Apr 24, 2011

ऊर्जांचल से फिर उजड़ने का खौफ


पावर प्लांट के सर्वे के लिए प्रशासन लेखपाल, कानूनगो और एसडीओ की टीम तो भेजता रहा है, लेकिन यहां के आदिवासियों और अन्य वन आश्रित जातियों को वनाधिकार कानूनों   के तहत हक देना उसे गैरजरूरी लगता  रहा है...

दिनकर कपूर

उत्तर प्रदेश  सरकार ने बभनी में 1980 मेगावाट का पावर प्लांट लगाने की घोषणा की है। इस पावर प्लांट के लिए बभनी गांव के डगडउआ टोला, देवना टोला, डूभा ग्रामसभा के सवंरा, डूभा, ग्वाहान टोला, बरवें ग्रामसभा के खैरा, झोझवां, बरवें टोला, सतवहनी ग्रामसभा का सालेनाल, और धधरी ग्रामसभा की करीब 625 हेक्टेयर यानी 2500 बीघा जमीन सरकार द्वारा अधिग्रहित की जानी है।

उजड़ने का डर : संघर्ष ही रास्ता

सोनभद्र विद्युत उत्पादन निगम के नाम से गठित नयी कम्पनी द्वारा कोयला आधारित इस पावर प्लांट को पहले सरकार द्वारा पब्लिक प्राइवेट पाटर्नरषिप में बीजपुर के पास दोपहा में लगाने की योजना थी, पर केन्द्र सरकार द्वारा सिंगरौली क्षेत्र में नयी विद्युत परियोजना को लगाने से अनुमति देने से इंकार करने के बाद इस परियोजना को बभनी में लगाने का निर्णय किया गया। इस परियोजना के लिए सर्वे का कार्य शुरू होते ही ग्रामीणों और आदिवासियों ने इस परियोजना को लगाने से पूर्व विस्थापन नीति की घोषणा और धारा बीस की जमीन पर वनाधिकार कानून के तहत पट्टा देने की मांग पर जन संघर्ष मोर्चा के नेतृत्व में अपना विरोध भी शुरू कर दिया है।

पिछले दिनों बभनी में जन संघर्ष मोर्चा की ओर आयोजित कार्यक्रम में मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि देश   में आज भी अंग्रेजों द्वारा 1894में बनाया भूमि अधिग्रहण कानून ही काम कर रहा है। जिसके जरिए आजाद भारत की सरकारें किसानों से जबरन भूमि का अधिग्रहण कर रही है। लेकिन इस इलाके यह नहीं होने दिया जायेगा। इस कानून को रद्द कराने के लिए और बिना किसानों की सहमति से जमीन लेने के प्रयास के खिलाफ जनांदोलन खड़ा किया जायेगा।

इस पावर प्लांट से एक बार फिर इस क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों और आम नागरिकों के सामने विस्थापित होने का खतरा पैदा हो गया है। इस जनपद में पूर्व में रिहन्द बांध, अनपरा, ओबरा, हिण्ड़ालकों, बीजपुर, एनटीपीसी समेत तमाम परियोजनाएं लगायी गयी और इनसे लाखों की संख्या में आदिवासी और अन्य लोग विस्थापित हुए। आज स्थिति यह है कि उनसे किए लिखित समझौतें तक लागू नहीं किए गए। रिहन्द बांध बनते समय देष के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने बांध से हुए विस्थापित परिवारों से वायदा किया था कि वह कहीं भी ऊंची जमीन देखकर वहां बस जाएं, उन जमीनों पर उन्हें  मालिकाना अधिकार मिल जायेगा, पर आज तक यह नहीं हुआ।

मौजूदा समय में भी रिहन्द विस्थापित परिवारों को गर्वमेंट ग्रांट के पट्टों से ही काम चलाना पड़ता है। म्योरपुर ब्लाक के चेरी, झिल्लीमहुआ, बडहोर जैसे करीब 13 गांव जिनमें रिहन्द विस्थापित बसे हैं तो आज भी वन गांव ही हैं। यहीं नही परियोजनाओं के लगने के बाद भी यहां के ग्रामीण क्षेत्र का विकास भी उपेक्षित ही रहा है। जबकि इस क्षेत्र के पिछड़ेपन के कारण यहां लगी औद्योगिक इकाइयों को तमाम तरह की सरकारी छूट भी मिलती रही है। हालत तो यह है कि पूरे देष को सर्वाधिक बिजली देने वाले इस दुद्धी तहसील के गांवों में आज भी बिजली नहीं है। वहीं इन परियोजनाओं से होने वाले प्रदूषण ने यहां के आमनागरिकों के जीवन को गहरे संकट में डाल दिया है।

स्थिति इतनी बुरी है कि इस क्षेत्र में पावर प्लांट के सर्वे के लिए प्रशासन लेखपालों,कानूनगो और एसडीओ की टीम तो भेजता रहा है, लेकिन यहां के आदिवासियों और अन्य वन आश्रित जातियों को वनाधिकार कानून के तहत हक देना नागवार गुजरता है। बड़े पैमाने पर वनाधिकार कानून के तहत जंगल की जमीन पर मालिकाना हक के लिए दाखिल आदिवासियों के दावों को प्रषासन ने खारिज कर दिया है। बसपा के स्थानीय विधायक सीएम प्रसाद तो जंगल की जमीन पर बसे इन आदिवासियों और रिहन्द विस्थापितों को अवैध अतिक्रमणकारी कहते हैं।

संसद से पारित कानूनों के लागू होने की हकीकत इन उदाहरणों से देखी जा सकती है। बभनी गांव में ही 850 लोगों ने वनाधिकार कानून के तहत दावा किया था जिसमें से मात्र 17 लोगों को ही पट्टा मिला वह भी उनके द्वारा कुल काबिज जमीन से बेहद कम। इसी गांव के विस्थापित होने वाले डगडउआ टोला की तो स्थिति और भी खराब है यहां मुख्यतः गोंड,खरवार आदिवासी जाति के परिवार है यहां 220 दावा फार्म भरा गया था जिसमें से मात्र 3 लोगों को पट्टा दिया गया।

सभा को संबोधित करते अखिलेन्द्र प्रताप

विस्थपित हो रहे रामनारायण गोंड कहते हैं कि ‘यदि हमें वनाधिकार कानून के तहत अधिकार नहीं मिला तो कल विस्थापन के समय हमें इन जमीनों का मुआवजा भी नहीं मिलेगा। गांव के बुजुर्ग गजराज सिंह गोंड कहते हैं कि हम आदिवासी तो पुरखों से इन जमीनों पर काबिज है जंगल विभाग कब मालिक बन बैठा हमें नही मालूम आज लम्बी लड़ाई के बाद इन जमीनों पर मालिकाना हक के लिए एक कानून भी बना तो उसें भी लागू करने को सरकार तैयार नही है।

इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे जन संघर्ष मोर्चा के प्रदेष प्रवक्ता गुलाब चंद गोंड की राय में ‘बार-बार हुए अन्याय के कारण यहां के आदिवासी और नागरिक अपने अधिकारों के लिए इस पावर प्लांट के लगने से पूर्व सरकार से लिखित समझौता चाहते है।’

सम्मेलन में जुटे हजारों आदिवासियों ने दोनों हाथ उठाकर संकल्प लिया कि जब तक पावर प्लांट के लगने से पूर्व इस क्षेत्र में वनाधिकार कानून के तहत वन भूमि पर काबिज आदिवासी और अन्य परम्परागत वन निवासियों को पट्टा,रिहंद विस्थापित परिवारों को काबिज जमीन पर भौमिक अधिकार,विस्थापित परिवार के सदस्य को परियोजना में स्थायी नौकरी,विस्थापित किसानों को परियोजना में शेयर और विस्थापित जमीन के बदले जमीन उपलब्ध कराने और मुआवजा को लेकर विस्थापन व पर्यावरण की सुरक्षा के लिए स्पष्ट नीति की घोषणा नहीं की जायेगी तब तक किसी भी कीमत पर एक इंच जमीन नहीं दी जायेगी।



...और अब हर्षमंदर के अनुवादक भी गायब


जनज्वार. सुरक्षा बल के जवानों के अत्याचार से पीड़ित गांवों के हालात का जायजा  लेकर खाद्य सुरक्षा सलाहकार  हर्ष मंदर को आये अभी महीने दिन भी नहीं बीते थे कि  फिर एक बार उस क्षेत्र में आदिवासियों पर नए सिरे से जुल्म ढाए जाने का मामला उजागर हुआ है.

गाँधीवादी चिन्तक और मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के अनुसार 'सरकार की ओर से भेजी गयी राहत सामग्री को जहाँ सुरक्षा बलों ने लूट लिया है, वहीं हर्ष मंदर के दौरे के दौरान उनकी  सुविधा के लिए पीड़ितों की बातचीत का गोंडी भाषा से हिंदी में अनुवाद करने वाले दो लोग 6  अप्रैल के बाद से ही लापता हैं .इन दोनों का नाम नूपा मुत्ता और माडवी सुल्ला है.

स्थानीय लोगों के मुताबिक लापता लोगों को सुरक्षा बल इसलिए उठा ले गए हैं क्योंकि उन्होंने हर्ष मंदर को यहाँ के हालात समझने में मदद की थी. साथ ही 11 से 16 मार्च के बीच सुरक्षा बलों के जवानों ने तीन महिलाओं के साथ नहीं, बल्कि 5 के साथ बलात्कार किया था.जिसमे तीन ताड्मेतला और दो मोरपल्ली गावों से हैं.' हिमांशु कुमार को यह जानकारी दंतेवाडा से आज ही लौटे उनके एक साथी ने दी.

मोरपल्ली गाँव में बलात्कार पीड़ित महिला  
 गौरतलब  है कि दंतेवाडा के चिंतलनार इलाके में सुरक्षा बलों के जवानों और सलवा जुडूम के हथियार बंद लोगों ने 11 से 16  मार्च के बीच ताड़मेटला, मोरपल्ली  और  तिम्मापुरम गाँव में हत्या,बलात्कार और आगजनी की थी.  जिसके बाद वहां राहत सामग्री ले जाने का पहला प्रयास सामाजिक कार्यकर्त्ता स्वामी अग्निवेश ने किया, मगर वह असफल रहे. कारण कि राहत सामग्री ले जा रही अग्निवेश की टीम पर पुलिस के इशारे पर सलवा जुडूम के लोगों ने हमला किया था. अबकी बार हर्ष मंदर जाने में इसलिए सफल रहे क्योंकि उनकी सुरक्षा में करीब तीन हजार सुरक्षाकर्मी लगे रहे और उन्होंने  पीड़ित गाँव के दर्शन हवाई मार्ग से किये.  

उसके बाद इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की गयी, जिसके बाद न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिया और बतौर कमिश्नर हर्ष मंदर को दंतेवाडा भेजा गया. हर्ष मंदर ने वहां से लौटकर सौंपी गयी रिपोर्ट में बताया था कि उन गावों में भूख से मरने जैसे  हालात हैं, जिसके बाद राज्य सरकार ने उन क्षेत्रों में राहत सामग्री भेजी थी. उसी राहत सामग्री को सुरक्षा बलों ने लूट लिया है और हर्ष मंदर के सामने जुबान खोलने वालों पर हमले और गाँव में दुबारा लूटपाट शुरू हो गयी है.

हिमांशु कुमार के मुताबिक 'आज हमारे एक साथी ने इन गाँवों से लौटकर बताया है कि घटना में तीन आदिवासी महिलाओं के साथ नहीं, बल्कि पांच महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों द्वारा बलात्कार किया गया है.' दंतेवाडा जिले के मोरपल्ली.,ताड्मेताला और तिम्मापुरम गाँवों के करीब 300घरों को सलवा जुडूम के एसपीओ और सीआरपीएफ़ ने   मार्च  में  जला दिया  था. 

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री   रमन सिंह द्वारा दो अप्रैल को ताड्मेतला गाँव में नाममात्र की राहत सामग्री दी गयी, परन्तु उनके हेलीकोप्टर के वापस उडान भरते ही सुरक्षा बलों ने आदिवासियों को राहत में मिली हुई साड़ियाँ फाड़ दी और उसमे से काफी राहत सामग्री को लूट लिया.

इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर खाद्य सुरक्षा सलाहकार हर्षमंदर ने 6अप्रैल को मोरपल्ली का दौरा किया. हर्षमंदर के ग्रामीणों के साथ बातचीत की सरकार द्वारा वीडियोग्राफी कराई गयी और उनके लिए गोंडी से हिन्दी अनुवाद का काम करने वाले गांव के दो आदिवासियों को सरकार ने उसी दिन पकड़ लिया और वे दोनों आदिवासी अंतिम सूचना मिलने तक लापता हैं.

हर्ष मंदर : अब क्या कहते हैं   
 दूसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय के खाद्य सुरक्षा सलाहकार हर्षमंदर के हेलीकाप्टर के वापिस जाने पर भी कोया कमांडो ने आदिवासियों की बची हुयी खाद्य सामग्री को जम कर लूटा. इन हमलों के बाद तिम्मापुरम में एक अप्रैल को दो बच्चों की भूख से मौत हो गयी है. आसपास के गाँवों के आदिवासियों ने अपने गाँवों पर सरकारी हमले की आशंका से अपनी झोपड़ियों की छतें उतार दी हैं और अब महिलायें कड़ी धूप  में बिना छत के छोटे बच्चों को गोद में लेकर घर में रह रही हैं!

इस मामले में हर्ष मंदर से बातचीत के जनज्वार की ओर से दो बार प्रयास किये गए, मगर उनकी ओर से इस मामले में अब तक कोई सफाई नहीं आ सकी है.   

प्रार्थना कीजिये अब आत्हत्याओं का सिलसिला न शुरू हो


जनज्वार। राजनीतिक गलियारों से लेकर खेल के मैदान तक आजीवन फैले रहे ख्यात तांत्रिक सत्य साईं बाबा की आज सुबह साढे़ सात बजे मौत हो गयी। देश- दुनिया में बसे उनके लाखों भक्तों को बाबा के मरने का गहरा अफसोस है और वे मातम मना रहे हैं। लेकिन  कहीं यह मातम आत्महत्याओं में तब्दील ना हो, सरकार को इसका विशेष ध्यान  रखना पड़ेगा.   

आज सुबह बाबा की जांच कर रहे डाक्टरों ने साफ कह दिया था कि घटते ब्लड प्रेशर के कारण उनके अंग अब काम नहीं कर रहे हैं। उनके स्वास्थ्य को लेकर डॉक्टरों के हाथ खड़ा करने के बाद देष-दुनिया में फैले उनके भक्तों को सिर्फ बाबा के अंतिम समय का ही इंतजार रह गया था। हालांकि इनमें से बहुतों को उम्मीद थी कि बाबा कोई चमत्कार कर देंगे जिससे मौत उनके दरवाजे से लौट जायेगी, लेकिन सत्य साईं भक्तों की इस उम्मीद पर अपने जीवन के अंतिम समय में खरा नहीं उतर सके।

साईं की बिगड़ती हालत का समाचार सुनकर लाखों  की संख्या में पहुंचे भक्त जो थोड़ी देर पहले तक किसी चमत्कार की उम्मीद में आंध्र प्रदेष के पुट्टापर्थी स्थित आश्रम के आसपास प्रार्थना में जुटे थे,अब मातम मना रहे हैं। गौरतलब है कि साईं बाबा 28मार्च से साईं बाबा उच्च आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती थे।

अगर किसी के मरने के बाद सबसे प्रचलित टिप्पणी का सहारा लिया जाये तो कहा जा सकता है कि ‘भाग्य का लेखा कौन मिटा सकता है और एक न एक दिन सबको तो ये दुनिया छोड़ कर जाना ही है।’ जाहिर तौर पर मातम के माहौल में यह टिप्पणी दुखितों के लिए राहत का काम करती है।

मगर सवाल है कि क्या साईं से गहरे जुड़े भक्तों पर यह टिप्पणी कोई असर कर पायेगी या उनके कुछ सैकड़ा भक्त अपने आदि गुरू साईं के मरने के शोक में आत्महत्या करेंगे। आंध्र में ऐसी पिछली वारदात याद करें तो प्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी की हेलीकाप्टर दुर्घटना में मौत की खबर सुनकर कई सैकड़ा लोगों ने दुखित होकर आत्महत्याएं की थीं।

अब जबकि साईं मर चुके हैं और किसी भी राजनेता के मुकाबले उनके भक्तों की संख्या ज्यादा है, इसके मद्देनजर सरकार ने कोई एहतियात बरता है कि लोग आत्महत्या करने की मानसिकता में न जायें। कहीं ऐसा न हो कि बाबा की षव यात्रा के बाद या साथ में ही भक्तों की षवयात्राएं निकलें। इस संभावना से इसलिए भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अपने प्रिय लोगों की मौत के बाद उनको चाहने वालों की आत्महत्या का तमिलनाडू और आंध््रा में पुराना रिकार्ड है।

ऐसे में इस मानसिक दासता से भक्तों को उबारने का कोई उपाय सरकार और बाबा से जुड़ी संस्थाओं को करना चाहिए। संभव है वह कोई अपील आदि का तरीका हो। दूसरा अगर आम लोग आत्महत्याएं करेंगे तो उनके परिवार उजड़ जायेंगे।

बाबा तो अपने पीछे चालीस हजार करोड़ की संपत्ति छोड़ गये हैं, मगर उनके भक्तों के साथ तो यह सुविधा नहीं होगी। उपर से सरकार भी बाबा के दुख में मरने वाले परिवारों को कोई मुआवजा नहीं देगी। इसलिए कहीं ऐसा न हो कि बाबा के साथ मुक्ति की चाह में मरने वाले भक्तों के परिवार 40 रूपये के लिए भी तरसें।

Apr 23, 2011

एक डॉक्टर और हजारों डब्बा भूमिया


चीन एकाधिकारवादी देश है, जहां लेखक लियू जियाबाओ को सरकार के खिलाफ बयान देने के लिए 10 साल की सजा सुनाई है। लोकतांत्रिक भारत में एक अदालत ने इसी अपराध में विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई...

रामचन्द्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने विनायक सेन को जमानत दे दी। डॉक्टर और मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन को रायपुर की एक अदालत ने राष्ट्रद्रोह के इल्जाम में आजीवन कैद की सजा दी थी। डॉ.सेन पर नक्सलवादियों के हमदर्द होने का आरोप लगाया गया था और यह भी कहा गया था कि वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के संदेशवाहक की तरह काम कर रहे थे।

निचली अदालत के फैसले की तीखी आलोचना हुई, जहां अदालती कार्यवाही मजाक बन गई थी। छत्तीसगढ़ सरकार ने कोई ठोस सुबूत पेश करने की बजाय आरोपों और अफवाहों से ही काम चलाया। एक बार तो यह तक कहा गया कि डॉ.सेन के घर में कोई स्टैथोस्कोप नहीं पाया गया, इसलिए वह डॉक्टर नहीं, बल्कि माओवादी हैं।

अगर सुबूत मजबूत होता, तो भी सजा अतार्किक थी। चीन एकाधिकारवादी देश है, जहां लेखक लियू जियाबाओ को सरकार के खिलाफ बयान देने के लिए 10 साल की सजा सुनाई है। लोकतांत्रिक भारत में एक अदालत ने इसी अपराध में विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

विनायक सेन : और कितने अभी जेल में

डॉ. सेन को जमानत देते समय सुप्रीम कोर्ट ने उस प्रक्रिया की भी आलोचना की, जिसके जरिये उन्हें सजा सुनाई गई थी। सुनवाई करने वाले दो जजों न्यायमूर्ति हरजीत सिंह बेदी और न्यायमूर्ति चंद्रमौली प्रसाद ने कहा कि किसी के पास माओवादी साहित्य मिल जाने से कोई माओवादी नहीं बन जाता, जैसे कि ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ रखने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता। फैसले को पढ़ते समय मुझे कई वर्ष पहले छत्तीसगढ़ की एक जेल का दौरा याद आ गया।

मई 2006 में मैं निष्पक्ष नागरिकों के एक दल के सदस्य की हैसियत से माओवादियों और सलवा जुडूम के बीच चल रहे गृहयुद्ध के नतीजों की पड़ताल करने गया था। सलवा जुडूम वह सशस्त्र गैरसरकारी समूह है, जिसे छत्तीसगढ़ सरकार ने बनवाया है। मैंने अपने कागजात निकालकर देखे, 21 मई 2006 को मैंने जगदलपुर जेल का दौरा किया था। सन 1919 में बनी उस जेल में विशाल, हवादार और रोशनी से भरपूर कमरे हैं। कमरे एक आंगन के चारों ओर बने हुए हैं, हरेक कमरे में लगभग 50 कैदी रखे गए थे।

वैसे तो भारतीय जेलें आमतौर पर संकरी, भीड़ भरी, अंधेरी और गंदी होती हैं। वह जेल एक अपवाद थी। उसी तरह उस जेल के अधीक्षक भी थे। एक लंबे कद के विचारवान और दयालु शख्स अखिलेश तोमर। तोमर साहब हर सप्ताह कैदियों की ओर से एक नृत्य और संगीत का कार्यक्रम करते थे। इसके अलावा भी मनोरंजन के कई साधन थे। जब हम उस जेल का दौरा कर रहे थे, तब हमने लोगों को कैरम खेलते देखा। उस वक्त जगदलपुर जेल में 1,337 कैदी थे।

सुपरी टेंडेंट के दफ्तर में लगे एक बोर्ड पर इनके नाम अलग-अलग शीर्षकों के तहत रखे गए थे। 184 पुरुष और एक महिला को ‘नक्सलवादी बंदी’ की श्रेणी में रखा गया था। तोमर साहब ने बताया कि यह वर्गीकरण बहुत मोटा-मोटा था। जो कैदी दंतेवाड़ा जिले से आए थे, उन्हें आमतौर पर नक्सलवादी कह दिया जाता था। अधीक्षक ने बताया कि इसका अर्थ यह नहीं कि वे सचमुच नक्सली ही थे।

जेल के दौरे के बाद हमारी टीम को कुछ कैदियों से अलग-अलग बात करने का मौका मिला। मैंने डब्बा भूमिया नामक एक कैदी से बात की, वह 20 से कुछ ऊपर का विनम्र आदिवासी नौजवान था। उसके गांव का नाम बामनपुर था, जो कि भोपालपट्टनम के करीब था। उसने बताया कि वह कैसे जगदलपुर जेल पहुंच गया।

दरअसल, वह एक लिफ्ट इरीगेशन परियोजना में मजदूर था। एक दिन जब वह काम पर था, तब उसे एक सड़क बनाने वाली टीम मिली,जिसने उससे भोपालपट्टनम पुलिस स्टेशन का पता पूछा। वह उनके साथ वहां चला गया, तो पुलिस ने उसे रोक लिया। पुलिस ने उससे उसके गांव में नक्सलियों की उपस्थिति के बारे में पूछताछ की। फिर उन्होंने उसे सलवा जुडूम में भर्ती होने के लिए कहा। उसने कहा कि वह ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि उस पर पत्नी, दो छोटे बच्चों और एक विधवा मां की जिम्मेदारी है। इसके बाद उन्होंने उसे गिरफ्तार कर लिया।

इस घटना को तीन महीने हो गए थे। गिरफ्तारी के बाद डब्बा भूमिया को दंतेवाड़ा जेल भेजा गया, जहां से फिर उसे जगदलपुर लाया गया। गिरफ्तारी के बाद से उसने अपने परिवार को नहीं देखा था। मैंने उससे पूछा कि उसका अपने परिवार से संपर्क क्यों नहीं है, तो उसने कहा कि उसके परिजनों ने दंतेवाड़ा तक तो देखा नहीं है, ऐसे में वे जगदलपुर कैसे आ सकते हैं। बहरहाल, उसका एक वकील से संपर्क था, जो एक हफ्ते बाद अदालत में उसकी पैरवी करने वाला था। डब्बा भूमिया को उम्मीद थी कि उस पेशी के बाद उसे जमानत मिल जाएगी और वह अपने परिवार से मिल पाएगा।

मैं नहीं जानता कि उसे जमानत मिल पाई या वह अभी तक जेल में है। एक जानकार ने मुझे बताया कि अदालत में पेशियां अक्सर आखिरी मौके पर रद्द हो जाती हैं, क्योंकि जगदलपुर में फौजदारी अदालतों में कर्मचारियों की कमी है। इसके अलावा तथाकथित नक्सलवादियों के मामलों में विशेष सुरक्षा की जरूरत होती है और वह अक्सर नहीं मिल पाती। यह संभव है कि डब्बा भूमिया बहुत ही शानदार अभिनेता रहा हो, लेकिन मुझे तो वह दंतेवाड़ा के गृहयुद्ध का एक शिकार ही लगा।

रायपुर की अदालत की नजरों में डॉक्टर सेन का अपराध यह था कि वह माओवादी कैदियों से बात करते थे और अपने घर पर माओवादी साहित्य रखते थे। इस तरह उनका अपराध दूर की कौड़ी के जरिये मान लिया गया था। इसी दूर की कौड़ी ने डब्बा भूमिया को भी जेल पहुंचा दिया। यह सुना जाता है कि आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ की जेलों में हजारों डब्बा भूमिया सिर्फ इसलिए जेलों में हैं, क्योंकि वे उन जिलों में रहते हैं, जहां नक्सलवादी और पुलिस एक-दूसरे के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर कहा जाए, तो इन आदिवासियों ने माओ का पढ़ना तो दूर, उसका नाम तक नहीं सुना होगा। जब रायपुर के जज ने विनायक सेन को सजा सुनाई, तो गृहमंत्री ने कहा कि वह ऊंची अदालत में अपील कर सकते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ के गृह युद्ध के शिकार आम आदिवासी यह नहीं कर सकते। वे एक क्रूर और मनमानी करने वाली पुलिस के रहमोकरम पर हैं और अदालतें भ्रष्टाचार और दबावों के नीचे झुकी पड़ी हैं।

डब्बा भूमिया जैसे लोगों के लिए नई दिल्ली तो जगदलपुर से भी बहुत दूर है। डॉ. विनायक सेन को जमानत देने के लिए निस्संदेह सुप्रीम कोर्ट की सराहना की जानी चाहिए, लेकिन नक्सलवाद प्रभावित इलाकों में रहने वाले आम आदिवासियों की बदतर हालत के लिए भारतीय लोकतंत्र बधाई का हकदार नहीं हो सकता।

(हिन्दुस्तान  से  साभार) 

कभी रेलगाड़ी में भी झांकिये मिस बनर्जी

दशकों से रेल यात्री ट्रेनों में सरेआम यूं ही तरह-तरह के हथकंडों के द्वारा लुटते आ रहे हैं। कभी इन्हें सशस्त्र लुटेरे लूटते हैं तो कभी यात्रियों के रक्षक के रूप में दिखाई देने वाले सशस्त्र एवं बावर्दी लुटेरे...

निर्मल रानी

राष्ट्रीय स्तर की होनहार एवं उदीयमान वॉलीबाल एवं फुटबाल खिलाड़ी 24वर्षीया अरुणिमा उर्फ़ सोनू सिन्हा पर रेल यात्रा के दौरान लुटेरों द्वारा किए गए हमले के बाद एक बार पुन: रेल यात्रियों की सुरक्षा को लेकर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ गई है। पिछले   11अप्रैल को सोनू सिन्हा को तीन लुटेरों ने पदमावती एक्सप्रेस में चलती ट्रेन में लूटने की कोशिश की। एक खिलाड़ी एवं निडर महिला होने के नाते उसने लूटपाट का विरोध किया तथा लुटेरों का मुकाबला करने की कोशिश की। आख़िरकार बदमाशों ने उसे बरेली तथा चेनहटी स्टेशनों के मध्य चलती ट्रेन  से बाहर धकेल दिया।

ठीक उसी समय दूसरे रेल ट्रैक पर दूसरी ओर से एक अन्य ट्रेन तेज़ी से आ रही थी जिसके नीचे सोनू का पैर आ गया और उसके सिर तथा दाहिने पैर में भी काफी चोटें आईं । डॉक्टरों को उसका जीवन बचाने में बायां पैर काटना पड़ा। यह होनहार महिला खिलाड़ी एक परीक्षा देने के लिए  दिल्ली जा रही थी। ज़ाहिर है इस हादसे के बाद इस उदीयमान महिला खिलाड़ी का कम से कम खेल संबंधी भविष्य तो अब चौपट हो ही गया।

वॉलीबाल खिलाडी सोनू : रेल सुरक्षा का हाल

सोनू सिन्हा जैसे हादसे भविष्य में न हों, इस पर चिंतन-मंथन करने के बजाए चिर-परिचित भारतीय राजनीति की परंपरा के अनुसार राजनीतिज्ञों में सोनू के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन करने की होड़ लगी दिखाई दे रही है। उत्तर प्रदेश के खेल मंत्री अयोध्या प्रसाद पाल ने अस्पताल जाकर सोनू से मुलाकात की तथा उसे उत्तर प्रदेश के खेल मंत्रालय में नौकरी का प्रस्ताव दिया। केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन भी सोनू को देखने बरेली मेडिकल कॉलेज पहुंचे तथा उनकी संस्तुति पर सोनू को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती करा दिया गया।

केन्द्रीय मंत्री अजय माकन ने भी सोनू को रेलवे में नौकरी दिए जाने तथा दुर्घटना के बदले उचित मुआवज़ा दिए जाने के लिए रेलमंत्री ममता बैनर्जी को पत्र लिखा है। ज़ाहिर है नेताओं की यह दरियादिली एक ऐसे हादसे के बाद दिखाई दे रही है, जबकि सोनू अपना खेल कैरियर गंवा चुकी है तथा इस प्रकार के अर्थपूर्ण प्रस्ताव न तो उसके खेल कैरियर को पुन: वापस ला सकेंगे न ही उस पर गुज़रने वाली मानसिक पीड़ा की भरपाई कर सकेंगे। सोनू की पीड़ा को महसूस करते हुए भारतीय क्रिकेट टीम के युवराज तथा हरभजन सिंह जैसे खिलाडिय़ों ने भी उसे एक-एक लाख रूपये की आर्थिक सहायता दी है तथा सोनू के प्रति अपनी गहरी सहानुभूति भी व्यक्त की है।

गौरतलब है कि  ममता बनर्जी ने जबसे रेल मंत्रालय का कार्यभार संभाला है तबसे यह आम चर्चा है कि वे अपना सारा समय और ध्यान रेल मंत्रालय संबंधी काम देखने के बजाए पश्चिम बंगाल की राजनीति पर ही केंद्रित रखती हैं । हो सकता है पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव परिणाम उन्हें प्रदेश की सत्ता तक पहुंचा भी दें और वे रेल मंत्रालय छोड़कर राइटर्स बिल्डिंग  की शोभा बढ़ाने लग जाएं। परंतु अपने रेलमंत्री रहते उन्होंने रेल यात्रियों की सुरक्षा संबंधी कोई उपाय नहीं किए, इस बात का शिकवा पश्चिम बंगाल राज्य के रेलयात्रियों सहित पूरे देश के उन सभी रेल यात्रियों को रहेगा जो अपनी यात्रा शुरु होने से लेकर यात्रा की समाप्ति तक स्वयं को घोर असुरक्षित महसूस करते हैं।

ममता ने रेल विकास के लिए निश्चित रूप से कई नई योजनाएं शुरु की हैं। नई दूरगामी तथा तीव्र गति से चलने वाली कई नई रेलगाडिय़ों से भी देश का परिचय कराया है। रेलवे के आधुनिकीकरण के भी काम हुए हैं तथा दुरंतो और महिला विशेष ट्रेन जैसे नए प्रयोग भी सफल हो रहे हैं। परंतु रेल यात्रियों की सुरक्षा संबंधी बुनियादी प्रश्र आज भी वैसा ही नज़र आ रहा है। यानी आज़ाद भारत के आज़ाद रेल यात्री और उन्हें लूटने वाले आज़ाद लुटेरे ट्रेनों में यात्रियों को बेखौफ लूट रहे हैं।

ऐसा भी नहीं है कि रेल यात्रा में असुरक्षा का वातावरण कोई ममता बनर्जी या लालू यादव के ही कार्यकाल की बातें हो। दशकों से रेल यात्री ट्रेनों में सरेआम यूं ही तरह-तरह के हथकंडों के द्वारा लुटते आ रहे हैं। कभी इन्हें सशस्त्र लुटेरे लूटते हैं तो कभी यात्रियों के रक्षक के रूप में दिखाई देने वाले सशस्त्र एवं बावर्दी लुटेरे। कभी रेलगाडिय़ों में खाने-पीने का सामान बेचने वाले हॉकर यात्रियों को नकली, सड़ा-गला, मिलावटी, महंगा तथा अधिक कीमत लेकर कम सामान देकर पूरे देश में विभिन्न स्थानों पर लूटते दिखाई देते हैं, तो कभी हिजड़ों का भेष बनाए बदमाश भीख मांगने के नाम पर यात्रियों से जबरन पैसे वसूलते हैं। यदि इन्हें कोई यात्री पैसे देने से मना करता है तो यह हिजड़े उसके मुंह पर थप्पड़ मारने तक से नहीं हिचकिचाते।

रेलगाडिय़ों में नकली पेय पदार्थ ठंडा और पानी की बोतल सबकुछ धड़ल्ले से यात्रियों के हाथों बेचा जाता है। लूट का आलम तो यहां तक है कि कई स्टेशन पर प्लेटफार्म पर ट्रेन आने के समय बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से गर्मी के दिनों में पीने के पानी की प्लेटफार्म पर होने वाली सप्लाई बंद कर दी जाती है। ऐसा केवल इसलिए किया जाता है ताकि गर्मी की शिद्दत और प्यास से परेशानहाल यात्री पानी न मिलने पर पानी की बोतलें या कोल्ड ड्रिंक्स खरीदने पर मजबूर हों। और जब यात्रियों को लूटने की योजनाएं इस स्तर तक बनने लगें, फिर आप स्वयं समझ लीजिए कि ऐसे स्टेशन पर आपको असली,  ब्रांडेड या शुद्ध पानी की बोतल अथवा कोल्ड ड्रिंक्स आखिर कैसे मिल सकता है?

चुनाव प्रचार में व्यस्त ममता : रेल को कौन संभाले  
 रहा सवाल रेलयात्रियों को नशीली वस्तुएं खिला-पिलाकर उनके सामान लूटने का, तो यात्रियों की लूट का यह फार्मूला तो बहुत पुराना और चिर-परिचित हो चुका है। इसके बावजूद ज़हरखुरानी नामक लूट का यह तरीका भी नियंत्रित होने का नाम ही नहीं ले रहा है। कई ट्रेनों में जुआरी के भेष में ठगों का गिरोह सक्रिय रहता है। यह गिरोह पहले आपस में जुआ खेलता है, फिर आम यात्रियों को जुआ खेलने के लिए आकर्षित करता है तथा मिलीभगत कर उन्हें ठग लेता है।

सवाल यह है कि क्या भारतीय रेल विभाग के अधिकारियों तथा सुरक्षा संबंधी विभागों ने इस विषय पर नकेल कसने की कभी कोई गंभीर कोशिश की है? ऐसे में सोनू सिन्हा जैसी खिलाड़ी के साथ होने वाली घटना निश्चित रूप से भारतीय रेल में व्याप्त असुरक्षा और चोरी-डकैती के वातावरण को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उजागर करती है। ऐसे में निश्चित रूप से देश की प्रतिष्ठा तथा साख का भी सवाल खड़ा होता है। लिहाज़ा रेल यात्रियों को उनके हाल पर भगवान भरोसे छोडऩे के बजाए उनकी सुरक्षा के  उपाय किए जाने की तत्काल ज़रूरत है।

इन उपायों में सर्वप्रथम तो पूरे देश में रेलवे स्टेशन सहित सभी रेलगाडिय़ों में भी सीसी टीवी कैमरा प्रत्येक डिब्बे में लगा होना तथा लगाने के बाद उसका चलते रहना अत्यंत ज़रूरी है। उसके पश्चात जीआरपी तथा आरपीएफ की  संयुक्त कमान में रेल यात्रियों की सुरक्षा के लिए प्रत्येक डिब्बे में कम से कम दो सशस्त्र पुलिसकर्मी तैनात किए जाने चाहिए। या फिर केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल(सीआईएसएफ) को भारतीय रेल यात्रियों की सुरक्षा की भी जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। रेलवे में लूटपाट करने वाले तथा मिलावटी और नकली सामान बेचने वाले अपराधियों के विरुद्ध नए और सख्त कानून बनाने की सख्त जरुरत है.



लेखिका राजनीतिक-सामाजिक मसलों पर लिखती हैं और उपभोक्ता मामलों की विशेषज्ञ हैं. 






नमस्कार अन्ना



उम्मीद है आप स्वस्थ होंगे। उस दिन 9अप्रैल को बारह बजे के लगभग जब आप दिल्ली के जंतर-मंतर पर मंच से नीचे उतर गये तो हम आपसे बात करने को लपके थे, मगर वहां से पता नहीं आप कहां ओझल हो गये। अनशन स्थल के पीछे स्वामी अग्निवेश के बंधुआ मुक्ति मोर्चा के दफ्तर में भी गया कि आप शायद वहां हों, लेकिन वहां भी नहीं मिले। अलबत्ता स्वामी अग्निवेश जिस कमरे में आमतौर पर पत्रकारों से रू-ब-रू होते हैं, उसमें एक चैनल ने चलता-फिरता स्टूडियो जरूर बना लिया था।

उस दिन के बाद अब मैं आपको सीधे टीवी में देख रहा हूं। अन्ना मुझे दुख है कि आपकी और आपके सहयोगियों की ईमानदारी और शुचिता  पर शक किया जा रहा है। सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस से लेकर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में आपके साथ रहे लोग भी अब उसमें शामिल हो गये हैं। कमोबेश इसका एनएपीएम (नेशनल एलायंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट) जैसा हस्र होता दिख रहा है। आपको तो याद होगा कि दर्जनों सामाजिक संगठनों और मान्यता प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ताओं की और से कुछ वर्ष पहले जब एनएपीएम  का गठन हुआ तो लोगों में  व्यवस्था बदलने की उम्मीद बंधी थी. एनएपीएम के आह्वान पर जनता दो कदम बढाती उससे पहले ही आन्दोलन में शामिल बुद्धिजीवियों की  महत्वाकांक्षाएं आसमान चढ़ गयीं और कल तक जो लोग भ्रष्ट व्यवस्था को कोस रहे थे, उससे ज्यादा एक-दूसरे में मीन -मेख निकालने लगे और आखिरकार एकता बिखर गयी.

आपके अभियान को कठघरे में खड़ा करने वाले कह रहे हैं कि नागरिक समाज की ओर से जो पांच लोगों की टीम आपने चुनी है,उसमें झोल है। चुने गये लोग भी दागदार और भ्रष्टाचारी  हैं। राजनीति में बालीवुड के प्रतिनिधि और समाजवादी पार्टी से निष्कासित नेता अमर सिंह सीडी लेकर कूद रहे हैं और कहते फिर रहे हैं कि चोरों से बचाने का जिम्मा डकैतों को काहे देते हो जी। ऊपर से सरकारी फारेंसिक लैब ने शांतिभूषण, मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह की बातचीत वाली सीडी को असल बताने के बाद आपकी फजीहत और बढ़ा दी है। यानी कुल मिलाकर  भ्रष्टाचार को बनाये रखने वालों ने आपको चौतरफा घेर लिया है और लोकपाल बिल पर मसौदा तैयार होने से पहले आपलोगों का चरित्र प्रमाण पत्र जारी कर दिया  है.  

अमर सिंह की निगाह में शांतिभूषण डकैत हैं और अपने जैसे नेताओं को वह चोर मानते हैं। इसलिए वह राय देते हैं कि अब अरुणा राय या हर्षमंदर में से भी किसी को मसौदा समिति में शामिल करो और शांतिभूषण को निकाल बाहर करो। यही मांग कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी कर रहे हैं।

बहरहाल, आपने जंतर-मंतर पर 8 अप्रैल को ईमानदारी की खोज प्रतियोगिता के ऑडिशन  में नागरिक समाज की ओर से शामिल हो रहे लोगों में सबसे उपयुक्त प्रतिनिधि शांतिभूषण हैं को माना था। उसके बाद आपके विशेष सहयोगी अरविंद केजरिवाल ने उनके नाम की घोषणा  की थी। ईमानदारी के इसी बारीक परीक्षण में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जेएस वर्मा की छंटनी हो गयी थी। छंटनी इसलिए हो गयी थी, क्योंकि वह कुख्यात बहुराष्ट्रीय  कंपनी कोका कोला के फाउंडेशन  सदस्यों में से एक हैं और उनको समिति में शामिल करने से आपके धवल छवि पर भ्रष्टाचार की छाप पड़ती।

मगर अब उस धवल छवि पर छापों की बढती संख्या ने तो बड़ा घालमेल का माहौल बना दिया है। देश की लाखों जनता जो टीवी पर आपके आमरण अनशन का समाचार सुनकर उद्वेलित हुई थी, वह अब कन्फ्यूज हो रही है। अपने नेता और उनके सहयोगियों की भद्द पिटते देख वह खून का घूंट पी रही है।

जिस अन्ना और उसकी टीम को वह सप्ताह भर पहले दुनिया का सबसे ईमानदार और मोह-माया से मुक्त मानकर भ्रष्टाचार के मुखालफत की  कमान थमा के आयी थी, वह सप्ताह भर में ऐसा हो गया या भ्रष्टाचारी दैत्य मिलकर उसके राह में रोड़ा अटका रहे हैं, जनता फिलहाल इस गहरे द्वंद में है। आपके नाम पत्र  लिखे जाने तक कुछ जगहों पर लोग द्वंद से निराशा में जा रहे हैं और दोहराने लगे हैं कि सब साले चोर हैं, भ्रष्टाचार का कुछ नहीं हो सकता।

मगर देश की बड़ी आबादी अभी मान रही है कि आपका आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत शिकस्त  देगा। लेकिन इस अहसास को वह जाहिर कहां करे? टीवी वाले इस बात पर अब जनता की बाइट नहीं ले रहे और न ही मोमबत्ती बांट रहे हैं। कैमरा, लाइट और एक्शन का फ्यूजन अब उस ओर चला गया है जो पांच से नौ अप्रैल तक आपकी ओर था। इसलिए इतनी जल्दी रंग बदलकर दूसरे पाले में कूद चुके मीडिया वालों का आप नंबर सार्वजनिक करिये, बाकि जनता खुद ही निपट लेगी।

ज्यादा संभव है कि अबकी बार कैमरा, एक्शन और लाइट का खर्चा भी जनता खुद ही उठा ले। कारण कि इसके आगे भ्रष्टाचार के खिलाफ कैसे लड़ा जाये, इसकी शिक्षा तो आपके जंतर-मंतर आंदोलन से जनता को नहीं मिल पायी। समझने के लिए कहें जो जैसे कई बार चाय की टेबल पर क्रांति की जाती है, वैसे अबकी टीवी पर जनता उठ खड़ी हुई और अपनी नफरत जाहिर करने लगी। ऐसे में जनता के बीच जाना आपकी शीघ्र  आवश्यकता  बन गयी है अन्ना। अन्यथा आपके समर्थन में खड़ी  होने को बेताब जनता फिर एक बार गहरी निराशा में जायेगी।

अन्ना भरोसा करिए, जनता बड़े दिल की होती है और अपने नेता और पार्टी की गलतियों को अगले संघर्षों  में भूल जाती है और  नये जोश के साथ, नये नारों को लेकर चल पड़ती है। इसलिए बगैर किसी भय और देरी के अन्ना अपनी टीम को लेकर संघर्ष में उतरिये। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई चैनलों के झुंड और टीआरपी की लड़ाई तो नहीं है न। इसे तो आप भी समझते हैं, तो किसका इंतजार कर रहे हैं।

यहां अभी जो आप मसौदा समिति के लोगों पर हमला देख रहे हैं, वह तो लोकपाल बिल आपको झुकाने का श्रीगणेश है। असल खेल तो संसद में होगा, जहां न आप होंगे और न आपका शुद्धतावाद। उसके बाद भ्रष्टाचारियों के दलाल हो चुके जनप्रतिनिधि लोकपाल को रीढ़विहीन  करने की कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इसलिए अन्ना आपके हिस्से का अंतिम और असल विकल्प सिर्फ जनता के बीच लौटना ही है। जाहिरा तौर पर वह जनता टीवी पर कम, काम पर ज्यादा दिखती है।

थोड़ा कहना बहुत समझना. ऊंच-नीच, गलती - सही  माफ़ कीजियेगा.
  
आपका अनुज
अजय प्रकाश 


Apr 22, 2011

विनायक पर आये फैसले की उम्मीदें

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बिनायक सेन को ज़मानत देने के फ़ैसले से ग्रामीण भारत की लूट और उसको रोकनेवालों को देशद्रोही कहने की सरकारी साज़िश को ज़ोर का झटका लगा है...

हिमांशु कुमार 

छत्तीसगढ़ सरकार ने डॉक्टर और मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन को देशद्रोही करार देकर आजीवन कारावास की सजा सुना दी थी और उन्हें जेल में डाल दिया था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें जमानत देते हुए अपने फैसले में जो टिप्पणियां की हैं,उसके दूरगामी और सकारात्मक परिणाम होंगे।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी भी विचारधारा से जुड़ी किताबें किसी के घर में मिलना देशद्रोह नहीं हो सकता। अगर किसी के घर से महात्मा गांधी की जीवनी मिलती है तो वह व्यक्ति गांधीवादी नहीं मान लिया जायेगा। इसी प्रकार नक्सल साहित्य रखने से कोई नक्सली नहीं हो जाता। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि नक्सलियों से सहानुभूति रखना भी राष्ट्रद्रोह नहीं हो सकता।

इस फैसले से ग्रामीण भारत की लूट और उसको रोकने वालों को देशद्रोही कहने की सरकारी साजिश को जोर का झटका लगा है। इस समय सरकारी विकास का विरोध करने वालों को देशद्रोही कहने का एक माहौल बना दिया गया है। सबूत के लिए छत्तीसगढ़ के नये बने छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम’ के प्रथम पैरे में ही लिखा है कि यह अधिनियम ‘राष्ट्रद्रोही’ और ‘विकास-विरोधी’ तत्वों पर रोक लगायेगा। ये विकास-विरोधी कौन हैं?


बिनायक सेन :  जनता के हितैषी होने पर सजा
 सच तो यह है कि वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद विकसित देशों के बड़े उद्योगपति विकासशील देशों के संसाधन लूटने के लिए टूट पड़े हैं। सरकार में बैठे नेता,अधिकारी और पुलिस की तिकड़ी इन उद्योगपतियों से पैसे खाकर पुलिस की हिंसा के सहारे आदिवासी और ग्रामीण भारत  की जमीनें जबरन छीन रही है। आदिवासी ग्रामीण इसका विरोध कर रहे हैं। सरकार इस विरोध को नक्सलवाद कहकर दबाना चाहती है।

जो कार्यकर्ता इस पूरी लूट के गणित को समझकर इसका विरोध करते हैं,उन्हें सरकार नक्सली-समर्थक कहकर इस लूट-क्षेत्र से बाहर रखना चाहती है। बिनायक सेन ने भी इसी लूट और हिंसा के खिलाफ आवाज उठायी, इसलिए उन्हें देशद्रोही कहकर जेल में डाला गया। छत्तीसगढ़ के राज्य स्तर तक तो सरकार इस सबको चलाने में सफल हो गयी, परंतु सर्वोच्च न्यायालय में पासा पलट गया।

इस समय सारा संघर्ष वहीं चल रहा है जहां ये प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं। इन क्षेत्रों में सरकारें सामाजिक कार्यकर्ताओं,पत्रकारों और निष्पक्ष जांचकर्ताओं को जाने नहीं दे रही हैं और आदिवासियों पर हमले करके, उनके घर जलाकर,उनकी बच्चियों से बलात्कार और युवकों की हत्याएं करके वहां की जमीनों को पूंजीपतियों के लिए खाली कराया जा रहा है। इस फैसले से न सिर्फ कार्यकर्ताओं को निर्भय  होकर कार्य करने में मदद मिलेगी, बल्कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूट से बचाने की मुहिम को भी बल मिलेगा।

इस संघर्ष में भाग लेने के कारण जो ग्रामीण  आदिवासी जेलों में सड़ रहे हैं,उन्हें मुक्त कराने का भी एक रास्ता इस फैसले ने खोल दिया है। सरकार ने छत्तीसगढ़ में जिस तरह आदिवासी समाज में विभाजन और एक हिस्से को हथियारबंद कर उसे समाज के ही दूसरे हिस्से को मारने का प्रयोग 'सलवा जुडूम' के नाम से किया, उसे रोकने में भी अब इस फैसले के बाद मदद मिलेगी।

वैसे भारत सरकार छत्तीसगढ़ के इस प्रयोग को दूसरे राज्यों में भी करने का प्रयत्न कर रही है। दुनिया के दूसरे देशों में भी पूंजीवादी शक्तियां इस प्रकार के प्रयोग पहले से ही सफलतापूर्वक करती आ रही हैं। एक आदिवासी समुदाय को हथियार देकर पूंजीपति लोग अपने साथ मिला लेते हैं और एक हिंसक गृहयुद्ध शुरू कर उस समुदाय की जमीन के नीचे दबे कीमती खनिजों को लूट कर चंपत हो जाते हैं। फिर वह समुदाय हमेशा के लिए हिंसक संघर्ष में उलझा रहता है।

चिंता की बात यह है की यह खेल ऐसे ही देशों में संभव होता है जहां के शासक कमजोर और लालची होते हैं। लेकिन भारत जैसी तथाकथित महाशक्ति में यह पूंजीवादी खेल कैसे संभव हुआ, इसकी शिकायत लोकतंत्र की चिंता करने वाले प्रत्येक नागरिक को है। सिवाय उनके,जो इसी तरह के हिंसक विकास के कारण बिना पसीना बहाये मिल गयी कारों में बैठकर डिग्गी में तिरंगा लेकर इंडिया गेट पर जाकर टीवी कैमरों के सामने देशप्रेम का गलाफाड़ इजहार करते हैं और जिन्हें ग्रामीण भारत की लूट की ज़रा भी परवाह नहीं है। बिनायक सेन का फैसला इस होशियार देशप्रेमी वर्ग को भी थोड़ा सतर्क करेगा।


दंतेवाडा स्थित वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख और सामाजिक कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार का संघर्ष,बदलाव और सुधार की गुंजाईश चाहने वालों के लिए एक मिसाल है.उनसे mailto:vcadantewada@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.

Apr 21, 2011

सीमा आजाद का सवाल उठाएंगे विनायक सेन !


पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता सीमा आजाद को करीब साल भर पहले माओवादी साहित्य रखने के साथ माओवादियों से संबंध और राजद्रोह जैसी धाराओं में गिरफ्तार किया गया था...

अंबरीश कुमार

मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल अब विनायक सेन की तरह ही माओवादी साहित्य रखने के साथ राजद्रोह के आरोप में इलाहाबाद जेल में बंद पत्रकार सीमा आजाद का सवाल उठाने जा रहा है। पीयूसीएल इस मामले में उत्तर प्रदेश में जन दबाव बनाने के लिए विनायक सेन को आमंत्रित करने जा रहा है ।
पत्रकार सीमा आजाद 
विनायक सेन इस अभियान में शामिल भी होंगे । विनायक सेन ने फोन पर कहा -सीमा आजाद पीयूसीएल में हमारी सहयोगी रही है और मै इस सवाल पर लखनऊ की संगोष्ठी में जरुर आउंगा । सीमा आजाद के मामले की कल सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई भी है जिसमे पीयूसीएल की तरफ से रिटायर जस्टिस राजेंद्र सच्चर और संजय पारीख सीमा आजाद की पैरवी करेंगे । पीयूसीएल ने सीमा आजाद की गिरफ्तारी के साथ राजद्रोह की धारा 124 ए को भी चुनौती दी है।

पीयूसीएल के राष्ट्रीय सचिव चितरंजन सिंह ने जनसत्ता को आज यह जानकारी दी। पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता सीमा आजाद को करीब साल भर पहले माओवादी साहित्य रखने के साथ माओवादियों से संबंध और राजद्रोह जैसी धाराओं में गिरफ्तार किया गया था। सीमा आजाद की गिरफ्तारी उस समय हुई जब वे दिल्ली के प्रगति मैदान में पुस्तक मेला देखने के बाद कुछ पुस्तके लकर लौट रही थी । इलाहाबाद की पुलिस को इन पुस्तकों में माओवाद भी नजर आया जिसके बाद कई माओवादी कमांडरों से संपर्क आदि तलाश कर पुलिस ने वे सभी धाराएं लगा दी जिससे जमानत न मिलने पाए।

पुलिस अपनी इस प्रतिभा का इस्तेमाल आमतौर पर राजनैतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर पहले से करती रही है। जिसके चलते सीमा आजाद अभी भी जेल में है । पीयूसीएल ने दो महीने
पहले सीमा आजाद की गिरफ्तारी और राजद्रोह की धारा 124 ए को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी जिसकी कल सुनवाई है । इसके अलावा पीयूसीएल इस मामले में जन दबाव भी तैयार करने जा रहा है ।

चितरंजन सिंह ने कहा - पीयूसीएल मई के अंतिम सप्ताह में लखनऊ में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी करने जा रहा है जिसमे राजद्रोह की धारा 124 ए पर चर्चा होगी । विनायक सेन से लेकर सीमा आजाद तक इसी धारा के तहत देशद्रोही बताए गए । इस संगोष्ठी में विनायक सेन को भी आमंत्रित किया जा रहा है । इससे पहले दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान म सात और आठ मई को राजद्रोह की इस धारा पर विचार गोष्ठी आयोजित की गई है जिसमे जस्टिस जेएस वर्मा समेत कई मानवाधिकार कार्यकर्त्ता देश भर से आएंगे।

इसका मकसद राजद्रोह की इस धारा के खिलाफ माहौल बनाना है जिसका इस्तेमाल पुलिस अकस
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को फंसाने के लिए करती है । इस बीच विनायक सेन ने राजद्रोह की इस धारा पर सवाल खड़ा करते हुए कहा -यह मुद्दा अब हमारे एजंडा में है और संभवतः केंद्र सरकार भी कुछ पहल करे । सेन ने फोन पर बात करते हुए आगे कहा - सीमा के सवाल और राजद्रोह की इस धारा पर लखनऊ के कार्यक्रम मै जरुर शामिल होऊंगा ।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों जिसमे छत्तीसगढ़ भी शामिल है ,इन राज्यों में पुलिस आमतौर पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को माओवादियों का मुखौटा मानती है जो उनके उत्पीडन का सवाल उठाते है। छत्तीसगढ़ में पुलिस ने करीब आधा दर्जन पत्रकारों को भी माओवादियों का समर्थक मान उनकी सूची बना रखी है । इसी तरह दिल्ली और उत्तर प्रदेश में भी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ चुनिंदा पत्रकारों पर पुलिस की नजर है और उनके फोन सर्विलांस पर रखे गए है।

विनायक सेन की रिहाई के बाद सीमा आजाद का मुद्दा उठाकर मानवाधिकार संगठन राजद्रोह की धारा पर राष्ट्रीय बहस भी लगे हाथों शुरू करना चाहते है। मानवाधिकार संगठन इस मुद्दे पर कई कार्यक्रम की योजना बना रहे है । विनायक सेन की रिहाई को लेकर उत्तर प्रदेश के कई शहरों में विरोध प्रदर्शन हुआ था जिससे मंवाधीकारों का सवाल उठाने वालों के हौंसले बुलंद है ।

(जनसत्ता  से  साभार)