Nov 11, 2010

और वह आतंकवादी बन गया

ठीक 26वर्ष पहले 1984में 31अक्टूबर को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में सिक्खों का नरसंहार हुआ था। कांग्रेसियों की भागीदारी और निगरानी में हुए इस नरसंहार में तकरीबन दस हजार से अधिक लोग मारे गये और 50हजार से ज्यादा ने दिल्ली को असुरक्षिम मान अलविदा कहा। वहीं कुछ युवा रोष और नफ़रत की आग में खालिस्तानी हो गए, जिनमें एक नाम बचन का भी था...


हैनसन टी.के.

बचन सिंह पंजाब के एक साधारण किसान परिवार का करीब  23साल का सुंदर नौजवान था। रोजगार की तलाश में जब वह दिल्ली  आया तो जल्दी ही उसे एक टैक्सी स्टैंड पर ड्राइवर की नौकरी मिल गई । यह टैक्सी स्टैंड नई दिल्ली  के रफी मार्ग पर विठ्ठल भाई पटेल हाउस की चहर दिवारी के बाहर था ।

बचन बहुत ही हंसमुख लड़का था और जल्दी ही लोगों के साथ घुलमिल जाता था। विठ्ठल भाई  पटेल हाउस में रहने वाले कई नौजवानों से उसकी दोस्ती हो गई थी। अस्सी के दशक में डीवाईएफआई और एसएफआई दोनों के द़फ़्तर वीपी हाउस में ही थे। इन दोनों संगठनों के कई नौजवान कार्यकर्ता और खुद यह लेखक भी उन दिनों वीपी हाउस में ही रहा करता था। 

अन्याय के बढ़ते वर्ष : सरकार को नहीं मिले गुनहगार

 हर रोज़ शाम के समय हम लोग सामाजिक सरोकारों के विभिन्न  मुद्दों पर बहस करते थे। नुक्कड़ नाटक से लेकर फिल्म अभिनेत्री   रेखा तक,केंद्र सरकार से लेकर सर्वहारा क्रांति  और साम्राज्यवाद  तक सभी  विषयों पर चर्चा होती थी। जब बचन के पास काम नहीं होता तो वह भी  हमारे साथ शामिल होजाता था । वह प्रगतिशील विचारों का युवक था और लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति  उसकी गहरी आस्था थी।  सिखों की  धार्मिक पहचान मानी जानी वाली पगड़ी भी वह केवल तभी  पहनता था जब उसे अपने गांव जाना होता था।

अस्सी के दशक के शुरूआती वर्षों में पंजाब में अलगाववादी खालिस्तानी आंदोलन अपने चरम पर था। पंजाब में तो हिंसा और हत्याओं का सिलसिला था ही उग्रवादियों ने दिल्ली  में भी  अपनी गतिविधियां शुरू कर दीं थी। शहर के अलग अलग हिस्सों में बम धमाके किये जा रहे थे। डीटीसी की बसों को ख़ासतौर पर निशाना बनाया जा रहा था। यूएनआई की कैंटीन चलाने वाला स्वामी भी  डीटीसी बस में हुये ऐसे ही एक बम धमाके में घायल हो गया था।

पंजाब का उग्रवाद 1984तक आमतौर पर शहरों और कस्बों तक ही सीमित था। लेकिन अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की क़िलेबंदी में रह रहे जरनैल सिंह भिंडरावालां और उसके साथी उग्रवादियों को खदेड़ने के लिये किये गये सेना के ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद हालात बदल गये थे। यह भी आरोप लगे कि जिस भिंडरावालां को कोई जानता तक नहीं था,वह कांग्रेस  की सरपरस्ती में ही सिख राजनीति के केंद्र में आया।

पंजाब में कांग्रेस का खोया वर्चस्व बहाल करने के लिये अकालियों में फूट डालने के इरादे से भिंडरावालां को शह दी जाती रही, लेकिन हालात कांग्रेस के हाथों से बाहर निकल गये और भिंडरावालां के नेतृत्व में उग्रवाद तेज़ी से फैलने लगा। मजबूर होकर सरकार को ऑपरेशन ब्लू स्टार जैसी बड़ी कार्रवाई करनी पड़ी। सिख लोग परंपरागत रूप से बहुत धार्मिक प्रवृति  के होते हैं और उन्हें लगा कि ऑपरेशन ब्लू स्टार उनके धर्म पर हमला है।


84 के दंगे में एक सिख युवक

 सरकार की इस कार्रवाई से सिख समुदाय को बड़ा आघात लगा और उनकी इन्हीं आहत भावनाओं की परिणति इंदिरा गांधी की मौत में हुई,जिनकी हत्या उनके ही सुरक्षाकर्मी ने कर दी जो खुद भी सिख था। इंदिरा गांधी के हत्या के बाद देश में भयावह सांप्रदायिक दंगे हुये। लगातार दो दिन तक दिल्ली जलती रही। हजारों सिखों का क़त्लेआम हुआ, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ और उनकी संपतियां लूट ली गईं। शहर पर उपद्रवियों का क़ब्जा हो गया था।

भीड़ ने वीपी हाउस के टैक्सी स्टैंड पर भी हमला किया,लेकिन हमने खतरे को भांपते हुये पहले ही उनकी टैक्सियां कंपाउंड के भीतर करवा ली थी और सिख ड्राइवरों को अपने यहां बुलाकर बचा लिया। उपद्रवियों ने टैक्सी स्टैंड के तंबू और बाकी सामान में आग लगाकर अपना गुस्सा निकाला। कई जगहों पर कांग्रेसी नेता हिंसा पर उतारू भीड़ की अगुवाई कर रहे थे।

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ताओं ने भी हमलों में हिस्सा लिया। दिल्ली में हुये अगले चुनावों में आरएसएस ने कांग्रेसी उम्मीदवारों का खुलकर समर्थन किया। प्रशासन तंत्र को जान-बूझकर ठप कर दिया गया था। पुलिस को हिदायत थी कि भीड़ पर नियंत्रण करने की जरूरत नहीं है,बल्कि पुलिसकर्मी भी भीड़ को उकसाते हुये देखे गये। हिंसा का यह तांडव दो दिन तक निरंकुशता के साथ चलता रहा। तीसरे दिन सेना को बुलाया गया, लेकिन तब तक बहुत नुकसान हो चुका था।

कांग्रेसी नेतृत्व का यह तर्क सरासर खोखला था कि इंदिरा गांधी की हत्या की फौरी प्रतिक्रिया के तौर पर यह दंगे हुये। सच तो यह है कि पुलिस और प्रशासन ने समय रहते समुचित कदम उठाये होते तो काफ़ी हद तक नुकसान को टाला जा सकता था। उल्टे पुलिस और प्रशासन उपद्रव के दौरान निष्क्रिय बने रहे और राजनीतिक नेता भीड़ जुटाकर हमलों के लिये भड़काते रहे। राजीव गांधी का यह कुख्यात वक्तव्य ‘जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती कांपती हैं।' उस दौर में व्याप्त निरंकुशता का परिचायक है।

अपने जीवन में पहली बार मैंने सांप्रदायिक दंगे अपनी आंखों से देखे। यह मेरी कल्पना से परे था कि सांप्रदायिक जुनून में लोग इतने वहशी भी हो सकते हैं कि लोगों के गले काट डालें। जब किसी तरह से सामान्य स्थिति बहाल हुई तो मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ दंगों से सबसे ज़्यादा प्रभावित क्षेत्रों में गया। वहां का दृश्य दिल दहलाने वाला था। सिख बस्तियों की तंग गलियों में सन्नाटा पसरा हुआ था। इक्के दुक्के पुलिस वालों को छोड़कर कोई नजर नहीं आता था। पूरे इलाके की हवा में असहनीय दुर्गन्ध फैली हुई थी।

जब हम घरों के अंदर गये तो वहां डेरा डाल चुके आवारा कुत्ते बाहर निकलकर भागे। अंदर पड़ी लाशों में पहचान करना मुश्किल था कौन पुरूष और कौन स्त्री की है। ये लोग निश्चित ही किसी के माता, पिता, भाई, बहन, बेटा या बेटी रहे होंगे। सारा दृश्य भयावह था।

 आरोपी सज्जन कुमार : जनता के बीच अपराधी

कुछ दिनों के बाद शहर में स्थिति सामान्य होने लगी। टैक्सी स्टैंड वालों ने नया तंबू और लकड़ी का केबिन बना लिया था,लेकिन बचन सिंह कहीं नज़र नहीं आ रहा था। किसी को उसका अता पता मालूम नहीं था। कुछ लोगों का कहना था कि वह शायद वापस पंजाब चला गया। कुछ लोग उसके बारे में बात ही नहीं करना चाहते थे।

हम सबको बचन की बहुत याद आती थी। आखिर वह हमारा साथी था। समय बीतने के साथ लोग दंगों के दौरान की दर्दनाक घटनाओं को भूल गये । लगभग एक साल के बाद स्टैंड में काम करने वाले उसके एक साथी ने मुझे बताया कि बचन अब भारत में नहीं है। दिल्ली दंगों के बाद वह खालिस्तान आंदोलन में शामिल हो गया और इन दिनो तुर्की में एक आतंकवादी शिविर में था। वह आतंकवादी बन गया था। यह बात सुनकर मैं भौंचक्का रह गया। मैं किसको दोषी कहूं,अपने साथी बचन सिंह को जिसके पूरे समुदाय को आग में झोंक दिया गया या बेरहम पुलिस और प्रशासन को,जो आंखें मूंदकर मौत का तांडव देखते रहे या उन नेताओं को,जो अपने समर्थकों को हत्या, लूट और बलात्कार के लिये भड़काते रहे।

खालिस्तान आंदोलन कब का खत्म हो चुका है और देश की राजनीति में भी कई बड़े बदलाव हो चुके हैं,लेकिन आंतकवाद पूरे देश में पसर चुका है। पंजाब से वह कश्मीर पहुंचा और अब देश के सभी हिस्सों में आतंकवादी घटनायें होती हैं। हिंदू कट्टरवाद वटवृक्ष बन चुका है और अब यह सांप्रदायिक तनाव पैदा कर लोगों को बांटने,अपने राजनीतिक धड़ों के लिये वोट जुटाने की राजनीतिक रणनीति बन चुका है।

मुसलमानों को निरंतर निशाना बनाया जा रहा है। पूरे मुस्लिम समुदाय को शैतान के रूप में प्रचारित किया जा रहा है और उन्हें शक की नज़र से देखा जा रहा है। अब तो उदारवादी मुसलमान भी गुस्साये हुये हैं। जानी मानी अभिनेत्री शबाना आजमी ने अभी हाल ही में बताया था कि मुस्लिम होने के कारण उन्हें मुंबई में किराये पर मकान नहीं मिल सका पुणे और देश के दूसरे शहरों में भी ऐसे वाकये हुए हैं।

 अब कर्नाटक और उड़ीसा जैसे राज्यों में ईसाई समुदाय पर हमला किया जा रहा है जिनकी आबादी महज़ 2फीसद है। इन राज्यों में भी प्रशासन पीड़ितों को सुरक्षा देने की बजाए मुंह फेरे रहता है और दंगाई उत्पात मचाते रहते हैं। हमें अपने अतीत से सबक़ लेना चाहिये कि असहाय और लाचार लोगों के मन में आतंकवाद घर कर लेता है। बचन सिंह का मामला इसका ज्वलंत उदाहरण है।



लेखक सीपीएम के सदस्य हैं और सामाजिक-राजनितिक मसलों पर लिखते हैं.यह लेख मूल अंग्रेजी से अनुदित  कर  प्रकाशित  किया जा रहा है. फिलहाल वह हिंदी पाक्षिक पत्रिका  द पब्लिक एजेंडा में प्रबंधक हैं,  उनसे  hanskris@gmail.com संपर्क किया जा सकता है)

3 comments:

  1. शशि प्रकाशThursday, November 11, 2010

    दिल को छू देने वाला संस्मरण. बधाई मिस्टर टीके

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  2. ek yuva apne logon ko tabah hota dekh kaise ugra ho jata hai, aur sarkar ko pata bhi nahin chalta ki sabse badi vidrohi paida karne kee mashin vahi hai.

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  3. और वह आतंकवादी बन गया
    vakai T.K. Ji ke is sansmaran ne sochne ko mazboor kiya hai.

    riya prakash

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