अशोक विश्वास
छूरी की मुझे जरूरत नहीं
मैं खाता हूं ज़मीन काटकर
मैं खाता हूं सबको बांटकर
इसलिए कि मैं गंवार हूं
मेरे बच्चे स्कूल में पढ नहीं पाते
बेरहम दुनिया से लड नहीं पाते
तभी तो वो सफलता की सीढी चढ नहीं पाते
इसलिए कि मैं गंवार हूं
जीवन भर मैं औरों के लिए बनाता हूं महल
हर काम की मुझसे ही होती है पहल
फिर भी मैं रहता हूं झोपडी में
दुख और गरीबी ही है मेरी टोकरी में
इसलिए कि मैं गंवार हूं
गरीबी ही है मेरी हमजोली
बीमारी मेरी दीवाली
और मौत ही मेरी होली
ये सब इसलिए क्योंकि मैं गंवार हूं
(अशोक, सरगुजा में सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उनकी यह कविता सीजीनेट स्वर से साभार ली जा रही है.)
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