Jul 29, 2010

शास्त्रार्थ शास्त्रियों में होता है, बधिक से नहीं


हंस के सालाना जलसे में अरुंधती राय के न शामिल होने को लेकर  राजेंद्र यादव का पक्ष 'आखिरकार मठ से ही गरजे बाबा' अब सार्वजानिक हो चुका है. साहित्य में सरोकार को लेकर चली इस बहस में हिंदी के साहित्यकार नीलाभ  ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है,खासकर तब जबकि इस मसले पर हिंदी का साहित्य जगत कानाफूसी और ठकुरसुहाती से अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को ही महवपूर्ण मानता हो.

एक बार फिर नीलाभ ने साहित्य के सरोकार पर कुछ तल्ख़ बातें कहीं हैं, जिसका सीधा ताल्लुक हमारे समय और समाज से है. हर रोज इस मसले पर तमाशा देखने के अंदाज़ में दूर बैठे गपियाने वाले संवेनशील साहित्कारों से,जनज्वार अपील करता है कि वह सामने आयें और रणहो-पुतहो के इंतज़ार में समय न जाया करें.यह हमारे समय के महत्वपूर्ण सवालों में से एक है,इसलिए बहस में जनपक्षधर साहित्यकारों को हम आमंत्रित करते हैं..........

नीलाभ

लेकिन ये प्रदूषित वर्ष हैं, हमारे;

दूर मारे गये आदमियों का ख़ून उछलता है लहरों में,
लहरें रंग देती हैं हमें, छींटे पड़ते हैं चांद पर.
दूर के ये अज़ाब हमारे हैं और उत्पीड़ितों के लिए संघर्ष
मेरे स्वभाव की एक कठोर शिरा है.

शायद यह लड़ाई गुज़र जायेगी दूसरी लड़ाइयों की तरह
जिन्होंने हमें बांटे रखा, हमें मरा हुआ,हुई,
हत्यारों के साथ हमारी हत्या करती हुई,
लेकिन इस समय की शर्मिन्दगी छूती है
अपनी जलती हुई उंगलियों से हमारे चेहरे,
कौन मिटायेगा निर्दोषों की हत्या में छुपी क्रूरता ?

--पाब्लो नेरुदा


आख़िरकार जैसा कि अंग्रेज़ी में कहते हैं बिल्ली बैग से बाहर आ ही गयी.हंस के सालाना जलसे पर सम्पादक राजेन्द्र जी ने ख़ामोशी तोड़ कर अपनी ओर से एक स्पष्टीकरण दे ही डाला.ऐसा लगता है कि बहस का राग अलापने वाले राजेन्द्र जी ख़ुद बहस में तभी उतरते हैं जब उन्हें यक़ीन हो जाता है कि उनकी ओर से मोर्चा संभालने वाले सिपहसालार नाकाम साबित हुए हैं या फिर उन्हें लगता है कि आख़िरी वार करने का अवसर अब उन्हीं के हाथ में है.वरना हंस के सालाना जलसे पर जिन्हें ऐतराज़ था वे तो अपनी बात कभी के कह चुके थे. लेकिन सम्भव है राजेन्द्र जी को लगा हो कि ब्लॉग के महारथी हमारे प्यारे साथी अविनाश जी और राजेन्द्र जी के बग़लबच्चे समरेन्द्र बहादुर शायद सफल नहीं हुए,लिहाज़ा हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के भीष्म पितामह को अन्तत: मैदान में उतरना ही पड़ा है.

का करूँ हाय उन्हें मौका मिल गया
लेकिन अपने पक्ष को किसी भी तरह सही साबित करने की फ़िक्र में अपने सम्पाद्कीय में राजेन्द्र जी ने दो बुनियादी चूकें की हैं.पहली चूक सैद्धान्तिक है. वे लिखते हैं --"हंस हमेशा एक लोकतांत्रिक विमर्श में विश्‍वास करता रहा है। हमारा मानना है कि एकतरफा बौद्धिक बहस का कोई अर्थ नहीं है। वह प्रवचन होता है। जब तक प्रतिपक्ष न हो, उसे बहस का नाम देना भी गलत है। हमने अपनी गोष्ठियों में प्रतिपक्ष को बराबरी की हिस्‍सेदारी दी है। जब भारतीयता की अवधारणा पर गोष्‍ठी हुई,तो हमने बीजेपी के सिद्धांतकार शेषाद्रिचारी को भी आमंत्रित किया था। अब इस बार सोचा था कि क्‍यों न प्रतिपक्ष के लिए छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्‍व रंजन को आमंत्रित किया जाए।"

ठीक बात है,बहस तो दो अलग-अलग विचारों वाले लोगों में ही होती है. लेकिन ऐसा लगता है कि राजेन्द्र जी बहस को भी उसी कोटि में रखते हैं जिस कोटि में साहित्य को "काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धी मताम"वाले लोग रखते थे.यानी उमस से बेहाल मौसम में कुछ चपकलश हो जाये.वरना ये विश्वरन्जन कहां के सिद्धान्तकार ठहरे ?वे सरकार के पुलिसिआ तन्त्र का एक पुर्ज़ा हैं,जिन्हें पूरी मुस्तैदी से अपना फ़र्ज़ निभाना है,कोई सिद्धान्त नहीं बघारना.अलबत्ता बहस सही मानी में बहस तब होती जब मौजूदा सरकार के नीति-निर्धारकों या उनके प्रवक्ताओं-पैरोकारों में से किसी को राजेन्द्र जी बुलाते.पर उनका इरादा तो सनसनी पैदा करना था,मौजूदा रक्तपात में किसी सक्रिय हस्तक्षेप की सम्भावनाएं तलाश करना नहीं.क्या राजेन्द्र जी का ख़याल था कि हंस की गोष्ठी के बाद विश्वरंजन शस्त्र समर्पण करके रक्तपात से उपराम हो जाते ?या अरुन्धती यह मान लेती कि छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में लड़ रहे लोगों का रास्ता ग़लत है ?इस तरह की अपेक्षाओं के साथ जिन बहसों की योजना बनती है वह बौद्धिक विलास नहीं है तो और क्या है ?

रही बात शास्त्रार्थ की पुरानी परम्परा की दुहाई देने की,तो राजेन्द्र जी यह कैसे भूल गये कि शास्त्रार्थ शास्त्रियों में होता है. हमारी नज़र में तो ऐसा कोई शस्त्रार्थ नहीं आया जिसमें एक ओर शास्त्री हो, दूसरी ओर बधिक, ख़्वाह वह कविता ही क्यों न लिखता हो.हां,एक उदाहरण ज़रूर है जब शास्त्री पराजित होने के कगार पर पहुंच कर बधिक बनने पर उतारू हो गया था और जिस शास्त्रार्थ ने शास्त्रार्थ नामक इस सत्ता विमर्श की सारी पोल पट्टी खोल कर रख दी थी.पाठक गण याग्यवल्क्य-गार्गी सम्वाद को याद करें जिस में गार्गी द्वारा अपने सारे तर्कों के खण्डन के बाद याग्यवल्क्य ने गार्गी को सीधे-सीधे धमकी दी थी कि इस से आगे प्रश्न करने पर तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा. तो यह तो है शास्त्रार्थ की वो पुरानी परम्परा.

अब राजेन्द्र जी का झूठ ! क्षमा कीजिये इसे और कोई नाम देना सम्भव नहीं है. राजेन्द्र जी कहते हैं और मैं उन्हीं को उद्धृत कर रहा हूं -- "हंस का दफ्तर सब तरह की बहसों, नाराजगियों, शिकायतों या अन्‍य भड़ासों का खुला मंच है। वक्‍ताओं के नाम पर विचार ही हो रहा था कि यार लोग ले उड़े और पंकज विष्‍ट ने अपने समयांतर में लगभग धिक्‍कारते हुए कि हम बस्‍तर क्षेत्र के हत्‍यारे पुलिस डीजी और अरुंधती को एक ही मंच पर लाने की हिमाकत करने जा रहे हैं।"

पंकज बिष्ट: सवाल यहीं से
झूठ इसमें यह है कि नामों पर विचार ही नहीं हो रहा था,बल्कि वे फ़ाइनल हो चुके थे.अगर ऐसा न होता तो पंकज बिष्ट अपने समयान्तर में ऐसा लेख क्यों लिखते भला. यही नहीं,जब मैंने राजेन्द्र जी से पूछा था कि यह आप क्या कर रहे हैं तो उन्होंने एक बार भी यह नहीं कहा कि अभी कुछ भी अन्तिम रूप से तय नहीं हुआ है. बल्कि वे तो सारा समय मुझसे वैसी ही कजबहसी करते रहे जैसी उन्हों ने अपने सम्पाद्कीय में की है. लेकिन इसका मलाल क्या. यह उनका पुराना वतीरा है. यह तो अरुन्धती ने भंड़ेर कर दिया और राजेन्द्र जी -मुहावरे की ज़बान में कहें तो -डिफ़ेन्सिव में चले गये वरना वे भी नामवर जी,खगेन्द्र ठाकुर,आलोकधन्वा और अरुण कमल की तरह विश्वरंजन की बग़ल में सुशोभित हो कर धन्य-धन्य हो रहे होते और बहस का पुण्य लाभ कर रहे होते. सो वे यह न कहें कि अभी नामों पर विचार ही हो रहा था.

राजेन्द्र जी ने मुझसे सीधे सवाल पूछा है कि क्या मैं उनका पक्ष नहीं जानता.वे लिखते हैं -"दिल्‍ली में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने को आतुर नीलाभ ने भी "वंदना के इन सुरों में एक सुरा मेरा मिला लो" के भाव से एक लेख पेल डाला। इसमें उन्‍होंने पूछा कि मैं किधर हूं, यह मैंने कभी साफ नहीं किया। जो कुछ पढ़ते-सुनते न हों, उन्‍हें क्‍या जवाब दिया जाए? चाहे तो वे इस बार जुलाई 2010 के संपादकीय पर नजर डाल लें।"

हंस का जुलाई अंक मैं ने अभी नहीं देखा लेकिन मैं राजेन्द्र जी का पक्ष बख़ूबी जानता हूं. इसीलिए यह भी जानता हूं कि माओवादियों की ओर से शान्ति प्रक्रिया को संचालित करने वाले कॉमरेड आज़ाद और तीस वर्षीय युवा पत्रकार हेम चन्द्र पाण्देय की जो निर्मम हत्या फ़र्ज़ी मुठ्भेड़ में पुलिस ने की है उस पर पिछ्ले एक महीने के दौरान जो बैठकें हुई हैं उनमें राजेन्द्र जी क्यों नज़र नहीं आये.हम उनसे यह नहीं कहते कि वे बहस न करें,ज़रूर करें पर अगर वह बहस हमें सम्वेदनहीन कर रही हो या ज़रूरी कामों से भटका रही हो तब हमें ऐसी बहस पर लानत भेजने का साहस होना चाहिए भले ही ऐसा करने पर हंस सम्पादक हमें फ़ासिस्ट ही क्यों न कहें.हम अच्छी तरह जानते हैं कि वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति वाले विमर्श में राजेन्द्र जी का पक्ष क्या है.

चलते चलाते एक बात और. राजेन्द्र जी ने ब्लॉग  वालों को गालियां देते हुए इस बात पर चुप्पी साध ली है कि ख़ुद उन्होंने इस विवाद को बढ़ाने में एक नहीं दो ब्लौगों की मदद ली है.पर क्या करें जब पाठकों ने इन ब्लौग वालों को ही राजेन्द्र जी का दलाल कहना शुरू कर दिया.

अन्त में यह कि हंस की परम्परा का ज़िक्र करते हुए राजेन्द्र जी उसके संस्थापक प्रेमचन्द का उल्लेख ज़रूर करते हैं.अगर प्रेमचन्द ऐसे गोष्ठी करते तो क्या वे एक ओर क्रान्तिकारियों के समर्थक गणेश शंकर विद्यार्थी और दूसरी ओर जनरल डायर को बुलाते ?


10 comments:

  1. क्या बात है, नीलाभ जी ! बड़ा अच्छा जवाब दिया । दर‍असल ये सभी लोग सरकार के पालतू कुत्ते हैं ।

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  2. inhe paltu kahna jyada accha hai...paltu kahne se doosare janvar badnaam hone se bach jate hain......... sath hi khyal kiya jana chahiye ki rajendra yadav insan rupi..............

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  3. यह भाषा राजेंद्र जी जैसे बुज़ुर्ग लेखक के लिए सवर्ण जमात की वही कुत्सित भाषा है, जिसका नमूना वे लालू यादव से लेकर अन्य जातियों के लेखकों और लोगों के लिए पेश करते रहते हैं। ब्राह्मण नीलाभ और उनके सवर्ण साथियों की भाषा की मैं पुरज़ोर भर्त्सना करता हूं।

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  4. देखिए वही हुआ जिस का संदेह था. राजेन्द्र जी अपनी बात से साफ़ पलट गए. यह आदमी बड़ा शातिर दिमाग है. पहले तो सबकुछ चुपचाप देखता है. फिर जब बात ठंडी ही जाति है तो अपनी सहूलियत को बात को तोड़ता-मोड़ता है. उसने फिर यही किया. मगर अपनी बार बच नहीं सकता. इस आदमी कि प्रतिक्रया महज एक हताशा है और इसके अलावा कुछ नहीं है. क्योंकि पहले ही इसने भरपाई करने की पूरी कोशिश कर ली. इस काम में दो चार लोगों को लगाया. मगर जब बात बनही नहीं तो यह देखीय साब इसकी करतूत. तो यह हाल है हिंदी के साहित्यकारों का. इन्हें चाहिए थोड़े जागरूक बने. चाहे तो इसमें ब्लॉग वालों की मदद ले ले. क्योंकि जो काम वह नहीं कर पा रहे हैं, कम से कम ब्लॉग वाले कर पा रहे हैं.

    राज सिंह, मुंबई

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  5. 'हमारी नज़र में तो ऐसा कोई शस्त्रार्थ नहीं आया जिसमें एक ओर शास्त्री हो, दूसरी ओर बधिक, ख़्वाह वह कविता ही क्यों न लिखता हो.'
    aisa hi ek badhik shashi prakash bhi hai. Meri samajh se ab to Neelabh ko usake bare men kaphi kuchh pata chal gaya hoga. Neelabh ji abhi bhi aap ki kitab Katyayani ke yahan se chhap rahi hai. Aisa kyon aisa Dogalapan kyon? saf keejie.
    -Aap ki aur shashi prakash ki kavitaon ka ek prashansak

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  6. एक आलोचक रांची सेFriday, July 30, 2010

    प्रशंसक महोदय, शशि प्रकाश और कत्यायीनी प्रकरण पर नीलाभ का लेख देखें, उन्होंने कहा है, हमारी किताब छपी है मगर मैं उनकी राजनीति का कभी समर्थक नहीं रहा. भूलिए मत वह लोग प्रकाशन के ही जाल में साहित्यकारों को फांस रहे हैं.और साहित्यकार भी छपवाने में बेदिल हुआ जाता है.

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  7. अरुण कुमारFriday, July 30, 2010

    We must keep in mind the poem written by Rev. Martin Nimolar

    First they came for the Communists,
    and I didn’t speak up, because I wasn’t a Communist.
    Then they came for the Jews,
    and I didn’t speak up, because I wasn’t a Jew.
    Then they came for the Catholics, and I didn’t speak up,
    because I was a Protestant.
    Then they came for me,
    and by that time there was no one left to speak up for me.

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  8. प्रगति सक्सेना, जेएनयूFriday, July 30, 2010

    कोई यह तो बताये की विश्रंजन आ रहे कि नहीं. आखिर प्रतिपक्ष में कौन होगा. परम्परा तो यही रही है.

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  9. इस लेख पर नीरज पासवान की टिप्पणी के सन्दर्भ में - अगर आप यह समझ रहे हैं कि नीलाभ ने राजेंद्र यादव को बधिक कहा है तो आपको लेख दुबारा देखना चाहिए. बधिक उन्हें कहा गया है जो आदिवासियों की हत्या को जायज ठहरा रहे हैं.

    बहरहाल हम जिस बात को लेकर आपसे सफाई देना चाहते हैं, वह भी 'बधिक' ही है. शीर्षक मैंने ही लगाया है इसलिए मैं अपनी गलती मानते हुए उस पुरे समाज से माफ़ी चाहता हूँ जिसके लिए सवर्ण समाज 'हत्या और हत्या के सन्दर्भों में' बधिक या कसाई शब्द का बेधड़क उपयोग करता है. हो सकता है इसी वजह से मेरा ध्यान न गया हो और दूसरे शब्द के इस्तेमाल की जरूरत न लगी हो.

    हम अपने पाठकों को आश्वस्त करते हैं कि भविष्य में ऐसे जातीय शब्दों के इस्तेमाल से परहेज बरतेंगे. ऐसी गलतियों पर पाठकों की प्रतिक्रिया के हम हमेशा शुक्रगुजार होंगे.

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  10. wah neeraj paswanji, kya khoob hai! ek desh hai jahan ke niwasiyon ne apne logon par huye hitler ki atyachar ko poonji bana liya aur uska istemal kar doosron par khoob jurm dhata hai. hume utpeerit kya gaya hai hume log jine nahi denge isiliye hame jurm dhakar apna astitva banaye rakhna hai. chalo kisi tathakhatit dalit, OBC se aye vyakti ki alochna na ki jaye. uski jati ka sadiyon se utpirit hone ka poonji jo uske pass hai. gandhi aur nehru aur indira ko kya savarna log gali nahi dete?

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