दंतेवाड़ा में कैसे हालात हैं,को लेकर हिमांशु कुमार के आलेख ... आप किसके लिए लड़ रहे हैं? और कोई उस लड़की को बचाए!,प्रकाशित किये जाने के बाद उस कड़ी में अब अगला लेख एक नौजवान वकील का है जो दंतेवाड़ा यात्रा के अनुभव पर है. अंग्रेजी में भेजे गए इस लेख का अनुवाद सामाजिक सरोकारों से जुड़े पत्रकार कुमार राजेश ने किया है.
कुशल मोर
मुझे हमेशा लगता रहा कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित जाता है, इसलिए मैं खुद की आँखों से पूरी तरह सच देखना-समझना चाहता था.इसी तेजी में मैं वहां से हो आये पत्रकारों और अन्य लोगों की सलाह को दरकिनार करते हुए दो दिन पहले ही भारत के उस छोटे शहर दंतेवाडा पहुँच गया,जहाँ मैंने वो बड़े सच देखे जो आज भी मुझे आश्चर्यचकित करता है.
मैं यह देखना चाहता था कि आखिर क्यों प्रधानमंत्री दंतेवाड़ा और देश के दूसरे इलाके में फैले माओवादियों को देश के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताते हैं?वहीं इसके विपरीत बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधती रॉय 10ह़जार शब्दों का एक निबंध लिखती हैं और माओवादियों का यशगान करती हैं. जबकि वे सुरक्षा बलों के सैकड़ों जवानों को मार चुके हैं. मैं यह देखने के लिए उत्सुक था कि यह अनजान सी जगह आखिर क्यों देश में पिछले कुछ महीनों से चर्चा के केंद्र में है.
दंतेवाड़ा नवगठित राज्य छत्तीसगढ़ के दक्षिण बस्तर का एक इलाका है.यह भारतीय माओवादियों का येन्नान है.अगर येन्नान ने चीनी क्रांति के लिए माओ को सफलता का रास्ता दिखाया था,तो भारतीय माओवादी आदिवासियों में फैले असंतोष को क्रांतिकारी उत्साह में बदलने के लिए दंतेवाड़ा को आदर्श जगह मानते हैं. राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने के लिए सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत इसी गरीब और पिछले इलाके से हुई है.
दंतेवाडा में रूकने के दौरान लगा कि केंद्र सरकार ने जल्दबाज़ी में अर्धसैनिक बलों को तैनात करने का फैसला लिया है.यहाँ कश्मीर और वियतमान की तरह सैन्य शिविर स्थापित करने की शुरुआत हो गयी है और सलवा जुडूम के लोगों को कंधे पर बंदूक लटकाए हमेशा घूमते हुए देखा जा सकता है.मगर यहाँ के लोगों के लिए यह एक बहुत सी सामान्य बात है.सामान्य बातों को कुछ दिन तक समझने-बूझने के बाद मैंने एक दूर-दराज के गाँव में जाने का फ़ैसला किया.
डीआइजी कल्लूरी: वर्दी पर गहरे दाग |
गाँव जाने के लिए मैं पूरे दिन बस स्टैंड पर गाड़ी का इंतजार करता रहा,लेकिन जब तक वह आई तब तक शाम के पाँच बज चुके थे.अंधेरा घिर आया था.कई लोगों ने मुझे सलाह दी बेहतर होगा कि मैं अपना समय होटल में ही रहकर बिताऊं.फिर मैंने दंतेवाड़ा के डीआईजी से मिलने का फैसला किया.मैं यह जानना चाहता था कि नक्सल समस्या पर उनके विचार क्या हैं.
उनसे मिलने जाते हुए हथियारबंद गार्डों ने मुझे दो बार रोककर पूछताछ की.उसके बाद मुझे अंदर जाने दिया.ऐसा करते-करते मैं पुलिस थाने के दरवाजे तक पहुँच गया था,तभी डीआईजी कल्लुरी खुद बाहर आए.उन्हें नमस्कार कर मैंने अपना परिचय कुछ यूं दिया-"मैं एक वकील हूँ और दंतेवाड़ा में नक्सल समस्या को समझने के लिए मुंबई से यहाँ आया हूँ."इस पर कल्लूरी ने मुझे यहाँ से (दंतेवाडा) चले जाने कहा और बोले -"दंतेवाड़ा कोई पर्यटन स्थल नहीं है." उनके इस रुखे व्यवहार के लिए मैं मानसिक रूप से पहले से हीतैयार था.मैंने उनसे कहा कि मामले की गंभीरता को मैं समझ सकता हूँ.मुझे लगता है कि यह बातचीत के लिए माकूल समय नहीं है,जब आपके पास समय होगा तो मैं फिर आ जाऊंगा.
इसके कुछ क्षण बाद ही डीआईजी कल्लुरी ने बड़बड़ाते हुए कहा,"संदेहास्पाद,बहुत संदेहास्पद."मैं समझ नहीं पाया कि उनका मतलब क्या था.एक पल को लगा कि उनके मन में किसी पहेली का एक हिस्सा सुलझ गया है.उन्होंने कहा, "मुझे लग रहा है कि तुम एक नक्सली हो.’’ उनकी इन बातों पर मेरे कान बहुत मुश्किल से विश्वास कर पाए. उन्होंने अपने गार्डों को बुलाया और मुझे अंदर आने देने के लिए डाँटते हुए कहा,"तुम लोगों ने नहीं देखा कि यह एक नक्सली मुखबीर है.मैं सौ फीसदी कहता हूँ कि यह मुखबीर है.ऐसे लोगों को गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) और नक्सली इस बात का पैसा देते हैं कि वह थानों की खबर उनतक पहुचाएं.इसलिए इसे बंद कर अच्छी तरह देखभाल करो. "
कल्लूरी के इस आरोप के बाद मैंने अपनी पूरी क्षमता से यह बताने में लगा दी कि मैं मुंबई से आया एक वकील हूँ,पर हमारी एक नहीं सुनी गयी और मुझे दो मिनट के भीतर ही नक्सली बता दिया गया.इससे भी बुरी बात यह कि उन्होंने मेरे साथ एक बड़े अपराधी जैसा व्यवहार करने की सजा सुना दी.शुक्र है कि गार्ड दयालु थे और उन्होंने मुझे गलियारे में इंतजार करने के लिए छोड़ दिया.
इस बीच मैंने अपनी रिहाई के लिए पागलों की तरह कुछ फोन किए.शाम करीब आठ बजे डीआईजी कल्लुरी ने पुलिस थाने से जाते हुए मुझे देखा.जाने से पहले सुरक्षा गार्ड के कान में उन्होंने कुछ फुसफुसा कर कहा.मेरे ऊपर कुछ देर तक ताने मारने के बाद गार्ड ने मुझे जाने देने का फैसला किया.मैंने शाम को जो टेलीफोन किए थे शायद उनका भी इससे कुछ लेना-देना था.लेकिन मुझे छोड़ने के मामले में बिल्ली के गले में घंटी कोई नहीं बांधना चाहता था. करीब हर पाँच मिनट बाद एक नया अधिकारी आता, कुछ पूछताछ करता और अपनी टिप्पणी करता. अंतत: गार्ड मुझे इस शर्त पर छोड़ने पर सहमत हो गए कि मेजर उनके फैसले का अनुमोदन कर दें.
शुक्र है कि मेजर उदासीन लग रहा था, उसने मुझे छोड़ने का निर्देश देते हुए कहा कि मैं फिर यहाँ आसपास कभी न दिखाई दूँ.खासकर जंगल में..इस वाकये से मैं अंदर तक हिल गया था. पुलिस थाने से होटल तक चलकर आने में मुझे दो मिनट का समय लगा,लेकिन यह दूरी मुझे अनंतकाल से कम नहीं लगी.मेरे पास से जब भी कोई वाहन गुजरता तो मुझे लगता कि पुलिस मुझे फिर पकड़कर ले जाने के लिए आ रही है.हालाँकि दंतेवाडा आने से पहले भी परिचितों ने मुझे इस बारे में चेतावनी भी दी थी और बता दिया गया था कि दंतेवाड़ा एक युद्धक्षेत्र है,लेकिन सच बताऊँ इसका अंदाजा अभी जो कुछ हुआ था उससे पहले बिलकुल नहीं था.
खासकर इस बात की परवाह किए बिना की मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी इस यात्रा का मकसद क्या था, मेरी बात सुने बिना उन्होंने मुझे नक्सली घोषित कर दिया था.अगर मैं यह कहूँ कि पुलिस गाँव जला देती है,महिलाओं के साथ बलात्कार करती है और बिना किसी कानून के वह लोगों की संपत्ति को लूटपाट करती है तो मेरे पास इस पर विश्वास करने के कारण हैं.मैं यह सोचकर कांप जाता हूँ कि क्या होगा जब वे मुझे किसी जंगल में पकड़ लेंगे. मुझे लगता है कि वे मेरे बैग में कुछ डेटोनेटर और हथगोले रखेंगे. मुझे भागने का मौका देंगे और गोली मार देंगे. उसके बाद नक्सली को पकड़ने का पुरस्कार ले लेंगे.जंगल के अंदर जाने से मना करते हुए बिल्कुल यही बात सुबह मुझे एक आदमी ने बताई थी जिससे मैं मिला था.
देश के विभिन्न कोनों में लोकंतत्र के पर्यवेक्षकों ने पहले ही निष्कर्ष निकाल रखा है कि बस्तर जैसी जगहों पर पुलिस बलों को आदिवासियों के विरोध को कुचलने और उन्हें प्रताड़ित करने के लिए ही तैनात किया गया है.यह जरूरी है कि मुद्दे की संवेदनशीलता को समझा जाए और समस्याओं का समाधान किया जाए.कानूनी प्रक्रिया का वहाँ होना जरुरी है और इसका पालन किया जाए.भले ही कभी-कभी ये असरदार साबित न हो और बेमेल दिखे.यही वजह है कि अरुंधती राय जैसी कार्यकर्ता और कई मानवाधिकार संगठन मौजूद हैं ताकि स्थिति काबू में रहे.
हालांकि मुझे शहर छोड़कर तुंरत चले जाने की सलाह दी गई,लेकिन इसके बाद भी मैंने दंतेवाडा में रात बिताने का निश्चय किया.यह रात शायद मेरी जिंदगी की सबसे कठिन रातों में से एक थी.मैं रात के दस बजे से पहले ही होटल पहुँच गया था.कई घंटों तक मुझे नींद नहीं आई और मैं ताज़ी हवा के लिए होटल की बालकनी में गया.वहाँ खड़े रहकर मैंने तीन दिनों में पहली बार दंतेवाड़ा में रात को ढलते देखा. शहर बंद हो चुका था, गलियाँ सूनी थीं. कोई भी शख़्स दिखाई नहीं दे रहा था. ऐसा लग रहा था कुत्तों ने भी न भौकने का निश्चय कर रखा है.
दंतेवाड़ा शांत था.एक अजीब भयावह शांति चारों तरफ फैली थी.दूर से दंतेवाडा के घने जंगल दिखाई दे रहे थे.मैं यह सोचकर ही डर गया था कि इन जंगलों में क्या चल रहा होगा.रात की घटनाओं ने मुझे हिलाकर रख दिया था.अगली सुबह गाँव जाने की योजना के बारे में मैं उधेड़बुन में था. थोड़ी देर सोचने के बाद मैंने वहाँ जाने का निश्चय किया.मैं खुद को अरुंधती राय नहीं समझ रहा था, लेकिन बिना इस गाँव गए मेरी यह यात्रा निरर्थक होती.
दंतेवाड़ा शांत था.एक अजीब भयावह शांति चारों तरफ फैली थी.दूर से दंतेवाडा के घने जंगल दिखाई दे रहे थे.मैं यह सोचकर ही डर गया था कि इन जंगलों में क्या चल रहा होगा.रात की घटनाओं ने मुझे हिलाकर रख दिया था.अगली सुबह गाँव जाने की योजना के बारे में मैं उधेड़बुन में था. थोड़ी देर सोचने के बाद मैंने वहाँ जाने का निश्चय किया.मैं खुद को अरुंधती राय नहीं समझ रहा था, लेकिन बिना इस गाँव गए मेरी यह यात्रा निरर्थक होती.
कुशल मोर मुंबई हाईकोर्ट में वकील हैं .उनकी विशेज्ञता अपराध और उपभोक्ता मामलों में हैं, उनसे kushalmor@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है .
क्या बात है कुशल आपने तो कल्लूरी की कलई खोल दी.ऐसी सच्चाइयों से क्या अपने को बड़ा कहने वाला मीडिया वाकिफ़ नहीं है. फिर इस पर चुप्पी क्यों. बहुत बढ़िया रिपोर्ट और अनुवाद भी बहुत अच्छा.
ReplyDeleteइन सच्चाइयों को पढ़कर सिहरन होती है क्या वह भारत ही है जहाँ इन्सान की जिंदगी बंदूकों से सस्ती हो गयी है.
ReplyDeleteअब तक तो पत्रकारों और भुक्तभोगियों की बातें ही मीडिया में आया करती थीं लेकिन जनज्वार ने यह अनुभव छापकर बड़ा अच्छा किया है. कम से कम यह आपबीती दूर बैठे लोगों के सामने साफ़ कर देगी कि आदिवासी क्षेत्रों में हालात कैसे हैं.
ReplyDeleteकुशल मोर ने जो लिखा है उसे सच मान भी लिया जय तो इसमें बुरा क्या है. इतना बढ़ाकर क्यों बताया जा रहा है. युद्ध के क्षेत्रों में ऐसा होना आम है. अब किसी अधिकारी को कोई मुखबीर लग सकता है. अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो फिर मुखबीरों और सही लोगों में फर्क कैसे कर पायेगा. और मैं पूछता हूँ माओवादियों को महान बनाने की साजिश में मीडिया क्यों लगी है. मुझसे किसी ने कहा था यहाँ एक लेख प्रेम की कोटियाँ छपा है देखो, अच्छा है. वह देखने के लिए पहली बार यहाँ आयो यह रोमांस नजर आया.
ReplyDeletethis is great writing.keep it up dear mor
ReplyDeleteप्रिये बेटा Anonymous,
ReplyDeleteतुम लगता है कोई पुलिस अधिकारी हो या उसके भड़वे. वह भी कल्लूरी के. उस मानसिक रोगी ने नंगे पांव जैसे कई एनजीओ को पाल कर रखा है, जो इसी तरह की बकवास करते रहते हैं कि युद्ध के क्षेत्रों में ऐसा होना आम है.
खुदा न करे कि कभी तुम्हारे साथ कभी ऐसा हो और तुम्हारे पृष्ठभाग पर कोई पुलिस वाला ऐसी ही आम लात, घुसा या डंडा लगा दे. मैं 70 साल की उम्र में हूं और चला-चली की बेला है. लेकिन बेटा, इतना ध्यान रखो कि किसी की भड़वागिरी में ऐसे मत उलझो कि तुम्हारे मनुष्य होने पर ही शक होने लग जाये.
अजय सिंह
सत्तीपारा, अंबिकापुर, सरगुजा
very very good .. ajay singhji from sarguja .. u made my day ...
ReplyDeletePiyush
bhartiya rajniti ke is krur aur ghinaune chehre par thookta hun. mujhe sharm hai ek aise desh men paida hone par jahan apne hi logon ko pulis 'sandehaspad-sandehaspad' kahti hai.
ReplyDeleteदेश और जनता के असली गद्दार तो कल्लूरी जैसे सनकी पागल लोग हैं जो निश्चय ही जनविद्रोह को आमंत्रित कर रहे हैं! देशी विदेशी कंपनी के भाड़े के टट्टू सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं ज़ाहिर है आम जनता कुचली जा रही है! और देश लकीरों में नहीं आम लोगों में बसता है
ReplyDeleteDIG कल्लूरी जैसे लोग इस देश और समाज में तर्कसंगत व्यवहार और तर्कसंगत न्याय को ख़त्म कर इंसान को जानवर जैसा व्यवहार करने को प्रेरित करतें हैं........ऐसे लोग चपरासी के काबिल नहीं होते हैं लेकिन इनको DIG बना दिया जाता है भ्रष्ट उद्योग पतियों और मंत्रियों के द्वारा सरा दिए गए व्यवस्था द्वारा पूरे देश के लोगों को दंतेवारा जाकर देखना चाहिए की DIG कल्लूरी नक्सली से भी बदतर काम तो नहीं कर रहा है...........इस देश में सबसे बड़ी कमी ये है की अच्छे लोग एकजुट नहीं हैं जबकि बड़े लोग पूरी तरह एकजुट और सक्रीय हैं...........आपको दंतेवारा अकेले नहीं बल्कि देश के कुछ और सामाजिक कार्यकर्ताओं को साथ लेकर जाना चाहिए था.....
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