Aug 18, 2010

छिछोरों की मुंशीगीरी में साहित्यकार लगे हैं


जनज्वार  पर हमारे खिलाफ इतना छपने के बाद   चुप्पी को देखकर वाकई कहा जा सकता है कि भारत के बुद्धिजीवी समाज के अंतर्विवेक को लकवा मार गया है। संजीव जैसे 'नारसिसस कांप्लेक्स' से ग्रस्त लेखक को पटाकर (जिन्हें मठाधीश बनने के लिए भी राजेंद्र यादव का उतारा हुआ जूता ही मिला) 'हंस' में 'जनचेतना' और 'राहुल फाउण्डेशन' पर टिप्पणी करा लें, इससे हम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. इसी सोच के तहत राहुल फ़ाउंडेशन, अनुराग ट्रस्‍ट, परिकल्‍पना आदि खड़े किये गये हैं और डेढ़ दशक से अपने लक्ष्‍य को साकार करते हुए लगातार आगे बढ़ रहे हैं। इसे ये छिछोरे जानते हैं- मीनाक्षी, रिवोलुशनरी कोम्युनिस्ट लीग (भारत) की केन्द्रीय समिति सदस्य


शशिप्रकाश और कात्यायिनी ने तीसरा जवाब भी भेज दिया है. उसमें भी उन्होंने कमोबेश वही बातें कहीं हैं जो वह कहते आये हैं. उनका सारा संकट आकर शरीर के मध्य क्षेत्र में अटक गया है. एक  दूसरी श्रेणी उन्होंने मुंशियों, पागलों आदि की भी बना ली है, लेकिन पूछे गए किसी सवाल का जवाब नहीं भेजा है, शायद अगले जवाब में कात्यायिनी कुछ कहें. अब उन्होंने अगली रणनीति के तहत हिंदी साहित्कारों और बुद्धिजीवियों को लताड़ना शुरू कर दिया है. 


मीनाक्षी
मीनाक्षी: हिंदी में लकवा ग्रस्त बुद्धिजीवी हैं

पिछले कुछ दिनों से ब्लॉग जगत के धोबीघाट पर कम्युनिस्ट आन्दोलन को कलंकित करने के लिए एक जमात अपनी समझ से कम्युनिस्ट आन्दोलन के गन्दे कपड़े धो रही है, जबकि वास्तव में वह अपने ही गन्दे कपड़ों को कछार कर अपनी कुत्सित मानसिकता को बेनक़ाब कर रही है।

इनके व्यक्तिगत आक्षेपों-आरोपों-लांछनों का जवाब देना बहुत महत्वपूर्ण नहीं होता अगर हम एक जिम्मेदार,संजीदा समय में जी रहे होते। लेकिन आज जैसे गतिरोध,विपर्यय और ठहराव-बिखराव से उपजी निराशा के दौर में गाली-गलौज को भी लोग 'बहस' का नाम देने में सफल हो जाते हैं। आज वामपंथी आंदोलन की जो हालत है,उसमें आश्‍चर्य नहीं कि कुछ बुद्धिजीवी अपने को तटस्थ दिखाते हुए भी यहाँ-वहाँ चिमगोइयाँ लेने से बाज़ न आ रहे हों। आखिर स्तालिन ने यूँ ही नहीं कहा था कि एशियाई देशों की क्रान्तियाँ झूठ-फरेब, चुगली, साज़िशों और दुरभिसंधियों से भरी होंगी।

मैं अरविन्द की कामरेड और जीवनसाथी हूँ और मुझे फ़ख़्र है कि उनके जाने के बाद भी उसी रास्ते पर अडिग हूँ जिस पर हमने साथ-साथ चलने की कसम खायी थी। आज कुछ लोग बार-बार अरविन्द, उनके संगठन और व्यक्तिगत रूप से मुझे निशाना बनाकर निहायत शर्मनाक और गन्दे आक्षेप लगा रहे हैं। कम्युनिस्ट हर समाज में तमाम तरह की गालियाँ सुनते रहे हैं और इनसे कभी विचलित नहीं होते, लेकिन अगर किसी दिवंगत साथी को इस तरह से लांछित किया जाये तो चुप नहीं रहा जा सकता।


जो लोग अरविंद के जीवित रहते उनके ख़ि‍लाफ़ घटिया से घटिया आक्षेपों और दुष्‍प्रचारों में लगे हुए थे, वही उनकी मृत्‍यु के बाद भी अरविंद को बदनाम करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रहे हैं। वे कह रहे हैं कि अरविंद को सज़ा के तौर पर गोरखपुर में अलग-थलग छोड़ दिया गया था, कि उनसे लोगों को बाहर निकलवाने का काम कराया जाता था, आदि-आदि।

पहला सवाल तो यह है कि क्रान्तिकारी आन्दोलन के अधिकांश लोग अरविन्द से परिचित हैं। क्या वे नहीं जानते कि अरविन्द ऐसे डोसाइल और कमज़ोर व्यक्ति नहीं थे कि उनसे उनकी मर्जी के बगैर कोई भी कुछ भी करवा सकता था।1986 में समाजवादी क्रान्ति की लाइन के दस्तावेज़ को लेकर देशभर के अनेक क्रान्तिकारी वाम संगठनों के नेतृत्व से अरविन्द ने मुलाकात की थी। फिर 1990 में मार्क्‍सवाद ज़िन्दाबाद मंच के पाँच दिवसीय सेमिनार के दौरान और विभिन्न क्रान्तिकारी संगठनों से मिलने के लिए दो बार की लम्बी यात्राओं के दौरान आन्दोलन के ज़िम्मेदार लोगों का उनसे नज़दीक से परिचय हुआ। नेपाल में हुए अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार के दौरान भी भारत और नेपाल के क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों से उनके रिश्ते बने। बनारस, गोरखपुर, लखनऊ और दिल्ली में काम करते हुए और देशभर में विभिन्न आयोजनों में वे जिन लोगों से मिले, वे क्या इस बात में यकीन करेंगे कि अरविन्द ऐसे व्यक्ति थे जिनसे कुछ भी करा लिया जाये?

दूसरा सवाल। एक तथ्य रेखांकित करना ज़रूरी है कि इस जमात के अधिकांश व्यक्ति वे हैं जिन्हें पिछले 5-6 वर्षों के दौरान अलग-अलग आरोपों में खुद अरविन्द द्वारा ही निष्कासित/निलम्बित किया गया था। ये स्वतः किसी मतभेद के कारण या किसी राजनीतिक मसले के कारण अलग नहीं हुए और न ही एक साथ संगठन से गये। इनमें से कुछ तो वे हैं जो 10-12 साल पहले ही यह कहते हुए घर बैठ गये थे कि इतना कठिन जीवन हमारे बस का नहीं है। कुछ को नैतिक कदाचार के आरोप में निलम्बित किया गया था। अगर इनमें दम है तो बतायें कि नोयडा की टीम से अजय प्रकाश, प्रदीप और घनश्याम को किस वजह से निलम्बित किया गया था? अगर 'जनज्वार' के संचालक में ज़रा भी कमिटमेंट है तो उन्हें यह सब छोड़कर भारत में समलैंगिक आन्दोलन को बढ़ाने में लग जाना चाहिए।

कात्यायिनी: बहन मीनाक्षी को उतारा
मुकुल,जिसके अर्थवाद और मुंशीगीरी के विरुद्ध संगठन में लम्बे समय से संघर्ष था, वह ज़रा बताये कि तराई क्षेत्र में उसके कामों की क्या आलोचना रखी गयी थी? अगर खटीमा आन्दोलन के दौरान अरविन्द डेढ़ महीने तक वहाँ न रहे होते तो पता ही न चलता कि उसके अर्थवाद ने कामों और संगठन की छवि को कितना नुकसान पहुँचाया है। अपनी हरकतों की वजह से उस आन्दोलन में साथ रहे बिरादर संगठन की नज़रों में मुकुल की छवि एक तिकड़मबाज और मुंशीगीरी करने वाले व्यक्ति की थी, न कि एक साहसी क्रान्तिकारी कार्यकर्ता की। लेनिन ने कहा है कि कम्युनिस्ट को ट्रेड यूनियन सेक्रेटरी जैसा नहीं बन जाना चाहिए, लेकिन यह तो उससे भी नीचे, अर्थवादी यूनियनों के जोड़-तोड़ करने वाले नेताओं जैसे आचरण पर उतर चुका था। इसके व्यवहार से तंग आकर एक मज़दूर संगठनकर्ता 40 पृष्ठ का शिकायती पत्र लिखकर पहले ही संगठन छोड़ गया था और लखनऊ से उसकी मदद के लिए भेजे गये एक युवा संगठनकर्ता आशीष निरन्तर मानसिक तनाव में रहा करते थे। उसकी कार्यशैली और जीवनशैली की आलोचना के बाद मुकुल जब भागा तो वह कुछ राजनीतिक सवालों का धुँआ छोड़ते हुए भागा, लेकिन बाकी तो नैतिक कदाचार, षड्यंत्र, गबन आदि के कारण अलग-अलग समयों में निकाले गये या 'हमारे बस का नहीं' कहकर घर बैठ गये।

आदेश कुमार सिंह नामक वह शख़्स जो नेपाल की तराई के एक धनी किसान का बेटा है और लम्बे समय तक डिप्रेशन का इलाज कराता रहा,रेल मज़दूर अधिकार मोर्चा तथा इंडियन रेलवे टेक्निकल एंड आर्टीज़न स्‍टाफ एसोसिएशन में अपने घनघोर अर्थवाद और व्यक्तिवाद के बावजूद बार-बार अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि से पैदा हुई वैयक्तिक कुंठाओं का रोना रोकर छूट लेता रहा। वह तो भोकार छोड़ते रोते हुए संगठन से यह कहकर गया था कि अपनी कमजोरियों के चलते जा रहा है, मगर 'साथी तो उसे बहुत प्रिय हैं।' वह भी आज ब्लॉग पर चुटपुटिया छोड़ रहा है और समझ रहा है कि धमाके कर रहा है।

सत्येंद्र कुमार साहू नाम का व्यक्ति तो लम्बे समय से छुट्टी लेकर 'सम्पत्ति और परिवार' को व्यवस्थित करने में लगा था, इसके साथ तो संगठन मानो एक प्रयोग कर रहा था कि क्या कई पीढ़ी के सूदखोर खानदान से आये एक वर्गशत्रु को रगड़-घिसकर कम्युनिस्ट बनाया जा सकता है? दरअसल, इसका असली मक़सद तो था अपनी तीन बेटियों को आधुनिक बनाना। संगठन के साथ लगकर इसका यह प्रोजेक्ट जब पूरा हो गया तो उसे संगठन में रहना भारी लगने लगा। इसके निखट्टूपन और हर जगह वर्ग सहयोग तथा बनियागीरी करने की आलोचनाएँ इसे बुरी लगने लगीं। पिछले दो वर्ष से अधिक समय से यह छुट्टी पर था और संगठन के साथ मज़बूती से खड़ी अपनी एक बेटी (शालिनी) को घरेलू जीवन में लौट आने के लिए कनविंस करने की कोशिश में लगा रहा। ये इन कुत्साप्रचारकों की मंडली का फाइनेंसर भी है और अपने मूर्खतापूर्ण और घटिया आरोपों की एक पुस्तिका भी छपवाकर बाँटता रहा है।

ज़रा देखिये कि ये आखिर कह क्या रहे हैं। किस व्यक्ति को किस नाम से पुकारा जाता है, कौन किसका क्या लगता है? ये कौन-सी राजनीतिक बात है? मतभेद के नाम पर जो लोग यह छापकर बाँट रहे हैं कि किसी संगठन ने फलां सरकारी गेस्टहाउस में कांफ्रेस या मीटिंग की, क्या उन्हें राज्यसत्ता का एजेंट नहीं माना जाना चाहिए? यह तो कोई राजनीतिक मसला नहीं है। वाम क्रान्तिकारी धारा के संगठन गेस्टहाउस, रेस्टहाउस या होटल में भी ज़रूरत के अनुसार मीटिंगें करते रहे हैं। प्रश्न यह भी नहीं कि ऐसी किसी जगह मींटिंग/कांफ्रेंस हुई या नहीं हुई। प्रश्न तो यह है कि अगर कोई संगठन ऐसा करता भी है और इस तथ्य को कुछ लोग छापकर बड़े पैमाने पर सर्कुलेट करते हैं तो उन्हें क्या माना जाना चाहिए? क्या ऐसे लोगों की बातों को संजीदगी से लिया जाना चाहिए?

ग्वालियर में बैठकर इस कीचड़फेंक मुहिम में अपनी गन्दगी जोड़ने में लगे अशोक कुमार पाण्डेय की भी सुन लीलिए। लखनऊ में एक अखबार के गुण्डों ने जब 1995 में उसके दफ्तर पर धरना दे रहे राहुल फाउण्डेशन के कार्यकर्ताओं पर हमला किया था,जिसमें सैकड़ों की भीड़ के सामने गुण्डों की फौज से दो दर्जन कार्यकर्ता आधे घण्टे तक भिड़ते रहे थे, आधा दर्जन से ज्यादा महिलाओं सहित दर्जन भर लोगों के सिर फटे थे, तो गोरखपुर से टोली के साथ गया एक शख्स था जिसकी डर के मारे पैंट गीली हो गयी थी और वह अपने साथियों को छोड़कर वहाँ से भाग खड़ा हुआ था। जिस वक्त जेल से बाहर रह गये साथी लखनऊ के बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर इस घटना के खिलाफ कार्रवाई की तैयारियाँ कर रहे थे,यह व्यक्ति बहाना बनाकर गोरखपुर लौट गया और फिर किनारा कर गया। यह वही व्यक्ति है। वैसे संगठन में रहने के दौरान इसने ज्ञान की जो पंजीरी ग्रहण की थी उसे ही ब्लॉग पर बाँटते हुए यह भी छोटा-मोटा बुद्धिजीवी बन गया है। मठ बनाने की तो इसकी औकात नहीं है,पर छोटी-मोटी कुटिया बनाकर बैठने लायक ज्ञान तो यह पा ही गया था। भला हो गुण्डों के हमले का -पैंट भले ही गीली हो गयी, मगर सिर पर पाँव रखकर भागने का अवसर तो मिल ही गया। इसकी राजनीतिक बहस का स्टैंडर्ड यही है कि संगठन में किसी को भाई जी, भाई साहब, चाचा आदि-आदि क्या कहा जाता है। ये अपने आप में भला कौन-सा मुद्दा है?

इस सब के बाद भी छाई चुप्पी को देखकर वाकई कहा जा सकता है कि भारत के बुद्धिजीवी समाज के अंतर्विवेक को लकवा मार गया है।

इन सब लोगों की वर्ग-अवस्थिति तो इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि क्रान्तिकारी कामों के लिए जनता से स्रोत-संसाधन जुटाने को ये 'भीख माँगना' कहते हैं। हम गर्व से कहते हैं कि इतने विपरीत, ठण्डे, बेरहम समय में, पाँच स्रोतों (सरकार या सरकारी विभागों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पूंजीपति घरानों तथा उनके ट्रस्टों, चुनावी पार्टियों और विदेशी फंडिंग एजेंसियों) से किसी प्रकार का अनुदान लिये बिना केवल जनसहयोग के दम पर हम अपने कामों को संचालित कर रहे हैं। हम अपनी पत्र-पत्रिकाओं के घाटे के भरपाई के लिए अभियान चलाते हैं, मज़दूर अखबार के लिए मज़दूरों के बीच नियमित रूप से कूपन काटते हैं, व्‍यवस्‍था-विरोधी आम राजनीतिक प्रचार के लिए 'क्रान्तिकारी लोकस्वराज अभियान' चलाते हैं और इसकी गतिविधियों के लिए सहयोग जुटाते हैं, वैकल्पिक जन मीडिया खड़ा करने के प्रयासों के लिए 'हमारा मीडिया अभियान' के तहत घर-घर, दफ्तर-दफ्तर जाकर एक-एक व्यक्ति से बात करके सहयोग लेते हैं। इसे कोई ''कार्यकर्ताओं से भीख मँगवाना'' कहे तो उसकी घटिया सोच का ही पता चलता है।

आज अपनी हुआँ-हुआँ का शोर मचा रहे ये सारे गीदड़ और चमगादड़ एनजीओ और प्रिंट मीडिया के भीटों और मांदों में रहते हैं, इनमें लोगों के बीच जाने का साहस कहाँ। ये ब्लॉग पर चाहे जितना विषवमन कर लें,संजीव जैसे 'नारसिसस कांप्लेक्स' से ग्रस्त किसी लेखक को पटाकर (जिन्हें मठाधीश बनने के लिए भी राजेंद्र यादव का उतारा हुआ जूता ही मिला)'हंस'में 'जनचेतना'और 'राहुल फाउण्डेशन' पर टिप्पणी करा लें, इससे हम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। इन बातों से फर्क पड़ना होता तो 1990 से अब तक बार-बार कहा जाता रहा कि हम एक पारिवारिक मंडली हैं, कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी हैं, घरों में भागने के लिए सुरक्षित रास्ता तलाश रहे हैं, केवल किताब बेचते हैं, वगैरह-वगैरह -- हम तो कब के मिट गये होते। पुरानी कहावत है, कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी अपनी राह चलता जाता है।

हमें अपने बोल्शेविक होने पर गर्व है,और जिनके बीच रहकर हम लड़ रहे हैं उन पर भरोसा है। सोचना तो उन बुद्धिजीवियों को है जो बहस के नाम पर मचाई जा रही इस गंदगी पर चुप हैं या अन्दर-अन्दर मज़ा ले रहे हैं, या आन्दोलन को नसीहतबाज़ी की मुद्रा अपनाये हुए हैं। सोचना उन्हें है कि वे किस तरह के लोगों के साथ खड़े हैं और किस तरह की राजनीतिक संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं।

जो लोग संजीदगी के साथ इस मसले पर सोचते हैं (बहुत से लोगों ने हमें फोन करके कहा कि हमें इनका जवाब देना चाहिए), उनसे हमारा कहना है कि ज़रा सोचें, अलग-अलग समयों में संगठन से निकाले या बैठ गये इन तमाम लोगों का एक ही कॉमन एजेंडा कैसे हो गया?मुकुल तो फिर भी कुछ राजनीतिक मुद्दों का स्मोकस्क्रीन खड़ा करता हुआ भागा था,बाकी ने तो न संगठन में रहते कभी कोई सवाल उठाया न बाद में उनका कोई राजनीतिक सवाल था।

हमारे लिए यह सब कोई आश्चर्य की बात नहीं है, मगर बुद्धिजीवियों और राजनीतिक संगठनों के लोगों को देखना चाहिए कि ऐसी बातें करने वाले लोग कौन हैं, क्या कर रहे हैं, और इनका अपना सकारात्मक एजेंडा क्या है, या कुछ है भी या नहीं। हम तो मार्क्‍सवाद की इस बात में विश्वास करते हैं, जिसे लेनिन ने बार-बार दोहराया है कि किसी संगठन की राजनीतिक लाइन ग़लत होने से यदि उसके लोगों के व्यक्तिगत आचरण का भी पतन होता है, या कुछ लोगों के व्यक्तिगत पतन की वजह से भी यदि राजनीतिक लाइन ग़लत होती है,तो कम्युनिस्ट पहले राजनीतिक लाइन को ही निशाना बनाता है। जो लोग राजनीतिक लाइन के बजाय इन चीजों की बात करते हैं वे स्वतः अपने चरित्र को नंगा करते हैं क्योंकि कुत्सा-प्रचार की अपनी एक विचारधारा और राजनीति होती है।

आज के दौर में विभिन्न प्रकार की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएं खड़ी करके राज्यसत्ता के सामाजिक अवलंबों के बरक्स जनक्रान्ति के सामाजिक अवलंबों का विकास करना क्रान्ति का एक ज़रूरी उद्यम है --यह हमारी सुस्पष्ट और घोषित राजनीतिक सोच है। इसी सोच के तहत राहुल फ़ाउंडेशन, अनुराग ट्रस्‍ट, परिकल्‍पना आदि खड़े किये गये हैं और डेढ़ दशक से अपने लक्ष्‍य को साकार करते हुए लगातार आगे बढ़ रहे हैं। इसे ये छिछोरे जानते हैं। फिर भी, महज़ गाली देने के लिए यह कहना कि हम लोग राहुल सांकृत्यायन, अरविंद आदि के नाम पर पैसे बटोरने के लिए यह सब कह रहे हैं, कितनी घटिया बात है। हां, हम गर्वपूर्वक घोषित करते हैं कि हमारी राजनीति में वह ताकत है कि सच्चे लेनिनवादी अर्थों में पेशेवर क्रान्तिकारी सभी संपत्ति-संबंधों से निर्णायक विच्छेद करते हैं। इसी प्रकार की सामाजिक संस्थाओं के लिए अनेक पेशेवर क्रान्तिकारियों ने अपने घर-बार भी दिये हैं। जिन्हें महज़ गाली देने का बहाना चाहिए और जिनकी औकात ही नहीं है कि अपने बूते पर कोई संस्था खड़ी करने का सपना भी देख सकें, वे अगर इन उपक्रमों को संपत्ति खड़ी करने के उपक्रम के रूप में देखते हैं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। इनके द्वारा प्रचारित एक सफेद झूठ के विरुद्ध हम सार्वजनिक रूप से घोषणा करते हैं कि तकनीकी-क़ानूनी कारणों से एकाध अपवाद को छोड़कर हमारे बीच किसी पूरावक़्ती कार्यकर्ता की कोई निजी संपत्ति नहीं है।

सच्चा कम्युनिस्ट पड़ोसी के बच्चों से पहले अपनी पत्‍नी, बच्चों और परिवार को क्रान्ति से जोड़ता है। हम गर्वपूर्वक कहते हैं कि अपने परिवार को क्रान्ति की आंच से सुरक्षित रखने वाले भारत के बहुतेरे कम्युनिस्टों के विपरीत हमने अपने स्वजनों, परिजनों, संबंधियों, घनिष्ठ मित्रों को क्रान्तिकारी कामों से जोड़ा है या उनसे रिश्ते तय कर लिए हैं। संगठन के बहुत से साथियों ने सामाजिक परंपराओं को तोड़कर एक-दूसरे का जीवनसाथी बनने का कदम उठाया है। अगर कोई इसे संगठन में परिवार बढ़ाना कहता है तो इस निकृष्ट सोच को क्या कहा जाए? हमारे राजनीतिक जीवन में इन रिश्तों की कोई अहमियत कभी नहीं रही है। कुनबापरस्ती का आरोप लगाने वाले ये गीदड़ यह क्यों नहीं बताते कि विचारधारा और राजनीति के मतभेदों पर हमारे बीच कितने ही परिवार टूटे भी हैं। भाई-भाई, बाप-बेटे/बेटी, घनिष्ठतम मित्र तक उसूलों के सवाल पर दो जगह खड़े हैं।

जो किसी भी कम्युनिस्ट के लिए गर्व की बात हो सकती है, उसे जो लोग कलंकित और लांछित करने का प्रयास करते हैं, उनकी नस्ल पहचानना ज़रूरी है।






16 comments:

  1. मीनाक्षी जी आपने बिलकुल सही कहा है...कुछ अपने भी अनुभव बताइये कि आपने कितनी बार शशिप्रकाश से डिक्टेशन लिया है.

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  2. sunil ragi, vardhaWednesday, August 18, 2010

    जनचेतना को सेक्स्सोलोजी का न्यास खोलना चाहिए और आपको प्रमुख कि आप यह लक्षण बारीकी से देख सकें. और फिर साहित्यकार तो इस समय "छिनाल" प्रकरण में लगे हुए हैं. अब आपने नया शब्द छिछोर दे दिया है...आप क्या विभूति नारायण का स्त्री संस्करण हैं क्या.

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  3. minakshi ji
    aapke krantikari pariwar vaad ko salaam aapne bohot hi khubsurat vyakhaya ki hai iski.par maine inhi logon me se ek ke lekh me padha ki BHAISAHAB ke yasaswi putr ko mahenge music instrument diye jate the uske bare me aapne kuch nahi kaha.
    kya aap bta sakti hain ki aapke sath CC me or kaun log hain.

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  4. दयानंदWednesday, August 18, 2010

    शशिप्रकाश कि अमृतवाणी- 'दुनिया में किसी पर भी अनैतिक होने और गबन का आरोप लगा दो वह आत्मसुरक्षा में चला जाता है."

    इसी क्रांतिकारी लाइन का व्यावहारिक अमल कर रहा है "क्रांतिकारी परिवार" . इस पार्टी के केंद्रीय समिति सदस्य रहे सुरेन्द्र प्रताप पर भी यौन अनैतिकता के आरोप लगे तो गोरखपुर में 'अक्षरा' साहित्यिक केंद्र के मालिक स्वदेश के बारे में मीनाक्षी और शशिप्रकाश कहा करते हैं कि वह आईबी का एजेंट है. उनके सभी कार्यकर्त्ता भी इस बात को जानते हैं. इसी तरह गोरखपुर में सत्यम नाम के एक दिशा कार्यकर्त्ता को जनचेतना में बैठने वाली लडकी को लाइन मरने के आरोप में निकल दिया गया. इतना ही नहीं सुनील चौधरी जब संगठन से निकल गए तो कहा कि वह 'डीजेनेरेट' हो गए हैं और यौन कुंठा के शिकार हैं. इसी तरह जवानी के छह साल इस पार्टी में गुजार चुके नन्हे लाल पर भी आरोप लगाकर निकल दिया गया कि वह एक शादी शुदा लड़की को पटाने में लगे थे और अवसाद ग्रस्त हो गए थे. इतना ही नहीं गाजिअबाद के एक कार्यकर्ता को तो हमेशा यही कहा जाता रहा कि वह गे है और उसके ना होने पर हंसा जाता था. उसे जोड़ने के पिच्छे बस इतना ही जानना हमारे लिए काफी था कि उसने संगठन के लिए शेल्टर उपलब्ध करा रखा है, पैसा इकठ्ठा करा देता है.

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  5. मीनाक्षी जी आप कितना महान हैं। यह बात मुझे आज पता चला है। आप इनशान नहीं बल्कि साक्षात देवी हैं। वाह दवी...वाह! देवी जी आप की नजर में तो समलैंगिकता महापाप है। तब तो हमें आप और आपकी इस तथाकथित क्रांतिकारी पार्टी के बारे में सोचना पड़ेगा कि आपतो सीधे तौर पर आरएसएस और भाजपा के साथ खड़ी दिख रही हैं। कहीं आपको भाजपा के टिकट पर चुनाव तो नहीं लडऩा है। अगर ऐसा भी करें तो सही ही है। क्योंकि जनता को चूतिया बनाने से अच्छा है पूरे तौर पर जनताविरोधी ही बन जाएं।
    रहा सवाल क्रांतिकरिता की तो आप जैसे नासमझ माक्र्सवादी (माक्र्सवादी कहना तो नहीं चाहिए क्योंकि यह लेख किसी माक्र्सवादी का हो ही नहीं सकता) को इस तरह की गाली देना शोभा नहीं देता। यह बकवास कोई सड़ी हुई मानशिकता वाला व्यक्ति ही कर सकता है। अगर आप इसी तरह के माक्र्सवादी हैं तो आप से इस देश की जनता को भगवान ही बचाए। देवीजी आपकी राजनीति कहीं घास तो चरने नहीं चली गयी, जो इस तरह का छिछोरापन आप कर रही हैं। वैसे देश का कोई भी कम्युनिस्ट संगठन आपकी तथाकथित क्रांतिकारी पार्टी को अपराधियों, उचक्कों का मात्र एक गिरोह ही मानता है।

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  6. साहित्यकारों का दोष- वह शशिप्रकाश के पक्ष में नहीं उतरे.
    वजह- सच से सभी वाकिफ.
    सजा- लकवाग्रस्त, नारसिसस कांप्लेक्स आदि से ग्रसित.
    साहित्यकार मित्रों यह तो आपको अभी इतना ही कह रहे हैं शुक्र है कि आप अभी आईबी के एजेंट का तमगा नहीं पाए हैं. चाहिए तो बोलिए फिर देखिये आपको समलैंगिक नहीं उभयलिंगी बना देंगे.
    --

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  7. झूठ बोलने और कुत्सा प्रचार में वैसे भी शशि ग्रुप का कोई सानी नहीं है। मैं अभी बस अपने बारे में मीनाक्षी की कही बात पर स्पष्टीकरण देना चाहता हूं। सहारा की घटना के बाद ख़ुद शशि ने मुझे गोरखपुर भेजा था आदेश के साथ ताकि शहर में समर्थन और पैसा इकट्ठा किया जा सके। इसका गवाह सनत चटर्जी है जिसके घर हम दोनों रुके थे और गोरखपुर का बौद्धिक समाज जिसके दरवाजे ख़ूनसने जींस में लिथड़े हमने ख़टखटाये थे। वैसे संगठन से जुड़े लोगों को याद होगा कि जब यह टीम गोरखपुर लौट कर आई तो स्वागत करने स्टेशन पर कौन था? इस घटना के बाद भी मैने संगठन के साथ कोई साल भर और काम किया था।

    वैसे कोई झूठ बोलने पर उतर आये तो कोई क्या कर सकता है? जिस ज्ञान का एहसान जताया जा रहा है, उसके बारे में बस इतना कि काश शशि से थोड़ी पंजीरी इन्होंने भी ले ली होती। वैसे उसकी पंजीरी बस मठाधीश बनने में काम आती है, यह तो साफ़ कर ही दिया इन्होंने। शायद बुद्धिजीवी और कवि बनने वाली पंजीरी वह सिर्फ़ पत्नी और बेटे तक ही सुरक्षित रखता है।

    आदेश और साहू जी की जन्मकुंडली देखने वाली इस महिला से पूछा जाना चाहिये कि उसकी बहन किसकी पुत्री है और उसके जीजा शशि किस क्रांतिकारी के पुत्र हैं( वैसे हम इतना मार्क्सवाद जानते हैं कि व्यक्ति का राजनैतिक मूल्यांकन करते समय उसके ख़ानदान का ज़िक्र बेमानी है, शशि के पिता के बारे में सब जानत हुए भी हम उनका आदर करते हैं और एक बुज़ुर्ग की तरह सदा उन्हें बाबूजी कहकर नमस्कार। वैसे ख़ुद शशि भी उनसे मिलने अपने सबसे बड़े वर्गशत्रु के घर जाकर रिश्ता निभाते रहते हैं)

    इस पूरे जवाब में शशि और उसके मठ के गुर्गों का चरित्र सामने आता है। 'पत्नी से डरने वाले' या 'उतारा हुआ जूता' पहनने जैसी बातें करने वालों की वर्गीय पक्षधरता साफ़ दिखती है। ये स्त्री विरोधि घोर सामंती और उन ग़रीबों का मज़ाक उड़ाने वाले लोग हैं जिनकी क़िस्मत में 'उतारा हुआ जूता' पहनना लिखा होता है। वैसे उतारा जूता हर हाल में चुराये या मंगनी के जूते से बेहतर होता है।

    लाईन का सवाल राजनीतिक लोगों से किया जाता है शशि गिरोह जैसे धंधेबाज परिवारवादी और लंपट लोगों से नहीं।

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  9. और हां मेरे समय में अभी भाईसाहब वगैरह का कल्चर नहीं था…मेरे उस लेख में भी किसी रिश्ते का कोई ज़िक्र नहीं था…मीनाक्षी शायद अब तक पूरा लेख पढ़ पाने भर के धैर्य की पंजीरी नहीं पा सकी हैं… वैसे जिस संगठन में इतने सारे रिश्तेदार शीर्ष पदों पर विराजमान हों वहां रिश्तों वाले संबोधन 'कामरेड' की जगह ले लें तो इसमे आश्चर्यचकित होने वाली कौन सी बात है?

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  10. HA bhai ek bat samajh me nahi aa rahi ki aap sara sawal shashi prakash urf bhai sahab aur katyaynai se puchh rahe aur usaka jabab arvind ki patni meenakshi ke sath aur log de rahe hai iske peechhe kahi maut k bad sanvedan batorne ki bat jaisa ghrinit mansikta to nahi kyoki sabhi lekh padhne k bat mujhe nahi lagta ki arvind ke bare me koi apmanjanak bat kahi gai hai

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  11. is jhagde ko bahar se dekhne wale kisi ke liye meenakshi ka jawab bhi kam convincing nahi hai. lekin galiya dene ki itni aaturta kyon? padhte hue lagta raha ki apni baten kahne ke sath kuchh nai galiyon ko banane ki bhi kosis ho rahi hai. aur samlaingikta toh nishchit hi gali ki tarah istemal karne ki cheez nahi. is bahas ko aage badhate hue kripya dono paksh kosis karen ki bhasha ka smokescreen khada karne ke aage jakar tathyon ko samne rakhen.

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  12. मीनाक्षी जी जरा आप सोचिए कि जिन पर आपने समलैंगिक होने का आरोप लगाया है आखिर वे आप ही के संगठन के प्रोजेक्ट हैं। क्या आप का संगठन समलैंगिक और मानशिक रूप से विकलांग लोगों को ही पैदा करता है। अगर ऐसा है तब तो आपके नेत्रित्व होने वाली क्रांतिकारी पूरे देश को मानशिक रूप से विकलांग बना देगा। आप से भगवान ही बचाए। आप ही लोगों का तो कहना है कि आसपास के लोग जैसे होते हैं वैसे ही आदमी का विकास होता है। सवाल यह उठता है कि क्या आपका पूरा संगठन ही समलैंगिकऔर मानशिक रूप से विकलांग है? यह मैं नहीं बल्कि आपकी पूरी सोच बता रही है। बात शुरू हुई थी पार्टी की वैचारिक लाइन पर, लेकिन आपने तो मूल बात को छिपाकर ''खिसियानी बिल्ली खंंभा नोचेÓÓ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए अपने पूरे परिवेश का ही पोल खोल दिया है।

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  13. 2- महान क्रांतिकारी जी आप इतने ही महान हैं तो इस सूदखोर की बेटी को अभी तक अपने पास क्यों रखी हैं। फिर यह जानते हुए भी कि वह सूदखोर है, इतने दिनों तक आपके संगठन में क्यों रहा? इससे यह साफ जाहिर है कि आपको पैसा ऐंठना था और आपने उस सूदखोर को जितना चूस सकीं चूसीं। जब उसके पास चूसने के लिए कुछ बचा नहीं या अपने संगठन के भंडाफोड़ होने के डर से निकाल बाहर कर दिया।

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  14. 3- अपने मुंह मियां मि_ू मत बनिए मीनाक्षी जी।लोगों के ऊपर छोड़ दीजिए। लोग खुद कहें कि आप बोलशेविक हैं तो अच्छा लगता है। ऐसे ही किसी कलाकार ने एक कुत्ते की तस्वीर बनाई। उसने जब अपनी तस्वीर को देखा तो वह खुद शंसंकित हो गया कि वह कुत्ता है या कुछ और। इसलिए उसने उसके ऊपर लिख दिया कि यह कुत्ता ही है। शायद आप भी कुछ इसी तरह से हैं।

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  15. अरे भाई, इतनी ऐतिहासिक बहस चला रहे हैं तो अपनी भाषा और वर्तनी पर भी ध्‍यान दीजिए। जो भी पोस्‍ट आए, उसे कायदे से संपादित कर के छापिए। पढ़ने के दौरान वर्तनी की गलतियां दिमाग पर हथौड़े की तरह बजती हैं। लगता नहीं कि कोई हिंदी का पढ़ा-लिखा पत्रकार इस ब्‍लॉग को मॉडरेट कर रहा है। अपने ब्‍लॉग के लिए एक लेक्सिकॉन डेवलप कीजिए और गाली वाली भाषा के पार जाइए, संभव हो तो गाली वाली प्रतिक्रियाओं को छापिए ही मत। इससे अनावश्‍यक आभास होता है कि कंटेंट कम, टीआरपी पर ज्‍यादा ध्‍यान है। जनज्‍वार को दूसरा मोहल्‍ला बनने से रोकिए। उस दिशा में जाने से कुछ नहीं मिलने वाला, सिर्फ बदनामी हाथ लगेगी।

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  16. Mithilesh singh said...Thursday, August 19, 2010

    विचारधारा और राजनीति के मतभेदों पर हमारे बीच कितने ही परिवार टूटे भी हैं।
    kya tumhare sangthan men aane ke baad kisi ka ghar surkshit bhi raha hai. waise tum kya jano ghar pariwar kya hota hai. waise tumhe pariwar ki ahmiyat ek din jaroor pata chalegi. waise tum jaisi mahila ko tum kahkar hi sambodhit karna chahiye kyonki tumhe to itni mirch lagi hai apne khandan ke baare main sunkar ki tum tu-tadak par utar aayi.

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