना में उन्होंने मेरे विरुद्ध कटु शब्दों का इस्तेमाल किया है, जो उन्हें नहीं करना चाहिए था, तो इसके लिए वह केवल एक पंक्ति में खेद व्यक्त कर सकते है।'...... वर्मा जी पहले आप अपने बयान को वापस लीजिये. भारत के बुद्धिजीवी गौतम नौलखा से लेकर मंच में जो पार्टियाँ शामिल थीं वह सब आपके इशारे पर काम करती थीं जो आपको लगता है 'नेपाली दूतावास के बाहर धरना-प्रदर्शन का आयोजन भी करता रहा।'

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  3. भारत नेपाल जन एकता मंचTuesday, May 03, 2011

    अंजनी के सवालों का आनंद ने जवाब नहीं दिया, ऐसा क्यों. क्या उनके उठाये सवालों पर बात करना आनंद को जरूरी नहीं लगता. यह क्या उन्हें भाव ना देने का मला है या फिर उनकी आलोचना कर वे खतरा नहीं लेना चाहते.

    भारत नेपाल जन एकता मंच जुड़ा रहा आपलोगों का दोस्त

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  4. वर्मा जी, आप लगातार झूठ बोल रहे है. मान क्यों नहीं लेते कि प्रचंड और बाबुराम और अब आप भी एयूटा गलत नीति को सही ठहराने की प्रयास कर रहे है. वर्माजी नए विचारों को आने दीजीये ऐसा न हो कि नए विचारों के तूफ़ान आप जैसे पुराने वृक्ष को ही उखाड़ दे.

    राम हरी आचार्य, काठमांडू

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  5. This one is the blunder from AS Verma. It's like giving batsman a loose ball. Someone told me it is not a game but the battle of ideas.

    I am reading and loving it.

    Carry on guys.

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  6. वर्मा जी का वामपंथ मेरा मतलब है अत्मपंथ तो काबिले तारीफ है. बहस से ध्यान बांटने का प्रपंच है. और जो भी (कु) तर्क उन्होंने गड़े है उनका जवाब लाजवाब है.
    रणधीर सिंह

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  7. This debate in Janjwar has once again exposed the true character of opportunist 'intellectuals' like Anand Swarup Verma and his cohorts like Gautam Navlakha. These people have consistently tried to dislodge and liquidate the revolutionary movement in Nepal wearing the mask of 'well-wishers of the revolution'. It is high time that we identify such elements and denounce them. This will be the true tribute to the thousands of martyrs of the gloriuos Peoples' War in Nepal, and only this will strengthen the revolutionary line within the Maoist party of Napal. The open criticism and opposition to Prachanda and Baburam's revisionist line within and outside Nepal is an encouraging sign for all genunine revolutionaries. The revolutionary line in Nepal will definitely prevail, and the opportunists will definitely be thrown into the dustbin of history!

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