Dec 13, 2010

हर गांव में तीन एनजीओ


पहाड़ में की बढ़ती तादात यहां के सामाजिक एवं आर्थिक बनावट को नुकसान पहुंचाने वाली है। एनजीओ विभिन्न सर्वेक्षणों के माध्यम से एनजीओ जो काल्पनिक खतरे पैदा करते हैं,उनके समाधान के लिए बड़ा बजट भी प्राप्त करते हैं।

 
राजेंद्र पंत 'रमाकांत'

उत्तराखण्ड में पर्यावरण,जल,जंगल और जमीन के संरक्षण एवं संवर्धन के नाम पर बड़ी संख्या में स्वयंसेवी संगठनों की घुसपैठ बढ़ रही है। सरकार की निर्भरता लगातार इस संगठनों पर बढ़ती जा रही है। अधिकतर काम सरकार एनजीओ से करा रही है।

इससे जहां सरकार अपनी नाकामियों को छुपाने का काम करती है,वहीं ऐसे संगठनों को फलने-फूलने का मौका भी मिल रहा है। अब स्थिति यह है कि पूरे राज्य में जितने गांव हैं,उसके तिगुने एनजीओ हैं। एक अनुमान के अनुसार राज्य के प्रत्येक गांव में औसतन तीन संगठन काम कर रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में राज्य बनने से पहले इन संगठनों की घुसपैठ शुरू हो गयी थी। पर्यावरण संरक्षण,पानी के संवर्धन से लेकर जन कल्याणकारी परियोजनाओं तक उनके जुडऩे की लंबी फेहरिस्त रही है। धीरे-धीरे वे यहां के विकास की अगुवाई के सबसे बड़े पुरोधा बन गये।


इस समय राज्य में पचास हजार के करीब स्वंयसेवी संगठन कार्य कर रहे हैं। उन्हें देश-विदेश की वित्तीय संस्थाओं के अलावा सरकार भी काम देती है। इस समय राज्य एनजीओ के लिए सबसे मुनाफा देने वाली जगह साबित हो रही है। यहां किसी उद्योग या उत्पादन का नहीं, बल्कि समाजसेवा से एनजीओ लाभ कमा रहे हैं।


राज्य में स्वयंसेवी संस्थाओं के आंकड़ों में देखें तो इस समय तेरह जिलों में कुल 49954संस्थाएं जनसेवा में लगी हैं। यह आंकड़ा बहुत दिलचस्प है कि राज्य में कुल गांवों की संख्या 17हजार के आसपास है। अर्थात प्रत्येक गांव में तीन एनजीओ कार्यरत हैं। सरकारी संरक्षण में फलते-फूलते एनजीओ अब पहाड़ की दशा-दिशा तय करने लगे हैं।


एक तरह से एनजीओ एक नई इंडस्ट्री के रूप में स्थापित हो गये हैं। इस समय पहाड़ में मौजूद हजारों एनजीओ उन सारे कामों में हस्तक्षेप कर रहे हैं जो सरकार ने अपने विभागों के माध्यम से कराने थे। पर्यावरण, महिला कल्याण, शिक्षा, पौधारोपण, स्वास्थ्य, एड्स, टीवी और कैंसर के प्रति जागरूकता पैदा करने से लेकर यहां की सांस्कृतिक विरासत को बचाने तक का ठेका इन्हीं संगठनों के हाथों में है।



एनजीओ की जिलेवार संख्या

देहरादून 8249
हरिद्वार 4350
टिहरी 5483
पौड़ी 5292
रुद्रप्रयाग 1357
चमोली 2885
उत्तरकाशी 3218
उधमसिंहनगर 4654
पिथौरागढ़ 3203
बागेश्वर 940
अल्मोड़ा 4166
चम्पावत 806
नैनीताल 5351


कुल योग 49954


यही कारण है कि पहाड़ की मूल समस्याओं से ध्यान हटाकर विभिन्न सर्वेक्षणों के माध्यम से नये और काल्पनिक खतरों से बचने के लिए फंडिंग एजेंसियों और सरकार से बड़े बजट पर हाथ साफ किया जाता है। असल में सरकारी तंत्र की नाकामी और कार्य संस्कृति ने इस तरह की समाजसेवा की प्रवृत्ति को आगे बढ़ाया है।

जहां सरकार के पास जन कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के लिए भारी-भरकम विभाग और ढांचागत व्यवस्था है,वहीं इन कामों को करने के लिए सरकार स्वयंसेवी संगठनों की मदद लेती है। दुनिया के विकसित देशों ने तीसरी दुनिया के देशों में घुसपैठ बनाने के लिए एक रास्ता निकाला।

इनमें अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए वह एक जनपक्षीय मुखौटा भी ओढ़ते हैं। विश्व बैंक और अन्य बड़ी फंडिंग एजेंसियों के माध्यम से आने वाले पैसे को उसी तरह खर्च किया जाता है, जैसा वह चाहते हैं। यही कारण है कि जिन कामों को सरकार ने करना था, वे अब इन संगठनों के हाथों में हैं।


पहाड़ में एनजीओ की बढ़ती तादात यहां के सामाजिक एवं आर्थिक बनावट को नुकसान पहुंचाने वाली है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि यह विभिन्न सर्वेक्षणों के माध्यम से एनजीओ जो काल्पनिक खतरे पैदा करते हैं, उनके समाधान के लिए बड़ा बजट भी प्राप्त करते हैं।

नब्बे के दशक में अल्मोड़ा में कार्यरत ‘सहयोग’संस्था ने जिस तरह पहाड़ के सामाजिक ताने-बाने को एक साजिश के तहत तोडऩे की रिपोर्ट तैयार की थी, उसका भारी विरोध हुआ था। कमोबेश आज भी यही स्थित है। अब एड्स जागरूकता के नाम पर यदा-कदा जमीनी सच्चाई से दूर रिपोर्ट तैयार कर उसके खिलाफ जागरूकता लाने के नाम पर भारी फर्जीवाड़ा हो रहा है।

सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पहाड़ में जिन मामलों को लेकर ये संगठन काम करते रहे हैं, उन्हें पिछले पच्चीस-तीस सालों में ज्यादा नुकसान हुआ है। यहां की आंदोलन की धार को कुंद करने का काम भी ये कर रहे है।


यदि पहाड़ में स्वयंसेवी संगठन यहां की तस्वीर बदल रहे होते तो एक गांव में औसतन तीन से ज्यादा एनजीओ इस प्रदेश को स्वावलंबी ही नहीं,बल्कि दुनिया के बेहतर देशों में शुमार कर सकते थे। सरकार और एनजीओ का यह गठजोड़ कहां जाकर समाप्त होगा, यह आने वाला समय बतायेगा, लेकिन लगातार बढ़ते इन संगठनों पर समय रहते लगाम लगाने की जरूरत है।


(पाक्षिक पत्रिका जनपक्ष आजकल से साभार)


3 comments:

  1. 'हर गांव में तीन एनजीओ'ke bajay loot ka nya adda uttarakhand kahe to jyada sateek hoga. har koi loot hi raha hai uttarakhand ko. Neta-Naukarshahon gathgod se lekar tathakathit samajik sangthan tak.
    achhi report ke liye janpaksh aajkal or janjawar ko shadhuwad.

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  2. रमाकांत जी आपने एक जरूरी तथ्य से हम सबको परिचित कराया है, इसके लिए आपकी जितनी प्रसंशा हो कम है. अब एनजीओ को कुकुरमुत्ता नहीं कुकुरौंछी कहा जाना चाहिए जिससे बेचारे कुत्ते भी परेशान रहते हैं.

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  3. 'कुकुरौंछी' - बहुत ही मारक शब्द है भाई और सही भी.

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