Feb 15, 2011

साम्राज्यवादी स्थिरता का जनतांत्रिक विकल्प


होस्नी मुबारक का सबसे परममित्र व सहयोगी अमेरिका भी इस समय मिस्र की जनता-जनार्दन के सुर से अपना सुर मिलाने में अपनी भलाई समझ रहा है...

तनवीर जाफरी

मिस्र में 11फरवरी 2011 का दिन इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया. देश की सत्ता पर 30 वर्षों तक क़ब्ज़ा जमाए 82 वर्षीय राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को भारी जन आक्रोश के चलते राजधानी क़ाहिरा स्थित अपने आलीशान महल अर्थात राष्ट्रपति भवन को छोड़ कर शर्म-अल-शेख़ भागना पड़ा। तमाम अन्य देशों के स्वार्थी, क्रूर एवं सत्ता लोभी तानाशाहों की तरह ही मिस्र में भी राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने अपनी प्रशासनिक पकड़ बेहद मज़बूत कर रखी थी।

ऐसा प्रतीत नहीं हो पा रहा था कि मुबारक को अपने जीते जी कभी सत्ता से अपदस्थ भी होना पड़ सकता है। परंतु यह सारे कयास उस समय धराशायी हो गए जबकि शांतिपूर्ण एवं अहिंसक राष्ट्रव्यापी जनाक्रोश के साथ 18 दिनों तक चले लंबे टकराव के बाद अखिऱकार मुबारक को अपनी गद्दी छोडऩी ही पड़ी। मुबारक के तीन दशकों के शासन के दौरान देश में जहां भ्रष्टाचार,बेरोज़गारी,भूखमरी तथा गरीबी ने पूरे देश में पैर पसारा वहीं राष्ट्रपति मुबारक स्वयं दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बनने में पूरी तरह सफल रहे।

होस्नी मुबारक और ओबामा : नहीं काम आयी अमेरिकी सलाह

मुबारक के धन कुबेर होने का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे इस समय लगभग 70 अरब डालर की संपत्ति के स्वामी हैं। जबकि माईक्रो सॉफ्ट कंपनी के प्रमुख बिल गेटस तथा मैक्सिको के व्यवसायी कार्लोस स्लिम हेल जैसे विश्व के सबसे बड़े उद्योगपति 52 से लेकर 53 अरब डॉलर तक के ही मालिक हैं। खबरें आ रही हैं कि मुबारक की लंदन,मैनहट्टन तथा रेडियोड्राईवे में भी काफी संपत्तियां हैं तथा स्विस बैंक सहित अन्य कई देशों में इनके खाते भी हैं। यह भी समाचार है कि स्विस बैंक ने उन खातों को बंद करने की घोषणा की है जिनपर होस्नी मुबारक के खाते होने का संदेह है।

मिस्र  में आए इस भारी जनतांत्रिक परिवर्तन की और भी ऐसी कई विशेषताएं रहीं जो काबिले ग़ौर हैं । मध्यपूर्व एशिया के सबसे मज़बूत देश होने के बावजूद यहां आए राजनैतिक परिवर्तन में न तो कोई सैनिक क्रांति हुई न ही किसी प्रकार की खूनी क्रांति.जनता भी पूरी तरह अहिंसा व शांति के रास्तों पर चलते हुए 18दिनों तक लगातार किसी हथियार व लाठी डंडे के बिना क़ाहिरा के तहरीर चौक सहित मिस्र के अन्य कई प्रमुख शहरों में मुबारक विरोधी प्रर्दशन करती रही। जनता की केवल एक ही मांग थी कि मुबारक गद्दी छोड़ो और देश में जनतंत्र स्थापित होने दो।

राष्ट्रपति मुबारक ने इन अट्ठारह दिनों के प्रदर्शन के दौरान ऐसी कई चालें चलीं जिनसे कि वे स्वयं को कुछ दिनों तक और राष्ट्रपति के पद पर बनाए रख सकें। उन्होंने अपने अधिकार भी उपराष्ट्रपति को हस्तांरति करने की बात कही। बाद में उन्होंने अपने एक संबोधन में मिस्रवासियों से यह वादा भी किया कि वे अगला राष्ट्रपति चुनाव भी नहीं लड़ेगें। परंतु जनता की तो बस एक ही मांग थी -मुबारक फौरन गद्दी छोड़ दो। आखिऱकार मुबारक ने जनाक्रोश को दबाने के लिए हिंसा का रास्ता चुनने का भी एक असफल प्रयास किया।

पहले तो मुबारक ने सेना से प्रदर्शनकारियों से निपटने को कहा। जब सेना ने जनतंत्र की मांग करने वाले प्रदर्शनकारियों के विरूद्ध बल प्रयोग से इंकार कर दिया उसके बाद मुबारक ने स्थानीय पुलिस कर्मियों को सादे लिबास में घोड़ों व ऊंटों पर सवार होकर प्रदर्शनकारियों से मुठभेड़ कर उन्हें खदेडऩे को कहा। इसके परिणामस्वरूप क़ाहिरा में थोड़ा बहुत तनाव ज़रूर पैदा हुआ लेकिन मुट्ठीभर सरकारी मुबारक समर्थकों को भारी जनसैलाब के मुकाबले पीछे हटना पड़ा।

मिस्र में आए इस ऐतिहासिक बदलाव के पीछे इंटरनेट पर चलने वाली फेसबुक जैसी कई सोशल नेटवर्किंग साईट की भी बहुत अहम भूमिका रही। यही वजह थी कि आम जनता एक दूसरे के सीधे संपर्क में आकर सड़कों पर निकल आई। इस आंदोलन को न तो किसी विशेष राजनैतिक दल ने संचालित किया न ही इस ऐतिहासिक परिवर्तन के पीछे किसी नेता विशेष का कोई हाथ नज़र आया। हां टयूनीशिया की उस घटना ने मिस्रवासियों को अवश्य प्रेरणा दी जिसमें कि जनक्रांति के कारण ही कुछ दिनों पूर्व ही वहां के तानाशाह एवं प्रमुख ज़ैनुल आबदीन बिन अली को देश छोड़कर भागने के लिए मजबूर होना पड़ा।

मिस्रवासी होस्नी मुबारक द्वारा की जाने वाली लगातार उपेक्षा से तंग आ चुके थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुबारक जब 1975 में उपराष्ट्रपति बने तथा उसके बाद 1981 में अनवर सादात की हत्या के बाद राष्ट्रपति की कुर्सी पर विराजमान हुए,उस शुरुआती दौर में मिस्री अवाम उन्हें बेहद प्यार करती थी। यहां तक कि अपने शासनकाल के दौरान उन्होंने अपने सैकड़ों विरोधियों,विरोधी नेताओं,धार्मिक नेताओं तथा अपने विरुद्ध साजि़श रचने का संदेह करने वालों को मौत के घाट उतारा। उन्होंने अपने शासन के दौरान अपने विपक्षी दलों को सिर नहीं उठाने दिया। परंतु जनता यह सब कुछ देखती व सहन करती रही।

मिस्र के आम लोग अमेरिकी नीतियों के आमतौर पर विरोधी थे। परंतु होस्नी मुबारक मध्यपूर्व एशिया में अमेरिका के सबसे परम मित्र बने रहे। फिर भी जनता खा़मोश रही। 1979 में मिस्र-इज़राईल के मध्य एक संधि हुई। यह भी मिस्री अवाम ने न चाहते हुए भी स्वीकार किया लेकिन अपनी बदहाली,बेरोज़गारी तथा अपने बच्चों के भविष्य के प्रश्रचिन्ह को वह सहन नहीं कर सकी।

होस्नी मुबारक का सबसे परममित्र व सहयोगी अमेरिका भी इस समय मिस्र की जनता-जनार्दन के सुर से अपना सुर मिलाने में ही अपनी भलाई समझ रहा है। कल तक स्थिर सरकार की बात कह कर होस्नी मुबारक को समर्थन देने वाला अमेरिका अब जनतांत्रिक व्यवस्था को ही मिस्र में ज़रूरी समझ रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा जो कि अपनी अहिंसक विचारधारा के लिए भी दुनिया में जाने जाते हैं तथा मिस्र में ही क़ाहिरा में असलामअलैकुम कह कर अमेरिका व दुनिया के मुस्लिम देशों के बीच फैले मतभेद को दूर करने का प्रयास किया था,उन्होंने भी क़ाहिरा की शांतिपूर्वक एवं अहिंसक जनक्रांति पर संतोष व्यक्त करते हुए कहा है कि 'प्रदर्शनकारियों ने इस विचार को झूठा साबित कर दिया है कि इंसाफ हिंसा के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है।

प्रदर्शनकारी बार-बार यह नारे लगा रहे थे कि वे शांति बनाए रखेंगे। मिस्र में अहिंसा का नैतिक बल था। आतंकवाद नहीं, बिना सोचे-समझे मारकाट नहीं, और इसी इतिहास ने न्याय की ओर करवट ली। अपने इस वक्तव्य से अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने मिस्र की नीतियों को लेकर भविष्य में होने वाले अमेरिकी परिवर्तन की ओर साफ इशारा कर दिया है कि अब अमेरिका मिस्र में मुबारक सरकार जैसी तथाकथित स्थिरता की नहीं बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों व मानवाधिकारों की रक्षा की दुहाई देता हुआ नज़र आ रहा है।

मुबारक के गद्दी छोडऩे व क़ाहिरा छोड़कर जाने के बाद मिस्र को लेकर कई तरह की चिंताएं ज़ाहिर की जा रही हैं। इस समय मिस्र की सेना की आलाकमान के प्रमुख फ़ील्ड मार्शल मोह मद हुसैन तंतावी हैं। इन्होंने शीघ्र ही देश में निष्पक्ष चुनाव कराने तथा देश की बागडोर जनता के हाथों में सौंपने का संकेत दिया है। परंतु मिस्र तथा टयूनीशिया के हालात के बाद अब सबसे बड़ी चिंता अमेरिकी व यूरोपीय देशों के साथ-साथ उन मध्यपूर्व एशियाई देशों को भी है जोकि छोटी-मोटी सैन्य शक्ति के बल पर अपनी राजशाही या तानाशाही का शासन चला रहे हैं।

इनमें सबसे अधिक चिंता सऊदी अरब जैसे धनी एवं तेल संपन्न देश को है तो अरब-इज़राईल शांति प्रक्रिया पर पडऩे वाले संभावित प्रभाव को लेकर भी दुनिया में चिंता बनी हुई है। अमेरिका व उसके सहयोगी देशों को अब इस बात की फिक्र भी सताने लगी है कि कहीं मिस्र में आया यह परिवर्तन ईरान के बढ़ते प्रभाव को भी और अधिक उर्जा न प्रदान करे। इसके अतिरिक्त पश्चिमी देशों की चिंता इस बात को लेकर भी है कि मिस्र की क्रांति इस्लामी कट्टरपंथ के विरुद्ध चल रहे पश्चिमी देशों के संघर्ष को भी प्रभावित कर सकते हैं।

उधर मुस्लिम ब्रदरहुड अथवा इवानुल मुस्लमीन जैसे कट्टरपंथी संगठनों के मिस्र की राजनीति में पडऩे वाले संभावित प्रभाव को लेकर भी चिंता जताई जा रही है। उधर यूरोपीय देशों को इस बात की फिक्र सता रही है कि नई मिस्री शासन व्यवस्था अथवा नई निर्वाचित सरकार मिस्र से होकर गुज़रने वाली उस स्वेज़ नहर को कहीं बंद न कर दे जिससे होकर प्रतिदिन लगभग 50तेलवाहक जहाज़ यूरोप की ओर गुज़रते हैं। और यह रास्ता यूरोप व मध्यपूर्व एशियाई देशों के मध्य की 6हज़ार किलोमीटर की दूरी कम करता है। बहरहाल मिस्र में आए इस राजनैतिक परिवर्तन का मध्य पूर्व एशिया तथा पश्चिमी देशों पर वास्तव में क्या प्रभाव पड़ेगा यह तो मिस्र में गठित होने वाली नई जनतांत्रिक सरकार द्वारा घोषित नीतियों के बाद ही पता चल सकेगा।

होस्नी मुबारक की बिदाई के बाद लगभग पूरी दुनिया में जश्र तथा जनआंदोलन के प्रति समर्थन का वातावरण देखा जा रहा है.समर्थन को देख यह समझने में परेशानी नहीं होनी चाहिए कि दुनिया के लोग अब जागरुक हैं. ऐसा लग रहा है कि जनता अब तानाशाहों द्वारा विश्वस्तर पर मचाई जाने वाली लूट-खसोट तथा धन-संपत्ति के अथाह संग्रह को भी और अधिक सहन करने के मूड में नहीं हैं। इसलिए संभव है कि टयूनीशिया तथा मिस्र जैसे हालात का सामना अभी कुछ और देशों को करना पड़े जो जनता की आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं।



 लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafri1@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.





 

No comments:

Post a Comment