Apr 29, 2011

दो नावों पर सवार हैं प्रचंड


नेपाल के राजनीतिक हालात और नेपाली माओवादी आन्दोलन की भूमिका को लेकर जारी बहस व्यापक होती जा रही है. यह बहस ऐसे समय में चल रही है जब वहां 2005 में हुए संविधान सभा के चुनाव का कार्यकाल 28 मई को खत्म होने जा रहा है. एक दशक के जनयुद्ध के बाद शांति प्रक्रिया में शामिल होकर नया संविधान बनाने का सपना लिए सत्ता में भागीदारी की माओवादी पार्टी, अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो सकी है.इसे लेकर पार्टी के भीतर और बाहर तमाम मत-मतान्तर हैं.जनज्वार की कोशिश होगी कि सभी पक्षों को बगैर पूर्वाग्रह के आने दिया जाये, जिससे हम अपने समय और समाज को और नजदीक से समझ सकें. इस कड़ी में  1-क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है? ,2-क्रांतिकारी लफ्फाजी या अवसरवादी राजनीति के बाद   तीसरा लेख आपके बीच है...

नीलकंठ के सी

आनंद स्वरुप वर्मा का लेख 'क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है' कई मायनों  में महत्वपूर्ण है.अव्वल तो इसलिए कि यह किसी जज्बाती क्रन्तिकारी का क्रंदन  नही है बल्कि एक परिपक्व लेखक का सोचा समझा नजरिया है और इसलिए इसे सहज ही अनदेखा नहीं  किया जा सकता.दूसरी बात यह कि आनंद स्वरुप वर्मा नेपाल के मामले में भारत के पाठको के बीच सन्दर्भ बिंदु के रूप में देखे जाते है और पुरानी परम्परा के अनुसार नेपाल के उनके नजरिये को बिना विवाद के स्वीकार किया जाता रहा है.उसकी वजह यह थी कि उन्होंने कभी खुद को एक पत्रकार के दायरे से बाहर नहीं  निकाला   और वस्तुगत स्थितियों   पर तथ्यपरक टिप्पणी   दी.

नेपाल के माओवादी आन्दोलन पर उनकी पहली पुस्तक ‘रोल्पा से डोल्पा तक’और इसके बाद के तमाम लेख और हाल में उनके द्वारा निर्मित फिल्म 'फलेम्स ऑफ़ दी स्नो'इसके उदाहरण है.लेकिन इस लेख में वे पत्रकारिता के दाएरे से बाहर आकर एक वैचारिक विश्लेषण करने का प्रयास करते है और बहुत सी दिलचस्प सुझाव देकर नेपाल की माओवादी राजनीति  में हो रहे वैचारिक संघर्ष के एक हिस्से के साथ खुद को खड़ा कर लेते है. अभी यह तय होना बाकि है की कौन सी लाइन नेपाल की जनता के हित में है लेकिन यह जरूर तय हो चुका है कि कौन सी लाइन उस लाइन का सही विस्तार है,जिसे जनयुद्ध शरू होने के समय नेपाल की पार्टी माओवादी ने अपना लक्ष्य बनाया था.

अपने लेख की शुरुआत  वे बहुत ही भावनात्मक टिप्पणी से करते है और बिलकुल सही तथ्य सामने रखते हैं कि,'जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने के मकसद से इसे शुरू किया गया था उन लक्ष्यों की दूरी लगातार बढ़ती गयी और उस लक्ष्य की दिशा में चलने वाले अपने आंतरिक कारणों से कमजोर और असहाय होते गए.' लेकिन जब वे यह साफ़ करते है कि वे लक्ष्य क्या थे तो घपला कर देते है.वे कहते है, “शांति प्रक्रिया को पूरा करना है, संविधान बनाना है, संविधान बनाने के लिए ही जनता ने इतनी बड़ी कुर्बानी दी,संविधान बनाने का नारा हमारा नारा था आदि आदि.' क्या हमें  मान लेना चाहिए कि आनंद स्वरुप वर्मा ने भूल से ऐसा लिख दिया जबकि खुद प्रचंड, बाबुराम और किरण ने आजतक ऐसा नहीं कहा है. कमसे कम दस्तावेजो में बाबुराम और प्रचंड शांति, संविधान को क्रांति का अंतिम लक्ष्य कहने से आज भी बचते है. क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि  वे गलती से भूल गये कि यहाँ वे जिसे 'आदि आदि'कहते है वे ही क्रांति के घोषित लक्ष्य है. जनयुद्ध के शुरुआत में जो नारा पार्टी ने दिया था वह था,'सत्ता के सिवा सब कुछ भ्रम है'.और सत्ता का अर्थ था समाजवादी सत्ता- श्रमजीवी वर्ग की तानाशाही.

आगे एक ही साँस में वे कहते है,  'जनयुद्ध ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत विपरीत परिस्थितियों के बावजूद साम्राज्यवाद और सामंतवाद को चुनौती देते हुए राजतंत्र को समाप्त किया था' और यह भी कि,“मान्यवर,आपको भी पता है कि आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं”. एक जनयुद्ध जिसने 'अत्यंत विपरीत परिस्थितियों के बावजूद साम्राज्यवाद और सामंतवाद को चुनौती देते हुए राजतंत्र को समाप्त किया था', क्या आज उसे सिर्फ इसलिए आत्मसमर्पण कर देना चाहिए कि कुछ लोग मानते है कि, 'आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं'. फिर वे ही क्यों सही हो जो मानते है कि, 'आज विद्रोह की परिस्थितियां नहीं हैं', वे लोग क्यों नही सही हो सकते जो विद्रोह को वस्तुपरक मानते है!

इसके बाद वे लिखते हैं,“आज स्थिति यह है कि हर मोर्चे पर पार्टी की विफलता उजागर हो रही है. संविधान बनाने का इसका लक्ष्य कोसों दूर चला गया है.मजदूर मोर्चे पर लम्बे समय तक अलग-अलग गुटों में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए मार-काट मची रही.वाईसीएल टूट के कगार पर है. सांस्कृतिक मोर्चे पर विभ्रम की स्थिति है। शीर्ष नेतृत्व पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं.ध्यान देने की बात है कि ये आरोप शत्रुपक्ष की ओर से नहीं बल्कि खुद पार्टी के अंदर से सामने आ रहे हैं इसलिए इसे इतनी आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता.” वे यहाँ ये बताने की कोशिश करते है कि संविधान का न बनना,जनमुक्ति सेना का नेपाल सेना में विलय न होना पार्टी की विफलता है और उसे जल्द से जल्द इसे पूरा करना चाहिए. जबकि दुसरे नजरिये से ये विफलता एक महत्वपूर्ण सफलता का आधार बन सकती है.क्योंकि यही तो तय था और दस्तावेज में शामिल किया गया था की, ' प्रतिक्रियावादी ताकते संविधान नही बनने देंगी और इसी आधार पर विद्रोह किया जायेगा'.

रही बात 'मजदूर मोर्चे पर लम्बे समय तक अलग-अलग गुटों में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए मार-काट' की तो वर्मा जी को यह कैसे नहीं पता कि मजदूर गुटों में वर्चस्व के सवाल पर विवाद नही है बल्कि लाइन के सवाल पर विवाद है और इसी तरह वाईसीएल भी लाइन के आधार पर ही टूट के कगार पर है. जहाँ तक सांस्कृतिक मोर्चे का सवाल है तो उसने तो बहुत पहले ही, 'प्रचंड पथ' की संस्कृति को त्याग दिया है.जहाँ भी सांस्कृतिक प्रदर्शन हुआ है एक ही बात बार बार कही गई है कि 'यहाँ रुक जाना गलत है'. नेपाल के आन्दोलन की जरा सी समझ रखने वाला व्यक्ति जानता  है कि, 'शीर्ष नेतृत्व पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप'नहीं लगाए जा रहे हैं बल्कि पार्टी के प्रचंड समूह पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जा रहे हैं! और ये आरोप 'लफ्फाज' किरण ने नही बल्कि 'दूरदर्शी' बाबुराम ने लगाये है.

इसके बाद तो वे आवेग में आकर बिना सन्दर्भ के 'नस्लीय' टिप्पणी  कर देते है.वे कहते है “लेकिन भारत के विपरीत नेपाल में एक बार अगर किसी के विरुद्ध लहर चल पड़ी तो उसे रोकना मुश्किल होता है.मुझे लगता है कि यह स्थिति पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के मनोविज्ञान में कहीं समायी हुई है.क्योंकि भारत के भी उत्तराखंड में हमें इस तरह की स्थिति का आभास होता है.माओवादी नेताओं को भी इसका आभास जरूर होगा क्योंकि अपनी जनता की मानसिकता को उनसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता.” याने जो कोई प्रचंड पर आर्थिक भ्रष्टाचार का आरोप लगाएगा या 'नेतृत्व' को चुनौती देगा वह ऐसा किसी खास 'पर्वतीय मानसिकता' के तहत करेगा!

वर्मा जी ने आगे लिखा है,“पार्टी का कैडर पूरी तरह कंफ्यूज्ड है.नेताओं के वक्तव्यों में एक चालाकी है जिसे अब धीरे-धीरे पार्टी कार्यकर्ता समझने लगा है” यह कथन उस हद तक ठीक है जब तक कि, 'पार्टी का कैडर पूरी तरह कंफ्यूज्ड है और अब धीरे-धीरे पार्टी कार्यकर्ता समझने लगा है'पर सवाल है कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है?वर्माजी कैसे इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर देते है कि नेताओं के वक्तव्यों में चालाकी नहीं है बल्कि एक खास नेता याने प्रचंड के वक्तव्यों में एक चालाकी है.प्रचंड को अच्छी तरह पता है कि विद्रोह की लाइन के साथ बने रह कर ही खुद की साख बचाई जा सकती है और शांति की बात करके भारत का विश्वास जीता जा सकता है.वे इसी निति के तहत काम कर रहे है और इसलिए कन्फ्यूजन  बना हुआ है.प्रचंड दोनों नावो में सवारी करना चाहते है. वे एक ही साथ  क्रन्तिकारी भी कहलाना चाहते है और 'राजनेता' भी.

इसके बाद वे पूरी आक्रमकता के साथ किरण पर हमला करते है, “किरण जी को न जाने कैसे अभी भी ऐसा महसूस होता है कि इतने सारे विचलनों के बावजूद पार्टी कार्यकर्ता और आम जनता उनके आह्वान पर विद्रोह के लिए उठ खड़ी होगी.उनके पास इन सवालों का भी कोई जवाब नहीं है कि अगर ऐसा ही था तो पार्टी ने 2006में शांति समझौता क्यों किया,संविधान सभा के चुनाव में क्यों हिस्सा लिया और फिर देश का नेतृत्व संभालने की जिम्मेदारी क्यों ली.क्यों नहीं अप्रैल 2006 में जन आंदोलन-2 के बाद ही नारायणहिती पर कब्जा कर,ज्ञानेन्द्र को महल से खदेड़ कर या उनका सफाया कर अपना झंडा लहरा दिया. किसने आपको रोका था एक और पेरिस कम्यून बनने से..........?”

यहाँ वे यह बताना जरूरी नहीं समझते कि किरण तुरंत विद्रोह की बात नहीं करते बल्कि उसकी प्रक्रिया में जाने की बात कर रहे है.उनका मानना है कि विद्रोह की तैयारी  के लिए गावों  में आधार बनाना चाहिए और चुनाव में जाने का अर्थ माओवादी क्रांति के सन्दर्भ में इस व्यवस्था को स्वीकार करना तो कभी नही था.आनंद जी घोषणा करते है कि यदि विद्रोह होगा तो वह पेरिस कम्यून के निष्कर्ष में पहुचेगा.क्या विद्रोह का दूसरा निष्कर्ष 'सोवियत क्रांति' नहीं हो सकता?और क्या क्रांति करने के लिए  जंगल जाना ही लाजमी है? जब वे यह कह रहे होते है कि, “क्रांतिकारी नारे देना और व्यावहारिक राजनीति से रू-ब-रू होना बहुत टेढ़ा काम है”तो क्या वे भी उसी निराशावादी सोच  के शिकार नहीं लगते जहाँ बदलाव एक मजाक है.एक पुराने समाजवादी को क्रांतिकारी नारे इतने अव्यावहारिक क्यों लग रहे है? और यदि लग भी रहे  हैं  तो दूसरों  को इस तरह की सलाह देने के पीछे उनकी पॉलिटिक्स   क्या है?

आगे वे एक सच्चे मित्र की तरह प्रचंड को बताना नही भूलते कि क्रांति की बातें करना 'लफ्फाजी'है और उन्हें अब अपने कार्यकर्ताओं को धोखे में नहीं रखना चाहिए.वे उन्हें यह भी याद दिलाते है कि, “आप से बेहतर कौन इस सच्चाई को जानता होगा कि 2006 और 2011 में आपके पीएलए,वाईसीएल और सामान्य कार्यकर्ताओं की जो आत्मगत तैयारी थी वह आज 60प्रतिशत से भी ज्यादा कम हो चुकी है.”क्या आनंद जी से यह आशा करना गलत होता कि वे प्रचंड को बताते कि उनके वैचारिक विचलन के कारण ही आत्मगत तैयारी कम हुई है.

प्रचंड  'मुग्धता' में वे प्रचंड को क्रांति का पर्यायवाची  मान लेते हैं और तय कर लेते है की यदि प्रचंड की आत्मगत तैयारी कम है तो जाहिर तौर पर पीएलए,वाईसीएल और सामान्य कार्यकर्ताओं की भी आत्मगत तैयारी कम ही होगी!क्या मार्क्सवाद के जानकार मार्क्सवाद की इस प्रस्थापना को भूल गये कि नेता और क्रांति का जन्म आवश्यकता  के तहत होता है और क्रांति के सामाजिक  कारण होते हैं और यह भी की क्रांति किसी नेता विशेष की इच्छा,उसकी आत्मगत स्थिति के अनुसार आगे नहीं  बढती बल्कि नेता का निर्माण ही क्रांति के विकास के साथ होता है.

आनंद जी को कैसे ये लग गया की नेपाल की क्रांति का यही निर्णायक अंत है.क्या 2006 और आज के बीच उन सभी सामाजिक कारको में आमूल परिवर्तन आ गया है जिस के आधार पर नेपाल में क्रांति अनिवार्य बन गई थी?जब वे बताते है कि,“विद्रोह की बात महज एक लोक-लुभावना नारा पॉपुलिस्ट स्लोगन”है तो वे ऐसा कैसे भूल जाते है कि जनयुद्ध भी एक समय,'लोक-लुभावना नारा पॉपुलिस्ट स्लोगन' ही था.

आगे वे सोच समझकर प्रचंड को सलाह देते है कि वे जल्दी से अपनी निष्ठा बाबुराम के पक्ष में लगा दें  और 'साहस' के साथ कह दें कि, “किरण जी, आप एक यूटोपिया में जी रहे हैं और यथार्थ से बहुत दूर हैं.नेपाल का यथार्थ आज यही है कि किसी भी तरह संविधान  निर्माण का काम पूरा किया जाए और एक दुष्चक्र में फंसी राजनीति को आगे बढ़ाया जाए”.बाप रे बाप एक समाजवादी के लिए समाजवाद 'यूटोपिया' और पूंजीवाद 'यथार्थ'. ऐसा कहने के उनके साहस को 'लाल सलाम'.

इसके बाद वे बहुत ही घातक निष्कर्ष पर पहुचते हैं,जो उनकी पुरानी जनपक्षधरता को देखते हुए हैरान करता है  कि प्रचंड के ऐसा करने से भारत उनका साथी हो जायेगा और “शरद यादव जैसे नेताओं ने लगातार मनमोहन सिंह और शिवशंकर मेनन से संवाद स्थापित कर उन्हें इस बात के लिए राजी किया है कि नेपाल की राजनीति में सबसे बड़ी पार्टी और सबसे ज्यादा समर्थन वाली पार्टी होने के नाते माओवादियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती”.आनंद जी गुलामी की पुरानी परंपरा को बचाए रखने का सुझाव प्रचंड को देते वक्त आप किस प्रकार की जनवादी मानसिकता का प्रदर्शन कर रहे है जरा हमें भी समझाइए.नेपाल की जनता का हित क्रांतिकारी  प्रतिरोध में है कि अवसरवादी आत्मसमर्पण में? यह नेपाली जनता के शुभचिंतक का कथन है कि एक भारतीय उग्र राष्ट्रवादी का सुझाव?

बहरहाल आनंद जी के लेख ने यह तो स्पष्ट किया है कि आज के दौर में वैचारिक विचलन न सिर्फ नेपाल की माओवादी पार्टी के एक तबके के भीतर बल्कि उसके पुराने समर्थको के अन्दर भी जड़ जमा चुका है.

(लेखक  नेपाली एकता मंच दिल्ली राज्य के सदस्य हैं. )


8 comments:

  1. नीलकण्ठ का लेख बहुत ही अव्वल है ।
    किसी किले को तोडना है तो उसके अन्दर घुसो – माओ ने सुविख्यात महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दरम्यान कहा था । उन्होंने यह भी कहा कि दुश्मन आपकी निन्दा करे तो समझो कि आप सही रास्ते पर हैं । आनन्द स्वरुप वर्माका आलेख पढते समय मुझे ये सभी बातें याद आ रही हैं । नेपाल और भारत के अमेरिकीपन्थियों से लेकर भारतपन्थियों की ओर से किरण की निन्दा और प्रचण्ड–बाबुराम की तारीफ – इससे सारी बातें और साफ हो जाती हैं । भारत के कुछ नेपाल–हितैषी नेपाली माओवादी आन्दोलन के भीतर प्रवेश करं उसे भारत के अनुकुल करने में फिलहाल सफल दीखते है, पर नेपाल की जनवादी क्रान्ति के अपने डायनामिक्स हैं । अभी इस क्रान्ति के नायक किरण हैं और निचले लेबल पर बहुसंख्यक पार्टी पंक्ति प्रचण्ड–बाबुराम और वर्माजी की लाइन से हटकर सोचती है । इससे ज्यादा वर्माजी के लेख के बारे में निष्कर्ष निकालना जरुरी नहीं लगता । यह भी गौरतलब है कि कोई भी राज्यसत्ता अपने को बनाए रखने के लिए अलग –अलग लेयर्स को तैयार करके रखती है । वर्माजी सरीखे लोग सत्ता के एक लेयर में रहकर काम करते है ं । बाहरी सलाह क्रान्ति को प्रभावित तो कर सकती है पर उसका रास्ता नहीं बदल सकती है । जहाँ तक प्रचण्ड की बात है , यह सही है कि वे अब तक दो नाव में सवार थे । अब वे ‘शान्ति और संविधान’ की नाव में सवार हो गए हैं जिसकी वर्माजी सहित अशोक मेहता आदि जैसे लोगों ने भी खुब तारीफ की है । वैसे प्रचण्ड ंने अपना खेमा चुनने में बहुत देर की है जिसका परिणाम यह हुआ है कि नेपाल की आम श्रमजीवि किसान मजदुर तबके ने तो उन पर विश्वास खो ही दिया है और भारतीय और अमरीकी सत्ताधारी वर्ग उनके दोहरे चरित्र को देखते हुए उन पर कितना विश्वास करेगा यह अभी कहना जल्दबाजी होगी । अब तक प्रचण्ड के प्रशंशक और बाबुराम के आलोचक रहे वर्माजी का लेख के जरिये यु–टर्न भी काफी दिलचस्प है । वर्माजी का यह आलेख जहाँ भारतीय राज्य की ओर से नेपाली जनता को दी गई चेतावनी है वहीं प्रचण्ड– बाबुराम सहित नेपाल की भारतपरस्त राजनीतिक दलों के नेताओं की हौसला आफजाई और तारीफ भी है ।

    श्रीराम खरेल
    ५, हर्दिनेटा, गुल्मी
    नेपाल

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  2. निर्भय सिंह,पटना यूनिवर्सिटीSaturday, April 30, 2011

    यह लेख दो बात साफ़ करता है, एक आगे से वर्मा जी के नेपाल और अन्य देशो पर लेखों को पढ़ते समय between the lines पढ़े. दूसरा जो नीलकंठ खुद कहते है, 'आनंद जी के लेख ने यह तो स्पष्ट किया है कि आज के दौर में वैचारिक विचलन न सिर्फ नेपाल की माओवादी पार्टी के एक तबके के भीतर बल्कि उसके पुराने समर्थको के अन्दर भी जड़ जमा चुका है'.

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  3. आरती शर्माSaturday, April 30, 2011

    नीलकंठ जी,
    पूरे लेख में यह तो बता दिया कि वर्मा जी क्या कहना चाहते है लेकिन कृपया यह भी स्पष्ट करें कि आप क्या चाहते है.

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  4. वर्मा जी की समझ पर पहली सवाल उठा है. उनको जरूर जवाब देना चाहिए और सहस पूर्वक अपने स्टैंड को रखना चाहिए या आत्मालोचना करनी चाहिए.

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  5. राजकिशोर जी,
    वर्मा जी न जवाब देंगे न अत्मालोचित होंगे. वर्मा जी जैसे सभी वरिष्ठ पत्रकार और चिन्तक (जिस में आप भी शामिल है यदि आप वरिष्ठ लेखक राजकिशोर ही है तो) यदि अपनी गलती मानते और उसे लगातार ठीक करने की प्रक्रिया में रहते तो हिंदी पत्रकारिता अंग्रेजी पत्रकारिता के अनुवाद से ऊपर कुछ हो सकती थी. हिंदी के सभी वरिष्ठ पत्रकारों की अपनी अपनी दूकान है. और वे इसमें लगातार अपना मालिकाना हक़ बनाये रखना चाहते है. कुछ मामलो में वे पूरी तरह अपने बच्चो, और शिष्यों के लिए इसे छोड़ जाना चाहते है. अब तो अजय और उसके जैसे लोगों से ही उम्मीद है. वे ही हिंदी पत्रिकारिता को बचा सकते है.

    अमर उजाला

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  6. तरन शिवSunday, May 01, 2011

    नीलकंठ जी,
    महत्वपूर्ण विश्लेषण के लिए धन्यवाद. लेकिन वर्मा जी का तखता पलट करने के पीछे आप की 'पॉलिटिक्स' क्या है. है तो आप भी पार्टी के सदस्य. और एका एक अपनी पार्टी के शुभचिंतक के प्रति रोष क्यों.

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  7. lal salaam comrade.
    very well written.....नीलकंठ जी,
    और जनज्वार की टीम को धन्यवाद इस debate को सुरु करने के लिए.बहुत अच्छा जवाब दिया वर्मा जी जैसे लोगो को.

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  8. This article is an milestone and would certainly benefit the people to understand how reactionary forces try to kill the revolutionary spirit of the party.

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