Aug 19, 2010

परिवार से बाहर का बुद्धिजीवी गिनाएं

पार्टी के प्रवक्ता जय सिंह ने एक जगह कहा है कि जवाब वह  लिख रहे हैं,तो फिर जनज्वार में कात्यायिनी,शशिप्रकाश का नाम क्यों छापा जा रहा है.जयपुष्प बताएँगे कि संगठन में किसी कार्यकर्त्ता को धरना प्रदर्शन में शामिल होने भर कि भी इजाजत है?सांस्कृतिक प्रबोधन पर पारिवारिक एकाधिकार की खुन्नस तो देखिये ! के   बाद  पवन मेराज की  टिप्पणी

पवन मेराज, भोपाल से

जनचेतना के जय सिंह जी,सबसे पहले आपको बता दूँ....जनज्वार के पत्र कम्युनिज्म को बदनाम करने के लिए नहीं हैं बल्कि उस बदबदाती गन्दगी को साफ करने के लिए हैं  जिससे कि आज भी वहां परेशां होंगे.रही बात आप कार्यकर्ताओं द्वारा भेजे गए जवाब की तो,गुरु भरोसा करो हमलोग भी ऐसे ड्रामा में कई बार फंस चुके हैं जब संगठन कि इज्ज़त के नाम पर बहुत कुछ कराया जाता था जो हम नहीं करना चाहते थे.

कोई ग़लतफ़हमी मत पालिए की आप लोग कम्युनिस्ट हैं....न ही आपको ये मुगालता होना चाहिए कि पूरे क्रन्तिकारी खेमे में लोग ऐसा समझते है.हालाँकि जबतक सवाल उठाने वाले आपके वहां  थे तो उन्हें भी लगता था कि 'हमसे बड़ा कोई क्रांतिकारी काम नहीं कर रहा है',लेकिन बाहर आते ही लगता था कि हम जहाँ थे वह तो एक सुखा कुआँ था जिसकी नियति या फिर भटने की  थी,नहीं तो हमारे मरने की.  

आप लोग बस कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रसार के नाम पर एक प्रकाशन चलाते हैं.आप प्रकाशकों में क्रन्तिकारी हो सकते हैं,लेकिन क्रांतिकारियों में आप प्रकाशक ही हैं.व्यक्तिगत स्तर पर मुझे ऐसे प्रकाशनों से गुरेज नहीं है,ऐसे प्रकाशन होने चाहिए.

पर दिक्कत ये है कि आप लोग तो पूंजीपतियों से भी गये-गुजरे हैं.पूंजीपति सरप्लस का एक बड़ा हिस्सा चट कर जाता है,लेकिन फिर भी श्रमिकों को कुछ तनख्वाह तो देता ही है. लेकिन आप के संगठन के पुरोधाओं ने तो श्रमिकों कि वो तनख्वाह भी मार ली. उनको भ्रम में रखा कि ये सब क्रांति के लिए हो रहा है इसलिए बलिदान-बलिदान.......और युवा भी कैसा मतवाला होता है चल पड़ता है आप के पीछे परिवर्तन के नाम पर.

आप लोगों ने युवा दिल की खुद को दूसरों में बिखेर देने की हसरत का फायदा उठाया है बस.इसीलिए आपके संगठन को ठग कहा जाता है. कितना अच्छा होता आप लोग सिर्फ प्रकाशक कि भूमिका में खुले तौर पर आ जाते, यकीन जानिए तब क्रन्तिकारी खेमा भी एक प्रकाशक के बतौर आपकी भूमिका को स्वीकार करता.लेकिन नहीं, शशिप्रकाश एंड कंपनी के पास पूँजी कहाँ थी... वो जुटाई गई कार्यकर्ताओं के खून और पसीने से. इसलिए आप लोग अपराधी हैं.

ठगी का एक वैकल्पिक मॉडल: अब यह भी उजागर हो गया है.

जरा सोचिये तो जो युवा वाकई बलिदान देते रहे वो कहाँ हैं...और जो उनसे बलिदान मांग रहा था वो कहाँ है. कार्यकर्ताओं से साथ जो हुआ उसका वर्णन बहुत से साथी कर चुके हैं,थोड़ा श्रम लगेगा,लेकिन उन पत्रों को दुबारा पढ़ लें.
जनचेतना का शुमार उभरते हुए हिंदी के बड़े प्रकाशनों में किया जाता है.कात्यायनी को कम से कम मैंने दो समारोहों में इसी परिचय के साथ शिरकत करते हुए पाया.ग्वालियर वाले समारोह में तो उनसे मुलाकात भी हुई थी. मजे की बात यह कि आयोजन किसी जैन सभा ने करवाया था.खैर ये सच है कात्यायनी ने बाद में दूसरे साथियों से खेद भी व्यक्त किया था कि उनको नहीं पता था की आयोजक कौन लोग हैं.

पर ये भी सच है की एसी कम्पार्टमेंट से सफ़र करते हुए वो दिल्ली से ग्वालियर ख़ुशी ख़ुशी आईं भी थीं.  मैं अदना सा व्यक्ति उनके बारे में क्या कहूँ, वो बड़ी लेखिका हैं.लेकिन कात्यायिनी ये बताएं कि क्या ये सच नहीं है कि आपके संगठन में जब भी किसी को कविता-कहानी लिखते हुए पाया जाता तो उसे यही समझाया जाता ये सब व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की तुच्छतायें हैं...इसलिए ये सब छोडो,क्रांति के काम में जुट जाओ ...मतलब किताबें बेचो,प्रकाशन के लिए चंदा जुटाओ.

लेकिन आप,आपका बेटा अभिनव और पति शशिप्रकाश जो कि सत्यव्रत  के भी नाम से लिखते हैं यह अधिकार किसने दिया.इतने वर्ष बीत गए अभिनव,सत्यम,मीनाक्षी,कात्यायिनी,  शशि प्रकाश (सत्यव्रत)आदि पारिवारिक सदस्यों के अलावा  भी कोई लेखक बना क्या,उसकी गिनती कितनी है और वह कौन है.

यानी बुद्धि का केंद्रीय कार्यभार आप ही लोगों के पास पिछले २० वर्षों से अटका हुआ है,आखिर क्यों ?बाकि कार्यकर्ता भगत सिंह जैसा जीवन जीने और क़ुरबानी से लबरेज जज्बे के साथ चाय-बिस्किट खाकर ट्रेनों, बसों,ऑफिसों,नुक्कड़ों चंदा मांग क्रांति के भ्रम में जीते रहते हैं.आपके पार्टी के प्रवक्ता जय सिंह ने एक जगह कहा है कि वह जवाब लिख रहे हैं,तो फिर जनज्वार में कात्यायिनी,शशिप्रकाश का नाम क्यों छापा जा रहा है.जयपुष्प   बताएँगे कि जो संगठन किसी कार्यकर्त्ता को धरना प्रदर्शन में जाने की इजाजत नहीं देता वह उन्हें लेख लिखने देगा इसका हमें कोई मुगालता नहीं.

पर खैर अब तो प्रकाशन भी चल निकला है और बड़े नेता लोग दिल्ली में प्रगट तौर पर अंडरग्राउंड होकर रह रहे हैं.दिल्ली विश्विद्यालय में बेटे, पत्नी, बहु, नाती के साथ कई बार टहलते हुए देखे गए शशिप्रकाश कभी दिल्ली के किसी कार्यक्रम में दिखें हों तो कोई बताये.मतलब गुड खाएं गुलगुले से परहेज.प्रगट दुनिया के लिए और अंडरग्राउंड कार्यकर्ताओं के लिए.

फायदा?इससे क्रांति का भ्रम बनाये रखने में मदद मिलती है और कार्यकर्ताओं के मानस में एक रहस्यमय दुनिया बनती है जिसके तिलिस्म से वो लम्बे समय तक निकल ही नहीं पाते.जब तक निकलते हैं तब तक नए लोग भरती हो जाते हैं ... उफ़ ये युवा भी.

क्रांति के लिए बलिदान मांगने वाले बच्चों ने ख़ूब बढ़िया बढ़िया जगहों से शिक्षा पाई.उदाहंरण के लिए अभिनव. (क्या ये सच नहीं है की आपके संगठन में जब भी कोई पढाई-लिखाई में एकाग्र होने कि कोशिश करता है तो उससे कहा जाता है कि ये सब व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की तुच्छतायें हैं...इसलिए ये सब छोडो क्रांति के काम में जुट जाओ ...मतलब किताबें बेचो,प्रकाशन के लिए चंदा जुटाओ. क्या यह सच नहीं सारी आधुनिक सुविधाएँ बेटा अभिनव के लिए जुताई जाति हैं और बाकी कार्यकर्ताओं को बलिदान का पाठ पढाया जाता है.ताज़ा उदाहरण बिगुल के संपादक की बेटी  समीक्षा और जनार्दन का है जो
ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं जो बताते हैं कितना अंतर है बलिदान मांगने वालों और बलिदान देने वालों में. क्या इस फर्क को इस वाक्य के साथ जोड़कर देखा जा सकता है -अमीरों की चमक-दमक गरीबों के खून पसीने से आती है.जब श्रमिक आपना हिस्सा मांगता है तो उन पर लाठियां भांजी जाती हैं. पर आप तो उनसे भी गए गुजरे हैं आप लोगों ने तो सब हड़प कर लिया और जब इन खून-पसीने से सीचने वालों या उनके जानने वालों ने आप से कुछ तर्कतः जवाब मांगे तो वो 'मउगा' और 'हिजड़े' हो गए. इन शब्दों को गालियों के रूप में इस्तेमाल करने से एक बात और स्पष्ट हो गई कि विभिन्न समूहों  के बारे में आपके विचार कितने घटिया और पिछड़े हुए हैं.

 जरा पढ़िए, लिखिए, देखिये, दुनिया के पैमाने पर लेफ्ट खेमे में इन पहचानों को लेकर क्या बहस चल रही है. इंसान नहीं बन सकते,कम से कम कोशिश तो कर सकते हैं.खैर ये बहस आपके आदमियत कि तरफ बढ़ने के बाद....फिलहाल तो  आपने उनको जवाब देने कि बजाए 'छि पतित थू विघटित' कहना शुरू कर दिया. अब क्या करें आप लाठी तो चला नहीं सकते. या आपमें इतनी हिम्मत है. ......?




4 comments:

  1. @पवन
    तुम्‍हारा मनोगतवाद देखने लायक है।
    तुमने मुझे वह भूमिका सौंप दी (प्रवक्‍ता की) जिसका न मैंने दावा किया न जो मेरे संगठन ने मुझे सौंपी। शायद तुम्‍हें प्रवक्‍ता और कार्यकर्ता का भेद नहीं मालूम।

    बेहतर होता की नसीहतबाजी छोड़कर तुम किसी जीवित क्रान्तिकारी समूह से जुड़ते और आलोचना/आत्‍मालोचना की प्रक्रिया से गुजरकर अपने मध्‍यवर्गीय मनोगतवाद के रोग का इलाज करवाते। अगर तुम ऐसे किसी संगठन से जुड़े हो (जिसकी उम्‍मीद तो नहीं है) तब तो यह और भी दुर्भाग्‍यपूर्ण है।

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  2. भाई पवन मेराज
    तुम्हारे प्रश्नों का जबाब तो नहीं आया लेकिन जय सिंह को गलत को पद का अधिकारी बनाने के जुर्म में
    अब तुम्हे जनचेतना जैसे जीवत संगठन से जुड़कर अपने मनोगतवादी रोग का इलाज कराने के नसीहत पेश हुई है
    कब जा रहें हो जरुर बताना

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  3. पुष्पम हाजीपुर बिहारFriday, August 20, 2010

    जन ज्वार को मेरी शुभकामनाये . मेरी दशकों पुरानी गुत्थी सुलझाने के लिए . मै भी शशि और कात्यायनी के ग्रुप में नारी कम्यून में थी उस समय मै बी ए की पढाई के साथ कार्यकर्त्ता के रूप में कम कर रही थी 10-12 लड़कियो के इस कम्यून का माहौल हमेशा संशय भरा रहता था और आलोचना के नाम पर सभी की कमजोरियां निकाल कर कुंठित किया जाता था जैसे उस लड़के से तुम क्या बात कर रही थी वहां सभा में लोग तुम्हे ही क्यों देख रहे थे आदि आदि पूरा महल घुटन भरा बना दिया जाता था इसी तरह की आलोचना सतत चलती थी मै सोचती थी की मेरे में ही कमी होगी लेकिन अब आपके ब्लॉग पर पूरा पढने के बाद मेरी गुत्थी सुलझ गई है विशेष कर मिनाक्षी का लेख पढने के बाद हम यह तेवर और तंतनाहत कब पैदा होती है खूब जानते है.
    जन ज्वार के अजय जी अभी तक आपने अडिग होकर प्रतिरोध किया है आगे भी जारि रखियेगा क्योकि सत्य और जन आपके साथ है
    रही बात बुद्धिजीवियों व साहित्यकारों की तो वे जैसे भी है हमारे अपने है आन्दोलन के है उनकी समस्या हमारे आन्दोलन की समस्या है उनकी व्यक्तिगत नहीं. मेरा जनज्वार की इस जन पक्षधरता को हमेशा समर्थन रहेगा

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  4. आनंद सिंहFriday, August 20, 2010

    पवन का यह लेख उन सभी लोगों के आँख खोलने के लिए काफी है जो लोग आज भी चाय और मठ्ठी खाकर क्रांति के भ्रम में कुपोषित हुए जा रहे हैं. अगर वाकई जज्बा है तो क्रांति की दुकान से बाहर आईये तो पता चलेगा कि जिन संगठनों का गाली देकर हमारे सचिव शशिप्रकाश अघाते नहीं हैं वही असली काम कर रहे हैं. जब से जुड़ें हैं दिशा या बिगुल से तबसे कोई बाहर कि दुनिया देखी है दोस्तों. नहीं देखी है तो आईये और क्रांति की बन्धुआगिरी के खिलाफ एकजुट होइए और माओ को दुहाराइये, 'बम्बबार्ड द पार्टी हेडक्वार्टर'.

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