Nov 26, 2010

साहित्य में चेलागिरी - नौकरशाही की दूसरी परम्परा



आज हिंदी में हर महत्वपूर्ण लेखक की रचना  पर नियमित समीक्षाएं होती हैं, रचना चाहे जैसी  हो.एक अफसर कवि की किताब पर तीन सौ समीक्षाएं छप जाती हैं और हिंदी में लिखने वाला नया लेखक अगर कालेज़ में नौकरी चाहता है तो उसे अपने अध्ययन  पर नहीं  गुरुदेव आलोचकों से संपर्क के प्रति सतर्क रहना होता है.



अच्युतानंद मिश्र


वर्तमान दौर के हिंदी लेखन पर वरिष्ठ आलोचक आनंद प्रकाश ने कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाये हैं .एक ऐसे समय में जब हिंदी लेखन एक व्यवसाय का रूप लेता जा रहा है तो लेखन से जुड़े वैचारिक पहलु और भी महत्वपूर्ण हो उठते हैं.आज़ादी के बाद के लेखन को मेरे हिसाब से तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है .

पहला 1970 तक का लेखन, दूसरा 1970 से लेकर 1980 तक का लेखन और तीसरे यानी  आखरी हिस्से को 1980से वर्तमान दौर तक का लेखन माना जा सकता है .पहले दौर के लेखन के केन्द्र में दो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं.पहला आज़ादी की प्रासंगिकता का प्रश्न दूसरा पूंजीवाद के खिलाफ चल रहे वैश्विक संघर्ष में भागीदारी का प्रश्न.इन प्रश्नों के आलोक में हिंदी में दो स्पष्ट विभाज़न देखे जा सकते हैं प्रगतिशील और गैर प्रगतिशील धारा.

आज़ादी के प्रश्न पर प्रगतिशील खेमे में भी एक उलझन की स्थिति नज़र आती है.इस उलझन के पीछे पंडित नेहरु के मिथ से इंकार नहीं किया जा सकता है.नेहरु के बहाने ही कांग्रेसी मार्का लेखन को भी इसी दौर में प्रगतिशीलों के बीच प्रवेश मिलता है जिसमे वर्ग संघर्ष के स्थान पर आम आदमी की बात कही जा रही थी.इस लेखन के केन्द्र में यह बात थी की मनुष्यता के सारे संकट संसद के माध्यम से ही हल किये जाने चाहिए.

समाज में बढ़ रही असामनता भूख गरीबी बेरोज़गारी आदि से सम्बंधित बुनियादी मसले पंचवर्षीय योजनाओं के लिए निर्मित भव्य और आलीशान इमारतों में ही हल किये जा सकते हैं .नौकरशाही का प्रवेश भी हिंदी साहित्य में इसी दौर में होता है. साठ  के दशक में नए साहित्य की अवधारणा का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर प्रगतिशीलों के बीच अवसरवादी धड़े  द्वारा किया जाता है.


हिंदी आलोचक नामवर सिंह
 इस दौर में लिखी गई आलोचना जिसमें  नामवर सिंह केन्द्र में हैं,में यह प्रवृति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है. ‘कविता के नए प्रतिमान’ और ‘कहानी नई कहानी’ दोनों पुस्तकों में बुर्जुआ लेखन को स्थापित करने का प्रयत्न स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. हालांकि  इन पुस्तकों के लेखन में मार्क्सवाद का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल से भी गुरेज़ नहीं किया गया .परिशिष्ट में मार्क्सवादी लेखकों का इस तरह इस्तेमाल किया गया,गोया आलोचना मार्क्सवादी ही नज़र आए परन्तु फायदा बुर्जुआ लेखकों को पहुचें.

यहाँ यह स्वीकार किया जाना चाहिए की नामवर सिंह अपनी इस रणनीति में बहुत हद तक सफल होते हैं .इसी बुनियादी अवसरवादी विचार को केन्द्र में रखते हुए साहित्य में प्रगितशील चेतना को पीछे धकेलते हुए वाम-कांग्रेसी गठबंधन के प्रभाव में लिखे जा रहे साहित्य को स्थापित करने का प्रयत्न किया गया.यहाँ वाम से मेरा तात्पर्य अवसरवादी वाम से ही है जो 1960 तक हिंदी साहित्य में अपनी बुर्जुआ योजनाओं और आकांक्षाओं के तहत सक्रिय हो चूका था.ये बातें यहाँ इसलिय ज़रुरी हो जाती है क्योंकि नयी कविता और नयी कहानी के माध्यम से एक खास तरह का समाज विरोधी व्यक्ति केंद्रित जीवन दर्शन प्रस्तुत किया जा रहा था जिसका अवसरवादी वाम धड़े ने विरोध के बजाय समर्थन ही किया.

एक बात और ध्यान देने योग्य है कि  सत्तर के दशक में ही अफसर साहित्यकारों की एक बड़ी जमात का प्रवेश होता है.इस सम्बन्ध में नागार्जुन ने आगाह करते हुए किसी प्रसंग में विजय बहादुर सिंह से कहा था कि विजय बाबु अगर इसी तरह अफसर साहित्य में प्रवेश करते रहें तो साहित्य में इसके नकारात्मक परिणाम देखने पड़ेंगे .इसी सन्दर्भ में सुरेन्द्र चौधरी ने भी कहा था कि आजकल पुलिस की रिपोर्ट लिखने वाले कहानी की रपट लिखने लगे हैं .गौरतलब है कि वामपंथी लेखक संगठनों का भी एक हद तक झुकाव इन लेखकों के प्रति देखा जा सकता है.

मिसाल के तौर पर राही मासूम रजा के स्थान पर जिस तरह श्रीलाल शुक्ल को चुना गया उस प्रक्रिया में हिंदी साहित्य पर नौकरशाही के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता है.इस तरह एक बात तो स्पष्ट है कि सत्तर के दशक तक एक खास अर्थ में अवसरवाद हिंदी साहित्य में प्रवेश कर जाता है.इसमें छद्म वामपंथियों की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है.

हिंदी साहित्य में 1970 के बाद दो प्रमुख प्रवृतियाँ नज़र आती हैं. पहला क्रन्तिकारी प्रगतिशील चेतना का साहित्य में एक बार फिर सक्रिय होना दूसरे कलावादी धारा का सत्ता संस्थानों से जुडकर साहित्य में पुरस्कारों कि महिमा स्थापित करना. आज हिंदी में दिए जाने वाले अधिकांश महत्वपूर्ण पुरस्कारों की  शुरुआत या तो इसी दशक में हुई है या इसके बाद.हिंदी में क्रन्तिकारी राजनैतिक लेखन का जितना विरोध इस दौर में हुआ उतना पहले नहीं हुआ था.यहाँ तक की नई कविता के दौर में भी नहीं .

क्रन्तिकारी लेखन से मेरा मतलब  परिवर्तन की इच्छा आकांक्षा प्रकट करने वाले लेखन से ही है .लेकिन सरलीकरण के नाम पर इस लेखन का ज़बरदस्त विरोध देखा जा सकता है.ना सिर्फ यही ,बल्कि तमाम मंचों से बार बार यह कहा जाता रहा की राजनितिक लेखन प्रोपेगेंडावादी एवं प्रचारवादी लेखन ही है जिसकी कोई सार्थकता नहीं.ध्यान देने योग्य तथ्य है कि इस दौर में खास तरह से शुद्ध साहित्य और सार्थक साहित्य की अवधारणा को स्थापित किया जाता है .यह अनायास नहीं है कि अशोक वाजपेयी सरीखे साहित्यकार महत्वपूर्ण हो जाते है और उनके साहित्यिक सरोकार नामवर अलोचोकों से जुड़ने लगते हैं.

आठवें दशक के बाद हिंदी में मिलीजुली संस्कृति का प्रभाव देखा जा सकता है.कलावाद साहित्य के लिए बहसतलब नहीं रह जाता है.हिंदी साहित्य के तीन स्तंभ इस   दौर से वर्तमान समय तक देखे जा सकते हैं .पत्रकार साहित्यकार,अफसर साहित्यकार और प्रोफेसर साहित्यकार .मै यहाँ इन्हें व्यक्तियों के रूपमें याद ना कर प्रवृतियों के रूप में ही याद कर रहा हूँ .पत्रकारिता में जिस निरपेक्षता को बहुत महत्व दिया जाता है उसे हू बहु साहित्य में भी मूल्य के रूप में स्वीकार लिया गया.

आज हिंदी का अधिकांश रचनात्मक लेखन अगर पत्रकारी लेखन लगे तो कोई हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए .सिर्फ यही नहीं आज लिखी जाने वाली अधिकांश आलोचना में भी अगर मूल्यहीनता को मूल्य की तरह दिखाया जा रहा हो तो पत्रकारिता के प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता.सत्ता के करीब होकर जिस तरह से हिंदी साहित्य की परिवर्तनकामी चेतना को कुंद किया गया उसमे अफसरों की भी केंद्रीय भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता.

नौकरी दिलाने से लेकर पुरस्कार समितियों लेखक संगठन आदि में इनके स्पष्ट प्रभाव को देखा जा सकता है.अगर कोई अफसर साहित्यकार किसी युवा लेखक की चंद समीक्षाओं के सन्दर्भ में कहे की वह आने वाले समय का मलयज है तो हिंदी साहित्य के मठाधीस उसे मलयज मानने लगते हैं.इधर युवा लेखकों के बीच चंद पुरस्कारों को लेकर इस तरह की चर्चा आम होती जा रही है कि इस वर्ष यह पुरस्कार मैं ले लेता हूँ अगले वर्ष तुम ले लेना.

एक अफसर साहित्यकार की कविताओं पर शोध करने वाले एक युवा साहित्यकार ने बताया की उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उसे गाइड दिलाया .यही नहीं अगर वे चाहे तो किसी मित्र के माध्यम से अपने ऊपर या अपने मित्रों के ऊपर शोध के लिए इस या उस विश्विद्यालय में कह भी सकते हैं .क्या यही हमारे समय का साहित्यिक यथार्थ है?क्या यही से हमारी आलोचनात्मक दृष्टि विकसित होगी.वह विकसित होकर कहाँ तक जायेगी,हिंदी अकादमी तक या साहित्य अकादमी तक?

आज हिंदी में हर महत्वपूर्ण लेखक की रचना  पर नियमित समीक्षाएं होती हैं-ध्यान रहे महत्वपूर्ण लेखक का  होना है,रचना चाहे कैसी भी हो.एक अफसर कवि की किताब पर तीन सौ समीक्षाएं छप जाती हैं.क्या भारत एक गरीब देश है?क्या पुस्तक की स्तरीयता लेखक के प्रभाव से ही तय होनी चाहिए.तीसरे स्तम्भ यानी  प्राध्यापकों का समूह.आज हिंदी में लिखने वाला हर नया लेखक अगर कालेज़ में नौकरी चाहता है तो उसे अपने अध्यन पर नहीं बल्कि गुरुदेव आलोचकों से अपने संपर्क के प्रति सतर्क रहना होता है.

अगर वह अपने गुरुदेव आलोचक की आने वाली हर किताब की नियमित समीक्षा करता है तो बहुत संभव है की गुरुदेव उसपर कृपाकटाक्ष कर सकते है .और वह नौकरी रूपी प्रसाद को ग्रहण कर जीवन भर के लिए उनका कृपा पात्र बना रह सकता है .ध्यान रहे समीक्षा के लिया पुस्तक पढ़ना उतना अनिवार्य नहीं जितन गुरु की मोहिनी मूरत को आत्मसात करना.

हिंदी में पुरस्कारों का एक उद्योग सा चल पड़ा है.क्या कारण है कि  आठवें दशक के तमाम महत्वपूर्ण कवि एक के बाद एक साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़े जाते हैं. उन्ही में से एक कवि बिहार राज्यभाषा से मिलने वाले पुरस्कार को यह कहकर ठुकरा देते हैं कि  वह सत्ता  द्वारा दिए जा रहे सम्मान को स्वीकार नहीं कर सकते,लेकिन साहित्य अकादमी का पुरस्कार लेते हुए वह सत्ता की संस्कृति का विरोध कर लेते हैं.
विष्णु खरे जब उर्वर प्रदेश के सन्दर्भ में सवाल उठाते है तो पूरी हिंदी उस पर बहस करती है,क्यों? क्योंकि  यह विवाद एक पुरस्कार को लेकर है.हिंदी लेखन में विचारधारा के साथ होते हुए वैचारिक लेखन नहीं नज़र आता तो इसके क्या कारण हो सकते है.

कहीं  ऐसा तो नहीं की प्रतिरोध की संस्कृति के मायने बदल दिए गए हों.आनंद प्रकाश ने जो सवाल उठायें हैं उसपर हिंदी के लेखक बहस नहीं करेंगे.क्योंकि ऐसा करते हुए उनकी पोलिटिक्स खुल कर सामने आ जायेगी.आज हिंदी का अधिकांश लेखन गैर राजनीतिक होते हुए भी राजनीतिक प्रतीत होता है क्योंकि उसके पीछे सत्ता की संस्कृति सक्रिय है. ऐसे में यह बेहद ज़रुरी हो जाता है की साहित्य में सत्ता की संस्कृति के निहितार्थ पर खुल कर बहस की जाये.

उपर्युक्त लेख जनज्वार में हिंदी साहित्य के सरोकारों पर चल रही बहस की अगली कड़ी है. यहाँ तीन लेखों का लिंक दिया जा रहा है. देखने के लिए कर्सर  लेखों के ऊपर ले जाकर क्लिक करें  "वर्तमान प्रगतिशीलता का कांग्रेसी आख्यान", 'पुरस्कारों का प्रताप और लेखक-संगठनों की सांस्कृतिक प्रासंगिकता", 'प्रगतिशील बाजार का जनवादी लेखक'.


(अच्युतानंद कुछ उन युवा लेखकों में हैं जिनकी रचनाओं में जनपक्षधरता बड़ी स्पष्ट दिखती है. हाल ही में 'नक्सलबाड़ी आन्दोलन और हिंदी कविता' नाम से एक पुस्तक प्रकाशित हुई है.  उनसे anmishra27@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. )


Nov 25, 2010

हथियार ना उठाया तो कैसे बच पाउँगा?


मैं आज कुछ लोगों की मदद से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा हूँ.जुलाई महीने में जैसे ही पुलिस को पता चला कि मैं पत्रकारिता कर रहा हूँ तो मेरे ऊपर नक्सली लीडर आजाद की जगह लेने और कांग्रेसी लीडर अवधेश गौतम के ऊपर हमले का मास्टरमाइंड बता दिया गया...

 

लिंगाराम कोड़ोपी

मै लिंगाराम कोड़ोपी छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा का एक आदिवासी हूँ और यहाँ अपने हालात बताने जा रहा हूँ, कि क्यों मुझे अपना दंतेवाडा छोड़कर दूसरे राज्य में रहना पड़ रहा है.जनज्वार पर हिमांशु जी का जो लेख छपा है उसे पढ़कर मुझे भी लगा क्यों न मैं अपना दुःख खुद ही कहूँ,चाहे कोई विश्वास करे या नहीं. मैं पहली बार लिख रहा हूँ और मेरी हिंदी अच्छी नहीं है, यह मैं जानता हूँ. फिर भी आपलोगों से कहता हूँ मेरी बात पढियेगा और फिर फैसला कीजियेगा सही कौन,गलत कौन. मैं समझने के लिए बता दूँ ,मैं वही हूँ जिसे नक्सली प्रवक्ता आजाद की मौत के बाद पुलिस ने आजाद की जगह लेने वाला बताया था.

तो अब सुनिए.यह एक ऐसे आदिवासी की कहानी है जो सितम्बर 2009से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के पास शरण लेकर रह रहा है। वे कार्यकर्ता सोचते हैं कि इस आदिवासी को पत्रकारिता की पढ़ाई करवायी जाये,ताकि ये अपने समुदाय की बात सरकार तक पहुंचाए। क्योंकि मीडिया अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहा है। वे कार्यकर्ता चाहते थे कि उस जगह पर एक पंत्रकार हो,ताकि वहां की बात सरकार तक पहुंचे और सरकार उनकी बात सुने।

कोई भी सामाजिक कार्यकर्ता आज दंतेवाडा में आदिवासियों की सेवा नहीं कर सकता। कारण यह है कि सामाजिक कार्यकर्ता अगर उस जगह पर रहेंगे तो आदिवासियों को नहीं मारा जा सकता,न ही भगाया जा सकता है और न ही कोई अभियान चल सकता है।


मैं आज कुछ लोगों की मदद से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा हूँ. जुलाई महीने में जैसे ही पुलिस को पता चला कि मैं पत्रकारिता कर रहा हूँ तो मेरे ऊपर नक्सली लीडर आजाद की जगह लेने और कांग्रेसी लीडर अवधेश गौतम के ऊपर हमले का मास्टरमाइंड बोलकर दंतेवाडा पुलिस द्वारा प्रेस रिलीज निकला जाता है.फिर मुझे मेधा पाटकर, अरुंधती राय, नंदनी सुन्दर, हिमांशु कुमार जैसे बड़े विख्यात लेखकों-सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ जोड़ा जाता है।


जैसे ही मुझे पता चलता है कि मुझे नक्सली लीडर कहा गया है तो मैं तुरन्त उन कार्यकर्ताओं को फोन करता हूँ और बोलता हूँ कि मैं तो पिछले सितंबर महीने से दिल्ली में हूँ। आखिर मैं भला किसी को कैसे मारने जा सकता हूँ। तब वे मेरे बारे में सोचते हैं और एक प्रेस कांफ्रेंस करते हैं।

प्रेस कांफ्रेंस में मैं अपने आप को बेगुनाह बताता हूँ। रोता हूँ कि मुझे अब मार दिया जाएगा क्योंकि मुझे पहले भी सताया गया है। पुलिस द्वारा पकडकर टार्चर,बाथरूम जैसी छोटी जगह पर बंद कर प्रताड़ित किया गया है। जब मेरा भाई हाईकोर्ट में अपील करता है तो मुझे छोड़ दिया जाता है। मुझे पकड़ने के लिए मेरे घर पर कई बार दुबारा अटैक होता है। तो मैं प्रेस में यह कहता हूँ कि मैं अब आत्महत्या करूँगा।

तभी एक भला इन्सान मेरा हाथ थामता है और पुलिस को चुनौती देता है कि यह लडका मेरे पास है, अगर पुलिस के पास कोई सबूत है तो उसे मेरे यहाँ से पकड़कर ले जाये। जो भला व्यक्ति मुझे अपने साथ ले जाता है उसे आज आर्य समाज के जाने-माने व्यक्ति स्वामी अग्निवेश के नाम से जाना जाता है। जो कि नक्सल और सरकार के बीच मध्यस्थतता की कोशिश कर रहे हैं।

आज भी पुलिस नक्सलियों को मारने में नाकाम है। आदिवासियों को मारकर नक्सलियों का नाम देना पुलिस का पेशा बन गया है। पुलिस आज भी मुझे यानी लिंगा राम कोड़ोपी को मारना चाहती है। इसके लिए मेरी बुआ के साथ सौदा करने की कोशिश की गयी कि तुम अपने भतीजे को दिल्ली से वापस बुलाओ,तो तुम्हरे साथ कुछ बुरा नहीं होगा।



बुआ को मैंने फोन किया और पूछा कि पुलिस वाले आपको परेशान कर रहे हैं क्या?तो उन्होंने बताया कि हाँ और कहा कि मेरा नाम फरारी (भगेडू) लिस्ट में है. तो मैंने उनको दिल्ली में बुलाया और कोशिश की कि इनको दिल्ली से कुछ मदद मिले,लेकिन कोई मदद नहीं मिली। मैंने कोशिश की एस.एस.पी. से बात करने की, पर उसने मुझे गन्दी गालियों का इस्तेमाल करते हुए कहा कि तू छुपकर कहाँ बैठा है। मैंने उनसे कहा कि सर आप मेरे पीछे पड़े क्यों हैं,मैंने आपका क्या बिगाड़ा है? तो उसने कहा तू हीरो बन गया। पहले दन्तेवाड़ा तो आ, वहां कर क्या रहा है? मैंने कहा कि मैं जर्नलिस्ट की पढ़ाई कर रहा हूँ, तो उसने कहा, तू आ के देख कैसे तेरा स्वागत करता हूँ दन्तेवाड़ा में।

मैंने कोशिश किया और कहा आपकी जो भी दुश्मनी है मेरे साथ है, मेरी बुआ को क्यों परेशान कर रहे हैं। तो उसने मुझसे कहा कि तुझे पूछने का कोई अधिकार नही है। तो मुझे क्रोध आया और मैंने उनसे बोला कि मै दन्तेवाड़ा आऊंगा जरूर और आपका स्वागत भी स्वीकार करूँगा। मैंने कहा कि बेसब्री से इन्तजार कर रहा हूँ दन्तेवाड़ा आने का। इतना बोलकर मैंने फोन काट दिया। मुझे पता है कि मेरा क्या हाल करने वाली है पुलिस। मैं ये अच्छी तरीके से जानता हूँ, लेकिन अंत तक हिंसा नहीं करूँगा,ये सोचता हूँ। लेकिन फिर सोचता हूँ शायद मैंने हथियार न उठाया तो खुद को बचा नहीं पाउँगा।

दिल्ली या शहर में रहने वाले बुद्धिजीवियों को क्या पता कि पुलिस किसके साथ क्या करती है। दन्तेवाड़ा के पूरे पत्रकारों को दबाव में रखा गया है। वहां मीडिया है ही नहीं। मैं पूरे भारत के बुद्धिजीवियों से पूछना चाहता हूँ कि नेशनल  मिनरल डेवलपमेंट कार्पोरेशन लिमिटेड(एनएमडीसी)52सालों से चल रहा है,पर आज तक उस क्षेत्र का विकास नहीं हुआ क्यों?

क्या कारण है कि नक्सलियों कि जगह पर आदिवासियों को जेलों में डाला जा रहा हैं?नक्सली नहीं लूटते, पर पुलिस को लूटते हुए मैंने देखा है, क्योंकि मेरी गाड़ी आज भी पुलिसवालो के कब्जे में है और एक साल से चलाई जा रही है। मैं एक गवाह हूँ। ऐसे कई लोगों कि संपत्ति को पुलिसवाले इस्तेमाल करते हैं। 

जब बात न बनी तो बुआ के खिलाफ फर्जी केस बनाकर उनके खिलाफ आज वारंट निकाल दिया है। यह मुद्दा बहस का है। इस बडे लोकतंत्र में सुधार की, इस बात को सोचने की जिम्मेदारी बुद्धिजीवियों की है। उसी विषय पर हिमांशु कुमार ने लेख लिखा था,क्योंकि वहां के आदिवासी हिमांशु को जानते है,इसलिए उनके पास फोन करते हैं। पर हिमांशु सिर्फ कोशिश कर सकते हैं,बचा नहीं सकते। क्योंकि इस लोकतंत्र में बुद्धिमान व्यक्ति चीख-चीख कर चिल्लाये उसकी कोई नहीं सुनेगा।

आज भी हथियार उठाना नहीं चाहता, पर यह पुलिस मजबूर करने की कोशिश कर रही है। सरकार तो यही चाहती है कि हर आदिवासी हथियार उठाये,ताकि मारने में आसानी हो। क्योंकि यह देश महापुरूष महात्मा गाँधी का है, हिंसा करना गुनाह है,लेकिन पुलिस आदिवासियों को मारे तो इन्साफ है। आदिवासियों को नक्सल बनाती है पुलिस और जब वही नक्सली पुलिस को मारे तो गुनाह है।

मैं अगर नक्सली बन जाता तो किसको मारता। क्योंकि पुलिस ने मुझे प्रताडि़त किया है,मैं पुलिस को ही मारता, पर मैं बना नहीं। पूरे भारत में बुद्धिजीवी सो गये हैं क्या?आखिर यह मुद्दा क्यों नहीं उठता कि आदिवासियों को क्यों मारा जा रहा है। यहाँ तक कि वर्ष 2009में जब दिल्ली से आदिवासी प्रेस कांफ्रेंस करके जा रहे थे और उन आदिवसियों की कोशिश यह थी कि रायपुर में भी प्रेस कांफ्रेंस हो,लेकिन वहां के प्रेस क्लब वालों ने कहा कि आदिवासी झूठ बोलते हैं। ऐसा बोलकर उन्होंने प्रेस क्लब देने से इन्कार कर दिया।

मैं बुद्धिजीवियों से पूछना चाहता हूँ कि मीडिया किसके लिए होती है,आज अगर मीडिया न होता तो मैं लिंगा राम कोड़ोपी मारा गया रहता। मीडिया में बहुत ताकत होती है,लेकिन मीडिया का कुछ लोग गलत इस्तेमाल करते हैं।

आज दन्तेवाड़ा में जो आदिवासी मर रहे हैं इसका मुख्य कारण शिक्षा न होने की वजह और बाहरी लोग सत्ता में रहने के कारण है। आज जिन लोगों को अवधेश गौतम के ऊपर जो हमला हुआ जिसमें नक्सलियों ने किया,पर आदिवासियों को अन्दर डाला गया। 35 लोगों को जेल में डाला गया है एक बाहरी व्यक्ति के कहने पर। वो तो एक ठाकुर है, वो कब से वहां का नेता बन गया। कांग्रेस को लोगों की नजर में गन्दा करने वाले यही लोग हैं जो सलवा जुडूम अभियान जन्म देने वाले बाहरी लोग हैं।

सलवा जुडूम में जितने बड़े लीडर हैं वे सब बाहर के थे।आज फिर से दोहराने की कोशिश कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिह का कहना है कि आदिवासी सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलें,अगर कोई चलना चाहे तो उसे कुचल दिया जाता है। राहुल गाँधी का कहना है कि अधिक से अधिक आदिवासी राजनीति में आयें,पर आयेंगे कैसे।


Nov 23, 2010

और पुलिस ने मुझे नक्सली बना दिया !


दंतेवाड़ा में कैसे हालात हैं,को लेकर हिमांशु कुमार के आलेख ... आप किसके लिए लड़ रहे हैं? और कोई उस लड़की को बचाए!,प्रकाशित किये जाने के बाद उस कड़ी में अब अगला लेख  एक नौजवान वकील  का है जो  दंतेवाड़ा यात्रा के अनुभव पर है. अंग्रेजी में भेजे गए इस लेख का अनुवाद सामाजिक सरोकारों से जुड़े पत्रकार कुमार राजेश ने किया है.

कुशल मोर

मुझे हमेशा लगता रहा कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित जाता है, इसलिए मैं खुद की आँखों से पूरी तरह सच देखना-समझना चाहता था.इसी तेजी में मैं वहां से हो आये पत्रकारों और अन्य लोगों की सलाह को दरकिनार करते हुए दो दिन पहले ही भारत के उस छोटे शहर दंतेवाडा पहुँच गया,जहाँ मैंने वो बड़े सच देखे जो आज भी मुझे आश्चर्यचकित करता है.

मैं यह देखना चाहता था कि आखिर क्यों प्रधानमंत्री दंतेवाड़ा और देश के दूसरे इलाके में फैले माओवादियों को देश के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताते हैं?वहीं इसके विपरीत बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधती रॉय 10ह़जार शब्दों का एक निबंध लिखती हैं और माओवादियों का यशगान करती हैं. जबकि वे सुरक्षा बलों के सैकड़ों जवानों को मार चुके हैं. मैं यह देखने के लिए उत्सुक था कि यह अनजान सी जगह आखिर क्यों देश में पिछले कुछ महीनों से चर्चा के केंद्र में है.

दंतेवाड़ा नवगठित राज्य छत्तीसगढ़ के दक्षिण बस्तर का एक इलाका है.यह भारतीय माओवादियों का येन्नान है.अगर येन्नान ने चीनी क्रांति के लिए माओ को सफलता का रास्ता दिखाया था,तो भारतीय माओवादी आदिवासियों में फैले असंतोष को क्रांतिकारी उत्साह में बदलने के लिए दंतेवाड़ा को आदर्श जगह मानते हैं. राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने के लिए सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत इसी गरीब और पिछले इलाके से हुई है.


डीआइजी कल्लूरी:  वर्दी पर गहरे दाग  
दंतेवाडा में रूकने के दौरान लगा कि केंद्र सरकार ने जल्दबाज़ी में अर्धसैनिक बलों को तैनात करने का फैसला लिया है.यहाँ कश्मीर और वियतमान की तरह सैन्य शिविर स्थापित करने की शुरुआत हो गयी है और सलवा जुडूम के लोगों को कंधे पर बंदूक लटकाए हमेशा घूमते हुए देखा जा सकता है.मगर यहाँ के लोगों के लिए यह एक बहुत सी सामान्य बात है.सामान्य बातों को कुछ दिन तक समझने-बूझने के बाद मैंने एक दूर-दराज के गाँव में जाने का फ़ैसला किया.


गाँव जाने के लिए मैं पूरे दिन बस स्टैंड पर गाड़ी का इंतजार करता रहा,लेकिन जब तक वह आई तब तक शाम के पाँच बज चुके थे.अंधेरा घिर आया था.कई लोगों ने मुझे सलाह दी बेहतर होगा कि मैं अपना समय होटल में ही रहकर बिताऊं.फिर मैंने दंतेवाड़ा के डीआईजी से मिलने का फैसला किया.मैं यह जानना चाहता था कि नक्सल समस्या पर उनके विचार क्या हैं.

उनसे मिलने जाते हुए हथियारबंद गार्डों ने मुझे दो बार रोककर पूछताछ की.उसके बाद मुझे अंदर जाने दिया.ऐसा करते-करते मैं पुलिस थाने के दरवाजे तक पहुँच गया था,तभी डीआईजी कल्लुरी खुद  बाहर आए.उन्हें नमस्कार कर मैंने अपना परिचय कुछ यूं दिया-"मैं एक वकील हूँ और दंतेवाड़ा में नक्सल समस्या को समझने के लिए मुंबई से यहाँ आया हूँ."इस पर कल्लूरी ने मुझे यहाँ से (दंतेवाडा) चले जाने कहा और  बोले -"दंतेवाड़ा कोई पर्यटन स्थल नहीं है." उनके इस रुखे व्यवहार के लिए मैं मानसिक रूप से पहले से हीतैयार था.मैंने उनसे कहा कि मामले की गंभीरता को मैं समझ सकता हूँ.मुझे लगता है कि यह बातचीत के लिए माकूल समय नहीं है,जब आपके पास समय होगा तो मैं फिर आ जाऊंगा.

इसके कुछ क्षण बाद ही डीआईजी कल्लुरी ने बड़बड़ाते हुए कहा,"संदेहास्पाद,बहुत संदेहास्पद."मैं समझ नहीं पाया कि उनका मतलब क्या था.एक पल को लगा कि उनके मन में किसी पहेली का एक हिस्सा सुलझ गया है.उन्होंने कहा, "मुझे लग रहा है कि तुम एक नक्सली हो.’’ उनकी इन बातों पर मेरे कान बहुत मुश्किल से विश्वास कर पाए. उन्होंने अपने गार्डों को बुलाया और मुझे अंदर आने देने के लिए डाँटते हुए कहा,"तुम लोगों ने नहीं देखा कि यह एक नक्सली मुखबीर है.मैं सौ फीसदी कहता हूँ कि यह मुखबीर है.ऐसे लोगों को गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) और नक्सली इस बात का पैसा देते हैं कि वह थानों की खबर उनतक पहुचाएं.इसलिए इसे बंद कर अच्छी तरह देखभाल करो. "

कल्लूरी के इस आरोप के बाद मैंने अपनी पूरी क्षमता से यह बताने में लगा दी कि मैं मुंबई से आया एक वकील हूँ,पर हमारी एक नहीं सुनी गयी और मुझे दो मिनट के भीतर ही नक्सली बता दिया गया.इससे भी बुरी बात यह कि उन्होंने मेरे साथ एक बड़े अपराधी जैसा व्यवहार करने की सजा सुना दी.शुक्र है कि गार्ड दयालु थे और उन्होंने मुझे गलियारे में इंतजार करने के लिए छोड़ दिया.

इस बीच मैंने अपनी रिहाई के लिए पागलों की तरह कुछ फोन किए.शाम करीब आठ बजे डीआईजी कल्लुरी ने पुलिस थाने से जाते हुए मुझे देखा.जाने से पहले सुरक्षा गार्ड के कान में उन्होंने कुछ फुसफुसा कर कहा.मेरे ऊपर कुछ देर तक ताने मारने के बाद गार्ड ने मुझे जाने देने का फैसला किया.मैंने शाम को जो टेलीफोन किए थे शायद उनका भी इससे कुछ लेना-देना था.लेकिन मुझे छोड़ने के मामले में बिल्ली के गले में घंटी कोई नहीं बांधना चाहता था. करीब हर पाँच मिनट बाद एक नया अधिकारी आता, कुछ पूछताछ करता और अपनी टिप्पणी करता. अंतत: गार्ड मुझे इस शर्त पर छोड़ने पर सहमत हो गए कि मेजर उनके फैसले का अनुमोदन कर दें.

 शुक्र है कि मेजर उदासीन लग रहा था, उसने मुझे छोड़ने का निर्देश देते हुए कहा कि मैं फिर यहाँ आसपास कभी न दिखाई दूँ.खासकर जंगल में..इस वाकये से मैं अंदर तक हिल गया था. पुलिस थाने से होटल तक चलकर आने में मुझे दो मिनट का समय लगा,लेकिन यह दूरी मुझे अनंतकाल से कम नहीं लगी.मेरे पास से जब भी कोई वाहन गुजरता तो मुझे लगता कि पुलिस मुझे फिर पकड़कर ले जाने के लिए आ रही है.हालाँकि दंतेवाडा आने से पहले भी परिचितों ने मुझे इस बारे में चेतावनी भी दी थी और बता दिया गया था कि दंतेवाड़ा एक युद्धक्षेत्र है,लेकिन सच बताऊँ इसका अंदाजा अभी जो कुछ हुआ था उससे पहले बिलकुल नहीं था.

खासकर इस बात की परवाह किए बिना की मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी इस यात्रा का मकसद क्या था, मेरी बात सुने बिना उन्होंने मुझे नक्सली घोषित कर दिया था.अगर मैं यह कहूँ कि पुलिस गाँव जला देती है,महिलाओं के साथ बलात्कार करती है और बिना किसी कानून के वह लोगों की संपत्ति को लूटपाट करती है तो मेरे पास इस पर विश्वास करने के कारण हैं.मैं यह सोचकर कांप जाता हूँ कि क्या होगा जब वे मुझे किसी जंगल में पकड़ लेंगे. मुझे लगता है कि वे मेरे बैग में कुछ डेटोनेटर और हथगोले रखेंगे. मुझे भागने का मौका देंगे और गोली मार देंगे. उसके बाद नक्सली को पकड़ने का पुरस्कार ले लेंगे.जंगल के अंदर जाने से मना करते हुए बिल्कुल यही बात सुबह मुझे एक आदमी ने बताई थी जिससे मैं मिला था.

देश के विभिन्न कोनों में लोकंतत्र के पर्यवेक्षकों ने पहले ही निष्कर्ष निकाल रखा है कि बस्तर जैसी जगहों पर पुलिस बलों को आदिवासियों के विरोध को कुचलने और उन्हें प्रताड़ित करने के लिए ही तैनात किया गया है.यह जरूरी है कि मुद्दे की संवेदनशीलता को समझा जाए और समस्याओं का समाधान किया जाए.कानूनी प्रक्रिया का वहाँ होना जरुरी है और इसका पालन किया जाए.भले ही कभी-कभी ये असरदार साबित न हो और बेमेल दिखे.यही वजह है कि अरुंधती राय जैसी कार्यकर्ता और कई मानवाधिकार संगठन मौजूद हैं ताकि स्थिति काबू में रहे.

हालांकि मुझे शहर छोड़कर तुंरत चले जाने की सलाह दी गई,लेकिन इसके बाद भी मैंने दंतेवाडा में रात बिताने का निश्चय किया.यह रात शायद मेरी जिंदगी की सबसे कठिन रातों में से एक थी.मैं रात के दस बजे से पहले ही होटल पहुँच गया था.कई घंटों तक मुझे नींद नहीं आई और मैं ताज़ी हवा के लिए होटल की बालकनी में गया.वहाँ खड़े रहकर मैंने तीन दिनों में पहली बार दंतेवाड़ा में रात को ढलते देखा. शहर बंद हो चुका था, गलियाँ सूनी थीं. कोई भी शख़्स दिखाई नहीं दे रहा था. ऐसा लग रहा था कुत्तों ने भी न भौकने का निश्चय कर रखा है.

दंतेवाड़ा शांत था.एक अजीब भयावह शांति चारों तरफ फैली थी.दूर से दंतेवाडा के घने जंगल दिखाई दे रहे थे.मैं यह सोचकर ही डर गया था कि इन जंगलों में क्या चल रहा होगा.रात की घटनाओं ने मुझे हिलाकर रख दिया था.अगली सुबह गाँव जाने की योजना के बारे में मैं उधेड़बुन में था. थोड़ी देर सोचने के बाद मैंने वहाँ जाने का निश्चय किया.मैं खुद को अरुंधती राय नहीं समझ रहा था, लेकिन बिना इस गाँव गए  मेरी यह यात्रा निरर्थक होती.



कुशल मोर मुंबई हाईकोर्ट में वकील हैं .उनकी विशेज्ञता  अपराध और उपभोक्ता मामलों में हैं, उनसे kushalmor@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है .





Nov 22, 2010

कोई उस लड़की को बचाए!

रोज इस आशंका के साथ जागता हूँ कि सोनी सोरी की मौत या जेल में डाल देने की खबर आयेगी। वो रोज फोन करके बचा लेने के लिए गिड़गिड़ाती है,क्या कोई इस महान लोकतंत्र में  है जो उस आदिवासी लड़की को सत्ता और व्यापार के क्रुर पंजों  से बचा सके? 


हिमांशु  कुमार



दन्तेवाड़ा से मुझे तीन माह पहले एक आदिवासी लड़की का फोन आता है,'सर दन्तेवाड़ा का एस.एस.पी.कल्लूरी मुझे से कह रहा है कि या तो अपने भतीजे लिंगा को दिल्ली से वापिस बुलाकर हमे सौप दो नही तो तुम्हारी जिन्दगी बर्बाद कर देगे। और आज तीन माह के बाद वह लड़की मुझे बताती है कि सर आपने कुछ नहीं किया और इस बीच एस.एस.पी.कल्लुरी ने मेरे पति को जेल में डाल दिया है और मेरे खिलाफ दो एफ आई आर लिख दी है। जिसमे से एक थाने पर हमला करने और दूसरी एक राजपूत काग्रेसी नेता अवधेश गौतम के घर में नक्सलियों के साथ मिलकर हमला करने का आरोप मुझ पर लगाया हैं।

वो लड़की मुझसे रोकर कह रही हैं सर मेरे तीन बच्चे हैं मैं कैसे थाने पर और कांग्रेसी  नेता पर हमला करने जाऊँगी वह बताती है कि,मैं जाकर कल्लुरी से मिल कर रोई-गिड़गिडाई पर उसकी एक ही शर्त थी कि दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे अपने भतीजे लिंगा कोड़ोपी को लाकर हमें सौंपेगी तब मेरे पति और मुझे इस मामले से मुक्त कर दिया जायेगा।


दिल्ली में बचपन बचाओ के दफ्तर में लिंगाराम
 इस आदिवासी लड़की को मैंने आज से लगभग बारह साल पहले पहली बार देखा था। तब यह बारहवीं क्लास में पढ़ती थी। बस्तर में विनोबा भावे के शिष्य पदमश्री धर्मपाल सैनी शिक्षण संस्थायें चलाते हैं। मैं और मेरी पत्नी अक्सर इस शिक्षण संस्था में जाकर बच्चों से मिलते थे वही पर सोनी नामक यह लडकी हमें  मिली थी तब इसके चाचा नन्दा राम सोरी दन्तेवाड़ा से सी.पी.आई के नेता थे।

बारह वर्ष के अन्तराल के बाद यह लड़की पिछले साल अक्टूबर में फिर से मेरे पास आयी और बताया कि उसके भतीजे लिंगा राम कोड़ोपी को पुलिस घर से उठा कर ले गयी है और पुलिस उस पर (एस.पी.ओ.)बनने के लिये दबाव डाल रही है तथा उसे दन्तेवाड़ा थाने के शौचालय में छिपा कर रखा हुआ है और एस.एस.पी.अमरेश मिश्रा और डी आई जी कल्लूरी उसकी नित्य पिटाई करते हैं।

मैंने तुरत हाई कोर्ट में हैवियस कार्सपस दायर करने की सलाह दी, सोनी की सलाह पर लिंगा के बड़े भाई मासाराम कोड़ोपी ने बिलासपुर स्थित छत्तीसगढ हाईकोर्ट में अपने भाई लिंगा को कोर्ट में पेश करने का आवेदन दिया। पुलिस ने कोर्ट में कहा कि लिंगा अपनी मर्जी से एस.पी.ओ.बना हुआ है। कोर्ट ने लिंगा को हाजिर करने का हुक्म दिया और कोर्ट में लिंगा ने कह दिया कि वह एस.पी.ओ.नहीं बनना चाहता बल्कि अपने घर जाना चाहता है। कोर्ट ने पुलिस से लिंगा को तुरन्त छोडने और घर जाने देने का आदेश दिया।

कोर्ट से घर वापिस आते समय लिंगा को अहसास था कि पुलिस उसे घर तक नहीं पहुंचने देगी क्योंकि थाने में कैद के दौरान एसपी अमरेश मिश्रा और डी आई जी कल्लूरी ने उससे और उसके परिवार वालों से कहा था कि अगर इस लड़के लिंगा को तुम लोग अदालत के सहारे हमसे छुड़ा भी लोगे तो हम इसे बाद में गोली से उड़ा देंगे और एनकाउंटर बता देगे। इस धमकी को याद रखते हुए लिंगा रास्ते में अपने गाड़ी से उतर गया और अपने एक मित्र के घर रुक गया। उधर जैसा कि आदेश था, पुलिस ने लिंगा को पकड़ने के लिये आगे नाकाबन्दी की हुई थी। लिंगा के परिवार की गाड़ी रूकवाई गई। पर लिंगा को न पाकर एसपी अमरेश मिश्रा और डी.आई. जी. कल्लूरी की हवाइयाँ उड़ गई। उन्होने लिंगा के छिपने के ठिकाने के बारे मे पूछताछ करने के लिये लिंगा के बड़े भाई मासा कोड़ोपी को रास्ते में पकड लिया।

लिंगा को इस बात का पता चला तो छिपते-छिपते मेरे पास आया हमने तुरन्त हाईकोर्ट को फैक्स द्वारा शिकायत भेजी कि हाईकोर्ट में शिकायत दायर करने वाले को ही पुलिस ने गायब कर दिया है। फैक्स मिलने पर अगले दिन हाईकोर्ट ने छत्तीसगढ पुलिस से लिंगा के भाई बारे में नोटिस जारी कर जवाब पुछा तो पुलिस ने लिंगा के भाई को दो दिन बाद छोड़ दिया।

सोदी संबो: पुलिसिया ज्यादती की शिकार
लेकिन एक हफ्ते बाद पुलिस ने फिर लिंगा को मारने के लिये रात को उसके गाँव पर हमला किया। लिंगा को इस बात का अन्देशा था,इसलिये वह अपने घर में न सो कर गाँव के बाहर एक खण्डहर में सोया था। पुलिस ने गाँव के हर घर में जबरदस्ती घुस कर लिंगा को तलाश किया। लेकिन लिंगा नहीं मिला तो इस बार पुलिस उसके बूढे़ बाप और गाँव के पाँच और लोगों को पकड़ कर लिंगा के बारे में पूछताछ करने ले गयी। तब लिंगा फिर मेरे पास आया लेकिन इस बार वो बहुत गुस्से में था।

वो बार-बार बड़बड़ा रहा था कि ठीक हैं अगर सरकार ऐसा करेगी तो मैं भी बंन्दूक पकड़ कर नक्सलाईटों के साथ मिल जाता हूँ। मैंने उससे कहा कि लिंगा सरकार तो यही चाहती है कि आदिवासी लड़के बन्दूक उटायें जिससे सरकार को उन्हें  मार देने का बहाना मिल जाये। हम कानून की लड़ाई लडे़गे,गलती से भी बन्दूक मत उठाना। हम लोगों ने फिर से एक शिकायत लिख कर राष्ट्रपति,सुप्रीम कोर्ट,प्रधानमंत्री,मानवअधिकार आयोग,हाईकोर्ट,डी.जी.पी. एसपी आदि को भेजी। पुलिस ने एक हफ्ते बाद लिंगा के पिता को छोड़ दिया। बाकी के पाँच गाँव वालों को एक महीने के बाद छोड़ा गया। इस पूरे मामले में भी सोनी सोरी लगातार गाँव वालों को छुड़ाने की कोशिशों में लगी रही इस बीच पुलिस की टीमें लिंगा को लगातार गाँव में जाकर मार डालने के लिये ढंुढती रहीं। बावजूद इसके की कोर्ट से उसे संरक्षण प्राप्त था। लेकिन छत्तीसगढ़ में पुलिस और सरकार कोर्ट को पैरांे की जूती समझती है।

इस बीच एस.एस.पी.अमरेश मिश्रा और डी.आई.जी कल्लूरी से लिंगा की बुआ सोनी और उसके पति अनिल मिले। दोनांे से पुलिस अधिकारियों ने साफ-साफ कहा कि लिंगा ने कोर्ट में पुलिस की इज्जत खराब की हैं। हमारे पास उसे मार देने कि उपर से छूट हैं। उसे तो हम जिन्दा नहीं छोडेगे।

लिंगा मेरे दन्तेवाड़ा वाले आश्रम में छिपा हुआ था। उसने पूछा कि सर मुझे क्या करना चाहिए,और लिंगा बार-बार कहता था कि मैं बंदूक उठा लेता हूँ और मरना ही है तो लड़ते हुए मरुंगा। मैंने कुछ सामाजिक संस्थाओं से बातचीत की और लिंगा को गोपनीय तौर पर दिल्ली भेजवा दिया। मेरे कुछ पत्रकार मित्रों ने सलाह दी कि बस्तर से कोई आदिवासी पत्रकार नहीं है लिंगा को पत्रकार बनने में मदद की जाये और लिंगा का प्रवेश दिल्ली के एक प्रख्यात पत्रकारिता संस्थान में हो गया।

उधर छत्तीसगढ़ पुलिस को जब लिंगा के पत्रकार बनने की संभावना का पता चला तो छत्तीसगढ़ पुलिस के हाथ पाव फूल गये। क्योंकि लिंगा छत्तीसगढ़ पुलिस के अत्याचारों का गवाह था और पत्रकार बनने के बाद वह दन्तेवाड़ा में पुलिस की करतूतों  की पोल खोल सकता था। आनन फानन में डीजीपी विश्वरंजन और कल्लूरी ने एक स्टेटमेंट मीडिया के लिये जारी किया कि लिंगा कोड़ोपी एक बड़ा नक्सली नेता हैं और माओवादी पार्टी ने अपने प्रवक्ता आजाद के मरने के बाद लिंगा को उनकी जगह नियुक्त किया है। पुलिस विज्ञप्ती में आगे कहा गया कि लिंगा को नक्सलवाद की ट्रेनिंग के लिए अमेरिका भेजा गया था,( जबकि लिंगा का कोई पासपोर्ट ही नहीं है) और उसका संबध अरूंधति राय, मेधा पाटकर, हिमंाशु कुमार और नंदिनी सुन्दर से हैं।

इस प्रेस बयान के बाद स्वामी अग्निवेश ने दिल्ली में प्रेस वार्ता की तथा चुनौती दी कि लिंगा यहां है और यह एक सीधा-सादा आदिवासी युवक है जो पत्रकारिता की पढा़ई पढ़ रहा है और अगर पुलिस के पास कोई सबूत हैं तो वो सामने आये। इसके बाद पुलिस ने माफीनामा जारी किया और छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन ने वक्तव्य दिया कि लिंगा के विषय में पिछला वक्तव्य गलती से जारी हो गया था। परन्तु पुलिस भीतर ही भीतर लिंगा को दबोचने का षडयंत्र बनाने में लगी रही और उसने लिंगा की बुआ सोनी और उसके पति अनिल के विरूद्ध़ फर्जी रिपोर्ट लिखकर अनिल को तीन महीने से जेल में डाला हुआ है। सोनी सोरी के विरूद्ध वारंट जारी कर दिया है। सोनी वारंट के बावजूद एस.एस.पी. कल्लूरी से कई बार जाकर मिली। हर बार कल्लूरी ने उसके सामने एक ही शर्त रखी कि लिंगा को दिल्ली से वापिस लाकर हमें सौफ दो तो हम तुम्हें और तुम्हारे पति को छोड़ देंगे और लिंगा को गोली से उड़ा देंगे।

सोनी सोरी सरकारी स्कूल में प्रिंसीपल है,रोज स्कूल जाती है हाजिरी दर्ज करती है और इसे फरार घोषित कर दिया है। ताकि इस आदिवासी महिला को कभी भी गोली मारी जा सके।

मैं रोज इस आशंका के साथ जागता हूँ कि सोनी सोरी की मौत या जेल में डाल देने की खबर आयेगी। वो रोज मुझे फोन करके उसे बचा लेने के लिए गिड़गिडाती है। क्या कोई है जो इस महान लोकतंत्र में  आदिवासी लड़की को सत्ता और व्यापार के क्रुर पंजो से बचा सके जिसमें मनमोहन सिंह,चिदम्बरम,कांग्रेस और भाजपा सबकी हिस्सेदारी है।


लेखक दंतेवाडा में वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख हैं.छत्तीसगढ़ में आदिवासियों पर जारी अत्याचार के खिलाफ  उन्होंने  हाल ही में राज्य के डीजीपी विश्वरंजन के नाम   ... आप किसके लिए लड़ रहे हैं?, लेख लिखा था. सामाजिक कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार का संघर्ष बदलाव  और सुधार की गुंजाईश चाहने वालों के लिए एक मिसाल है.)


Nov 21, 2010

कॉफ़ी हाउस में तीन संचयनों का लोकार्पण


दिल्ली  के  कनाट प्लेस   स्थित   मोहन सिंह कॉफ़ी हाउस  में २० नवम्बर को रामजी यादव द्वारा संपादित  तीन संचयनों का लोक परिचय हुआ और एक अनौपचारिक  बातचीत हुयी.ज्योतिबा फुले संचयन, भारतेंदु संचयन और रामचंद्र शुक्ल संचयन के रूप में इन तीनों रचनाकारों कि प्रतिनिधि रचनाओं के माध्यम से उनके कृतित्व,सामाजिक-सांस्कृतिक अवदानों और समकालीनता को परखने की  कोशिश की  गयी.

आनंद प्रकाश कि अध्यक्षता में संपन्न हुयी इस गोष्ठी में पंकज  बिष्ट और प्रेमपाल शर्मा ने इनका लोक परिचय कराया .इसके बाद सम्पादकीय प्रक्रिया पर रामजी यादव को अपनी बात रखने का मौका दिया गया.रामजी ने कहा कि संचयन का मुख्या उद्देश्य इन रचनाकारों को अपने समय के आलोक में अपनी परम्पराओं को जांचने कि कोशिश है कि हमारे पूर्व वर्ती और महान रचना करों ने हमारे समाज के साथ अपना क्या रिश्ता बनाया और उस समाज का क्या दायरा था.

इन संचयनों के न होने से इन पर उपलब्ध सामग्री में बेशक कोई फर्क नहीं पड़ा है लेकिन उन सामग्रियों को देखने का नजरिया ज़रूर अलग है.तीनों क्रमश भारतीय इतिहास में एक बड़ी लकीर का निर्माण करते हैं लेकिन इनका बुनियादी फर्क बहुत ज्यादा है ,फुले इनमे सबसे वरिष्ठ है और इनमे सबसे ज्यादा समकालीन भी ,जबकि मुख्यधारा खास तौर से हिंदी मुख्यधारा में उनपर गंभीरता से विचार नहीं हुआ है.वे हाशिये के समाजों के रचनाकार हैं और इसी समाज ने उनकी खोजखबर ली और अपने संघर्षों का महापुरुष बनाया.

फुले का नाता भारत के वृहत्तर और संघर्षशील समाजों से है इसीलिए वे मुझे हमेशा आकर्षित करते रहे हैं.भारतेंदु संभवतः अपने द्वाद्वों कि वजह से हमेशा आसपास के रचनाकार लगते रहे लेकिन उनके अंतर्विरोध इतने गहरे हैं कि उनका मिथक नकली लगता है.वस्तुतः वे वैस्नव हिन्दू थे जो भारत कि सामासिक संस्कृति के मेयार से उच्चतम मान नहीं प्रस्तुत करते बल्कि उनकी सीमाओं को अधिक गहराई से तब देखा जा सकता है जब तत्कालीन भारत के लोकजीवन के ग्रामीण और कस्बाई हिस्से को देखा जाय.

इसके बावजूद उनमे मौलिक रूप से सामंतवाद के खिलाफ औपनिवेशिक पूँजी वाद के प्रति स्पष्ट रुझान है जो उन्हें एक महत्वपूर्ण रचनाकार बनाती है..उनकी इस विशेषता ने उन्हें फिर से पढने कि प्रेरणा दी .जबकि रामचंद्र शुक्ल बीसवीं शताब्दी में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर का होने के बावजूद ब्राह्मणवाद और चातुर्वर्ण्य जैसे पतन शील मूल्यों के पोषक रचना कर हैं.वे महाकाव्यात्मक आस्था के कायल हैं और इस प्रक्रिया में उन सभी रचनाकारों को लगभग ख़ारिज करते हैं जिनमे कथानक नहीं हैं बल्कि जीवन के अनुभवों और बोध का सहज बयान है.हालाँकि शुक्ल जी ने हिंदी आलोचना का व्यवस्थित पैटर्न सेट किया लेकिन उनके समाज का दायरा अत्यंत सीमित है और कुल मिलकर वे जिनका लोक मंगल चाहते हैं वे भारत के सवर्ण हैं जो आज़ाद भारत कि सारी संस्थाओं में कुंडली मार कर बैठे हैं.

पंकज बिष्ट ने कहा कि किताबें अभी अभी मिली हैं इसलिए पढना तो संभव नहीं है लेकिन मैं समझता हूँ कि अपनी साहित्यिक परम्परों को जानने के लिए ऐसे प्रयास बहुत जरूरी हैं .हिंदी में गंभीर आलोचना कि प्रक्रिया ख़त्म होती जा रही है जिसमे अपने समाज को साहित्य और साहित्यकारों को देखने कि सम्पूर्ण दृष्टि हो.इससे हो यह रहा है कि साहित्य अपनी भूमिका से लगातार कट रहा है.रामचंद्र शुक्ल आदि आलोचकों को नए सिरे से देखने कि ज़रुरत है. हालाँकि उनके समय से उन्हें काटकर देखना उनके साथ अन्याय होगा परन्तु इसका मतलब यह भी नहीं कि नहीं कि उनकी सीमाओं को नज़रंदाज़ कर के उनकी मूर्तिपूजा कि जाय .आज  आलोचना का एक मजबूत पैटर्न बनाना बहुत ज़रूरी है.

कहानीकार प्रेमपाल शर्मा ने आलोचना कि ईमानदार   और तटस्थ परंपरा कि खोज को एक ज़रुरत बताया.आनंद प्रकाश ने कहा कि शुक्ल जी ऐसे आलोचक हैं जो दूसरों को अपनी बात कहने का मौका देते हैं.वे लोक मंगल के रचनाकार हैं और तुलसी के रूप में वे  एक ऐसे लोक कवि  को चुनते हैं जो एक बोली में महाकाव्य लिख रहा था. तुलसी ने  सीता जैसी स्त्री को आधुनिक सन्दर्भ में चित्रित किया.रामचंद्र शुक्ल ने सबसे बड़ा काम  इतिहास लिखने का किया और वे आलोचना को एक महत्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित करने वाले आलोचक हैं.

रामजी यादव ने इन तीनों रचनाकारों को सामाजिक न्याय के परिप्रेक्ष्य में देखने परखने का काम किया है.यह एक आलोचक की दृष्टि से किया गया काम है जो विश्वविद्यालयों के दायरे  में संभव नहीं है.यहाँ किसी भी ढंग से अपनी बात को साबित करने का कौशल नहीं बल्कि अपने समाज कि कसौटी पर परम्परा को देखने का प्रयास है.आनंद जी ने शुक्ल जी के सन्दर्भ में कहा कि कि वे इ अ रिचर्ड से प्रभावित रहे हैं और रचना को सामाजिक सन्दर्भों से कट कर देखते थे.उनपर नए सिरे से बात होनी चाहिए.

भारतेंदु मिश्र ने कहा कि आज समाज बहुत आगे बढ़ चूका है और उसकी चुनौतियाँ गंभीर होती जा रही हैं.साहित्य कि भूमिका को प्रभावशाली बनाने के लिए बड़ी निर्ममता और इमानदारी से अपने पूर्ववर्ती लेखकों और आलोचकों पर बात होनी चाहिए.

गोष्ठी का संचालन  करते हुए वेद  प्रकाश ने कहा कि शुक्ल जी 'विश्व प्रपंच और बुद्ध चरित'जैसी पुस्तकों को पहली बार हिंदी में ले आये.वे विज्ञान के प्रति सकारात्मक रुख रखते थे.उनके इस पक्ष को भी पुस्तक में रखा जाना चाहिए था.गोष्ठी में अनेक रचनाकार कर उपस्थित थे जिनमें  अजय सिंह,सुल्तान  सिंह त्यागी, शुक्राचार्य, उपेन्द्रकुमार, कुमार मुकुल, अच्युतानन्द मिश्र, रूबल मित्तल, जयकृष्ण, क्षितिज शर्मा,अशोक मिश्र,आलोक शर्मा,रंजीत  वर्मा ,कमलेश,अंजू, पूजा और दीपक आदि शामिल थे.

 

अदालती नरमी से दीर्घायु होता भ्रष्टाचार


सरकारी विभाग में किसी महिलाकर्मी के साथ छेडछाड या यौन-उत्पीडन,सरकारी धन के दुरुपयोग,भ्रष्टाचार,रिश्वत मांगने आदि मामलों में विभागीय  जाँच  कराकर अनुशासनिक कार्यवाही का बहाना खोज लिया जाता है,  जबकि इसी प्रकार के अपराध में आम व्यक्ति को  जेल की हवा खानी पडती है।


 
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'


पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट ने एक निर्णय सुनाया,जिसमें न्यायाधीश प्रदीप नंदराजोग तथा एमसी गर्ग की खण्डपीठ ने रक्षा मंत्रालय से वरिष्ठ लेखा अधिकारी पद से सेवानिवृत्त हो चुके एचएल गुलाटी की आधी पेंशन काटे जाने की बात कही गयी। गुलाटी ने अपनी नौकरी के दौरान 36 झूठे दावों के लिए भुगतान को मंजूरी देकर सरकारी खजाने को 42लाख रुपये से भी अधिक की चपत लगायी थी। हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार सिद्ध होने पर भी गुलाटी को जेल भेजने की बात पर विचार तक नहीं किया और 50 फीसदी पेंशन काटे  जाने की सजा सुना दी।

इस निर्णय को तथाकथित राष्ट्रीय कहलाने वाले समाचार-पत्रों और चैनलों ने अफसरों के लिये कोर्ट का कड़ा   सन्देश कहकर प्रचारित किया.मेरा मानना है कि एक सिद्ध हो चूके दोषी के खिलाफ हाईकोर्ट का इससे नरम रुख और क्या हो सकता था?मैं तो यहाँ तक कहना चाहूँगा कि हाईकोर्ट के इस निर्णय से भ्रष्टाचार पर लगाम लगने के बजाय बढ़ावा  ही मिलेगा.

दूसरा प्रश्न है कि  42लाख रुपये का गलत भुगतान करवाने वाले भ्रष्टाचारी के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के तहत मामला दर्ज करके दण्डात्मक कार्यवाही क्यों नहीं की गयी?केवल विभागीय जाँच करके विभागीय नियमों के तहत की जाने वाली अनुशासनिक कार्यवाही की औपचरिकता पूर्ण करके मामले की फाइल बन्द क्यों कर दी गयी,जबकि कानून में स्पष्ट प्रावधान है कि लोकसेवकों द्वारा किये जाने वाले अपराधों के लिये अनुशासनिक कार्यवाही के साथ-साथ दण्ड विधियों के तहत भी कार्यवाही की जा सकती है या की जानी चाहिये।मगर ऐसा नहीं हो पाता.

कार्रवाई न हो पाने वाले 99फीसदी मामलों के जिम्मेदार नौकरशाह हैं.  इसलिए जरूरी है कि  विभागीय अनुशासनिक कार्यवाही के साथ-साथ दण्ड विधियों के तहत भी कार्यवाही और ऐसा नहीं करने पर जिम्मेदार उच्च लोकसेवक या विभागाध्यक्ष के विरुद्ध भी कार्यवाही का प्रावधान हो.लेकिन  यह प्रावधान अब तक नहीं हो सका ?जवाब बहुत साफ है.चूँकि कानून बनाने वाले वही लोग हैं जिनको ऐसा प्रावधान लागू करना होता है,ऐसे में कौन अपने गले में फांसी का फन्दा बनाकर डालना चाहेगा?

कहने को तो भारत में लोकतन्त्र है और जनता द्वारा निर्वाचित सांसद जो संसद में मिल-बैठकर कानून बनाते हैं, लेकिन-संसद के समक्ष पेश किये जाने वाले कानूनों की संरचना भारतीय प्रशासनिक सेवा के उत्पाद(आइएएस)  महामानवों द्वारा की जाती हैं,जो स्वयं ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस देश की 99 फीसदी समस्याओं के मूल कारण हैं।

विचारणीय विषय है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से गाली-गलौज और मारपीट करता है तो आरोपी के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के तहत अपराध बनता है और ऐसे आरोपी के विरुद्ध मुकदमा दर्ज होने पर पुलिस जाँच करती है। मजिस्ट्रेट के समक्ष खुली अदालत में मामले पर विचार होता है और अपराध सिद्ध होने पर कारावास की सजा होती है। इसके विपरीत एक अधिकारी अपने कार्यालय के किसी सहकर्मी के साथ ऐसा कुछ करता है तो उच्च पदस्थ अधिकारी या विभागाध्यक्ष ऐसे आरोपी के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज न करवाकर स्वयं ही अपने विभाग के अनुशासनिक नियमों के तहत कार्यवाही करते हैं। जिसके तहत आमतौर पर चेतावनी,उसके कृत्य की भर्त्सना (निंदा)किये जाने आदि का दण्ड दिया जाता है और मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है।

इस प्रकार के प्रकरणों में प्रताड़ित या व्यथित व्यक्ति (पक्षकार)की कमी के कारण भी अपराधी लोक सेवक कानूनी सजा से बच जाता है,क्योंकि व्यथित व्यक्ति स्वयं भी चाहे तो मुकदमा दायर कर सकता है,लेकिन अपनी नौकरी को खतरा होने की सम्भावना के चलते वह ऐसा नहीं करता है। लेकिन यदि विभागाध्यक्ष द्वारा मुकदमा दायर करवाया जाये तो उसकी नौकरी को तो किसी प्रकार का खतरा नहीं हो सकता,लेकिन विभागाध्यक्ष द्वारा पुलिस में प्रकरण दर्ज नहीं करवाया जाता है। जिसकी भी वजह होती है-स्वयं विभागाध्यक्ष का इस प्रकार के अपराधों में अधीनस्थों पर तानाशाही गांठना. जिसके चलते मनमानीपूर्ण व्यवस्था संचालित होती है,जो कानूनों के विरद्ध काम करवाकर भ्रष्टाचार को अंजाम देने के लिये जरूरी होता है।

सरकारी विभाग में किसी महिलाकर्मी के साथ छेडछाड या यौन-उत्पीडन, सरकारी धन के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार, रिश्वत मांगने आदि मामलों में भी इसी प्रकार की अनुशासनिक कार्यवाही होती है। जबकि इसी प्रकार के अपराध आम व्यक्ति द्वारा किये जाने पर उसे जेल की हवा खानी पडती है। ऐसे में यह साफ तौर पर प्रमाणित हो जाता है कि जनता की सेवा करने के लिये जनता के धन से उसके नौकर के रूप में नियुक्त सरकारी अधिकारी -कर्मचारी नौकरी लगते ही जनता और कानून से उच्च हो जाते हैं। उन्हें आम जनता की तरह सजा न देकर विभागीय जाँच के नाम पर सुरक्षा कवच उपलब्ध करवाया दिया जाता है।

विधि के इतिहास में निष्पक्षतापूर्वक देखें तो विभागीय जाँच की अवधारणा केवल उन मामलों के लिये स्वीकार की गयी थी,जिनमें ओफिसियल कार्य को अंजाम देने के दौरान लापरवाही बरतने, बार-बार गलतियाँ करने और कार्य को समय पर निष्पादित नहीं करने जैसे दुराचरण के जिम्मेदार लो सेवकों को छोटी-मोटी शास्ती देकर सुधारा जा सके। बाद में लोकसेवकों के सभी प्रकार के कुकृत्यों को केवल दुराचरण मानकर विभागीय जाँच का नाटक करके उन्हें बचाने की व्यवस्था लागू कर दी गयी। इसकी ओट में सजा देने का केवल नाटक भर किया जाता है। विभागीय जाँच का असली मकसद अपराधी को बचाना होता है.

इस बात को साधारण सी समझ रखने वाला व्यक्ति भी समझता है कि देश के खजाने को नुकसान पहुँचाने वाला व्यक्ति देशद्रोही से कम अपराधी नहीं हो सकता और उसके विरुद्ध कानून में किसी भी प्रकार के रहम की व्यवस्था नहीं होनी चाहिये, लेकिन जिन्दगीभर भ्रष्टाचार के जरिये करोडों का धन अर्जित करने वालों को सेवानिवृत्ति के बाद यदि 1/2 पेंशन रोक कर सजा देना ही न्याय है तो फिर इसे तो कोई भी सरकारी अफसर खुशी-खुशी स्वीकार कर लेगा.

दिल्ली हाईकोर्ट के उस  निर्णय से 42लाख रुपये के गलत भुगतान का अपराधी सिद्ध होने पर भी गुलाटी न तो चुनाव लडने या मतदान करने से वंचित होगा और न ही वह कानून के अनुसार अपराधी सिद्ध हो सका है। उसे केवल दुराचरण का दोषी ठहराया गया है, जबकि ऐसे भ्रष्ट व्यक्ति के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४०९ के अनुसार आपराधिक न्यासभंग का मामला बनता है। जिसमें अपराध सिद्ध होने पर आजीवन कारावास तक की सजा का कडा प्रावधान किया गया है।

मेरा तो स्पष्ट मानना है कि जैसे ही कोर्ट के समक्ष ऐसे प्रकरण आयें,कोर्ट को स्वयं संज्ञान लेकर अपराधी के साथ-साथ सक्षम उच्च अधिकारी या विभागाध्यक्ष के विरुद्ध भी आपराधिक मामले दर्ज करने के आदेश देने चाहिये,जिससे ऐसे मामलों में खुद-ब-खुद प्रारम्भिक स्तर पर ही पुलिस में मामले दर्ज होने शुरू हो जायें और अपराधी विभागीय जाँच की आड में सजा से बचकर न निकल सके। इसके लिये आमजन को आगे आना होगा और संसद को भी इस प्रकार का कानून बनाने के लिये बाध्य करना होगा। अन्यथा गुलाटी जैसे भ्रष्टाचारी जनता के धन को इसी तरह से लूटते रहेंगे और सरेआम बचकर इसी भांति निकलते भी रहेंगे।



Nov 19, 2010

प्रगतिशील बाजार का जनवादी लेखक

हिन्दी साहित्य के प्रगतिशील तबके का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न संस्थानों में  है। इनमें से कई दिग्गजों का वेतन एक लाख रूपए प्रति महीने है। ये वही साहित्यकार हैं जो जनवादी लेखक संगठनों में हाय जनवाद करते रहते हैं और अपनी रचना में जनवाद की दावेदारी करते हैं।

अंजनी कुमार

हिन्दी साहित्य में उभर चुकी जिन प्रवृतियों के बारे में वरिष्ठ लेखक आनंद प्रकाश ने चिंता जाहिर की है उसके राजनीतिक अर्थशास्त्र की बात करते हुए, स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह उत्पादन की व्यवस्था के भीतर अन्य साधनों की तरह ही माल उत्पादक और संस्थागत हो चुका है।

अधिरचना का यह हिस्सा आधार के साथ सिर्फ अन्तरक्रिया ही नहीं कर रहा बल्कि हिन्दी को एक टूल की तरह प्रयोग में लाया गया और शिक्षण संस्थानों के बाहर बड़े पैमाने पर सार्वजनिक संस्थानों में राजभाषा कार्यालय खोले गए। इन सार्वजनिक संस्थानों की अपनी हिन्दी पत्रिका होती थी लेकिन इन कार्यस्थलों पर हिन्दी की उपस्थिति साहित्य सृजन के उद्देश्य से नहीं थी। यह भाषा सिर्फ बाजार को विस्तारित करते हुए बेचने की प्रक्रिया का हिस्सा बनी।

निश्चय ही इसके लिए पूंजी निवेश किया गया। इन संस्थानों को आपस में मिलाया गया। एक प्रक्रिया के तहत उसे साहित्य के अकादमिक जगत तक ले जाया गया। इस तरह के हिन्दी संस्थानों के चलते ही आज अनुवाद एक उद्योग बन चुका है जहां उत्पादन हमारी इच्छा से नहीं उनकी जरूरत के हिसाब से हो रहा है।

हिन्दी भाषा के इस कथित विकास में अंग्रेजी समानार्थी चयन के साथ ही वह सांस्कृतिक परिवेश निर्मित होना शुरू हुआ जहां से जनपदीय या राष्ट्रीय भाषाओं-व्यवहारों का निष्काशन लगातार जारी रहा। यह निष्काशन वहां के परिवेश व लोगों के प्रति भी बनता गया। अपने ही देश के विविध जीवन, समाज व राजनीति का यह निष्काषन इस हद तक गया कि राष्ट्रभाषा हिन्दी उलटकर हिन्दी भाषी राष्ट्र हो गया।

यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि वैश्वीकरण के ठीक आरम्भिक दौर में ही जनपदीय भाषा के प्रयोग के आधार पर चमत्कार पैदा करने वाले साहित्यकारों की बाढ़ आ गयी। शोध के संस्थान और हिन्दी अकादिमिशियनों की भरमार हो गई। जबकि उसके ठीक पहले के दशकों में स्थानियता का आरोप लगाकर उभर रहे रचनाकारों की मिट्टी पलीत की गयी। बहरहाल हिन्दी के इस राष्ट्रीय समाज के चिंतन के पीछे इस बाजार के इस अर्थशास्त्र के बारे में बात करना जरूरी था।

आमतौर पर यह स्वीकृत है कि साहित्य समाज का दर्पण है और इसके आगे चलने वाली मशाल है। इसके वर्गीय अवधारणा के आधार पर प्रगतिशील,जनवादी,जनसंस्कृति जैसे नाम देकर साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन बनाए गए। ये सांस्कृतिक संस्थान इस बात की स्वीकृति थे कि वे समाज को आगे ले जाने वाली सामुहिक चेतना,निर्णय व कार्यवाई के अगुआ हैं। कह सकते हैं कि ये ज्ञान की उस दोहरी प्रक्रिया के केन्द्र थे जहां से समाज की सामुहिक इच्छा को गतिशील और हालात को बदलने की वस्तुगत स्थितियां निर्मित होनी थीं, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।

ये एक ऐसे जड़ निर्णय के केन्द्र बनते गए जहां सारा जोर सरकारी साहित्य संस्थानों,हिन्दी विभागों और हिन्दी अखबारों पत्रिकाओं को प्रभावित करना बन गया। सारा जोर साहित्य,संस्थान व सम्मान के घालमेल से व्यक्ति व संगठन को मजबूत कर लेना बन गया। नए लेखकों का जमाव घनत्व प्रगतिशीलता की आड़ में विभिन्न संगठनों के बाजार में पहुंच के आधार पर बनने लगा। और सारा झगड़ा इसी के आसपास होने या रचा जाने लगा। यह भटकाव है,यह कहना सरलीकरण और इसे दुरूस्त करने की राह में दिवार खड़ा करने जैसा होगा।

हाल ही में उभरकर आए कथित रूप से चर्चित एक कवि का एक संकलन आया हैं। इस कवि ने सायास इराक, अमेरीका व वैश्वीकरण का जिक्र अपनी कविताओं में कई जगह किया है। वह जानता है कि इनका विरोध प्रगतिशीलता है। वह इस तरह प्रगतिशील युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कवि हो जाता है। वह प्रलेस से लेकर जलेस तक का हिस्सा बनता है और साथ ही विभिन्न रचनाकारों के लेख संपादित कर न केवल उन लेखकों का दिल जीतता है साथ ही वह रचनाकार व चिंतक के बतौर अपने नाम किताबों की एक लंबी फेहरिस्त हासिल कर लेता है।

वह एक ऐसा योग्य साहित्यकार है जो हिन्दी विभाग में प्रोफेसर, साहित्य संस्थान का सदस्य, किसी अखबार पत्रिका का साहित्य सलाहकार और प्रगतिशील चिंतन का अगुआ बन सकता है। उदाहरण के तौर पर उद्धृत कवि जितनी आसानी से वर्गीय अवधारणा से परे साहित्य संस्थानों में तैरते हुए आरपार जाता है उसके पीछे सिर्फ उसका अवसरवाद नहीं है। यह संस्थानों की वह भूमिका भी है जहां से बाजार के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन भी किया जा रहा है। और जिसके लिए साहित्यकार सृजन व जोड़तोड़ की होड़ लगाए हुए हैं कि विभाग के कोर्स में उसकी किताब लग जाय या प्र्र्र्रस्तावित पुस्तक सूची में उसका नाम आ जाय।

हिन्दी साहित्य के संस्थान मुख्यतः विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग,सरकारी साहित्य व समाज शोध संस्थान व प्रकाशन समूह एक ऐसे तंत्र को निर्मित करते हैं जिसके केन्द्र में राज्य व सरकार है और जिसका क्षेत्र वैश्वीकृत बाजार है। यहां मूल मसला लेखक व वर्गीय राजनीति का दावा करने वाले लेखक संगठनों का है कि वह इस बाजार और राज्य के तंत्र के बारे में क्या रवैया रखते हैं। इसे देखने के लिए उनके प्रकाशनों को देख सकते हैं। 1990 के बाद हिन्दी साहित्य की पत्रिकाओं व संगठनों ने समय समय पर वैश्वीकरण पर विशेषांक व लेख छापते रहे हैं। एक दो लेखकों को छोड़कर अधिकांश लेखकों ने वैश्वीकरण की तीखी आलोचना करते हुए विश्व बंधुत्व की अवधारणा पर जोर दिया और यह जताने का प्रयास किया कि प्राचीन भारतीय अवधारणा अमेरीका से श्रेष्ठ थी।

ज्ञान, चिंतन व संस्कृति के विकास में इसके अवदान पर सकारात्मक बातें की गई। विकास के लिए सही पूंजी निवेश के तर्क को रखा गया। और यह बड़े बड़े आंकड़ों व पूरे पेज के चार्ट से बताया गया कि वैश्वीकरण से किसान,दलित व मजदूर तबाह हो रहे हैं। साहित्य के गैर सरकारी व सरकारी संस्थान इस प्रचलित अवधारणा को स्वीकार करने, इस आधार पर सम्मानित करने व इसे बेचते हुए उस मानस को निर्मित कर रहे थे जो बाजार में रहते हुए उत्पादकों से अलगाव बनाए रखें। यह चिंतन की एक ऐसी खंडित प्रक्रिया थी जिसमें वस्तुगत स्थितियों का दुहराव व टिप्पणियां तो थी लेकिन ज्ञान व संवेदन के आपसी रिश्ते व प्रक्रिया का निष्काषन या अभाव था।

वैश्वीकरण की संपूर्ण व्यवस्था का नकार आम जन,उसकी सामुहिक चेतना,उसकी इच्छा व निर्णय और विश्व व राष्ट्रीय इतिहास को आगे ले जाने की पहलकदमी की मशाल बन जाने के लिए जिस संवेदनात्मक ज्ञान व ज्ञानात्मक संवेदन की दोहरी प्रकिया की जरूरत थी उसे ये संगठन या तो उसे बाजार के बर्फिले पानी में डुबो दिए या एक ऐसे अवसरवाद में फंस गए जहां उनका एक पैर सरकारी संस्थान में धंस चुका है जबकि दूसरे पर गांव की थोड़ी गर्द बाकी है।

इन्हीं हालातों के चलते किसान आदिवासी मजदूर दलित स्त्री बच्चे और गांव व शहर के बदलते जीवन को चित्रित करने वाली कविताओं,कहानियों उपन्यासों का अभाव होता गया। पूंजीवाद व इससे जनित युद्ध की तबाही से निकाल कर समाजवाद-साम्यवाद की मार्क्सवादी चिंतन को त्याग देने वालों की संख्या में लगातार इजाफा होता गया।

अंत में,आज हिन्दी साहित्य के प्रगतिशील तबके का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न संस्थानों में है। ये आमतौर पर बड़े पदों पर हैं। वे तनख्वाह के बतौर मोेटी रकम उठाते हैं। इन संस्थानों का पदानुक्रम निश्चय ही जनवादी नहीं है-हो भी नहीं सकता। वेतन भी जनवादी तरीके का नहीं है-यह भी नहीं हो सकता। जीविका व संगठन के इस गैरजनवादी व्यवस्था में ये प्रगतिशील लेखक अपने निचले क्रम में काम करने वाले लोगों के प्रति इस ज्यादती के बारे में बोलना तो दूर एक लेख लिखना भी गवारा नहीं रखते। वेतन के इस जमीन आसमान के फर्क के बारे उन्हें कभी बोलते हुए नहीं सुना गया।

साहित्य के कई दिग्गजों का वेतन एक लाख रूपए प्रति महीने है। ये वहीं साहित्यकार हैं जो न सिर्फ जनवादी लेखक संगठनों हाय जनवाद करते हैं,बल्कि अपनी रचना में जनवाद की दावेदारी करते हैं और दूसरे के साहित्य में इसके अभाव पर टिप्पणी करते हैं। हिन्दी साहित्य में यह एक नई स्थिति है। जो निश्चय ही जटिल है। साहित्यकारों के बीच न केवल विचार का साथ ही भौतिक हालातों का फर्क भी तेजी से बढ़ रहा है। देखना है आवाज किधर से उठती है!



लेखक राजनितिक कार्यकर्त्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.उनसे anjani.dost@yahoo.co.inपर संपर्क किया जा सकता है.



Nov 17, 2010

पुरस्कारों का प्रताप और लेखक-संगठनों की सांस्कृतिक प्रासंगिकता

भाग- २

प्रत्येक लेखक को आवश्यक लगता है कि वह पुरस्कार से सम्मानित हो। ‘सम्मानित’शब्द का प्रयोग उन सभी वर्णनों में मिलेगा जो लेखक की निजी योग्यताओं और उपलब्धियों के बारे में किताब के फ्लैप पर छपते हैं। मन होता है कि ‘सम्मानित’को ‘अपमानित’ के अर्थ में पढ़ा जाए।

आनंद प्रकाश

जिस तरह सरकारी-अर्धसरकारी संस्थान साहित्यिक दुनिया को प्रभावित या अनुशासित करने लगे हैं,उसे देखकर किसी भी रचनाकार का चिंतित होना स्वाभाविक है। स्वयं लेखक भी अपना निजी प्रभाव इस्तेमाल करके संस्थाएं चलाते हैं,और बाध्य होकर वह सब करते हैं जो उनकी रुचि के अनुकूल नहीं है। जाने-अनजाने,व्यवस्था का यह दबाव अब अनेक लेखक झेलते हैं,जबकि सार्थक लेखन विद्यमान शासकीय अधिकार-तंत्र की तीखी आलोचना करता है। इस तरह लेखक होने का अर्थ अपने वक्त के अधिकार-तंत्र का आलोचक होना है। हिंदी के माहौल पर सोचें तो पाएंगे कि यह लेखकीय रवैया पिछले वर्षों में पूरी तरह खतम हो गया है।

आज प्रौढ़ हो चले और नये लेखक सुविधा के नियम से परिचालित हैं। लगता है जैसे चीजों से समझौता करना लेखकों का स्वभाव बन गया है। सामाजिक मुद्दों पर लेखक या तो चुप्पी साध लेते हैं,या काम-चलाऊ और निर्जीव-सा विरोध करते हैं। उनकी रचनाओं में भी मात्र भलमनसाहत, राष्ट्रप्रेम, सामाजिक सद्भाव, अपने काम से काम रखना, आदि का तर्क प्रतिबिंबित होता है, मानों वो सब आम मेहनतकश जनता को मुहैया करा दिया गया है जो उनकी मूल जरूरत है।

वे चाहते हैं पुरस्कार :  आप पूछते हैं सरोकार 
 रचनाकार को मालूम ही नहीं है कि वर्तमान माहौल मेंसामाजिक गैर-बराबरी,अशिक्षा,नारी-शोषण,बेकारी, दलितों  का उत्पीड़न, गरीबी और सांस्कृतिक पतनशीलता निरंतर बढ़ रहे हैं। यह लेखकों की समझ का हिस्सा ही नहीं है कि गैर-बराबरी और सामाजिक अन्याय को ढंकने हेतु शासक वर्ग ने सद्भाव और सामंजस्य का सिद्धांत गढ़ा है। आज का सफल लेखक यह देखकर संतुष्ट है कि स्वयं उसके लिए पुरस्कार,प्रशासनिक स्वीकार्यता और छिटपुट सुविधाएं उपलब्ध हैं।
आज वही लेखक प्रभावी एवं स्वीकार्य है जो सरकारी-गैरसरकारी नौकरी पा गया है और संसाधनों पर कब्जा जमाने में सफल हुआ है। इसी लेखक की किताब-पर-किताब छपती है,रचनाएं चर्चित होती हैं,सामयिक टिप्पणियां और वक्तव्य प्रसारित होते हैं और उनकी मदद से साहित्यिक दुनिया में दबदबा बढ़ता है। गोष्ठियां तभी सफल होती हैं जब उन पर इस लेखक की मुहर लगी हो। यह लेखक अकेला या व्यक्ति नहीं है,बल्कि टाइप है और इस तरह अपने जैसों के बड़े समूह का हिस्सा है। वह प्रतिष्ठित तंत्र में शामिल है और उसे चलाता है।

इस प्रसंग में साहित्यिक पुरस्कारों पर स्वतंत्र टिप्पणी जरूरी है। प्रत्येक लेखक को आवश्यक लगता है कि वह पुरस्कार से सम्मानित हो। ‘सम्मानित’शब्द का प्रयोग उन सभी वर्णनों में मिलेगा जो लेखक की निजी योग्यताओं और उपलब्धियों के बारे में किताब के फ्लैप पर छपते हैं। मन होता है कि ‘सम्मानित’को ‘अपमानित’के अर्थ में पढ़ा जाए। मुझे पुरस्कार वितरण समारोहों में सदा अरुचि रही है। वहां जितनी दया का भाव लेखकों के लिए दिखता है,उससे कम उन लोगों के लिए नजर नहीं आता जो पुरस्कार देते हैं। मैं दो-तीन बार ही ऐसे समारोहों में शामिल हुआ हूं।

एक अवसर पर किसी मित्र लेखक को दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी द्वारा पुरस्कार मिलना था। लगभग पचीस वर्ष पूर्व का वह दृश्य अब तक मेरी स्मृति में अंकित है। संभवतः विभिन्न श्रेणियों में बारह-पंद्रह पुरस्कार रहे होंगे, और संबंधित लेखकों को स्टेज के सामने खड़े होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करनी थी। एक-एक कर लेखकों ने पूरी नम्रता से झुकते हुए दिल्ली के प्रसिद्ध कांग्रेस नेता जगप्रवेश चंद्र के हाथों से पुरस्कार ग्रहण किया।

सभापति पति पद से बोलते हुए श्रीमान चंद्र ने कहा —“लोग चाहते हैं कि हम पुरस्कार की राशि बढ़ा कर पंद्रह हजार रुपये कर दें। बोलिए कर दें?या फिर क्या कहते हैं,इक्कीस हजार कर दें?”श्री चंद्र मुस्कुराते हुए विशेषकर लेखकों को मुखातिब हुए और व्याकरण बदल कर बोले —“कर दूं?”मेरे निकट विष्णु प्रभाकर बैठे थे। अचानक उनका लेखकीय खून खौल उठा। वह खड़े हुए और चिल्ला कर बोले —“साले,तेरे बाप का पैसा है क्या?हमारा ही तो पैसा है। कर दूं!”संयोगवश उसी समय करतल ध्वनि से चंद्र की घोषणा का स्वागत हुआ, और विष्णु जी की आवाज शोर में डूब गई।

सुनता रहा हूं कि राशि के हिसाब से पुरस्कारों की मूल्यवत्ता निर्धारित होती है। पुरस्कार पाने के लिए तैयारी भी की जाती है। कुछ सांस्थानिक अधिकार-प्राप्त लेखक एक दूसरे का खयाल रखते हुए संस्कृति के व्यावहारिक नियमों का पालन भी करते हैं। संबंधित बहस के दौरान तर्कों की कतर-ब्योंत का आलम यह होता है कि कभी जीवनी को साहित्य-रचना माना जाता है,कभी नहीं। इसी तरह हिंदी के कुछ लेखकों को दूसरी भाषा के लेखक की हैसियत से पुरस्कार मिलता है।

कभी अमुक लेखक को पुरस्कार इसलिए मिलता है कि वह बीमार है,अथवा किसी अन्य तरह पैसे के लिए जरूरतमंद है। फिर कुछ लेखकों ने अपनी माली हैसियत के नजरिये से यह भी चाहा है कि पांच-सात लाख तक का पुरस्कार कम है,राशि को एक करोड़ किया जा सकता है। इधर नया विचार आया है कि निजी कंपनियों को सरकारी संस्थानों में प्रवेश देकर राशि में इजाफा किया जाना अपेक्षित है। पूछा जा सकता है कि साहित्यिक सम्मान की बात कर रहे हैं या किसी विज्ञापन-अभियान की?

लेखक संगठनों का मसला ज्यादा पेचीदा है। वहां जनसमर्थक और शासकीय नजरियों के बीच टकराव यद्यपि प्रमुख है,लेकिन कभी-कभी टकराव की तीव्रता कम हो जाती है और रचना-संसार के सामने गंभीर विकृतियां उभरने की चुनौती आ खड़ी होती है। चिंता का विषय यह है कि हिंदी के लेखक-संगठन धीरे-धीरे अपनी भूमिका में क्षीण होने लगे हैं और इस प्रक्रिया में समकालीन लेखन के व्यापक हितों से कट रहे हैं।

अपनी प्रगति का विमर्श
यहां मुख्य रूप से वामपंथी लेखक संगठनों का व्यवहार संदर्भ के केंद्र में है। हिंदी में शासक वर्ग की विचारधारा के वाहक संगठन (मसलन कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ व्यक्ति-लेखकों द्वारा नियंत्रित संगठन)भी हैं जहां लेखकीय उठा-पटक और क्षुद्र अवसरवादिता का बोलबाला है। लेकिन हमारे संदर्भ में उम्मीद की किरण जगाने वाले तीन वामपंथी संगठनों की प्रारंभिक आभा भी मंद होने लगी है। इनमें सबसे कमजोर प्रगतिशील लेखन संगठन है।

यह वही संगठन है जिसके उद्घाटन के वक्त प्रेमचंद का प्रसिद्ध भाषण ‘साहित्य का उद्देश्य’समूचे हिंदी लेखन की आवाज बनकर गूंजा था। वहां प्रेमचंद ने साहित्य को समाज की संघर्ष-प्रक्रिया में आगे चलने वाली मशाल की संज्ञा दी थी। अब प्रलेस निष्क्रियता की कगार पर है और उसका वजूद ऐसे लोगों के हाथों में है जो अपनी सांस्कृतिक प्रासंगिकता कमोबेश खो चुके हैं। प्रलेस के व्यवहार और शासकीय-सांस्थानिक दुनिया से जुड़े अन्य नीति-निर्धारकों की वैचारिक गतिविधि में तात्विक अंतर नहीं है। प्रलेस का समन्वय-केंद्रित नजरिया अब किसी भी तरह अन्याय पर आधारित परिवेश में हस्तक्षेप नहीं करता,बल्कि इसके विपरीत वहां निजी हितों का ही प्रसार या विकास दिखता है।

लिखे को सुधार कर पढ़ें.                                                               

जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच इस प्रसंग में अनेक अपेक्षाएं जगाते हैं और नये रचनाकारों के लिए प्रेरणा का विषय बनकर उभरे हैं। दोनों की ही शुरूआत अस्सी के दशक में हुई और दोनों ने ही पूरी शिद्दत से लेखन के हितों की रक्षा को अपना लक्ष्य घोषित किया। लेकिन क्या वे घोषणाओं से आगे बढ़ पाए,और यदि बढ़ पाए तो कितना?यह सवाल उनके सामने तो है ही,ज्यादा गंभीर रूप में समकालीन रचनाकार के सामने है।

सत्तर के दशक का हिंदी लेखन इस अर्थ में पूर्व तथा बाद के दशकों से भिन्न था कि उसमें वामपंथी विचार के लिए उत्पन्न जिज्ञासा अधिक प्रामाणिक यद्यपि भावना-आधारित थी। यह जिज्ञासा अतीत को सवालिया नजरिये से देखती थी और भविष्य को उम्मीद से ताकती थी। इस जिज्ञासा ने तत्कालीन परिभाषाओं और समाधानों को नाकाफी पाया था,चाहे वे संसद को लेकर हों,संसदेतर संघर्ष के बारे में हों,या इन दोनों के बीच संभावित तालमेल की बात करते हों। इस जिज्ञासा के सामने तीनों ही रास्ते अमूर्त थे,यद्यपि यह स्पष्ट हो गया था कि तत्कालीन संकट की वैचारिक चुनौती को हल करना उपयोगी होगा।

अस्सी के दशक का शुरूआती काल जनवादी लेखक संघ की स्थापना के कारण एकबारगी महत्वपूर्ण हो चला था,शायद इसलिए कि इस काल की पृष्ठभूमि में 1977के चुनावों की अद्भुत घटना प्रेरणा-स्रोत का काम करती थी। जलेस के शुरूआती दौर में उस वक्त के अनेकानेक रचनाकार वामपंथ की ओर आकर्षित हुए थे – लेकिन तभी इसकी विरोधी प्रक्रिया भी शुरू हुई थी कि वामपंथ को अपनाना मध्यवर्गीय सफलता और आत्म-स्थापन का आसान रास्ता नजर आने लगा था।

 
कहाँ खोजें सरोकार
उधर जिन  लेखकों-रचनाकारों ने जलेस की बागडोर संभाली थी,उनमें से कई पुराने यांत्रिक ढंग से सोचते थे और कुछ नए ऐसे थे जो दल-विशेष की प्रभुता को जलेस की वैचारिकता पर आरोपित करना चाहते थे। परिणामतः जल्द ही जलेस को सीमित सोच द्वारा बंदी बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। तीन-चार साल में ही इन कठिनाइयों से उबरने के लिए वाम पंथ द्वारा वैकल्पिक मार्ग की परिकल्पना जन संस्कृति मंच के अधीन रूपायित हुई। अब स्थिति यह है कि जलेस बिखराव की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है,और जसम में एकाधिकारी नेतृत्व की कामना प्रबल हो रही है। इसके घातक परिणाम देखे जा सकते हैं।

यह हिंदी साहित्य के भीतर वैचारिक नेतृत्वहीनता का काल है,और नए-पुराने लेखक धीरे-धीरे शासकीय संस्कृति की रणनीतिक मुहिम का शिकार हो रहे हैं। यद्यपि उम्मीद का दामन छोड़ना उचित नहीं है, लेकिन हिंदी रचना किस तरह अपनी वास्तविक अस्मिता एवं संघर्षशील, समझौताविहीन भूमिका अर्जित कर पाएगी, यह समझ पाना मुश्किल लग रहा है।

(लेख का पहला भाग पढ़ने के लिए कर्सर नीचे ले जाएँ या देखें- वर्तमान प्रगतिशीलता का कांग्रेसी आख्यान )



दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी साहित्य विभाग  में 2007 तक शिक्षक.  जार्ज लुकाच की पुस्तक 'द थियरी आफ द नावेल' का हिंदी में 'उपन्यास का सिद्धांत' शीर्षक से अनुवाद और 'हिंदी कहानी की विकास प्रक्रिया' पुस्तक प्रकाशित। सत्तर के दशक में दो पत्रिकाओं --मतांतर और युग परिबोध का संपादन। उनसे anand1040@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
 
 
 

Nov 15, 2010

वर्तमान प्रगतिशीलता का कांग्रेसी आख्यान


भाग- 1
हिंदी साहित्य के सरोकारों पर संवाद की शुरुआत करते हुए मंशा बस इतनी सी है कि साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर बात हो क्योंकि समाज में साहित्य की उपस्थिति लगातार कम होती  जा रही है. ऐसा क्यों हो रहा है को बताने वाले बहुतेरे पक्ष होंगे.हमारी कोशिश होगी सभी पक्ष पूरे तेवर और सरोकार के साथ सामने आयें. बहस की पहली कड़ी में वरिष्ठ लेखक और शिक्षक ...

आनंद प्रकाश

समकालीन हिंदी लेखन,जिससे मेरी मुराद पिछली सदी के अंतिम दो दशकों के लेखन से है,सीधे-सीधे चिंतन-विरोधी है। वह न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।

इस लेखन से जुड़े रचनाकारों की चले तो विचार सामग्री पर प्रतिबंध ही लग जाए,और उसे समकालीन विमर्श से निष्कासित कर दिया जाए। फिर,विमर्श की व्याख्या भी इन दिनों अजीबोगरीब हो चली है —अब विमर्श को मात्र वह समझ माना जाता है जिसे रचनाकार अपने माहौल से तात्कालिक अर्थ में प्राकृतिक प्रक्रिया के अंतर्गत ग्रहण करता है। विमर्श,अर्थात सामान्य-बोध पर आधारित और लिखने-जीने के दौरान अर्जित किये गए विचार-बिंदु और मूल्य। सोचा जाता है कि बुद्धि की यही क्रिया वैचारिकता की मूल सामग्री है,और यह भी कि इससे अलग, याने लिखने-जीने से बाहर सामाजिक परिदृश्य से संबंधित विचार रचना के लिए कृत्रिम और बेमानी है। यह एक पक्ष है।

इसके विपरीत दूसरे पक्ष का संबंध मात्र परिदृश्य के बारे में कहने अथवा वक्तव्य देने के लिए किए गए लेखन से है। वह भी इन दिनों समकालीन श्रेणी के अंतर्गत खूब लिखा जा रहा है। समकालीन लेखन की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हमारे दौर में तथाकथित ‘लघु’पत्रिकाओं की शक्ल में महंगे कागज पर छपी और नियमित समय पर निकलने वाली पत्रिकाओं के भीतर एक अलग तरह की विचार-सामग्री का अंबार लगा है।

इस सामग्री के तहत संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, चुनिंदे समाजशास्त्रीय विषयों पर लंबे उबाऊ लेख, इतिहास और कला पर विस्तृत टिप्पणियां,विश्वस्तर के कतिपय विचारकों का हिंदी में विशद विश्लेषण,आदि इस रूप में उपलब्ध है मानों अकस्मात किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के हाथों इसका उद्योग चल पड़ा हो। दिलचस्प है कि देखते-देखते पत्रिकाओं, महाविशेषांकों, विषय-केंद्रित अंकों से हिंदी साहित्य का बाजार पट गया है, जब सामान्य अंकों की पृष्ठ-संख्या डेढ़ सौ पृष्ठों से लेकर तीन सौ पृष्ठों तक हो गई है। साथ ही, ऐसे अनेक लेखकों ने साहित्य जगत में प्रवेश किया है, जिन्हें त्रिलोचन के शब्दों में ‘कविता का ककहरा’ नहीं मालूम, यद्यपि वे काव्य-चिंतन पर अथवा व्यापक साहित्य के सवालों पर विस्तार से लिखते-बोलते हैं। उनका आत्मविश्वास देखते बनता है।

ये दोनों पक्ष परस्पर-विरोधी जान पड़ते हैं,लेकिन असल में वे एक ही सचाई के दो पहलू हैं —साहित्य-लेखन को रचना तक ही महदूद रखना और इसके समानांतर विचार के नाम पर बड़ी मात्रा में गद्य-सामग्री को पाठकों के लाभार्थ उपलब्ध कराना। जो चीज इस परिदृश्य से गायब है,वह है सामान्य अकादमिक सामग्री से अलग गंभीर राजनीतिक विचार जिसे उत्तर आधुनिक चिंतकों ने ‘ग्रेंड नैरेटिव’ याने महा आख्यान कहा है। हिंदी लेखन और विमर्श से महा आख्यान को हटा दिया गया है —ऐसा विमर्श या व्यापक विचार जो चीजों के विभाजन को रोके,उन्हें एकसूत्रता प्रदान करे, और साथ ही सूत्रबद्ध वैचारिकता को समकालीन द्वंद्वों से जोड़े।

मुझे दो वर्ष पहले हुई एक गोष्ठी का प्रसंग याद आता है जब एकाध वक्ताओं को छोड़ कर सभी ने ऐसे यथार्थ की वकालत की जो वर्ग विभाजन से बाहर किसी अमूर्त आम आदमी का है और जिसमें कई विविधताएं और उनकी अपनी विशिष्ट संगतियां हैं। वक्ताओं का कहना था कि महा आख्यान अपना निजी अनुशासन उक्त आम आदमी की विविधता पर आरोपित करता है और उनकी चेतना को बंदी बनाता है। जाहिर है कि महा आख्यान से उनका तात्पर्य वर्गाधारित और मूलतः अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद से था। उनकी राय में वर्तमान मनुष्यता का मुख्य शत्रु अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद था।

आज हिंदी के उस पूरे लेखन में, अपवादों को छोड़ कर, जो पिछले तीस वर्षों में उभरा है यही विचार सक्रिय है और लेखक हैं कि किसी मिथकीय अनुशासन से लड़ने और उसका विरोध करने की प्रक्रिया में ‘आम आदमी’की स्वतंत्रता प्रतिष्ठित करने में लगे हैं। अनुमानतः वर्तमान कांग्रेस दल के विमर्श को इन लेखकों ने अपनी आत्मा का संवाहक सूत्र बना लिया है। कांग्रेस दल में आज आम आदमी से अलग कुछ भी गवारा नहीं,जो एकाधिकारी पूंजीवाद द्वारा पूर्व योजना के तहत अपनाया गया राजनीतिक विमर्श है। जिन महंगी पत्रिकाओं का ऊपर जिक्र हुआ है,उनमें यही आम आदमी द्वारा महा आख्यान से लड़ने वाली प्रवृत्ति हावी है।

पिछले पचीस-तीस वर्षों में लिखी-छपी रचनाओं पर गौर करें तो पाएंगे कि वहां वर्तमान राजनीतिक-विचारधारात्मक परिदृश्य की गंभीर समझ न के बराबर है। ऐसी बहुत कम रचनाएं हैं जिनमें पूंजीवादी प्रवृत्तियों तथा सांस्थानिक गतिविधियों पर तीखी चोट हो —यद्यपि सामान्य क्रोध अथवा असंतोष की मात्रा वहां पर्याप्त है। वहां प्रयुक्त मुहावरों को देख कर यह भी समझ आता है कि जो संकट सत्तर के दशक के बाद नये रूप में उभरा और जिसकी परिणति नब्बे-इक्यानवे की एकध्रुवीय घटना में हुई, उसने रचनाकार को हाशिये पर ला दिया।

देश का पूरा मध्य वर्ग पिछले बीस वर्षों से एकध्रुवीय दुनिया की चपेट में है। पूर्व दशकों में मध्य वर्ग के लिए नौकरी अहम चीज हुआ करती थी और उसके लिए सार्वजनिक क्षेत्र की पर्याप्त सार्थकता भी यह थी कि उसमें व्यक्ति आर्थिक स्थायित्व तथा सामाजिक गरिमा अर्जित कर सकता था। इन चीजों के बल पर मध्यवर्गीय तबका अपने वक्त की केंद्रीय गतिकी में किंचित हिस्सा ले सकता था। बुर्जुआ राजनीतिक दलों द्वारा परिकल्पित आर्थिक निजीकरण और शासक वर्गों द्वारा उसे मिली स्वीकृति ने मध्य वर्ग से स्थायित्व और गरिमा छीन ली, और उसे पूरी तरह समाज के धनाधारित प्रभाव-क्षेत्रों के हाथों सौंप दिया। अस्सी के दशक में यह प्रक्रिया शुरू हुई और धीरे-धीरे उसने 1990 के निकट एक भरीपूरी व्यवहार प्रणाली का रूप ग्रहण किया। परिणामतः रचनाकार एक लंबी प्रक्रिया के तहत अपने माहौल की अस्थिरता से दो-चार होने लगे। यह परेशानी पिछले वर्षों के लेखन में असंतोष का कारण बनी है।

आज हम पाते हैं कि समकालीन लेखन में वह उत्सवधर्मिता नहीं है,जिसकी बात कुछ चिंतक अतीतकामी नजरिया अपनाते हुए करते हैं। उत्सवधर्मिता दर असल सामाजिक परिवेश से उत्पन्न होती है,मानवता के किन्ही आंतरिक स्रोतों में नहीं,जैसा कि लेखन में इधर एकाध जगह माना जा रहा है। मूल बिंदु पर लौटें तो कह सकते हैं कि समकालीन रचना में उपस्थित असंतोष लेखकों का असंतोष केवल इस अर्थ में है कि मध्यवर्गीय व्यक्ति की हैसियत से हिंदी का रचनाकार एकध्रुवीयता,निजीकरण और पूंजीवादी भूमंडलीकरण का शिकार हुआ है। मात्र इस अर्थ में उसका दर्द वास्तविक है। फिर,रचनाकार उसे जाने-अनजाने केवल व्यक्त कर रहा है, उस पर तीखी वैचारिक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर रहा। इसका ठोस कारण है।

साहित्य में जिन्हें हम माडल या आदर्श कहते हैं,वे इन दिनों पूरी तरह बदल गए हैं। बीसवीं सदी की शुरूआत जिस माडल से हुई थी,वह था —महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद का। द्विवेदी चिंतक थे और प्रेमचंद कथाकार। फिर,द्विवेदी को कथा की जानकारी थी और प्रेमचंद के लेखन का बड़ा हिस्सा चिंतनपरक था —यहां तक कि प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में समाजविषयक आलोचनात्मक टिप्पणियों की भरमार है। इसके बाद आया था निराला और मुक्तिबोध का माडल। निराला पूरी तरह बेलाग और निर्मम लेखक थे, जबकि मुक्तिबोध अंतर्मुखी, दुरूह और आत्मविश्लेषक थे। साथ ही, इसके समानांतर एक अन्य माडल जैनेंद्र और अज्ञेय का भी उभरा था। संभवतः उस वक्त कुछ अन्य प्रवृत्तियां भी जनवादी उभार की प्रतिक्रिया में सक्रिय हुई थी।

जैनेंद्र और अज्ञेय व्यक्तिवादी थे और सामाजिक सचाई को संदेह से देखते हुए अपनी चमत्कारी मानसिकता में रमते थे। आजादी के बाद की पीढ़ी साक्षी है कि शीतयुद्ध के चलते निराला और मुक्तिबोध अपने काल में असफल सिद्ध हुए थे। उन दिनों निराला और मुक्तिबोध की श्रेणी में शामिल नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, रांगेय राघव, आदि थे। सत्तर के दशक तक इनका स्थान भी साहित्य के हाशिये पर ही कहीं था। उनकी पंक्ति में यशपाल नामक केवल एक लेखक था,जिसने लोकप्रियता और स्वीकार्यता के स्तर पर बाकी बूर्जुवा लेखकों को टक्कर दी, और उद्देश्यपरक लेखन को प्रतिष्ठित किया।

इसके विपरीत अस्सी और नब्बे के दशकों का माडल देखें। नाम लेने की जरूरत नहीं है,क्योंकि इस माडल को रूपायित करने वालों की लंबी पांत है, जिसके सभी सदस्य सिंह, हंस, लाल और संत हैं। रोचक है कि यह नया माडल बड़ी पत्रिकाओं का संपादक, विश्वविद्यालय का नीतिनिर्धारी विभागाध्यक्ष, सरकारी संस्थान का आला अफसर और ऊंची कमेटी का सदस्य, तथा बड़े प्रकाशकों को लाभ देकर पुस्तक प्रकाशित कराने एवं खरीदवाने वाला सम्मानित-प्रभावी आयोजक-लेखक है। साथ ही,यहां पुरस्कार देना और पाना परस्पर जुड़ गए लगते हैं। इस माडल को देखकर जिस अपेक्षित लेखकीय व्यवहार की तस्वीर बनती है,नयी पीढ़ी का रचनाकार उसे ही अपनाने को बाध्य है। रचना भी निजी क्षेत्र की प्रकृति, उसके नियमों एवं सांस्थानिक हैसियत के मूल्यों से अपना रूपाकार ग्रहण करती है।

पिछले दशकों में श्रेष्ठ साहित्य की परिभाषा भी बदली है। आज श्रेष्ठ साहित्य उसे कहा जाता है जो चर्चा के केंद्र में हो, अर्थात जिसके विषय में सामान्य पाठक न केवल जानते हों, बल्कि जिसके उजले पक्षों पर लंबी बातें भी करते हों। इस संदर्भ में ‘जानने’ का अभिप्राय प्रचार से है और ‘उजले पक्षों पर लंबी बातें करने’ का अभिप्राय गोष्ठियों के आयोजन से। समकालीन साहित्यिक व्यवहार यह वो पक्ष है जिसकी विस्तृत व्याख्या आवश्यक है। जाहिर है, इससे लेखक संगठनों की भूमिका भी प्रभावित हुई है। एक पूरा मध्यवर्गीय तबका निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए लेखक संगठनों की ओर बढ़ने लगा है। इस सवाल पर भी सोचने की जरूरत है।
(अगला हिस्सा शीघ्र ही)


दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी साहित्य विभाग  में 2007 तक शिक्षक.  जार्ज लुकाच की पुस्तक 'द थियरी आफ द नावेल' का हिंदी में 'उपन्यास का सिद्धांत' शीर्षक से अनुवाद और 'हिंदी कहानी की विकास प्रक्रिया' पुस्तक प्रकाशित। सत्तर के दशक में दो पत्रिकाओं --मतांतर और युग परिबोध का संपादन। उनसे anand1040@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

Nov 14, 2010

... आप किसके लिए लड़ रहे हैं?

सामाजिक कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार का संघर्ष बदलाव  और सुधार की गुंजाईश चाहने वालों के लिए एक मिसाल है.उसी को आगे बढ़ाते हुए छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन को उन्होंने एक पत्र लिखा है,जो बताने के लिए काफी है कि  न्याय बहाली की कोशिश में लगे लोगों के साथ सरकारी तंत्र कैसा बर्ताव कर रहा है...

हिमांशु  कुमार

प्रिय विश्वरंजन जी यह पत्र मैं आपको बिलकुल स्थिर चित्त से और आपकी परिस्थिति को समझते हुए लिख रहा हूँ. इस पत्र को लिखते समय मेरे मन पर उत्तेजना, क्रोध अथवा हताशा की कोई छाया नहीं है.

सिंगाराम फ़र्ज़ी मुठभेड़ को अदालत में ले जाने की सज़ा के तौर पर जब हमारा अठारह साल पुराना आश्रम सरकार द्वारा नष्ट कर दिया गया,उसके बाद किराए के मकान में हम आश्रम चला रहे थे.उसपर जनवरी २०१० में मेरे दंतेवाडा छोड़ने के बाद पुलिस ने मकान पर कब्ज़ा कर लिया था और अब एक महीने पहले ही आश्रम का बहुत सा सामान चोरी करके और आश्रम परिसर में खड़े वाहनों का तोड़ फोड़ कर पुलिस वापिस चली गई.

उसके बाद से वहां  दो आदिवासी महिलाएं व एक आदिवासी बूढ़ा रह रहे हैं.आपकी पुलिस नियमित रूप से जाकर इन तीनों कार्यकर्ताओं को डरा रही है और घर के भीतर घुसकर मुझे ढूंढती है तथा महिला कार्यकर्ताओं से कहती है कि आधी रात को आकर हम फिर तलाशी लेंगे.इन कार्यकर्ताओं के अंगूठे के निशान कोरे क़ागज़ों पर आपके पुलिस कर्मियों ने जबरन लिए हैं.हमारी महिला कार्यकर्ताएं मुझसे पूछ रही हैं कि पुलिस उन्हें कोई नुक्सान तो नहीं पहुंचाएगी,और मैं धड़कते दिल से उन्हें जवाब देता हूँ "नहीं,तुमने कौनसी ग़लती की है जो पुलिस तुम्हें नुकसान  पहुंचाएगी, तुम  आराम से रहो." पर मैं जानता हूँ कि मेरे आश्वासन बिल्कुल खोखले हैं.
सच तो यह है कि पुलिस आश्रम के मकान में रहने वाले इन तीनों कार्यकर्ताओं को कभी भी झूठे केस बनाकर, इन्हें नक्सली कमांडर घोषित करके जेल में डाल सकती है और बस फिर सब कुछ ख़त्म.बिल्कुल यही तो आपने कोपा कुंजाम के साथ किया था. पहले उसके घर जाकर उसको पीट कर डराने की कोशिश की.


वनवासी चेतना आश्रम: नेस्त्मबूद किया पुलिस ने
 जब वह नहीं डरा तो उसे जेल में डाल दिया.कोपा कुंजाम जोश से भरा हुआ एक आदिवासी नौजवान है जो आठ वर्ष तक गायत्री मिशन का पूर्णकालिक धर्मप्रचारक रहा और जो गेरुए वस्त्र पहन कर अपने आदिवासी समाज में शराब आदि के विरुद्ध प्रचार करता था.जब वनवासी चेतना आश्रम ने उसके क्षेत्र में प्रचार करना शुरू किया तो कोपा ने महसूस किया कि इस संस्था कि सोच ज़्यादा आधुनिक व वैज्ञानिक है.इसके बाद कोपा हमारे साथ जुड़ गया और पिछले तेरह वर्षों  में उसने महिलाओं और युवकों को संगठित करने का एक बड़ा काम किया.कोपा के प्रयत्नों से राशन की दुकानों पर चावल के घोटाले बंद होने लगे.शिक्षक,आंगनवाडी कार्यकर्ता, स्वास्थ्य विभाग के लोग गाँवों में जाने लगे, नरेगा (NREGA) में लोगों को पूरी मजदूरी दिलाई गई और कोपा के कार्यक्षेत्र में बच्चों की कुपोषण से मौतें रुकने लगीं.
लेकिन कोपा ने एक ग़लती कर दी.नरेगा के अंतर्गत सलवा  जुडूम कैम्पों में जबरन रखे गए आदिवासियों से भी काम करवाया जाता है और पूरे काम के बदले आधा पैसा दिया जाता है.आधे पैसे में सलवा  जुडूम के नेताओं और पुलिस की हिस्सेदारी होती है.आज भी होती है.कोपा इसके ख़िलाफ़ खड़ा हो गया और अनेकों जगह पूरी मजदूरी बांटनी पड़ी.यहीं से कोपा पुलिस की आँखों को खटकने लगा और उसे पुलिस ने "ह्त्या"का आरोप लगाकर एक साल से जेल में बंद किया हुआ है.मैंने ऊपर जो बातें कहीं हैं,उसके पूरे प्रमाण मेरे पास मौजूद हैं और यदि आप सिद्ध करने की चुनौती दें, तो मैं सार्वजनिक तौर पर इन सब बातों को सच सिद्ध कर दूंगा.
मुझे याद आ रहा है कोपा ने अपने आदिवासी साथियों के साथ मिलकर तीस से अधिक गाँवों को दोबारा बसाया था.ये वो उजड़े हुए गाँव थे जिन्हें आपकी पुलिस और सलवा जुडूम ने जलाकर महिलायों से बलात्कार कर निर्दोषों की ह्त्या कर उजाड़ दिया था.कोपा ने इन गाँवों में लोगों को जंगल से व आन्ध्र प्रदेश से वापस लाकर दोबारा बसाया,खेती शुरू करवाई और इन गाँवों में किसी को भी हथियार लेकर प्रवेश करने पर आम सहमती से रोक लगाई और वह इन सभी गाँवों को अहिंसक क्षेत्र बनाने की कोशिश कर रहा था.

इन गाँवों में वह स्कूल, आंगनवाडी, राशन दुकान,पंचायत दोबारा शुरू कराने की कोशिश कर रहा था और आप ही ने उसे जेल में डाल दिया? आपको क्या हासिल हुआ? कोपा के जेल में जाने और मेरे दंतेवाडा छोड़ने के बाद वहां हिंसा और ज़्यादा बढ़ गई.
आप दावा करते हैं कि आप साहित्यकार हैं और चाहते भी हैं कि लोग आपको वैसा सम्मान भी दें. पर आपको नहीं लगता कि साहित्यकार होने की पहली शर्त सत्य को देख पाना,उसे महसूस करना और उसकी सुन्दर अभिव्यक्ति होती है? लेकिन प्रतिदिन-प्रतिक्षण झूठ गढ़ना, एवं उसका ही सदैव चिंतन करना? क्या इस तरह आपके ह्रदय से किसी कालजयी या लोकहितकारी साहित्य का सृजन संभव है? लोक की तो छोड़िए,आप स्वयं भी अपने लिखे से मुग्ध नहीं हो पाते होंगे क्योंकि आपका ह्रदय जानता है कि आपने जो लिखा है,वह असत्य व बनावटी मनःस्थिति की उपज है.
आपको स्मरण होगा पिछली बार मैं जब आपसे मिला था,वो सलवा जुडूम का शुरूआती दौर था.मैंने आपसे तब कहा था, "विश्वरंजन जी, आप किसके लिए लड़ रहे हैं?देश के लिए या भ्रष्ट राजनेताओं के आर्थिक स्वार्थ के लिए?"मैंने यह भी कहा था कि पुलिस की यह नौकरी आपको संविधान और कानून की रक्षा के लिए दी गई है,और जिस दिन आप इस भ्रष्ट व लालची मुख्यमंत्री से कह देंगे कि,"मिस्टर चीफ़ मिनिस्टर,आदिवासिओं की ज़मीन लेने की क़ानूनी प्रक्रिया यह है, और अगर आपने इस क़ानून का उल्लंघन किया, तो मैं आपको उठाकर जेल में डाल दूंगा", और इस तरह जब पुलिस की बन्दूक ग़रीब के पक्ष में उठेगी,उस दिन नक्सलवाद स्वयं ही ग़ायब गो जाएगा.काश अभी भी आपको अपना कर्त्तव्य याद आ जाए.

अपराधों की लम्बी फेहरिस्त
 विश्वरंजन जी,आपने एक लेख लिखा था कि पुलिस को मानवाधिकारकर्ता शूद्र मानते हैं,और अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं.लेकिन सच्चाई इससे ठीक उल्टी है.हमने कभी आपसे सम्बन्ध तोड़ने की कोशिश नहीं की.बल्कि अशांत क्षेत्रों में शान्ति स्थापना का काम करने के कारण लगभग सभी कार्यकर्ताओं को आपने झूठे इलज़ाम लगा कर या तो जेल में बंद कर दिया है,या उन्हें इलाक़ा छोड़ जाने के लिए मजबूर कर दिया.

आप दावा करते हैं कि आप एक महत्त्वपूर्ण लड़ाई लड़ रहे हैं.चलिए,हमने आपकी बात को सच माना. पर आपकी इस लड़ाई में आपके साथी कौन हैं? लालची नेता, भ्रष्ट अधिकारी, सब्ज़ी बेचने वालीं ग़रीब औरतों और स्टेशन पर फेंकी हुई बोतलें इकठ्ठा करने वाले बच्चों से भी रिश्वत वसूलने वाले आपके पुलिस वाले?कहीं आप इन सब को साथ लेकर नक्सलवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई जीतने का सपना तो नहीं देख रहे?
आपको वो घटना भी याद होगी जिसमें दंतेवाडा के ग्राम टेकनार की आंगनवाडी चलाने वाली आदिवासी महिलाओं का पैसा एक सरकारी अधिकारिणी खा जाती थी. और हमारी संस्था के कार्यकर्ता की मदद से जब उनहोंने इस लूट का विरोध किया, तो आपके एस. पी. ने मेरे ही ख़िलाफ़ एक झूठी ऍफ़. आई. आर. दर्ज कर दी. और पिछली मुलाक़ात में मैंने आपसे कहा था कि जो पुलिस दूधमुंहे बच्चों का राशन बेचने वालों के साथ मिली हुई है,वह कभी भी समाज से नक्सलवाद दूर नहीं कर पाएगी. ऐसा सपना भी मत देखिएगा.
मैं यह मानता हूँ कि हम जहाँ पैदा होते हैं,उस वातावरण और स्थिति के अनुसार चीज़ों को सही या ग़लत मानते हैं. जैसे अगर हम हिन्दुस्तान में पैदा हुए हैं, तो पाकिस्तान को ख़राब मानते हैं. इसी तरह मैं अगर उस घर में पैदा होता जहाँ आप पैदा हुए हैं,और आप मेरे घर में पैदा होते, तो हमारे दोनों के विचार आज के हमारे विचारों के ठीक उल्टे होते. इसलिए यदि सत्य को जानना हो, तो स्वयं को सामने वाले की परिस्थिति में रखकर भी सोचना चाहिए. यही सत्य की ओर हमारा पहला क़दम होता है.अब आप स्वयं को दंतेवाडा ज़िले के एक आदिवासी के घर में रखकर सोचिये कि तब वहाँ आपके विचार, पुलिस, सरकार, और नक्सलियों के बारे में क्या वही रहते, जो आज एक डी. जी. पी. के नाते हैं?

ख़ैर अभी आप इन बातों को नहीं मानेंगे. पर जब आप इस नौकरी पर नहीं रहेंगे, तब आपको सच्चाई बहुत परेशान करेगी. और तब आप पछताएंगे कि आपने सही काम करने का मौका रहते हुए अंतर्रात्मा की आवाज़ को क्यों नहीं सुना और वो सब क्यों नहीं किया जो सचमुच ठीक था.

6 नवंबर 2010