नेपाल के राजनीतिक हालात और नेपाली माओवादी पार्टी की भूमिका को लेकर आयोजित इस बहस में 1-क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है? ,,2-क्रांतिकारी लफ्फाजी या अवसरवादी राजनीति और 3- दो नावों पर सवार हैं प्रचंड , के बाद अब बहस अब उन प्रयोगों की ओर मुड़ रही है जिसे माओवादियों ने नये समाज के भ्रुण के तौर पर खड़ा किया था। उनमें पहला नाम थाबांग गांव का है जिसे नेपाल का येन्नान कहा जाता है। यहां बुर्जुआ शासन प्रणाली के मुकाबले जनताना सरकार ने जनकेंद्रित विकास का एक ढांचा खड़ा किया था। उसी के मद्देनजर जनयुद्ध से पहले,जनयुद्ध के साथ और अब जनयुद्ध के बाद थाबांग कैसे पूरे नेपाल में माओवादियों की बदलाव प्रक्रिया को रेखांकित करता है,बता रहे हैं थाबंग से लौटकर....
पवन पटेल
नेपाल के ग्रामीण इलाकों में 13 फरवरी 1996 से प्रतिक्रियावादी राज्यसत्ता को ध्वंश कर नई जनवादी सत्ता की स्थापना के लिए दीर्घकालीन जनयुद्ध का रास्ता घोषित करने वाली माओवादी पार्टी आज उन्हीं प्रतिक्रियावादी राजनीतिक दलों का साथ देते हुए तथाकथित शांति प्रक्रिया को पूरा कर एक तथाकथित जनवादी संविधान बनाने को आतुर है. यह आतुरता इसलिए है कि 28 मई 2011 तक किसी भी हालत में ‘जन संविधान’जारी किया जा सके और नवंबर 2005में दिल्ली दरबार में हुई बारह सूत्रीय सहमति की राजनीति को आगे बढाया जाए. प्रस्तुत लेख रोल्पा जिले में जनयुद्ध काल में माओवादी पार्टी द्वारा घोषित आधार इलाके के एक गाँव थाबांग में दशकों तक चली क्रांतिकारी प्रक्रिया से उत्पन्न उपलब्धि के सन्दर्भ में आज की नेपाली राजनीतिक बहस में थाबंगी जनता के नजरिए से समझने की कोशिश है.
थाबांग एक ऐसा गाँव है, जिसकी मिसाल नेपाल के ग्रामीण वर्ग संघर्ष के केंद्र और नेपाल का येन्नान के रूप में दी जाती है. थाबांग वर्ष 1956 में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के किसान संगठन की स्थापना के बाद से लेकर निर्दलीय पंचायती व्यवस्था के बर्बर दमन का गवाह रहा है. वर्ष 1991 में हुए जनांदोलन के बाद स्थापित बहुदलीय लोकतंत्र के बर्बर दमन का प्रतीक भी थावांग है. एक ऐसा प्रतीक जो नेकपा एकता केंद्र मशाल द्वारा नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में पेरू के जनयुद्ध के समर्थन में आयोजित राजनीतिक-सांस्कृतिक अभियानों का प्रमुख केंद्र भी रहा. यह जनयुद्ध शुरू होने के ठीक पहले तत्कालीन नेपाली कांग्रेस पार्टी की सरकार द्वारा निर्देशित भीषण राज्य दमन का भी प्रतीक रहा.
थाबांग गाँव : कहाँ गया समाजवादी देश का सपना |
थाबांग गाँव का नाम आते ही एक ऐसी क्रांतिकारी की स्मृति मानस पटल पर उभरती है जिसने 1996 में शुरू हुए माओवादी जनयुद्ध को नए आयाम दिए. थाबांग में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जो कभी न कभी कम्युनिस्ट आन्दोलन के साथ जुड़ा न रहा हो.जनयुद्ध शुरू होने के बाद थाबांग से हजारों की संख्या में माओवादी क्रांतिकारी पूरे नेपाल में पार्टी का काम करने के उद्देश्य से फैले. वर्तमान माओवादी नेतृत्व में (एकीकृत होने के बाद आए नेतृत्व पंक्ति को छोड़कर) कोई भी ऐसा नेता नहीं होगा जिसने महीनों प्रतिक्रियावादी राज्यसत्ता के दमन से बचने के लिए थाबांग गाँव में पनाह न पाई हो और जलजला पहाड़ की तलहटी में निश्चिन्त होकर आलू और धिड़ो का आनंद उठाते हुए हिमाल से आच्छादित सिस्ने और जलजला पहाड़ के मनोरम दृश्यों को न निहारा हो.
थाबांगी जनता के लिए प्रतिक्रियावादी राज सत्ता का मतलब हमेशा से ही पुलिसिया दमन रहा है. उनकी मूलभूत जरूरतों (गास-बॉस-कपास यानी रोटी-कपडा-मकान) के प्रति शायद ही कभी राज्यसत्ता ने ध्यान दिया हो.उनके लिए राज्य का मतलब है पुलिस का आतंक. गाँव में पुलिस पोस्ट की स्थापना 1960 के दशक में ही हो गई थी और हेल्थ पोस्ट की स्थापना भी 80 के दशक के अंत में हुई.
जनयुद्ध के बाद थाबांग एक ऐसे गाँव के रूप में उभरा, जिसे नेपाली माओवादियों ने नेपाल के 'येनान्न' की संज्ञा दी. भरुवा बंदूक और कुछ लाठी डंडों से शुरू हुए जनयुद्ध ने दस साल में एक ऐसी क्रांतिकारी प्रक्रिया की आधारशिला रखी जिसने थाबांग को जनयुद्ध का समानार्थी बना दिया.जिस पुलिस के भय से जनता त्रस्त थी,वह पुलिस आम थाबांगी जनता के नाम से ही डरने लगी. वर्ष 1999 के उत्तरार्ध में पुलिस पोस्ट को बम से उड़ाने के बाद 2007 तक पुलिस फिर से गाँव में थाने को खोलने का साहस नहीं दिखा सकी. दूसरी बार पुलिस चौकी संविधान सभा के चुनाव के ठीक पहले माओवादी पार्टी के शांति प्रक्रिया में शामिल होने के बाद बनी.
माओवादी पार्टी ने वर्ष 1999के बाद से आधार इलाका स्थापित करने की शुरुआत इसी गाँव से की और आम जनता ने जनसत्ता की आधारशिला रखी. वर्ष 1997 में नेपाल में पहली बार 'गाँव जन सरकार' के गठन की घोषणा की गई. शुरू में जनसत्ता का मूल काम जनता को सुरक्षा देते हुए जनयुद्ध के लिए जनता को संगठित करना और स्थानीय स्तर पर होने वाले अपराधों पर न्याय देना था. बाद में विकास निर्माण के काम से लेकर गाँव में जनवादी बैंक, अजम्बरी जन कम्यून, सहकारी हेल्थ पोस्ट, शहीद स्मृति स्कूल और स्थानीय उद्योग चलाने तक जा पहुंचा. थाबांग में जहाँ बिजली की कल्पना करना भी असंभव था, उसे माओवादी जनयुद्ध द्वारा संचालित नई सत्ता ने साकार किया.
वर्ष 2004 में तीन किलोवाट की पहली लघु जलविद्युत परियोजना की शुरुआत रचिबंग गाँव से गयी, जिसका उद्देश्य अजम्बरी कम्यून के लिए बिजली आपूर्ति करना था. बाद में इस परियोजना की क्षमता बढ़ाकर पांच किलोवाट कर दी गई और नजदीक के एक अन्य छोटे गाँव फुन्तिबंग में बिजली आपूर्ति की जाने लगी. आर्थिक विकास के साथ जनता सांस्कृतिक बदलाव की ओर बढ़ी और हिंदूवादी वर्णव्यवस्था की चूलें हिल गयीं. थाबांग में 'मगर' जनजाति के घरों की रसोई में दलित प्रवेश नहीं पाते थे, जो जनयुद्ध की प्रक्रिया में टूट गया. वर्ष 2004 में गाँव जनसत्ता ने थाबंग गाँव को पूर्ण छुआछूत उन्मूलन क्षेत्र घोषित कर दिया.समाज में पुरुषों में बहु विवाह का प्रचलन है, यह भी जनयुद्ध के दौरान टूटने लगा. शराबखोरी, जुआ और वेश्यावृत्ति की रोकथाम हुई. जिस समाज में दलित और 'मगर' के बीच प्रेम विवाह असंभव था,वह भी जनसत्ता काल में संभव हुआ.
शांति प्रक्रिया शुरू होने के बाद और खासकर संविधान सभा के 2008 में निर्वाचन के बाद माओवादी आंदोलन में लगे नौजवान बड़ी संख्या में रोजगार के तलाश में खाड़ी देशों का रुख करने लगे हैं. गाँव के लोग पहले भी कमाने के लिए विदेश जाते थे, पर इतनी बड़ी संख्या में नहीं. मेरे अध्ययन के मुताबिक जनयुद्ध काल में जहाँ हर साल 5 से 12 लोग जाते थे, अब यह औसत प्रतिवर्ष 50 से 75 तक पहुँच गया है. मुख्य गाँव थाबांग के 315 नौजवान विदेश में काम कर रहे हैं. इनमें से अधिकांश माओवादी सेना में शामिल रहे और करीब नौ माओवादी सेना के प्रशिक्षित लड़ाकू हैं.
दूसरी तरफ गाँव की जनता के लाख विरोध के बाद भी वहां पुलिस थाना स्थापित हो गया है. पुलिस का मूल चरित्र वही है जो जनयुद्ध शुरू होने से पहले था. अध्ययन के दौरान पाया कि गाँव में जुआ,वेश्यावृत्ति और चोरी की घटनाएं अब आम बात हैं.महिलाओं के साथ बदसलूकी की घटनाएँ शुरू होने लगी हैं.जहाँ एक दौर में यह कहा जाता था की पूरे नेपाल में यदि महिलाएं कहीं सुरक्षित हैं तो वह केवल आधार इलाके में ही हैं.जहाँ महिलाएं रात में भी बिना किसी भय के यात्रा कर सकती हैं.और तो और दिन में ही थाबांग गाँव से दूसरे गाँव जाने या शहर जाने के रास्ते में डरा-धमका कर छिनौती की घटनाएँ आम परिघटना होने लगी है.
इन सब घटनाओं के पीछे पुलिस का चिर-परिचित रवैया फिर से आने लगा है. अब गाँव में शराब खुलेआम बिकनी शुरू हो गई है. इधर गाँव में एक्का-दुक्का जनयुद्ध काल में हुए अंतरजातीय प्रेम विवाह टूटने की घटनाएँ प्रकाश में आई हैं. आम जनमानस की मनःस्थिति फिर से पुराने दिनों, जैसे की जनयुद्ध से भी काफी पहले के दिनों में चली गई प्रतीत होती है. स्थानीय पार्टी की बैठक अब नियमित न होकर अनियमित हो गई है. अभी हाल ही में गाँव में स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं ने एक प्राइवेट अंग्रेजी माध्यम जलजला बोर्डिंग स्कूल की शुरुआत की है, जो तीसरी तक अपनी क्लासेज चलाता है.
यह स्कूल काठमांडू में कुकुरमुत्ते की तरह उगे अंग्रेजी माध्यम के नाम पर मोटी फीस उगाहने का थाबांगी संस्करण बन रहा है.गाँव के माओवादी नेता के बच्चे इस स्कूल में फ्री पढ़ते हैं या कुछ नाममात्र की फीस देकर. अजम्बरी कम्यून के परिवार एक-एक कर कम्यून छोड़कर जा रहे हैं. उद्योग, जनवादी बैंक, शहीद स्कूल तो कब से बंद हो चुके हैं.
जनयुद्ध की क्या उपलब्धियां हैं जिसे आज मोओवादी नेतृत्व संस्थागत करना चाहता है. जनयुद्ध की जितनी उपलब्धियां रही हैं,वह सभी जनसत्ता की देन हैं. आज जब जनयुद्ध खत्म हो चुका है तो जनसत्ता की उपलब्धियां भी धीरे-धीरे विसर्जन की ओर जा रही हैं. ऐसे समय में किस मुंह से बाबूराम और प्रचंड जैसे पात्र किस चीज को संस्थागत करने की बात कर रहे हैं. क्या थाबांगी जनता की उपलब्धि मात्र राजतंत्र का खात्मा है और प्रतिक्रियावादी के साथ मिलकर एक तथाकथित ‘जन संविधान’ का निर्माण अथवा उन दलाल सामंती राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं के स्थान पर एक समुन्नत व्यवस्था का निर्माण.
आज माओवादी नेतृत्व थाबांगी जनता के खून-पसीने के ब्याज पर भारत की मित्रता हासिल करने और अमेरिका द्वारा नेपाली माओवादी को आतंकवादी सूची से हटाकर एक दलाल बुर्जुआ सत्ता को संस्थागत करने के लिए प्रतिबद्ध दिखता है.
मैंने उस क्षेत्र में करीब एक साल पहले (थाबांग) अध्ययन की शुरुआत की थी तो कार्यकर्ता नेपाली नव जनवादी क्रांति के आगे बढ़ने पर आशावान थे. लेकिन एक सवाल उनके मन में था कि उनकी पार्टी आगे बढ़ रही भारतीय माओवादी पार्टी के खिलाफ भारत सरकार द्वारा चलाए जा रहे ऑपरेशन ग्रीनहंट का नेपाल में विरोध-प्रदर्शन आयोजित क्यों नहीं करती, जबकि पार्टी तो नेपाल में जनयुद्ध की शुरुआत से पहले पेरू की क्रांति के समर्थन में गाँव-गाँव में कार्यक्रम आयोजित करती थी.
साथ ही वह यह भी कहते थे कि यदि नेपाली क्रांति ने जोखिम लेकर क्रांति को आगे नहीं बढाया तो भी प्रतितिक्रियावादी राज्य सत्ता उन्हें नहीं छोड़ेगी. या तो मुक्ति या तो मौत, क्योंकि थाबांगी जनता का संघर्ष केवल राजतंत्र उन्मूलन तक ही नहीं था, बल्कि नेपाल में नव जनवादी क्रांति को पूरा करना उनका लक्ष्य था. यह भी हो सकता है कि या तो माओवादी विश्व क्रांति का दरवाजा खोल देंगे या तो आने वाली पीढ़ियों के लिए इक्कसवीं सदी के पेरिस कम्यून सरीखा सबक बन जायंगे. आज की स्थिति में यह सवाल कि क्या पार्टी फिर से क्रांति का रास्ता चुनेगी? तब केवल मौन ही गूंजता है...या !
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग से नेपाली जनयुद्ध के समाजशास्त्रीय पहलू पर शोध. उसी सिलसिले में थाबांग गाँव में उनका दो महीने रहना हुआ. पवन भारत नेपाल जन एकता मंच के पूर्व सचिव रह चुके हैं.
बहुत ही उम्दा लेख. नेपाल पर बहस जारी रखिये.
ReplyDeleteअभिषेक
पूरी रिपोर्ट आंख खोलने वाली है. इस रिपोर्ट ने सही में वह सबकुच्छ कह दिया जो लम्बी - लम्बी बहसें नहीं कर पाएंगी. जनयुद्ध की उपलब्धियों को किस तरह माओवादियों का नेत्रित्व मटियामेट कर रहा है इसमें दिखा. किसी भारतीय मीडिया में छपी अपने तरह की पहली रिपोर्ट है जिसने जनताना सरकार के हश्र की कहानी खोल के रख डी है. वर्मा जी ने पांच वर्षों में कभी इस तरह की एक बात नहीं कही जिसमें इस अवसान का पता चले उलटे प्रचंड और बाबुराम की गलत लाइन का बचाव करते रहे. पवन पटेल को सलाम करना चाहिए. वैसे जनज्वार में कुछ दन पहले छपी नेपाली कवि की कविता ने भी कुछ बातों को कह दिया था.
ReplyDeleteभाई मैं आज ही यह बहस देख पाया हूँ जिसमें नेपाल पर बात करने वाला कोई और दिखा है.keep it up..भाइयों. लेकिन एकाएक पवन पटेल को क्या हो गया जो वर्मा जी पर पिल पड़े हैं. अबतक तो उन्ही के साथ थे. इस बदलाव की वैज्ञानिक व्याख्या की जरूरत है वह भ समाजवादी मानदंड से.
ReplyDeleteयह तो मान लिया कि वर्मा जी ने गलत कहा. लेकिन गलत लाइन को उन्होंने क्यों सही कहा और सही को अपनी बहस से गायब क्यों कर दिया. इसका राज कौन खोलेगा.
ReplyDeleteभाइयों,
ReplyDeleteवर्मा जी पर पिल पड़ने के पीछे पवन जी की जमीनी जानकारी है जो उन्हें अपने नेपाल में अपनी फील्ड वर्क के दौरान हासिल हुआ. अब पवन जी पत्रकार तो है नही की वर्मा जी के चश्मे से नेपाल का भूगोल जाने और माने. वे तो विचार के कायल है और शायद इस लिए इसबार वर्मा जी से दो चार करने को तैयार दीखते है. वैसे वर्मा जी के 'भक्त' ने वर्मा जी को चुनौती देने का सहस कर एक नई मिसाल तो सब के सामने राखी ही है.
एक और जे ऐन यू स्टूडेंट
You have done good job. Good article.
ReplyDelete