May 15, 2011

इस्लाम को संक्रमित करता ओसामा का महिमामंडन


आखिर कश्मीर में ओसामा बिन लादेन को महिमामंडित किए जाने का जिम्मा  कश्मीर में अलगाववादी धड़े के हुर्रियत नेता तथा कश्मीर में फैले आतंकवाद की पैरवी करने वाले सैय्यद अली शाह गिलानी ने क्यों उठाया? क्या 26/11 मुंबई हमले मामले में वे ऐसा करेंगे...

तनवीर जाफरी 

पूरी दुनिया में इस्लाम के नाम पर फैले आतंकवाद का सबसे बड़ा प्रतीक समझा जाने वाला ओसामा बिन लाडेन आखिरकार  अमेरिकी कमांडो सैनिकों द्वारा पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के निकट एबटाबाद में  2 मई को ढेर कर दिया गया। लादेन की मौत के बाद अब उसपर,उसके नाम पर तथा उसकी दिशा व विचारों को लेकर राजनीति करने की कोशिश की जा रही है।

दुनिया के मुस्लिम समाज से संबंध रखने वाले तमाम ऐसे नेता जिनका अपने समुदाय में या तो कोई जनाधार नहीं है या फिर वे अपना जनाधार तलाश कर रहे हैं,या फिर जिनका पेशा ही धर्म व संप्रदाय की राजनीति करने का है, ऐसी शक्तियां ओसामा  के नाम पर मुस्लिम समाज में तरह-तरह की गलतफहमियां पैदा करना चाह रही हैं। इतना ही नहीं बल्कि ऐसे लोगों की यह कोशिश भी है कि लाडेन के नाम पर मुस्लिम समाज को भडक़ाया जाए तथा आगे चलकर उस आक्रोशित मुस्लिम समाज का प्रयोग अपने अन्य क्षेत्रीय,राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक हितों को साधने में किया जाए।
लादेन की हत्या के खिलाफ पाकिस्तान में प्रदर्शन

ऐसी ही शक्तियों ने चाहे वे पाकिस्तान में हों,दुनिया के किसी अन्य मुस्लिम देश में या फिर भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य में,इन सभी ने ओसामा के मारे जाने के बाद उसका महिमा मंडन करना तथा उसे शहीद का रुतबा देने की कोशिश करना शुरु कर दिया है। दरअसल आतंकवादी संगठन अलकायदा भले ही विश्वव्यापी स्तर पर कितना ही संगठित,खतरनाक तथा दुनिया के किसी भी कोने में आतंकी कार्रवाई करने की क्षमता वाला संगठन क्यों न हो गया हो परंतु बहरहाल अब तक अलकायदा के पास इस्लाम के नाम पर शहीद कहा जा सकने वाला कोई ‘आदर्श आतंकवादी’नहीं था जोकि लाडेन की मौत के बाद अब आतंकवादियों को अलकायदा संस्थापक बिन लादेन  के रूप में ही मिल चुका है।

यही सोच न सिर्फ अलकायदा को जीवित व सक्रिय रखने में सहायक होगी बल्कि इस बात की भी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि अलकायदा लादेन की मौत के बाद अब पहले से भी अधिक सक्रिय तथा विशाल आतंकी संगठन बन जाए। इसी दूरगामी संभावना का अंदाज़ा लगाते हुए अमेरिका ने लाडेन की क्षतिग्रस्त लाश को समुद्र में किसी अज्ञात स्थान पर दफ्न किए जाने का फैसला लिया था। निश्चित रूप से अमेरिका का यह निर्णय अत्यंत दूरदर्शी निर्णय था। अन्यथा नि:संदेह इस्लाम के नाम पर अपनी राजनीति चलाने वाले तथा इस्लाम को आतंकवादी धर्म के रूप में बदनाम करने का ठेका लेने वाले लोगों ने तो लाडेन के समाधि स्थल को एक महापुरुष आतंकी प्रतीक के रूप में स्थापित कर ही देना था।

लादेन  को लेकर निश्चित रूप से कई पहलूओं पर लोगों की भिन्न-भिन्न राय हो सकती है। तमाम ऐसे प्रश्र हैं जो आम लोगों के ज़ेहन में पैदा होते हैं तथा वे सभी प्रश्र अपनी जगह पर जायज़ भी हैं। जैसे लाडेन को लाडेन बनाने वाला कौन था?  दुनिया का यह आरोप है कि लाडेन को यहां तक पहुंचाने में अमेरिका का ही भरपूर योगदान है। बेशक इस विषय पर बहस जारी रहनी चाहिए तथा दुनिया को चाहिए कि वह अमेरिका से इस बात का जवाब मांगे कि दुनिया में लाडेन जैसे तमाम आतंकवादियों को आखिर  अमेरिका संरक्षण क्यों प्रदान करता है? परंतु इस बात पर तो कोई मतभेद हो ही नहीं सकता कि लाडेन ने 9/11 के बाद तथा उससे पूर्व भी अमेरिकी विरोध के नाम पर हज़ारों बेगुनाहों को आतंकी हमलों का निशाना बना डाला।

इस्लाम का परचम अपने हाथों में लेकर चलने वाला ओसामा बिन लाडेन हो या आज उसकी मौत के बाद उसका महिमा मंडन करने वाले या उसे शहादत का मरतबा देने वाले चंद नासमझ लोग, क्या उन्हें इस इस्लामी व कुरानी शिक्षा का ज्ञान नहीं जो हमें यह सीख देती हैं कि-‘यदि तुमने किसी एक बेगुनाह का कत्ल कर दिया तो गोया तुमने पूरी इंसानियत को कत्ल कर डाला’?  एक ओर तो इस्लाम बेगुनाह के कत्ल के प्रति कितना सीधा व साफ संदेश दे रहा है। दूसरी ओर यही इस्लाम व कुरान बदले की कोई भी कार्रवाई करने के बजाए माफी दिए जाने को ज़्यादा तरजीह दे रहा है।

बड़े आश्चर्य की बात है कि राक्षसरूपी इस आतंकवादी के मारे जाने के बाद कई देशों में उसके समर्थन में मुस्लिम समुदाय के तमाम लोग सडक़ों पर उतर आए। कई जगहों पर लाडेन की गायबाना (अनुपस्थिति में पढ़ी जाने वाली) नमाज़ अदा की गई। इसमें पाकिस्तान के साथ-साथ भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य के भी कुछ इलाक़े शामिल हैं। पाकिस्तान में लाडेन का रहना,वहां उसे संरक्षण मिलना तथा उसका वहीं मारा जाना व उसकी मौत के बाद वहां उसे मिलने वाला समर्थन व उसकी नमाज़-ए-गायबाना अदा करना कोई खास अचंभे की बात नहीं है। क्योंकि विभिन्न इस्लामी विचारधाराओं के द्वंद्व का पाकिस्तान में क्या हाल है तथा इसी वैचारिक द्वंद्व ने पाकिस्तान को कहां पहुंचा दिया यह सब दुनिया भलीभांति देख व समझ रही है।

लेकिन  भारत के सीमांत राज्य जम्मू-कश्मीर में जब ओसामा बिन लाडेन जैसे आतंकवादी सरगना का मरणोपरांत महिमा मंडन किया जाए तो किसी भी भारतीय नागरिक विशेषकर भारतीय मुसलमानों का चिंतित होना स्वाभाविक है। क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी का देश होने के बावजूद भारत का एक भी व्यक्ति अभी तक अलकायदा का सदस्य प्रमाणित नहीं हुआ। फिर आखिर भारतीय कश्मीर में ओसामा बिन लाडेन को महिमामंडित किए जाने का जि़म्मा कश्मीर में अलगाववादी धड़े के हुर्रियत नेता तथा कश्मीर में फैले आतंकवाद की पैरवी करने वाले सैय्यद अली शाह गिलानी ने क्यों उठाया? गिलानी ने पूरे जम्मू-कश्मीर में लाडेन की गायबाना नमाज़ अदा किए जाने का आह्वान आम कश्मीरी मुसलमानों से किया था।

लाडेन को अपना समर्थन देने के लिए गिलानी के पास यह तर्क था कि-‘किसी शहीद के लिए नमाज़ पढऩा उनका धार्मिक कर्तव्य है। लाडेन ने इस्लाम की राह में अपनी जान दी है लिहाज़ा उसे शहीद का रुतबा हासिल हो’। गिलानी ने केवल इन शब्दों से ही लाडेन को ही महिमामंडित नहीं किया बल्कि इसी भीड़ के मध्य उन्होंने पाकिस्तान की सलामती की दुआएं भी मांगीं। श्रीनगर में एक स्थान पर उन्होंने स्वयं लाडेन की नमाज़-ए-गायबाना भी पढ़वाई। अब इसी परिप्रेक्ष्य  में गिलानी साहब को यह भी बताना चाहिए कि मुंबई में 26/11को हुए हमले के बाद जिन नौ आतंकवादियों को भारतीय कमांडो तथा सुरक्षाकर्मियों ने मार गिराया था उनके विषय में आखिर  गिलानी की क्या राय है?

मुंबई के मुसलमानों ने उस समय एक स्वर से यह घोषणा की थी कि इन आतंकवादियों को मुंबई के क़ब्रिस्तानों में दफन नहीं होने दिया जाएगा। और काफी दिनों तक यह लाशें  सरकार की सुरक्षा में लावारिस पड़ी रहीं। आखिरकार सरकार को गुप्त तरीके से किसी गुप्त स्थान पर इनका अंतिम संस्कार करना पड़ा। उस वक्त गिलानी ने इन आतंकवादियों को शहीद कहना मुनासिब क्यों नहीं समझा? गिलानी को इनकी भी नमाज़-ए-गायबाना अदा किए जाने का आह्वान करना था। इसी प्रकार संसद पर हुए हमले में तथा रघुनाथ मंदिर,अयोध्या,संकटमोचन मंदिर जैसे कई स्थानों पर भारतीय सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों को मार गिराया। उस समय गिलानी जैसे लोगों ने ‘धार्मिक कर्तव्य’ का निर्वहन करने का साहस क्यों नहीं किया?

यहां एक बार फिर यह समझना ज़रूरी होगा कि इस्लाम को सबसे अधिक नुकसान व बदनामी किसी अन्य धर्म या संप्रदाय के लोगों के चलते नहीं बल्कि स्वयं को मुसलमान,इस्लामी तथा धर्मगुरु व मुजाहिद कहने वाले लोगों की वजह से ही उस समय भी उठानी पड़ी थी जबकि इस्लाम धर्म का उदय हुआ था तथा आज लगभग साढ़े चौदह सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी ऐसे ही लोग इस्लाम को बदनाम करते आ रहे हैं।

अन्यथा जहां तक वास्तविक इस्लामी शिक्षा का संबंध है तो इस्लाम में न तो किसी बेगुनाह की हत्या को किसी भी सूरत में जायज़ ठहराया गया है,न ही बेगुनाहों के हत्यारों के महिमा मंडन तथा उसके लिए जन्नत में जाने की दुआएं करने को उचित बताया गया है। ऐसे गैर इस्लामी व गैर इंसानी लोगों के महिमामंडन का सिलसिला बंद होना चाहिए अन्यथा इन जैसों का महिमामंडन भी इस्लाम की बदनामी का एक बड़ा सबब साबित होगा।


लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafari1@gmail.कॉम पर संपर्क किया जा सकता है.



2 comments:

  1. के .के सिंह, रक्सौलMonday, May 16, 2011

    यह लेख उनके लिए आइना है जो केवल मुसलमान -मुसलमान और अमेरिका -अमेरिका करते हैं. कई बार आम रिवाज किसी कौम को परेशानी में डालने वाले होते हैं. इसलिए मुसलमाओं को अब अमेरिका विरोध के आम रिवाज से हटकर सोचना चाहिए.

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