Dec 28, 2009

भारत पिछड़ा हुआ अमेरिका बन चुका है

समाजशास्त्री आशीष नंदी से अजय प्रकाश  की  बातचीत

पिछले दिनों आपने लिखा था कि हमारी त्रासदी है कि हम दुख की भाषा भूल गये हैं, क्या समाज एक सुख-भ्रांति में जी रहा है?

अंग्रेजी में एक कहावत है-'देयर इज नो फ्री लंच'। यानी सब कुछ में कुछ कीमत भरनी होती है। हमारी सामाजिक स्थिति भी ऐसी ही हो चुकी है। यह जो आधुनिकता,तेज आर्थिक विकास,बडे शहरों का तेजी से विस्तार,उपभोक्ता वस्तुओं की भरमार और बेहिसाब बढ़ते करोड़पतियों के बीच हमने जो कुछ खोया है,उसका कोई अफसोस हमारे समाज में नहीं दिख रहा है। प्रगति की चाहत में हम लगातार बेसुध होकर दौड़ रहे हैं, लेकिन कहां दौड़ रहे हैं, दौड़ने में किन चीजों को पीछे छोड़ दिये हैं, कौन लोग राह में रह गये हैं, इसे न देखते हैं और न ही उसके बारे में सोचना चाहते हैं। इसलिए कि उसका दुख या शोक हम अपने पर नहीं लेना चाहते। यह कुछ नयी परिघटना है।


किस रूप में नयी परिघटना है?

जैसे यूरोप आदि के देशों में जब आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण हुआ था तो वहां हर देश कई ख्यातिप्राप्त चिंतक, अर्थशास्त्री, कवि, दार्शनिक कलाकार पैदा हुए। कविता में विलियम ब्लैक, आलोचना में रस्किन, इतिहास में कॉर्ल पलानी, आधुनिकता के पिता कहे जाने वाले कॉर्ल वेबर जैसे विद्वानों की उन देशों में एक लंबी परंपरा रही है। मगर यह परंपरा और ऐसी पीढ़ी हिंदुस्तान में दिख नहीं रही। इसके उलट हम पिछले दौ सौ साल से यह सुन रहे हैं कि हमें यूरोप जैसा बनना पड़ेगा,हम यूरोप जैसा नहीं बन पा रहे हैं इसलिए वे लोग हम पर राज करते आ रहे हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में हम पीछे क्या खो रहे हैं,इसके बारे में हिंदुस्तानी समाज में कोई संवेदनशीलता नहीं दिख रही है।

तो हमारा समाज किस दिशा में आगे बढ़ रहा है?

सब कुछ बुरा ही नहीं हुआ है। बल्कि आजादी के बाद जिन बदलावों के बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे,वे भी हमारे समाज में ही घटित हुए। कोई नहीं सोच सकता था कि हिंदुस्तान में एक दलित महिला मुख्यमंत्री बनेगी,वह भी उत्तर प'देश जैसे राज्य में। पूरे देश के पैमाने पर देखा जाये तो मुख्यमंत्रियों में बहुसंख्यक पिछड़ी जातियों से हैं। इसे मैं भारतीय समाज में एक बड़े बदलाव के रूप देखता हूं।

लेकिन इसी के साथ सामाजिक विभाजन भी बढ़ा है?

ऐसा इसलिए हुआ है कि हमारे यहां लोकतंत्र के वास्तविक मूल्यों को मानने वाले कम और ढोंग या पाखंड करने वाले ज्यादा हैं। अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहकर पीठ थपथपाने वाले नेताओं का बड़ा सच यह है कि वोट के लोकतंत्र का इस्तेमाल वे जातीय विभाजन को बढ़ाने में कर रहे हैं। कई मामले में ऐसा हुआ है कि जहां जातीय फासले नहीं थे,वहां भी माहौल बना दिया गया। राजस्थान के गुर्जर आंदोलन को देखिए तो बाकायदा उनके नेता कहते हैं कि वे चूंकि कबीलों में विश्वास करते हैं और पिछड़े हुए हैं इसलिए उन्हें आदिवासी का दर्जा दिया जाये। ऐसी मांग मैंने पहले नहीं सुनी थी। मगर इसके समानांतर परीधि और हाशिये के जो लोग मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं,उससे हमारे समाज की सर्जनात्मकता व्यापक होगी।

संसद में लगभग चार सौ सांसद करोड़पति हैं, जिनमें से कुछ अरबपति भी हैं। इसके उलट मुल्क की ४० करोड़ से अधिक आबादी को भरपेट अन्न नहीं मिलता। इस अंतर्विरोध को आप कैसे देखते हैं?

ये आंकड़े हम सभी भारतीयों को शर्मिंदा करने वाले हैं। कुछ शर्मिंदा होते भी हैं लेकिन बहुतेरे लोग इसको भूलना चाहते हैं,ढंकना चाहते हैं। हमारे यहां एक तरफ राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियां चल रही हैं और दूसरी तरफ उतनी ही तेजी से झोपड़पट्टियों और गरीब बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है या पहले ही उजाड़ दिया गया है। मेरे लिए ये सब झकझोर देने वाली घटनाएं भी हैं। मैं सोचता हूं,यह कैसा देश है जहां दूसरों के स्वागत के लिए अपने लोगों को तबाह किया जा रहा है। न्यूयार्क, लंदन, शिकागो जैसी जगहों में भी स्लम हैं और हार्लेम तो दुनिया की मुख्य स्लम बस्तियों में से एक है। गौर करने वाली बात है कि अभी हाल ही में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का दफ्तर स्लम की तरफ बनाया गया है। लेकिन क्या हमारा कोई अदना-सा सांसद भी ऐसी किसी बस्ती की तरफ रहना पसंद करेगा।
जाहिर है, हमारा शासक वर्ग सिर्फ स्लम को ही नहीं ऐसी हर समस्या को, जिसको वह नहीं चाहता है,भुला देना चाहता है नहीं तो ढंक देना चाहता है। यह हिंदुस्तानी शासक वर्ग की कार्यशैली की सामान्य आदत है कि जिसे वह नहीं चाहता है, मुख्य सामाजिक दायरे से उठाकर फेंक देता है। दूसरी बात यह कि जिन मुद्दों या मुल्कों को हम नहीं पसंद करते, पहले तो हम उन पर बात ही नहीं करते,अगर बात करने को तैयार भी हुए तो उनका अध्ययन तो कत्तई नहीं करना चाहते। उदाहरण के तौर पर, अमेरिका में विजिटिंग कार्ड पर इस्लाम लिखकर कोई शोध का काम आप पा सकते हैं,लेकिन हिंदुस्तान के शिक्षा संस्थानों में पाकिस्तान के अध्ययन के लिए एक अच्छा विभाग नहीं है। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में इसके लिए एक छोटा-मोटा विभाग था,वह अब और भी खराब हो गया है। हमेशा चिल्लाते हैं कि हमें सबसे बड़ा खतरा पाकिस्तान से ही है,मगर अभी तक उस मुल्क के बारे में सिलसिलेवार और व्यापक अध्ययन का एक भी केंद्र भारत में नहीं है। सिर्फ इसलिए कि हम उसे नहीं चाहते। हमारी एक मान्यता बन गयी कि वह मुल्क खराब है इसलिए पाकिस्तान के बारे में जानने को क्या रह गया है!

समाज विज्ञानी होने के नाते आपकी दृष्टि में भारतीय मध्यवर्ग की क्या भूमिका होने वाली है?

हर देश के मध्यवर्ग से कुछ ऐसे लोग निकलते हैं जो इन विषम स्थितियों में नये विकल्प और संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। यह वर्ग दिग्दर्शन भले ही न करे, मगर समाज को संकेत देता है, कुछ सूत्र बताता है। लेकिन हमारे मध्यवर्ग की यह क्षमता कमजोर हुई है। इसका कारण मुझे मध्यवर्ग में शामिल हुए वे नये लोग लगते हैं जो लोकतंत्र में सफलता के किस्सों की तरह हैं। लोकतंत्र की अपनी विशेषताओं की वजह से हमारे यहां इस वर्ग का दायरा बड़ा हो गया है। पिछले 40-45वर्षों से मध्यवर्ग में नब्बे प्रतिशत से अधिक उंची जातियां शामिल थीं,लेकिन इस वक्त मध्यवर्ग में आधी आबादी निम्न मध्यवर्ग की है। इसलिए इस तबके का समाजीकरण पूरा नहीं हो पाया है। नतीजा यह हुआ कि पुराने मध्यवर्ग का जो मानक था उसके हिसाब वे अब चलते नहीं हैं।
पहले मध्यवर्ग के घरों में जाने पर शास्त्रीय गायकों के भी कैसेट मिल जाया करते थे, दो-चार स्तरीय किताबें भी बुकशेल्फ में हुआ करती थीं,लोग सत्यजित राय का भी नाम जानते थे। बताने के लिए ही सही, उनके यहां मूल्यों को बचाने वाली ऐसी चीजें मिल जाया करती थीं। इस ढोंग में भी पुरानी अच्छी चीजों को बचाये रखने का एक मूल्य था। लेकिन अभी जो मध्यवर्ग आया है,इसमें वह लिहाज भी नहीं है। उपभोक्तावाद और चौबीस घंटे का मनोरंजन इसकी फितरत बन चुकी है। कहने का मतलब यह कि जो नया मध्यवर्ग उभरकर आया है उसके सांस्कृतिक मूल्य उस वर्ग के नहीं हैं, सिर्फ आर्थिक स्थिति बेहतर होने की वजह से वह मध्यवर्ग का हो गया है। एक संस्कृति-संपन्न मध्यवर्ग बनने के लिए कम से कम दो पीढ़ियों की जरूरत है। यही असल समस्या है भारतीय मध्यवर्ग की।

क्या संपन्न तबके के इस रवैये से समाज में वंचित तबकों का हिंसा में लगातार भरोसा बढ़ रहा है?

यह हो रहा है और आश्चर्यजनक ढंग से,तेजी से हो रहा है। पहले समाज का पढ़ा-लिखा आदमी सामाजिक समस्याओं पर सोचता था,गांव के गरीबों,वंचितों की भलाई हो इसमें अपनी ऊर्जा लगाता था। आज संपन्न तबके के बीच 'इन बातों को छोड़ो और भूल जाओ' का सामाजिक चलन बढ़ता जा रहा है। उन्हें लगता है कि बेजवह उनकी खुशहाल जिंदगी में वंचित लोगों के बारे बात कर बोझिल बनाया जा रहा है। वे उपभोक्तावादी जीवन में इतना रचबस गये हैं कि उन्हें और कुछ भी मंजूर नहीं।
कई स्तरों की समस्याओं से जूझ रहे हमारे देश के मध्यवर्गीय परिवारों में आम बात है कि वे बच्चों को अमेरिका-इंग्लैड भेजना चाहते हैं। लोग पहले भी विदेश जाते थे,मगर देश में वापस आकर कुछ करना है, इस बारे में भी सोचते थे। फिलहाल हालत यह है कि जो देश में भी है, वह विदेश के सपनों और साधनों में जीता है, जो चले गये हैं उनके वापस आने की बात कौन करे! मां-बाप को भी लगता है कि उनके बच्चों को संपूर्ण सुरक्षा मिल गयी है और उनका सामाजिक स्तर ऊपर उठ गया है।
मौजूदा सामाजिक स्थिति और मध्यवर्ग की बदलती सोच का दो टूक सच यह है कि भारत एक पिछड़ा हुआ अमेरिका या यूरोप बन चुका है। ऐसे में मध्यवर्ग बस इतने की तैयारी में लगा है कि जब तक भारत यूरोप या अमेरिका नहीं बनता, तब तक सिर्फ उन देशों में जाने वालों की पौध तैयार करते रहो।




द पब्लिक एजेंडा से साभार

Dec 26, 2009

झारखण्ड से के.एन.पंडित गिरफ़्तार

विस्थापन विरोधी जनविकास आन्दोलन के केन्द्रीय संयोजक के.एन.पंडित को रांची पूलिस ने 23 दिसम्बर गिरफ्तार कर लिया है. उन्हें दमनकारी कानून 'गैरकानूनी गतिविधी निरोधक कानून' के तहत हिरासत में लेकर जेल भेज दिया गया है.



झारखण्ड में चुनाव मतपेटियां खुलते ही लोकतन्त्रिक पर्व की समाप्ति हो गई। चुनावी खेल में राजनैतिक दलों को पैसा मुहैया कराने वाले धन कुबेरों और बड़े पूजिपतियों को खुश करने की कार्रवाई शुरू हो गई है। जल-जंगल-जमीन बचाने के चुनावी वायदों को रद्धी की टोकरी में फेंक जनपक्षीय लोगों और सामाजिक कार्यकत्ताओं को चुपचाप रहने की चेतावनी देते हुए सरकारी मशीनरी ने झारखण्ड़ के वरिष्ट जुझारू ट्रेड़ यूनियन नेता पंडित को गिरफतार कर लिया ताकि जनता के हक हकूक के लिए खासतौर पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और बड़े पूजिपतियों द्वारा किये जा रहे जमीन अधिग्रहण के खिलाफ लड़ाई को दमन द्वारा मौन किया जा सके।

यह गिरफतारी केन्द्र सरकार द्वारा जनता पर छेड़े गए युद्ध का ही हिस्सा है जिसके तहत सरकार भारत की प्राकृतिक सम्पदा को साम्राज्यवादी हाथों में सौंपने के लिए जंगल-जंगलात में बसने वाली जनता, खासतौर पर आदिवासियों को सैन्य हमले कर उजाड़ने की साजिष कर रही है। झारखण्ड में चुनावों के दौरान प्रतिनियुक्त की गई अर्ध सैन्य बलों की 225 कंपनियों को झारखण्ड में ही तैनात कर जनता की खिलाफ सैन्य अभियान शुरू करने का फैसला केन्द्र सरकार ने कर लिया है। झारखण्ड के तमाम जनवादी सोच वाले लोगों ने सैन्य मुहिम की खिलाफत की है। सैन्य अभियान का मुखर विरोध करने वालों में के.एन.पंडित अग्रणी भूमिका में थे। उन्होंने 4 दिसम्बर को दिल्ली में आयोजित जनता पर युद्ध के खिलाफ गोष्ठी में कड़े शब्दों में सरकार की निंदा की थी और युद्ध के खिलाफ लड़ने का आह्वान किया था।

पूर्व में भी झारखण्ड़ में बाबुलाल मरांडी सरकार द्वारा 3200 लोगों खासतौर आदिवासियों पर पोटा लगाए जाने के विरोध में बने पोटा विरोधी मोर्चा में उन्होने हिस्सेदारी की थी। विस्थापन के विरूद्ध लड़ाई हो या राजनैतिक बंदियों को रिहाई का मसला वे हमेशा जनता के हक में खड़े होकर अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे हैं।

विस्थापन विरोधी जन विकास आन्दोलन तमाम जनवाद पसन्द जनता और बुद्धिजीवियों को आह्वान करता है कि के.एन. पंडित की रिहाई के लिए आवाज बुलन्द करें और जनता पर चलाए जाने वाले युद्ध का पूरजोर विरोध करें.

साथ ही बहुराष्ट्रीय और बड़े उद्योगपतियों के साथ किये गए तमाम एम ओ यू रद्द किए जाए और जनता पर चलाए जाने वाले सैन्य अभियान को तुरन्त रोका जाए और सभी अर्ध सैन्य बलों को वापिस बुलाया जाए।


प्रेस विज्ञप्ति

विस्थापन विरोधी जन विकास आन्दोलन

Dec 24, 2009

शर्म के मारे बेटे-बहू गांव नहीं आना चाहते हैं

अजय प्रकाश

घर में दो जून का अन्न न हो और बीमारी ऐसी हो जाये जो स्वास्थ के साथ चरित्र भी ले जाये तो परिवार किस हालत में जीता है, वह रामसखी दूबे जानती हैं। वह जानती हैं कि एचआइवी एड्स रोग से बड़ा अभिशाप है। जानती तो सरकार भी है, इसलिए उपाय का दावा भी करती है। लेकिन गांव की दीवारों पर राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको ) ने जो नारे लिखे हैं उनका असर बहुत कम है। हड़हा के ग्रामीण से बात करने पर जाहिर हो जाता है कि रोगी स्वास्थ्य बाद में गंवाता है, रोग का पता चलते ही उसका चरित्र सरेराह चौक- चौराहों पर उछाला जाने लगता है।

हड़हा गांव की बूढ़ी रामसखी के घर में गरीबी पहले से थी फिर भी वह बेटे-बहुओं के साथ जैसे-तैसे जी रही थीं। संतोष इस बात का भी था कि उनकी यह स्थिति अकेले की नहीं है। रामसखी दूबे का यह गांव उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में है जहां की आबादी का आधा से अधिक हिस्सा आधा पेट खाकर सुबह होने का इंतजार करता है। उनका परिवार भी ज्यादातर गांव वालों की तरह प्रशासन के सामने हाथ जोड़कर, दो-चार रूपये थमाने वालों के आगे हाथ फैलाकर और मौका आने पर इन्हीं हाथों को नेताओं की जयजयकार में उठा कर, जीये जा रहा था। यानी वे लोग वर्षों से अन्न की कमी और भूख को भुगत रहे थे। मगर जबसे गांव-समाज को पता चला है कि उनके घर में एचआइवी एड्स के रोगी हैं तबसे वे जिंदगी को भुगत रहे हैं। लेकिन देश के ऐसे हजारों परिवारों की पीड़ा को ‘नाको ’ के 1254 मुख्य केंद्र जो अन्य हजारों नियंत्रण उपकेंद्रों को संचालित करते हैं, कम नहीं कर पा रहे हैं।

रामसखी, उसकी बहू उमादेवी और बेटा नंदलाल दूबे कहते हैं, ‘हमें नहीं याद कि ढंग का अन्न खाने को कब मिला था, मगर लोगों की हिकारत-नफरत हमारी रोज की खुराक बन गयी है।’ चित्रकूट जिले के बरगढ़ क्षेत्र के हड़हा में इस परिवार के साथ हिकारत का यह सिलसिला दो साल पहले उस समय शुरू हुआ था जब नंदलाल दूबे की पत्नी उमादेवी अपने दो वर्षीय बेटे अंकित के इलाज के लिए इलाहाबाद गयी थीं। उमादेवी बताती हैं कि, ‘बेटे अंकित के बुखार में मैंने कई हजार रूपये गवां दिये और बेटा मरने की हालत में पहुंच गया तो मैंने डॉक्टर को जान से मारने की ठान ली। तब जाकर डॉक्टर ने जांच की और पता चला कि मेरा बेटा एचआइवी पॉजिटिव है।’ रामसखी के घर में एचआईवी पॉजिटिव उजागर ह¨ने का यह पहला मामला था। इसके बाद अंकित की मां उमादेवी, बाप नंदलाल दूबे और बहन साक्षी भी जांच में पाजीटिव पाये गये। घर के इन रोगियों का ठीक से अभी इलाज भी नहीं शुरू हुआ था उससे पहले ही रामसखी के दूसरे बेटे फूलचंद दूबे, उसकी पत्नी निशा और बेटी अनु भी पाजिटिव पाये गये। डॉक्टरी जांच में एक ही घर के इन सात व्यक्तियों को एड्स रोगी माना गया है।

इसी गांव की 25 वर्षीय युवती गुड़िया कको भी एड्स है। जबकि उसके पति की इसी रोग से पिछले वर्ष मौत हो गयी थी। एक ही गांव में नौ एड्स ररोगियों की वजह से बाजार में इस गांव का नाम पूछने पर लोग इसे ‘एड्स’ वाला गांव कहते हैं। हड़हा से थोड़ी दूर पर चित्रकूट के बरगढ़ क्षेत्र में ही कोनिया गांव है। इस गांव के रामेश्वर प्रसाद मिश्र के दो बेटों जनार्दन प्रसाद मिश्र, सुरेश प्रसाद मिश्र और उनकी बीबियों कि भी आठ साल पहले इसी बीमारी से मौत हो गयी थी। अब घर में 80 वर्षीय रामेश्वर प्रसाद मिश्र के अलावा उनकी पत्नी और दिमागी रूप से विक्षिप्त एक बेटा है। रामेश्वर प्रसाद मिश्र बताते हैं कि, ‘बेटे मुंबई में रेलवे कैंटीन में काम करते थे। वहां के डॉक्टरों ने बता दिया कि एड्स इतना बढ़ गया है कि अब मरने के इंतजार के सिवा कोई रास्ता नहीं है। फिर तो उसके बाद सुरेश की, फिर जनार्दन की बीवी की और सबसे बाद में सुरेश की बीबी की एक के बाद एक एड्स से मौत हो गयी।’ रामेश्वर प्रसाद की 75 वर्षीय पत्नी कहती हैं, ‘बाकी दो बेटे मुंबई में ही काम करते हैं और घर में हम बुढ़े-बुढ़िया गांव बहिष्कार और लानत-मलानत सहने को मजबूर हैं। शर्म के मारे बेटे-बहू गांव नहीं आना चाहते हैं।’


हालांकि रामसखी का बेटा नंदलाल मुंबई या किसी दूसरे महानगर में नहीं गया था जहां से उसे एड्स का संक्रमण हुआ। वह तो गृहजिले चित्रकूट में गाड़ी चलाने का काम करता था। नंदलाल ने स्वीकार किया कि ‘शादी से पहले एक औरत से शारीरिक संबंध था। लेकिन उसे नहीं पता कि रोग औरत से आया या फिर एक बार टांग टूटने पर खून चढ़ा था उससे। जहां तक घर वालों की बात है तो नंदलाल की बीबी उमादेवी भी पति को ही रोग का सुत्रधार मानती हैं।

उत्तर प्रदेश राज्य एड्स नियंत्रण सोसायटी के अनुसार लगभग डेढ़ लाख लोगों की काउंसिलिंग हुई है और एक लाख से अधिक लोगों की जांच प्रदेश भर में फैले केन्द्रों पर की गयी है। लेकिन जमीनी हकीकत का पता हड़हा, कोनिया के पीड़ितों से चलता है। एड्स पीड़ित नंदलाल ने बताया कि ‘उसके घर में सात मरीज हैं फिर भी इलाज नहीं शुरू हुआ है। केवल सर्वोदय सेवाश्रम के कार्यकर्ताओं की ओर से ही मदद मिल पाती है।’ सर्वोदय सेवाश्रम के सचिव अभिमन्यु सिंह ने बताया कि, ‘इस क्षेत्र में गरीबी, भुखमरी और सूखा ने लोगों के जीवन को पहले से तबाह कर रखा है, अगर सरकार ने बेहतर प्रयास नहीं किया तो एड्स रोगियों की संख्या में इजाफा होने से रोकना मुश्किल होगा।’



रामसखी जिंदगी से कैसे रोज दो चार हो रही है, परिवार में एड्स होने के बाद गाँव समाज कैसा व्यहार करता है........इन बातों को उसकी जुबानी सुनाने के लिए यहाँ क्लिक करें


http://www.youtube.com/watch?v=6E-n8Rge-8o









Dec 22, 2009

पत्रकार है कि आईबी का दलाल



अजय प्रकाश


हिंदी अख़बार दैनिक भास्कर के राष्ट्रीय संस्करण के मुख्य पृष्ठ पर राजेश आहूजा के नाम से आज एक खबर छपी है- 'माओवादियों का 'विदेश मंत्री' था कोबाद'. इस खबर के शीर्षक को लिखने साथ ही राजेश आहूजा इतने उत्साहित हुए हैं कि इंट्रो में लिख पड़तें हैं 'पूछताछ में हुआ खुलासा, भाकपा (माले) के कई देशों से बनाये संपर्क'. पत्रकार ने अपनी कलम से सीपीआइ (माओवादी) के महासचिव गणपति को भाकपा (माले) के प्रमुख नेताओं में शामिल कर दिया है. सीपीआइ (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य कोबाद गाँधी को भाकपा ( माले) का नेता बनाने वाले राजेश आहूजा ने रिपोर्ट में आगे क्या गुल खिलाया है उसके लिए यहाँ उनकी खबर को स्कैन कर चिपका दिया है.


स्कैन कॉपी पढकर अगर आपके मुंह से निकल जाये कि 'पत्रकार है कि आईबी का दलाल'तो अपने मुंह पर ताला न लगाइयेगा. काहे कि हम अंडरवियर-बनियान के विज्ञापनों के बीच लिखने वाले पत्रकारों  की जो औकात बची वह भी गायब हो जाएगी.  डर है कि जो मीडिया मालिक आज हमें जवानी जगाने के तेलों और दवाओं के बीच लिखने -बोलने की जगह दे रहे हैं, वह हमारी चुप्पी से उत्साहित होकर कहीं कल को तेल बेचने के लिए न पकड़ा दें.

दरअसल अकेले राजेश आहूजा की सत्ता प्रतिष्ठानों को तेल लगाने और दलाली खाने का नमूना भर नहीं है बल्कि उस पेज के लिए जिम्मेदार पेज इंचार्ज, संपादक समेत उन सभी लोगों की चाहत का नतीजा है जो मालिकों के चहेते हैं.


Dec 17, 2009

‘नरसिंह राव की भूमिका संदिग्ध थी’

बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पीवी नरसिंह राव सरकार से इस्तीफा देने वाले इकलौते कैबिनेट मंत्री माखनलाल फोतेदार से अजय प्रकाश की बातचीत


बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड की जांच कर रहे लिब्रहान आयोग ने कभी आपको गवाह के तौर पर बुलाया ?

सत्रह वर्षों की जांच प्रक्रिया के दौरान आयोग ने अगर एक दफा भी मुझे बुलाया होता तो रिपोर्ट में यह जानकारी सार्वजनिक हुई होती। उन्होंने क्यों नहीं बुलाया यह बताने में मेरी दिलचस्पी नहीं है। मैं इतना भर कह सकता हूं कि अगर कोई बात इस संदर्भ में आयोग ने हमसे की होती तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव का जो सुघड़ चेहरा रिपोर्ट पेश होने के बाद देश के सामने उजागर हुआ है, वह सबसे अधिक दागदार होता।

आप मानते हैं कि संघ और भाजपा विध्वंस के लिए जितने जिम्मेदार हैं उससे कत्तई कम दोषी नरसिंह राव नहीं हैं?

मैं तुलनात्क रूप से विध्वंस की जिम्मेदारी नरसिंह राव पर तो नहीं डालता, लेकिन मानता हूं कि राव चाहते तो वो उस धार्मिक उन्माद को टाल सकते थे जिसकी वजह से मस्जिद टूटी और देश एक बार फिर आजादी के बाद दूसरी बार इतने बड़े स्तर पर सांप्रदायिक धड़ों में बंट गया।

नरसिंह राव कैसे टाल सकते थे?

राव से हमने जून में ही कहा था कि जो लोग इस बलवे का माहौल बना रहे हैं, उनसे आप शीघ्र  बात कीजिए। मेरा जाती तजुर्बा है कि ये मसले कोई भी अदालत तय नहीं कर सकती। यह बात चूंकि मैंने कैबिनेट में कही थी इसलिए उन्होंने मान ली। लेकिन दूसरे ही दिन मेरी अनुपस्थिति में कई दौर की बैठकें चलीं और तय हो गया कि छह दिसंबर तक कुछ भी नहीं करेंगे, जब तक अदालत का फैसला नहीं आ जाता।

क्या नरसिंह राव को स्थिति बेकाबू होने का अंदाजा नहीं था?

अंदाजा क्यों नहीं था। मैं नवंबर में उत्तर प्रदेश  के दौरे पर गया था। साथ में प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी भी थे। पूर्वी और पष्चिमी उत्तर प्रदेके पांच जिलों में जलसे किये। गोरखपुर से लेकर गाजियाबाद तक मुस्लिमों के बीच जो भय का माहौल दिखा वह हैरत में डालने वाला था। हमारे साथी और कांग्रेसी नेता नारायण दत्त तिवारी ने एक चर्चा के दौरान मुझे बताया कि कल्याण सिंह का मेरे घर के बगल में एक घर है। वहां जोर-शोर से रंगाई-पुताई का काम चल रहा है और सभी कह रहे हैं कि जैसे ही 6 दिसंबर को मस्जिद टूटेगी, वे इस्तीफा यहीं बैठकर देंगे। नारायण दत्त ने जोर देकर कहा कि मैं कई बार राव साहब से कह चुका, जरा आप भी उनका ध्यान इन तैयारियों की तरफ दिलाइए। सुनने में ये बातें गप्प लग सकती हैं, लेकिन इस तरह की हर जानकारियों समेत वहां हो रहे हर महत्वपूर्ण घटनाक्रमों की जानकारी राव तक हर समय पहुंचायी।

यानी तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के इस्तीफे की तैयारी पहले से थी?

बिल्कुल। हमने यही बात तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव से भी कही कि कल्याण सिंह इस्तीफा लेकर बैठे हुए हैं , वह सिर्फ मस्जिद ढहने के इंतजार में हैं। अगर अपने चाल में वे कामयाब होने के बाद इस्तीफा सौंपते  तो सिवाय अफसोस और दंश  झेलने के हमारे मुल्क के पास क्या बचेगा।

कांग्रेस सरकार को इस तैयारी की जानकारी कितने महीने पहले से थी?

बाकी की तो छोड़िए, 6 दिसंबर को ग्यारह बजे दिन में मेरे पास एक वकील दोस्त का फोन आया कि पहली गुंबद कारसेवकों ने ढहा दी है। उसके ठीक बाद प्रेस ट्रस्ट के विशेष संवाददाता हरिहर स्वरूप का फोन आया कि कारसेवक मस्जिद में घुसने लगे हैं। फिर मैंने तत्काल नरसिंह राव से बात की और कहा कि जो हमने पहले कहा, वह तो हो नहीं पाया लेकिन अब भी समय है कि सरकार को तुरंत बर्खास्त कर हथियारबंद फौंजें तैनात कर दीजिए। अभी सिर्फ एक ही गुंबद टूटा है। हम मस्जिद को बचा ले गये तो भविष्य हमें इस रूप में याद रखेगा कि एक लोकतांत्रिक सरकार ने हर कौम को बचाने की कोशिश की।

शायद आप उस दिन इस सिलसिले में राष्ट्रपति  से भी मिले थे?

जब साफ़ हो गया कि  प्रधानमंत्री कान नहीं दे रहे हैं तो तत्कालीन राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा से मैं साढे़ पांच बजे शाम को मिलने गया। मैं उनसे कुछ कहता, उससे पहले ही वे बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोने लगे। बातचीत में उन्होंने बताया कि अभी राज्यपाल आये थे लेकिन वे बता रहे थे कि नरसिंह राव ने उन्हें निर्देश दिया है कि वह तब तक बर्खास्तगी रिपोर्ट उत्तर प्रदेश सरकार को न भेजें जब तक वे नहीं कहते। इसी बीच राष्ट्रपति  के पास संदेश आया कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया।

बहरहाल शाम छह बजे कैबिनेट की आकस्मिक बैठक में मुझे पता चला कि मस्जिद गिरा दिये जाने के अपराध में कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त किया जा रहा है। तब मैंने कहा कि उसने अपना काम पूरा करके सरकार के मुंह पर इस्तीफा फेंक दिया है।


नरसिंह राव कैबिनेट में और कौन मंत्री थे, जिन्होंने आपका बाबरी मस्जिद मसले पर आपका साथ दिया था?

नाम मैं किसी का नहीं ले सकता। मगर इतना तो था ही जब कभी भी मैंने यह मसला कैबिनेट के बीच या मंत्रियों से आपसी बातचीत में लाया तो किसी ने कभी विरोध नहीं किया।

नरसिंह राव की भूमिका का जो सच इतना बेपर्द रहा है, वह जांच करने वाले कमीशन लिब्रहान को क्यों नहीं सूझा?

मैं सिर्फ इतना कहता हूं कि यह आयोग नरसिंह राव की संदिग्ध भूमिका को झुठला नहीं सकता।

कहा जा रहा है कि कभी कांग्रेस नेतृत्व के साथ बैठने वाले फोतेदार हाशिये पर हैं। इसलिए नरसिंह राव पर आपकी बयानबाजी राजनीतिक लाभ की जुगत भर है?

अगर इस जुगत से समाज के सामने एक सच खुलता है तो हमें कहने वालों की कोई परवाह नहीं है।

Dec 15, 2009

जंजीर खुलवा दो गुरु, जरा चौराहे से हम भी हो आयें


अजय प्रकाश

जंजीर से बंधा आदमी बुन्देलखंड के मटौंध गाँव का है. गाँव के किसी आदमी को इसके बंधे रहने से कोई ऐतराज नहीं है. लोग कहते हैं जिंदगी व्यहार से चलती है, आदर्श से नहीं. इसलिए बंधे आदमी को खुला क्यों नहीं कर देते, जैसे सवालों को लोग अव्यावहारिकता कहतें हैं और इस पर बहस करने को फ़िज़ूल का आदर्शवाद.

जंजीर में बंधे आदमी के पास घुरिया रहे बच्चे बतातें हैं जबतक यह पागल बंधा रहता है, इसकी पत्नी चैन से काम कर पाती है, गाँव में भी हो हल्ला नहीं होता. जंजीर में बंधे आदमी के घर में पत्नी के सिवा कोई और नहीं है. संयोग से  उस वक्त घर पर वह अकेले था. उसने बताया कि उसकी बीवी खाने का जुगाड़ करने गयी है. फिर उसने नज़दीक बुलाकर कहा, 'जंजीर खुलवा दो गुरु, जरा चौराहे से हम भी हो आयें.'
आसपास खड़े बच्चों से ही पता चला कि मटौंध के दुसरे छोर पर एक और पागल है जो इसी तरह जंजीरों में बंधा रहता है. बच्चों की बात पर गाँव के बड़े भी हामी भरते हैं. लेकिन वे लोग इन पागलों को जंजीरों में बांधे जाने को बेहद जरूरी मानते हैं. परिवार वाले गाँव वालों की तू-तू ,मैं-मैं से बचने के लिए दिमागी रूप से असंतुलित अपने लोगों को जंजीरों में बांधे रखना ही अंतिम माकूल दवा मानते हैं.


इलाज़ के लिए क्या प्रयास हुआ के जवाब में पड़ोसियों में एक ने बताया कि , 'गरीब आदमी है, भरपेट खाना मिल जाये वही बड़ी बात है. ' जबकि दुसरे का कहना था, ' गया था एक बार पागल खाने. मगर वहां से भी भागने लगा तो दरबानों ने इतना मारा कि कई महीनों तक चम्मच से पानी पिया. इसलिए अब इसकी पत्नी बांधने को ही इलाज मान चुकी है. '

मटौंध, गाँव से ऊपर उठकर कई साल पहले नगर पंचायत की श्रेणी में आ चुका है. मटौंध बुन्देलखंड के अन्य गावों की तरह दरिद्र नहीं लगता. हर तरफ सड़कों का जाल फैला हुआ है. यहाँ पुलिस, प्रशासन और नेताओं का आना जाना आम है.

गाँव वाले कहतें हैं, ' इस पागल को किसी के सिफारिश की जरूरत नहीं है. खुद ही फर्राटेदार हिंदी- अंग्रेजी बोलता है, भैया बीएसी पास है. गाँव में जो भी आता है उससे गुटखा के लिए एक रुपया मांगता है और जंजीर खोलने के लिए कहता है. लोग रूपया पकड़ा कर, जंजीर खुलवा देंगे का वादा कर चले जातें हैं. यह आज से तो है नहीं. आप भी एकाध रूपया दे कर निकलिए कि.........................'!