इरोम शर्मिला
तुम मेरे मृत शरीर को
ले जाना
रख देना फादर कूब्रू की धरती पर
आग की लपटों में
अपने मृत शरीर को राख किये जाने
उसे कुल्हाडी और कुदाल से नोचे जाने का ख़याल
मुझे ज़रा भी पसंद नहीं
बाहरी त्वचा का सूख जाना तय है
उसे ज़मीन के नीचे सड़ने देना
ताकि वह अगली पीढियों के किसी काम आये
ताकि वह किसी खदान की कच्ची धातु में बदल सके
वह मेरी जन्मभूमि कांगलेई से
शान्ति की सुगंध बिखेरेगी
और आने वाले युगों में
समूची दुनिया में छा जायेगी
(अनुवाद- मंगलेश डबराल)
सचमुच बेहतरीन। अंदर तक झकझोर देने वाली कविता है। मेरे पास शब्द नहीं इसकी तारीफ के लिए।
ReplyDeleteइरोम शर्मिला के संघर्ष की तुलना अभी किसी के संघर्ष से नहीं की जा सकती। भले ही पूर्व में ऐसे संघर्षशील लोग आये होंगे, आंदोलन किया भी लोगों ने अपनी जानें देकर, लेकिन अभी म्यांमार की सू की से भी बड़ा संघर्ष मुझे लगता है कि इरोम कर रही हैं। एक बार संदीप पांडेय जी के लेख मुझे इरोम को और जानने को आकर्षित किया था। फिर कुछ पढ़ा उनके बारे में... बहुत ही आश्चर्य होता है मुझे केंद्र पर, जो यह जानती है कि मणिपुर में सशस्त्र सुरक्षा (?) बलों को विशेष अधिकार प्राप्त होने का कितना भयंकर खामियाज़ा वहां के लोग भुगत रहे हैं, फिर भी इस अमानवीय कानून तो वापस नहीं लिया जा रहा है। सवाल खड़ा होना चाहिए कि आखिर सरकारें किसके लिए हैं। जब पुलिस को सरेआम कत्ल कर देने का लाइसेंस मिल जायेगा, तो पुलिसवाले किसे छोड़ेंगे। खैर, इरोम की कविता काफी मार्मिक है, जिसमें छुपा दर्द समझने के लायक भी हम लोग अपने भीतर सहृदयता नहीं विकसित कर पाये हैं।
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