Nov 2, 2009

शांति के लिए भूख हड़ताल के दस वर्ष

शान्ति की सुगंध


इरोम शर्मिला



जब यह जीवन समाप्त हो जायेगा

तुम मेरे मृत शरीर को

ले जाना

रख देना फादर कूब्रू की धरती पर


आग की लपटों में

अपने मृत शरीर को राख किये जाने

उसे कुल्हाडी और कुदाल से नोचे जाने का ख़याल

मुझे ज़रा भी पसंद नहीं



बाहरी त्वचा का सूख जाना तय है

उसे ज़मीन के नीचे सड़ने देना

ताकि वह अगली पीढियों के किसी काम आये

ताकि वह किसी खदान की कच्ची धातु में बदल सके


वह मेरी जन्मभूमि कांगलेई से

शान्ति की सुगंध बिखेरेगी

और आने वाले युगों में

समूची दुनिया में छा जायेगी
 
                                                                                                      (अनुवाद- मंगलेश डबराल)

2 comments:

  1. सचमुच बेहतरीन। अंदर तक झकझोर देने वाली कविता है। मेरे पास शब्द नहीं इसकी तारीफ के लिए।

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  2. इरोम शर्मिला के संघर्ष की तुलना अभी किसी के संघर्ष से नहीं की जा सकती। भले ही पूर्व में ऐसे संघर्षशील लोग आये होंगे, आंदोलन किया भी लोगों ने अपनी जानें देकर, लेकिन अभी म्यांमार की सू की से भी बड़ा संघर्ष मुझे लगता है कि इरोम कर रही हैं। एक बार संदीप पांडेय जी के लेख मुझे इरोम को और जानने को आकर्षित किया था। फिर कुछ पढ़ा उनके बारे में... बहुत ही आश्चर्य होता है मुझे केंद्र पर, जो यह जानती है कि मणिपुर में सशस्त्र सुरक्षा (?) बलों को विशेष अधिकार प्राप्त होने का कितना भयंकर खामियाज़ा वहां के लोग भुगत रहे हैं, फिर भी इस अमानवीय कानून तो वापस नहीं लिया जा रहा है। सवाल खड़ा होना चाहिए कि आखिर सरकारें किसके लिए हैं। जब पुलिस को सरेआम कत्ल कर देने का लाइसेंस मिल जायेगा, तो पुलिसवाले किसे छोड़ेंगे। खैर, इरोम की कविता काफी मार्मिक है, जिसमें छुपा दर्द समझने के लायक भी हम लोग अपने भीतर सहृदयता नहीं विकसित कर पाये हैं।

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