जैसे अन्ना हज़ारे को साथी के रूप में अरविंद केजरीवाल दिखाई दे रहे हैं, वैसे कांशीराम को भी अपने मिशन को चलाने के शुरुआती दौर में मायावती के रूप में दलित समाज की एक ऐसी युवती मिली जो शिक्षित और तेज़तर्रार थी...
तनवीर जाफरी
राष्ट्रीय स्तर पर दलितों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्ग के लोगों अर्थात् देश के बहुजन समाज का उत्थान सुनिश्चित हो, देश की लगभग 85प्रतिशत जनसंख्या की हिस्सेदारी रखने वाले इस बहुजन समाज में समता व समानता का भाव पैदा हो, इस समाज का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास सुनिश्चित हो, बहुजन समाज आत्मनिर्भर बने तथा कथित उच्चजाति के मात्र लगभग 15 प्रतिशत लोगों का सत्ता पर चला आ रहा नियंत्रण तथा वर्चस्व समाप्त हो, यही उद्देश्य था बामसेफ तथा डीएस फ़ोर आंदोलन के सूत्रधार स्वर्गीय कांशीराम का।
अपने इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए ही स्वर्गीय कांशीराम ने पूरे देश की यात्रा की, तमाम पद यात्राएं की तथा बहुजन समाज आधारित राजनीतिक संगठन को खड़ा करने के लिए कम से कम समय में अधिक से अधिक लोगों से राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क स्थापित किया। इस प्रकार एक दूरदर्शी एवं राष्ट्रव्यापी लक्ष्य को लेकर वर्ष 1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी नामक राजनीतिक संगठन के गठन की घोषणा कर डाली। शुरु से ही बीएसपी को राष्ट्रीय स्तर पर गठित करने की योजना बनाई गई तथा लगभग पूरे देश में ही संगठन का ढांचा खड़ा कर दिया गया। राष्ट्रीय स्तर पर बीएसपी के कार्यालय भी लगभग पूरे देश में बनाए गए।
कांशीराम के सपनों पर सवार मायावती |
बहुत शीघ्र ही मायावती ने बहुजन समाज पार्टी में कांशीराम के बाद अपना नंबर दो का स्थान सुरक्षित कर लिया। मायावती कांशीराम की सबसे विश्वस्त सहयोगी बन गईं। शुरुआती दौर में बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी के रूप में कांशीराम और मायावती दोनों ही प्रमुख बसपा क्षत्रपों को खूब झटके भी लगे। कांशीराम पंजाब तथा इलाहाबाद से लोकसभा चुनाव में पराजित हुए, तो मायावती को बिजनौर से मीराकुमार ने धूल चटाई। परंतु अपनी धुन तथा राष्ट्रव्यापी लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित कांशीराम हार मानने के बजाए स्वयं को प्राप्त होने वाले मतों में ही अपनी जीत देखने लगे। आखिरकार धीरे-धीरे ही सही, वे बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के विकल्प के रूप में स्थापित करने में सफल हो गए।
परंतु कांशीराम का मकसद केवल उत्तर प्रदेश की सत्ता को हासिल करना मात्र नहीं था। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर समतामूलक समाज के निर्माण का जो सपना देखा था वह उसी को साकार करने की दिशा में आगे बढऩा चाहते थे। परंतु इसके पहले कि कांशीराम का यह सपना पूरा हो पाता उन्होंने उत्तर प्रदेश की बागडोर मायावती के हाथों में सौंप दी और वे स्वयं धीरे-धीरे समय बीतने के साथ-साथ अस्वस्थ होते गए। अपनी मृत्यु के लगभग तीन वर्ष पूर्व ही वह बड़े ही रहस्यमयी ढंग से सार्वजनिक जीवन से अदृश्य हो गए।
उनके जीवन के अंतिम समय में तरह-तरह की खबरों का बाज़ार गर्म रहा। कभी मायावती स्वयं को कांशीराम का राजनीतिक वारिस बतातीं, तो कभी कांशीराम का परिवार मायावती के इस दावे का खंडन करता। साथ ही यह भी कहता कि कांशीराम को मायावती के लोगों ने अपहृत कर रखा है। कभी यह आरोप भी लगता कि मायावती ने उन्हें नज़रबंद कर लिया है। बहरहाल, इन्हीं आरोपों-प्रत्यारोपों तथा अटकलबाजि़यों के बीच कांशीराम जी का देहांत हो गया और मायावती स्वयंभू रूप से बहुजन समाज पार्टी की इकलौती वारिस तथा स्वामिनी बन बैठीं। बस यहीं से कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी तथा मायावती की बहुजन समाज पार्टी के लक्ष्य अलग-अलग हो गए।
जहां स्वर्गीय कांशीराम कल तक एक राष्ट्रीय मिशन के मद्देजनऱ दलित, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों के सर्वांगीण विकास को केंद्र में रखकर राष्ट्रीय राजनीति कर रहे थे, वहीं मायावती की नज़रें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद तक ही सीमित होकर रह गईं। अपने इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कभी वह भारतीय जनता पार्टी से समझौता करने लगीं, तो कभी समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं हुई।
कांशीराम जहां 85 प्रतिशत बहुजन समाज के हितों को ध्यान में रखकर कथित उच्च जाति के लोगों से फासला बनाए रखने में कोई दिक्कत महसूस नहीं करते थे, वहीं केवल बहुजन समाज के बल पर स्वयं को सत्ता में न आता देखकर मायावती ने उच्च जाति के उन लोगों से भी हाथ मिलाने में कोई गुरेज़ नहीं किया जिन्हें कि दो दशकों तक सार्वजनिक रूप से मायावती और उनके नीति-निर्धारकों ने जमकर गालियां दी थीं।
कांशीराम जहां 85 प्रतिशत बहुजन समाज के हितों को ध्यान में रखकर कथित उच्च जाति के लोगों से फासला बनाए रखने में कोई दिक्कत महसूस नहीं करते थे, वहीं केवल बहुजन समाज के बल पर स्वयं को सत्ता में न आता देखकर मायावती ने उच्च जाति के उन लोगों से भी हाथ मिलाने में कोई गुरेज़ नहीं किया जिन्हें कि दो दशकों तक सार्वजनिक रूप से मायावती और उनके नीति-निर्धारकों ने जमकर गालियां दी थीं।
आज स्थिति यह है कि बहुजन समाज पार्टी में मायावती ने राष्ट्रीय स्तर पर न तो अपना संगठन उस रूप में खड़ा किया है जिसकी स्वर्गीय कांशीराम ने कल्पना की थी, न ही उन्हें इस बात में कोई दिलचस्पी है। वह इस विषय पर कतई गंभीर नहीं हैं। देश के लोग आज बसपा में मायावती के अतिरिक्त किसी दूसरे नेता के नाम तक से वाकिफ नहीं है।
मायावती कांशीराम की तरह राष्ट्रीय स्तर पर अपने दल को संगठित और मज़बूत करने के पचड़े में पडऩा ही नहीं चाह रही हैं। इसके बजाए उनका पूरा ध्यान सिर्फ और सिर्फ इसी बात पर केंद्रित रहता है कि वे किस प्रकार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी को सुरक्षित रख सकें। यदि भाग्य उनका साथ दे तो वे 80 लोकसभा सदस्यों वाले देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में ही अपनी पार्टी के लिए अधिक से अधिक सीटें जीतकर उत्तर प्रदेश के बल पर ही किसी तरह छलांग लगाकर देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच जाएं।
मायावती कांशीराम की तरह राष्ट्रीय स्तर पर अपने दल को संगठित और मज़बूत करने के पचड़े में पडऩा ही नहीं चाह रही हैं। इसके बजाए उनका पूरा ध्यान सिर्फ और सिर्फ इसी बात पर केंद्रित रहता है कि वे किस प्रकार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी को सुरक्षित रख सकें। यदि भाग्य उनका साथ दे तो वे 80 लोकसभा सदस्यों वाले देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में ही अपनी पार्टी के लिए अधिक से अधिक सीटें जीतकर उत्तर प्रदेश के बल पर ही किसी तरह छलांग लगाकर देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच जाएं।
लखनऊ और दिल्ली के मध्य उन्हें न तो कोई दूसरा राज्य दिखाई देता है, न ही कोई नेता। न तो स्वर्गीय कांशीराम की आकांक्षाएं और तमन्नाएं दिखती हैं, न ही दलित उत्थान जैसा कोई दूरगामी लक्ष्य। हाँ, इतना ज़रूर है कि मायावती को अपने व्यक्तिगत एवं स्वार्थपूर्ण राजनीतिक मिशन को पूरा करने के लिए न सिर्फ स्वर्गीय कांशीराम, बल्कि संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर तथा बसपा के चुनाव निशान हाथी की विशाल प्रतिमाओं का भी सहारा लेना पड़ रहा है। उन्हें यह गलतफहमी है कि इस प्रकार के स्मारकों के निर्माण मात्र से ही दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज का कल्याण हो सकेगा।
मायावती अपनी प्रतिमाओं के साथ-साथ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर, स्वर्गीय कांशीराम तथा विशालकाय हाथियों की प्रतिमाएं न केवल लखनऊ तथा नोएडा में, बल्कि पूरे राज्य में स्थापित किए जाने की योजना बना रही हैं। वे कभी-कभी अपने को जि़ंदा देवी बत कर अन्य देवी-देवताओं पर चढ़ावा चढ़ाने के बजाए स्वयं पर चढ़ावा चढ़ाने का समाज से आह्वान करती भी सुनी जाती हैं। ऐसा नहीं लगता कि स्वर्गीय कांशीराम ने भी मायावती तथा बहुजन समाज पार्टी के लिए कुछ ऐसे ही सपने पाल रखे होंगे।
ऐसे में यह कहा जा सकता है कि निश्चित रूप से मायावती की राजनीतिक दिशा व दशा स्वर्गीय कांशीराम की राजनीतिक दिशा से न केवल भिन्न है, बल्कि बिल्कुल विपरीत भी प्रतीत होती है। मूर्तियां स्थापित करने या अपने बुतों की पूजा कराने से किसी समाज विशेष का विकास और उत्थान न तो हुआ है, न ही संभव है। बहुजन समाज के सर्वांगीण विकास तथा समतामूलक समाज के निर्माण के लिए तो बसपा को स्वर्गीय कांशीराम के दूरगामी राजनीतिक एजेंडे पर चलने की ज़रूरत है, न कि मायावती के सीमित व स्वार्थपूर्ण एजेंडे पर।
लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafari1@gmail.कॉम पर संपर्क किया जा सकता है.
tanver jafri ka yah vishleshan bilkul sahi hai. mayavati baura gayin hain aur unhe lag raha hai kabhi suraj dubega nahin.
ReplyDeletemayavati apne rah chalegi aur log yun hi likhate rahenge. agar vah galat kar rahi hai to uska koi jabav kahan hai. rahul gandhi aur mulayam kuch nahin kar payenge mayavati ka.
ReplyDeleteआपने मूर्तियों की और महामाया नगर की बात की. इसको लेकर भी बसपा और मायावती की काफी आलोचना हुई है.
ReplyDelete'मैं इन मूर्तियों और पार्क को रिएक्सनरी एजेंटे से नहीं देखता हूं. यह बसपा के विचारात्मक सोच का नतीजा है क्योंकि अपना दल बनाते समय ही उन्होंने इंगित कर दिया था कि जब हम सत्ता में आएंगे तो हम आपको वो सब देंगे जिसका वादा किया था. उन्होंने यह किया भी. इसलिए मुझे लगता है कि वो सकारात्म एजेंडा था. पूर्ववर्ती सरकारों में बहुजन समाज के लीडरों को न्याय नहीं दिया, इज्जत नहीं दी. कल तक जिन जगहों पर केवल सवर्णों का एकाधिकार था और जो दलितों के लिए प्रतिबंधित थी, उस एकाधिकार को तोड़कर वहां दलितों की मूर्तियां लगाना जनतांत्रिकरण की निशानी है. इससे कल तक जो लोग चमरौटी में सीमित कर दिए गए थे, वो चौराहे पर आ रहे हैं. इसमें लोगों को मूर्तियों से कोई परहेज नहीं है बल्कि उन्हें एकाधिकार टूटने का डर सता रहा है. वास्तविकता में वही लोग इसकी निंदा कर रहे हैं, जिनकों इन महापुरुषों के योगदान के बारे में कुछ नहीं पता. उनको भी दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि उनकी कक्षाओं में, उनके विश्वविद्यालयों में कभी इन महापुरुषों की चर्चा होने ही नहीं दी गई. इसकी वजह से वो चेतना शून्य हैं. इसलिए उनको दोषी ठहराना गलत होगा.'
फिर से मायावती की बात करते हैं. उन्होंने अपनी राजनीति बहुजन समाज के नारे के साथ शुरू की थी. आज वह सर्वजन समाज के नारे पर आ गई हैं. क्या यूपी में बहुजनों की समस्याएं खत्म हो गई हैं?
'बहुजन समाज पार्टी को दो तरीके से समझना चाहिए. एक तो वो राजनैतिक आंदोलन है, दूसरा सामाजिक आंदोलन भी है. राजनीतिक आंदोलन के तहत जो नारे दिए गए हैं वो राजनीति तक ही सीमित रह सकते हैं. एक बात और है. आपके जितने वोट हैं, उससे आप आत्मनिर्भर सरकार नहीं बना सकते हैं और इसलिए आपको दूसरे समाज का सहारा लेना पड़ेगा. इसलिए राजनैतिक तौर पर तो यह नारा सही हो सकता है लेकिन सामाजिक तौर पर जब हम काम देखते हैं, जैसे बुद्ध के नाम पर प्रतिमा बनती है, महामाया के नाम से शहर बनता है, कांशीराम के नाम से योजनाएं बन रही है, तो इसका मतलब यह हुआ कि सामाजिक तौर पर आंदोलन आज भी जारी हैं. बाकी सत्ता में आने के बाद सबको संरक्षण देना होता है. सबको साथ लेकर चलना पड़ता है. तो जो भी परिवर्तन है, वह सत्ता में आने के बाद का परिवर्तन है.'
http://dalitmat.com/index.php?option=com_content&view=article&id=211:2011-03-11-23-02-48&catid=31:2011-03-10-10-02-40&Itemid=72
निरंजन जी यह कुतर्क ब्राम्हण हो चूके दलितों का है. उन्ही को यह samajik बदलाव भाता है.
ReplyDeleteसिर्फ कुतर्क के सहारे दलित बाँभन बन सकता तो उमा भारती /कल्याण सिंह बीजेपी में शीर्ष पर होते . ब्राह्मणवाद में आस्था रखने वाले दलित शंकराचार्य की गद्दी के मजे मार रहे होते तथा आलीशान मन्दिरों में गद्दीनशीन होते. सच तो यह है कि ब्राह्मणवाद भारतीय समाज की बुनावट में है, तथा धुर वामपंथी पार्टियाँ भी इससे अछूती नहीं हैं. अधिकाँश दलित बरसों से वामपंथी समेत सभी पार्टियों में झोला ढ़ोने और दरी बिछाने का काम ही करते रहे हैं. इससे कौन सा सामाजिक बदलाव आया है? मायावती के मुख्यमंत्री होने से भी ज्यादा सामाजिक बदलाव नहीं आया है,लेकिन फिर भी वे दूसरों के मुकाबले सामाजिक बदलाव की प्रतीक तो हैं ही. बाकी क्रांतिकारी पार्टियों ने तो सोच-समझ कर ये मान लिया है कि ब्राह्मण ही असली क्रांतिकारी है. वही ब्राह्मणवाद को छुपाने में सबसे अधिक दक्ष है. क्रांति लाएगा तो वही लाएगा । बाकी दलित-पिछड़े तो सांस्कृतिक रूप से डिप्लोमेसी में इतने माहिर नहीं हैं - अपने भोंडेपन से ब्राह्मणवाद को जाहिर कर ही देंगे. लगभग सभी संसदीय पार्टियों की लीडरशिप में सामाजिक यथास्थितिवाद झलकता है. किराए की पार्टिओं में दलित लीडर की अपनी ज़ुबान / हैसियत कहाँ होती है?? जरा बताइए दूसरे दलित नेताओं का सामाजिक बदलाव हेतु एजेंडा क्या है? रेडिकल राजनीति वाले कहाँ है? जनता कहाँ है? मायावती की चमचागिरी नहीं करनी.. दूसरे सबकी कर लेंगे..क्या यही सामाजिक बदलाव है ??
ReplyDeleteदिलचस्प कहावत है:-
ReplyDeleteगू खाओ तो हाथी का जो पेट भी भरे..
बकरी की मिंगन का क्ये खाया जो जाड भी न भरे !