May 19, 2011

'अभी पार्टी नहीं टूटेगी '- किरण

  
नेपाल के राजनीतिक हालात और एकीकृत नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी ) की भूमिका पर  आयोजित यह बहस  ऐसे समय में चल रही है जब वहां संविधान सभा के चुनाव का कार्यकाल 28 मई को खत्म होने जा रहा है. एक दशक के जनयुद्ध के बाद शांति प्रक्रिया में शामिल होकर नया जनपक्षधर संविधान बनाने का सपना लिए सत्ता में भागीदारी की माओवादी पार्टी, अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो सकी है.इसे लेकर पार्टी के भीतर और बाहर मत-मतान्तर हैं, नयी तैयारियां  हैं. इसके मद्देनजर जनज्वार ने  नौ लेख अब तक  प्रकाशित किये हैं.

इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए  एनेकपा (माओवादी) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष  मोहन वैद्य किरण से  अजय प्रकाश  ने साक्षात्कार किया है , पेश है मुख्य  अंश ...                                



संविधान सभा का कार्यकाल 28 मई खत्म हो रहा है, पार्टी की अगली रणनीति क्या होगी ?

वैसे तो हमारी रणनीति पहले से ही निर्धारित है। फिर भी  28 मई तक की  स्थिति देख लें, तब आगे की रणनीति तय की जायेगी ।

बाबुराम, प्रचण्ड और आपकी  लाइन में असल फर्क  क्या है? आपको क्यों  लगता है कि आपकी बात मौजुदा नेपाली और विश्व राजनीतिक परिस्थिति में  सही है ?

लाइन के बीच हमारे मतभेद क्या क्या हैं, सामान्य रूप से दस्तावेज सार्वजनिक हो चुके हैं और  इस अर्थ में आप भी हमारे बीच के लाइन सम्बन्धी मतभेद से परिचित रहे होगें । विशेष रूप में बात यह है  कि हम तीनों एक ही पार्टी में  हैं, इसलिए इस बारे में मूर्त रूप से  बताना उपयुक्त नहीं  होगा । फिर भी मैं इतना कह  सकता हूँ कि जनगणतन्त्र, राष्ट्रीय स्वाधीनता और जनविद्रोह की जो बात मैंने उठायी है, वह वर्तमान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय  परिवेश में बिलकुल  सही और वैज्ञानिक हैं । 


आपकी निगाह में  नेतृत्वका आपसी मतभेद इतना गहरा चुका है की पार्टी टुट सकती  है, अगर नहीं  तो वह कौन से बिंदु  होंगें जिन पर सहमति बनाते हुए आगे बढा जा सकता है ?

मतभेद तो बहुत गहरे हैं, लेकिन मैं यह नहीं  कह सकता हूँ कि पार्टी अभी टुटेगी । आगे हमारी  सहमति या  एकता का आधार देश और जनता के पक्ष में शान्ति व संविधान, जनगणतन्त्र और राष्ट्रीय  स्वाधीनता को लेकर संघर्ष करना ही है  । 


पिछले पांच  वर्षो में नेपाली माओवादी पार्टी जहाँ पहुंची है, उसमें आप  बराबर  के  भागीदार हैं. आपलोग यही हासिल होना है,सोचकर आगे बढे थे या कहीं चूक गए ?

इस अवधि में मेरी तरफ से भी कुछ कमजोरियां  रही हैं,  फिर भी मैं समान रूप से पार्टी को यहाँ पहुँचाने में भागीदार नहीं हूँ.  कार्यदिशा के क्षेत्र जो गलती, कमी और कमजोरियां  हुई हैं, इन सबको करेक्शन करने और उनसे मुक्त होने के लिए हम लोंगों ने पार्टी में अलग राजनीतिक प्रस्ताव पेश किया, पार्टी के अन्दर भिन्न मत दर्ज किये और स्पष्ट  रूप से जनगणतन्त्र, राष्ट्रीय  स्वाधीनता और जनविद्रोह की लाइन पर  डटे रहे । 


कार्यकर्ता निराश हैं, पीएलए अब उस रूप में बची नही , संगठन में फुट है, वैसे  में जनयुद्ध में  वापस लौट जाने या  शान्ति प्रक्रिया में बने रहने के अलावा कोई तीसरा विकल्प भी हैं ?


स्थिति निश्चय ही जटिल हैं । विकल्प बहुत से हैं, इनमें से हम क्रान्तिकारी विकल्प के पक्ष में हैं । हमलोग सुधारवाद,संसदवाद, राष्ट्रीय आत्मसपर्णवाद और दक्षिणपन्थी संशोधनवाद के दलदल नही फसेंगे । हम क्रान्ति का झण्डा हमेशा ऊंचा  उठाते रहेंगे ।

भारतीय शासक वर्ग को लेकर जो आलोचनात्मक रणनीति नेपाली माओवादी पार्टी को रखनी चाहिए थी, उसमें कहीं  चूक हुई?  

बदली  हुई परिस्थिति को ध्यान में रखकर हम लोगों  ने राष्ट्रीय  स्वाधीनता और जनगणतन्त्र दोनों मुद्दों को प्राथमिक स्थान में रखा और उसी आधार पर आज का प्रधान अन्तर्विरोध निर्धारण किया गया । परन्तु, इस कार्य दिशा को कार्यान्वन करनेमें हम लोग कमजोर पडें हैं । यहाँ  पर अवश्य चूक हुई है. 


नेपाल में दो बार माओवादी सरकार में रहे लेकिन आप एक बार  भी सरकार में शामिल नहीं  हुए, ऐसा क्यों ?

मैं संविधान सभा के सदस्य पद से इस्तीफा  दे चुका हूँ. इस तरह की सरकार में बने  रहने में  मेरी कोई रुचि भी नहीं  है ।

सत्ता में रहते हुए प्रचण्ड और वाद में बाबुराम दिल्ली आये, कभी आपका नहीं  हुआ, यह भी पार्टी की कोई रणनीति थी  या आपका फैसला?

यह संयोग की बात है. 

नेपाली माओवादी नेतृत्व खासकर प्रचण्ड पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, कितनी सच्चाई  है  ?

 हमको पता नहीं ।


नेपाली माओवादी पार्टी से सहानुभूति रखने वाले भारतीय पत्रकार आनन्द स्वरुप  वर्मा ने नेपाल की क्रांति को लेकर अपने हालिया लेख में जो टिप्पणी  की है, उसपर आपकी राय ?

मैंने  कभी सोचा ही नहीं  था कि आनन्द स्वरुप वर्मा   हमारे पार्टी के दो लाइन के संघर्ष बारे में  और नेपाल की राजनीति के बारे  में इस तरह पेश आयेंगें ।  कुछ भी हो वर्मा  जी ने 'क्या माओवादी क्रांति की उलटी गिनती शुरू हो गयी ' लेख में जो लिखा  है,  उससे अपनी गरिमा को स्वयं ही बहुत धूमिल बना दिया।

आपकी पार्टी को लेकर भारतीय माओवादीयों की क्या आलोचना हैं, आप उनकी आलोचना को कितना सही मानते हैं ?

उनलोगों की हमारे ऊपर  सामान्यत: यह आलोचना है  कि हम दक्षिणपन्थी संशोधनवादी दलदल में फंस रहें हैं । हमको लगता है  कि उनकी आलोचना सकारात्मक है ।




नेपाल के राजनीतिक हालात और नेपाली माओवादी पार्टी की भूमिका को लेकर आयोजित इस बहस में अबतक आपने पढ़ा - 

1-क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है? 2-क्रांतिकारी लफ्फाजी या अवसरवादी राजनीति 3- दो नावों पर सवार हैं प्रचंड 4- 'प्रचंड' आत्मसमर्पणवाद के बीच उभरती एक धुंधली 'किरण'5- प्रचंड मुग्धता नहीं, शीर्ष को बचाने की कोशिश 6- संक्रमण काल की जलेबी अब सड़ने लगी है कामरेड7- संशोधनवादियों को जनयुद्ध का ब्याज मत खाने दो ! 8- संसदीय दलदल में धंसती नेपाली क्रांति 9- संविधान निर्माण ही प्राथमिक


 

May 18, 2011

प्रचंड गुट ने दी बाबुराम को जान से मारने की धमकी

नेपाल के कैसीनो जनयुद्ध की समाप्ति  के बाद से पार्टी के लिए आय का प्रमुख आधार हैं, इसलिए यहाँ लगातार टकराव की स्थिति बनी रहती है. जनयुद्ध के समय पार्टी कैसीनो संस्कृति के खिलाफ थी, मगर आज यह पार्टी का प्रमुख आर्थिक स्रोत  है...

विष्णु शर्मा

एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट  पार्टी (माओवादी) के उपाध्यक्ष बाबुराम भट्टाराई को नेपाल की राजधानी काठमांडू में 16 मई को उनकी ही पार्टी के एक मजदूर नेता जनक बर्तौला ने जान से मारने  की धमकी दी है. जनक बर्तौला हयात होटल के कैसीनो तारा में बाउन्सर और माओवादी होटल मजदुर इकाई समिति के सदस्य है. बताया जा रहा है की बर्तौला मजदुर संगठन के पूर्व अध्यक्ष और पार्टी के अध्यक्ष प्रचंड के करीबी सालिकराम जमकट्टेल समूह से है.

 कुछ दिन पहले  भट्टाराई के निकट मजदूर यूनियन के सदस्य जानुमान डंगोल पर जमकट्टेल के कार्यकर्ता कल्पदेवराई ने जानलेवा  हमला किया था और इसके बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था. अपने सहयोगी को रिहा करने के मांग को लेकर पार्टी कार्यालय पहुचे बर्तौला ने तब बाबुराम भट्टाराई  को जान से मारने की धमकी दी, जब उन्होंने कल्पदेवराई के खिलाफ रिपोर्ट वापस लेने से मना कर दिया.

बाबुराम ने धमकी मिलने की सूचना गृहमंत्री कृष्ण बहादुर महरा और पार्टीके महासचिव राम बहादुर थापा 'बादल' को दी है, जिसके बाद  भट्टाराई की सुरक्षा  बढ़ा दी गयी है. भट्टाराई के निकट के कार्यकर्ताओं  का कहना है कि मजदूर संगठन के विस्तार के नाम पर जिस प्रकार से आपराधिक तत्वों का पार्टी में प्रवेश कराया गया है यह उसी का परिणाम है. इस घटना पर बाबुराम का कहना है 'यह दुर्भाग्यपूर्ण है. आज जो लोग मुझे धमकी दे रहे है कल वे अध्यक्ष को धमकी देंगे.पार्टी की आड़ में आपराधिक काम करने वालों पर कड़ी कार्रवाही की जानी चाहिए.'

भट्टाराई के समर्थकों ने कल पार्टी मुख्यालय पेरिस डाँडा में धरना दिया. क्रान्तिकारी पत्रकार संघ के अध्यक्ष और प्रचार राज्य समिति सचिव महेश्वर दहाल ने मांग रखी   कि 'उपाध्यक्ष बाबुराम को पार्टी कार्यालय में जान से मारने की धमकी अत्यंतनिन्दनीय है और धमकी देने वाले पर कड़ी कार्रवाही की जानी चाहिए.'

नेपाल राजनीती के जानकार मानते है कि यह घटना पार्टी के आर्थिक स्रोत पर कब्ज़ा करने की प्रचंड और बाबुराम समर्थकों के बीच लम्बे समय से चल रही होड़ का नतीजा है.  नेपाल के कैसीनो  जनयुद्ध  की सामप्ति के बाद से पार्टी के लिए आय का प्रमुख आधार हैं,  इसलिए यहाँ लगातार टकराव की स्थिति बनी रहतीहै. जनयुद्ध के समय पार्टी कैसीनो संस्कृति के खिलाफ थी मगर आज यह पार्टी का प्रमुख आर्थिक स्त्रोत बनगया है. भले ही राजनीतिक स्तर प्रचंड और बाबुराम के बीच पिछले समय नजदीकी आई हो लेकिनदोनों के समर्थक आर्थिक संसाधनों में अपने कब्जे को जरा भी कम नहीं करना चाहते.

दस साल तक जन्यूद्ध का संचालनकरने के बाद संसदीय राजनीति में प्रवेश करने वाली माओवादी पार्टी नेपाल की संसद में सबसे बड़ी पार्टी है. लेकिन पार्टी के अन्दर लगातार चल रहा 'दो लाइन' और आर्थिक स्त्रोतों का संघर्ष जनता में इसके विश्वास को लागातार कम कर रहा है. आने वाले दिनों में पार्टीके प्रदर्शन पर इसका असर पड़ना तय है.



May 17, 2011

खाने और दिखाने के मुद्दों का फर्क करतीं मायावती

सर्वजन की बात करने वाली सरकार ने सर्वजन को घरों में बंधक बनाकर सीएम के दौरों को पूरा करवाया था। ऐसे में मायावती को इस गुरूर से बाहर जाना चाहिए कि उनकी जुबान इतिहास लिखती है...

डॉ0 आशीष वशिष्ट

भट्ठा पारसौल की घटना ने माया सरकार की दोमुंही नीति को सारे देश के सामने उजागर कर दिया है। मार्च महीने में जाट आरक्षण की मांग कर रहे आंदोलनकारियों को खुली छूट देने वाली माया सरकार जब भट्ठा पारसौल के आंदोलनकारी किसानों पर गोली चलवाती है तो यूपी सरकार की दोमुंही और जनविरोधी नीति का कुरूप चेहरा पूरे देश  के सामने बेपर्दा हो जाता है। वैसे भी माया राज में सरकार और नौकरशाह कानून, मानवाधिकार और जनपक्ष से जुड़े मुद्दों को जूते की नोक पर ही रखते हैं।

बहन मायावती का हर कदम  वोट बैंक और राजनीतिक गुणा-भाग से प्रेरित और संचालित होता है। भट्ठा पारसौल के किसान जमीन के बदले मिलने वाले सरकारी मुआवजे को बढ़ाने की मांग के लिए आंदोलनरत थे। किसानों की जायज मांगों और आंदोलन का प्रशासन लंबे समय से अनसुना और अनदेखा कर रहा था। आखिरकर अपनी मांगे पूरी न होती देख किसानों ने प्रशासन तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए रोडवेज के तीन कर्मचारियों को बंधक बना लिया। जिला प्रषासन को जैसे ही रोडवेज के कर्मचारियों के बंधक बनाए जाने की खबर लगी, वैसे ही एक झटके में सारा प्रशासनिक अमला जाग उठा।

प्रशासन ने किसान नेताओं से वार्ता और समझौते की जरूरी और प्राथमिक कार्रवाई से पहले किसानों पर लाठियां और गोलियां चलाकर दादागिरी और निकम्मेपन का जो उदाहरण पेश  किया वो किसी भी लोकतांत्रिक  देश  के लिए शर्मनाक घटना है। प्रशासन के रवैये से क्षुब्ध किसानों ने भी जवाबी कार्रवाई की जिसमें दोनों पक्षों को जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा। असल में देखा जाए तो जो भी हुआ उसकी निंदा होनी चाहिए। क्योंकि कानून को हाथ में लेने की इजाजत किसी को भी नहीं दी जा सकती है। किसानों ने अपनी बात को प्रषासन तक पहुँचाने  के लिए कर्मचारियों को बंधक बनाने का जो रास्ता चुना वो भी सरासर गलत और गैर-कानूनी था और जो नंगा नाच और तांडव पुलिस-प्रषासन ने किया वो भी घोर निंदनीय है।

लेकिन ऐसे हालात किसने बनाए और किसने किसानों को अपहरणकर्ता बनने के लिए मजबूर किया। प्रशासन को समय रहते नागरिकों की समस्या की ओर उचित ध्यान देना चाहिए। भट्ठा पारसौल की घटना  प्रशासनिक अक्षमता, अकर्मण्यता, गैर-जिम्मेदाराना रवैया और निकम्मेपन की ही उपज है। क्योंकि जनता से अधिक प्रषासन को जिम्मेदार, संयमी, अनुषासित, गंभीर और समझदारी दिखाने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन माया सरकार में लगभग सारा सरकारी अमला कानून को रबड़ की गेंद की भांति उछालने में आनंद अुनभव करता है।

भट्ठा पारसौल से पूर्व आगरा, मथुरा, इलाहाबाद और लखनऊ में भी किसानों और प्रषासन के मध्य कई घटनाएं घट चुकी हैं। प्रदेश में जहां-जहां भी विकास के नाम पर जमीन अधिग्रहण हो रहा है वहां किसान और प्रशासन आमने-सामने खड़े हो रहे हैं। असल समस्या भूमि अधिग्रहण कानून से लेकर प्रषासानिक अनुभवहीनता की है। कारपोरेट, ठेकेदार, गुण्डों और माफियाओं के हाथों बिकी सरकार को पैसा कमाने की इतनी जल्दी है कि विकास के नाम पर धड़ाधड़ खेती वाली जमीनों का अधिग्रहण सरकारी एजेंसियां कर रही है।

माया सरकार में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सरकार को जिस मुद्दे पर व्यक्तिगत तौर पर नफा नजर आता है, वह सरकार की निगाह में विकास हो जाता है। जाट आरक्षण ने पूरे रेल यातायात, यात्रियों और आम आदमी के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया था। यूपी से होकर निकलने वाली दर्जनों ट्रेनों को रद्द करना पड़ा। होली के त्योहार के कारण पूर्वांचल और देष के अन्य हिस्सों में रहने वाले लाखों लोगो की घर जाने की ख्वाहिष इस बार अधूरी रह गई क्योंकि आंदोलनकारी जाट रेलवे के ट्रेकों पर कब्जा जमाए थे।

जाट आंदोलकारियों को माया सरकार का खुला संदेष था कि जो मन में आए वो करो क्योंकि जाट आरक्षण की आंच कांग्रेस और रालोद का राजनीतिक समीकरण बिगाड़ सकती थी, बसपा और माया सरकार से उसे कोई नुकसान नहीं होना था। हाई कोर्ट के सख्त रवैये के बाद जाट आंदोलनकारियों को रेल ट्रेक से हटाने की सुस्त और मरियल कार्रवाई माया सरकार ने की तो थी लेकिन तब तक लाखों-करोड़ों के राजस्व का नुकसान और लाखों लोगांे का होली का त्योहार खराब हो चुका था।

कदम-कदम पर माया सरकार की दोमुंही नीतियां स्पष्ट दिखाई देती हैं। मेरठ में यांत्रिक कारखानों के खिलाफ आमरण अनषन पर बैठे जैन मुनि श्री मैत्रि सागर को जिस तरह सरकारी मषीनरी ने अनषन से जर्बदस्ती उठाया और बारह घंटे नजरबंद बनाए रखा वो सरकार की कथनी और करनी में अंतर को स्पष्ट उजागर करती है। जैन मुनि की मांग सिर्फ इतनी थी कि सरकार यांत्रिक बूचड़खानों पर रोक लगाए, लेकिन लोकहित और जन समस्या से जुड़े मुद्दे का स्थायी या ठोस हल निकालने की बजाए प्रषासन अनषन तुडवाने के कुत्सित प्रयासों में लगा रहा। अगर कोई संत या देष का आम आदमी चिल्ला-चिल्लाकर अपनी समस्या या मांग प्रषासन के सामने रखता है तो सरकारी अमला उसकी बात को गंभीरता से सुनने की बजाए फौरी कार्रवाई करने में अधिक दिलचस्पी दिखाता है।

मेरठ में बूचड़खानों की काली और अवैध कमाई के पीछे सत्ता पक्ष से जुड़े नेताओं का खुला हाथ और संरक्षण है। इसलिए सरकारी अमला जायज मांग को भी सिरे से खारिज करने में परहेज नहीं करता है। देखा जाए तो जनससमयाओं और मांगों के पीछे कहीं न कहीं राजनीतिक दखलअंदाजी से लेकर प्रषासन की अदूरदर्षिता, निकम्मापन और लेट लतीफी स्पष्ट झलकती है। मायावती सरकार में तार्किक क्षमता का अभाव है। माया अपने विरोधियों को तार्किक या ठोस जवाब देेने की जगह कानूनी डंडे और ताकत का सहारा लेने में अधिक यकीन रखती है। तभी तो सरकारी मषीनरी विरोधी दलों के नेताआंे को जूते से मसलने और अहिंसक प्रदर्षनकारियों पर डंडे और गोलियां चलाने से भी परहेज नहीं करती है।

जब बात माया सरकार के हितों और वोट बैंक की आती है वहां सरकार त्वरित कार्रवाई करने से चूकती नहीं है। लखनऊ के सीएमओ हत्याकांड से लेकर षीलू बलात्कार कांड तक माया सरकार की त्वरित कार्रवाई किसी से छिपी नहीं है। सीएमओ हत्याकांड में तो मांयावती ने अपने दो-दो चहेते मंत्रियों की बलि लेने में कोई संकोच नहीं किया। क्योंकि माया हर चीज और हालात से समझौता कर सकती हैं लेकिन उन्हें ये कतई बर्दाषत नहीं है कि कोई उनके वोट बैंक में सेंध लगाए या उनकी कुर्सी खिसकाने का प्रयास करे।

भट्ठा पारसौल और जाट आरक्षण के मुद्दों पर माया सरकार द्वारा की गई कार्रवाई सरकार की नीति और नीयत का खुला बयान करती है कि सरकार की हर कवायद वोट बैंक को बचाए रखने या फिर अपने विरोधियों को धूल चटाने से प्रेरित होती है। 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद से ही माया ने प्रदेष के आम आदमी से दूरी बना रखी है। माया के ष्षासन में जनता से मिलने का कोई कार्यक्रम या एजेंडा नहीं है। पूर्व सरकारों में जनता दर्षन के माध्यम से मुख्यमंत्री प्रदेष की जनता से रूबरू होते थे और उनकी समस्याआंे को सुनते और सुलझाते थे।

पिछले चार साल के कार्यकाल में मायावती ने दो-चार रैलियों के अलावा जनता से मिलने की कोई कवायद नहीं की। मार्च माह में प्रदेष के जनपदों के दौरों पर निकली माया को जगह-जगह जनता के विरोध का सामना करना पड़ा। सर्वजन की बात करने वाली सरकार ने सर्वजन को घरों में बंधक बनाकर सीएम के दौरों को पूरा करवाया था। ऐसे में मायावती को इस गुरूर से बाहर आ जाना चाहिए कि उनकी जुबान इतिहास लिखती है। जब जनता पष्चिम बंगाल में वामपंथियों का 34 साल पुराना किला ढह सकती है तो जनता बसपा का किला भी ढहाने उतनी ही सक्षम है। 


 स्वतंत्र पत्रकार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक- सामाजिक मसलों के लेखक-








May 16, 2011

सीपीएम के 'मर्दाना' वामपंथी

पश्चिम बंगाल में सीपीएम के नेता  बीनॉय कोनार के अपने पुरुष कैडर को निर्देश दिया था कि  जब मेधा पाटकर नंदीग्राम आये तो उनके सामने अपनी पैंट खोल दे. उस समय चुनाव नजदीक नहीं थे इसलिए सीपीएम ने ना इस बयान की निंदा की और ना ही इसके लिए माफ़ी मांगी...

 कविता कृष्णन

पश्चिम बंगाल की सत्ता में 34 वर्षों तक रही पार्टी सीपीएम के नेता अनिल बासु ने हाल ही में बीते विधानसभा चुनाव की एक  रैली को संबोधित करते हुए, कोलकाता के  रेड-लाइट एरिया- सोनागाछी का जिक्र किया और कहा-  'ममता के पास पैसा कहाँ से आ रहा है? किस भतार  (बंगाली भाषा का शब्द जो उस पुरुष के लिए इस्तेमाल किया जाता है,जिसका किसी औरत के साथ नाजायज सम्बन्ध हो) ने उसे चुनाव खर्च के लिए 24 करोड़ दिए?'

ममता बनर्जी : गलियां रहीं बेअसर

उन्होंने आगे कहा कि सोनागाछी  की वेश्या 'छोटे ग्राहकों की तरफ तब देखती भी नहीं जब  उन्हें कोई बड़ा ग्राहक मिल जाता है'.बासु ने कहा कि तृणमूल को अमेरिका जैसे बड़े ग्राहक चुनाव के लिए धन दे रहे हैं, इसलिए अब उसे चेन्नई, आंध्र प्रदेश  और दूसरी जगह के अपने छोटे ग्राहकों में कोई दिलचस्पी नहीं है.इससे पहले  सिंगुर प्रतिरोध के समय बासु ने , कहा था कि "यदि उनका बस चलता तो वे ममता के बाल पकड़ कर उसे कालीघाट के उसके मकान में पटक देते ना कि उसे टाटा फैक्ट्री के सामने प्रदर्शन करने देते".गौरतलब है कि घोर स्त्री विरोधी  राजनीति में डूबे सीपीएम नेता  अनिल बासु  आरामबाग से सात बार सांसद रह चुके है.इसी तरह पश्चिमी मिदनापुर के गरबेटा विधानसभा से सीपीएम प्रत्याशी और पूर्व मंत्री सुशांत घोष ने ममता बनर्जी के शादीशुदा न होने पर कहा कि  'जिस औरत की मांग में लाल सिंदूर नहीं हैं,वह स्वाभाविक तौर पर  लाल  रंग देखकर क्रोधित होगी .'  

जरूरी नहीं कि हम ममता बनर्जी या सीपीएम की राजनीति के समर्थक हों तभी इस बात को समझें कि सीपीएम के  अनिल बासु की स्त्री विरोधी गाली उस पितृसत्तात्मक अपमान का सबूत है जिसे सार्वजानिक जीवन में एक महिला को बार-बार झेलना पड़ता है. भले ही बासु ने  प्रकाश करात के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी से सात बार चुनाव जीता हो, लेकिन उन्होंने यह साबित कर दिया कि जब महिलाएं राजनीति में प्रवेश करती हैं तो वे राजनीति को राजनीति की तरह नहीं ले पाते. जब भी उन्हें महिला प्रतिद्वंदी का सामना करना पड़ता है तो वे तुरत राजनीतिक मुद्दों को एक और पटक देते है और आसान पितृसतात्मक गालियों का सहारा लेने लगते है -उनकी स्त्रीत्व पर हमला करते है,उन्हें वेश्या कहते हैं. साफ़ पता चलता है सीपीएम के यह नेता एक महिला प्रतिद्वंदी के प्रतिरोध का सामना मिथकीय दुशासन के तरीके से जो पितृसत्तात्मकता का प्रतीक भी है,के अलावा किसी अन्य तरीके से नहीं कर सकते.

हालांकि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे बुद्धदेव भट्टाचार्य  ने कहा था  कि जिस भाषा का प्रयोग बासु ने किया है वह 'अक्षम्य'है और उन्होंने सीपीएम को बासु के खिलाफ चेतावनी जारी करने कोभी कहा था. संभवतः बासु ने भी अपनी 'लापरवाह' टिप्पणी के लिए पछतावे का बयान जारी भी कर दिया था. लेकिन सवाल यह है कि यदि इस तरह की मौखिक हिंसा,जो महिला को सार्वजानिक जीवन में अपमानित करती है, सीपीएम के लिए 'अक्षम्य' है तो कैसे चेतावनी या माफ़ी इसके लिए पर्याप्त है. उन्हें सीपीएम से अभी तक निष्कासित क्यों नहीं किया गया? क्या अनिल बासु को स्त्री-विरोधी द्वेष पूर्ण टिपण्णी  के लिए सजा नहीं मिलनी  चाहिए ?

पहले भी कई अवसरों पर  सीपीएम नेताओं ने इस तरह की पितृसत्तात्मक तानों  और गलियों का इस्तेमाल किया है.दिवंगत सुहास चक्रबर्ती ने तृणमूल  कांग्रेस  की नेता ममता बनर्जी  के नारे माँ-माटी-मानुष का यह कह कर मजाक बनाया था और कहा था कि 'जो औरत खुद बांझ  है वह माँ का मतलब क्या समझेगी?'सीपीआइएम के ही बीनॉय कोनार के अपने पुरुष कैडर को निर्देश दिया था की जब मेधा पाटकर नंदीग्राम आये तो उनके सामने अपनी पैंट खोल दें.उस समय चुनाव नजदीक नहीं थे इसलिए सी पीआई एम ने ना इस बयान की निंदा की और ना ही इसके लिए माफ़ी मांगी.

सीपीएम को सोनागाछी  की उन गरीब स्त्रियों से भी माफ़ी मांगनी चाहिए जिन्हें  इस व्यवस्था ने मरने के लिए हाशिए पर धकेल दिया है और जिनका कुसूर सिर्फ इतना है की वे जीना चाहतीहै. क्यों उन्हें एक गाली समझा जाये? इसमें उनका क्या कुसूर है? बासु को इसका कोई हक़ नहीं है के वह उनके आत्म-सम्मान को ठेस पहुचाये जबकि वे और उनकी पार्टी को इस बात का जवाब देने चाहिए कि क्यों सीपीएम के तीन दशको के शासन के बाद भी सोनागाछी  की औरतें बेबस जिन्दगी जीने को मजबूर है.
अनुवाद-  विष्णु शर्मा


जेएनयु छात्र संघ की पूर्व संयुक्त सचिव और सीपीआइएमएल (लिबरेशन) की केंद्रीय समिति सदस्य. फिलहाल लिबरेशन के महिला संगठन एपवा की  राष्ट्रीय  सचिव .


चंद सवाल रह गए थे बादल दा !

बादल दा, मुझे दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आप अपने नाटकों में आम लोगों के लिए वही कुछ गिने-चुने ही समाधान छोड़ते थेः वह जहर खा ले, फांसी लगा ले, पागल हो जाए, या कम से कम क्रांतिकारी रास्ते से भटक ही जाए. और आदमी यह सब इसीलिए करे कि उससे आम आदमी की समस्याओं को मान्यता मिलेगी...

ब्रह्म प्रकाश
बादल दा, जब अनायास ही एक साइट पर आपकी मृत्यु का समाचार पढ़ा तो थोड़ी देर के लिए भरोसा ही नहीं हुआ. भरोसा इसलिए भी नहीं हो पा रहा था क्योंकि आपसे करने के लिए चंद सवाल जो रह गये थे. हां, बादल दा एक इच्छा थी कि आपसे एक दिन जरूर मिलूंगा और मिल कर कुछ अटपटे और अनसुलझे सवाल करूंगा.वे सवाल जो असल में अनसुलझे नहीं थे,बल्कि आपने उन्हें उलझा कर रख दिया था.

आपके वो उलझे सवाल हम जैसे बहुतों के मन में होंगे. खास कर जब भी आपका कोई नाटक देखा, सवाल करने की इच्छा उतनी ही तीव्र हुई. परंतु जब भी आपको लिखने के लिए सोचा, थोड़ी झिझक ने मुझे रोक लिया. यह जानते हुए भी कि आप नहीं रहे आज वे सवाल पूछ रहा हूं. सवाल इसलिए भी जरूरी हैं कि आपकी विरासत तीसरा रंगमंच (Third Theatre) के रूप में जिंदा है. आपके लिखे गये उन अनगिनत नाटकों में के रूप में. सवाल आप से भी हैं और आपके उन शागिर्दों से भी जो आपके नाटकों के गुणगान करते नहीं थकते. वैसे कुछ मामलों में, खास कर तीसरा रंगमंच को लेकर तो मैं खुद ही आपका गुणगान करता हूं.

रंगकर्मी बादल सरकार
आपसे और आपके तीसरे रंगमंच के बारे में मेरा पहला परिचय जेएनयू में तब हुआ जब मैं कैंपस आधारित नुक्कड़ नाटक समूह जुगनू से जुड़ा था. परिचय क्या था, प्रेरणा थी. तब आपके तीसरा रंगमंच का प्रशंसक हो गया था मैं. आप जिस खूबी से स्पेस का इस्तेमाल किया करते थे, अपने नाटकों में आपने जिस बारीकी से अभिनेताओं की देह (body) का इस्तेमाल किया था और उसमें एक नयी जान फूंक दी थी, वह पहली नजर में बहुत प्रभावशाली लगता था. जब चाहा आपने उसे पेड़ बना दिया, जब चाहा एक लैंप पोस्ट. खास कर जिस तरह से आपके एक चरित्र दूसरे चरित्र में बदल जाते थे और दूसरे चरित्र को आत्मसात कर लेते थे, वह काबिले तारीफ था. स्पेस और बॉडी का ऐसा मेल आधुनिक भारतीय रंगमंच में शायद ही किसी ने किया हो. आप सिर्फ रंगमंच को सभागार (auditorium) से बाहर ही नहीं लाये, आपने नुक्कड़ों और सड़कों को ही मंच (स्टेज) बना दिया. बुर्जुआ रंगमंच के सभागार को तो आपने ध्वस्त कर दिया. आपने यह साबित कर दिया कि पैसे और सभागारों से रंगमंच नहीं चलता, रंगमंच के लिए अभिनेता की देह, न्यूनतम स्पेस और दर्शक की कल्पनाशक्ति काफी है.

आपका वह सवाल कि ‘थिएटर करने के लिए कम से कम क्या चाहिए’, नाट्यकर्मियों के लिए आज भी प्रेरणास्रोत है. एक चुनौती है. आपने जिस तरह से वस्त्र सज्जा (कॉस्ट्यूम) और साज सज्जा (मेक अप) को गैरजरूरी बना दिया और इस तरह कुल मिला कर नाटक के अर्थशास्त्र को बदल कर रख दिया वह हमारे समाज के संदर्भ में रेडिकल ही नहीं क्रांतिकारी भी था. आपने बुर्जुआ रंगमंच और रंगकर्मियों को उनकी सही औकात बता दी थी. इसके लिए देश के नाट्यकर्मी आपके कायल हैं. खास कर हमारे जैसे देश में आपके प्रयोग और भी अहम हो जाते हैं, क्योंकि यूरोप और अमेरिका की तरह रंगमंच अब भी यहां उद्योग नहीं है. कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ कर रंगमंच की कमान अब भी आम लोगों के हाथों में है. वही आम लोग जो बड़े बड़े थिएटर हॉलों में किए गए नाटकों पर घास भी नहीं डालते. आज भी उनके लिए थिएटर गांव के मेलों में शहर की गलियों और चौराहों पर है. उन्हें आनेवाले दिनों में भी मुफ्त का थिएटर ही चाहिए होगा, जो उनका वाजिब हक है.

ऐसे रंगमंच के लिए आपका योगदान बहुत बड़ा है. उसे जितना भी सराहा जाए वह कम है. आपके रूप में हमें एक आगस्टो बोअल मिल गया था. असल में आपके कामों से ही हमने ऑगस्टो बोअल को जाना.तब तक आपका नाटक देखने भी लगा था और पढ़ने भी लगा था. जैसे-जैसे आपके नाटकों से परिचय होता गया आपके नाटकों को लेकर बेचैनी बढ़ने लगी. चंद सवाल उठने लगे थे. पहले तो कुछ समझ में नहीं आया लेकिन जबसे कुछ समझने लगा तो आप पर गुस्सा भी आने लगा था. आपने अपने नाटकों में कथ्य (कंटेंट) पर ज्यादा महत्व देने की बात कही थी, क्या कथ्य को महत्व देने भर से हर नाटक क्रांतिकारी हो जाता है? बल्कि वह तो इस बात पर निर्भर करता है कि आपके नाटक का कथ्य क्या है. और वैसे भी आपके नाटकों का कंटेंट क्या था बादल दा?

उलझा हुआ आम आदमी जो अपनी उलझनों में फंस कर रह जाता है, उनसे बाहर नहीं निकल पाता और निकल भी नहीं पायेगा. आपका वह आम आदमी मध्यवर्ग से लेकर दलित और आदिवासी भी था. वह कोलकाता की सड़कों से लेकर झारखंड के जंगलों तक फैला हुआ था. एक ऐसा आम आदमी जिसकी कहानी मौत, हताशा और खुदकुशी के ईर्द-गिर्द घूमती रहती है और वहीं खत्म हो जाती है (याद कीजिए कि एवम इंद्रजीत, बाकी इतिहास और पगला घोड़ा नाटक खुदकुशी के आसपास ही घूमते हैं, वहीं मिछिल, भूमा और बासी खबर पर मौत के ईर्द-गिर्द घूमते हैं). आम लोगों को लेकर आपकी इतनी निराशावादी सोच क्यों थी बादल दा? आपको लोग हमेशा अंधेरे में ही क्यों दिखते थे. आमलोगों के बारे में यह एकतरफा सोच कोई बुर्जुआ ही रख सकता है. और यह बात भी सही है कि आपने आमलोगों पर बुर्जुआ समस्याओं और उसकी मानसिकता (साइकोलॉजी) को थोप दिया था.

जो लोग आपके नाटकों को क्रांतिकारी साबित करने पर तुले हुए हैं उन्हें क्या समझ में नहीं आता कि आपके नाटक असंगति (एब्सर्डिटी), घिनौनेपन (सॉरडिडनेस) और भ्रम (कन्फ्यूजन) की बेतरतीब जोड़-तोड़ पर टिके हुए हैं (जो आप भी कुछ हद तक स्वीकार करते थे). ऐसा भ्रम जिसमें सार्थक जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती. बिना सार्थक और सुंदर जीवन की कल्पना किए हुए कोई क्रांति के बारे में कैसे सोच सकता है? बेतरतीब जोड़-तोड़ भ्रम पैदा करती है, क्रांति नहीं लाती बादल दा.

हां, आपके नाटक जुलूस (मिछिल) में कुछ क्रांतिकारी-सा दिखा था, जब आम आदमी जुलूस से जुड़ता है. लेकिन उस जुलूस की विडंबना तो यह है कि आपका आम आदमी जुलूस में क्रांति के लिए नहीं जुड़ता, बल्कि उसकी खोज एक सच्चे आत्म तक सीमित कर दी जाती है. आपका जुलूस एक मरी हुई प्रतिमा जैसा है, जो न तो हमला करती है और न ही उसे किसी वर्ग शत्रु से कोई लेना देना है.

आखिर आपका जुलूस किसके खिलाफ था? उससे भी बड़ी विडंबना है- जुलूस के लिए इंतजार करना. आपका आम आदमी जुलूस के लिए इंतजार करता है, सैमुअल बेकेट के वेटिंग फॉर गोदो की तरह. मिछिल ने मुझे यह भी आभास करा दिया था कि आप एक ही साथ में बोअल और बेकेट थे. जब मैंने देखा कि आपका चरित्र खोका, राज्य की एजेंसियों द्वारा बार-बार मारे जाने के बाद उठ कर लड़ने के बजाय जीने की आशा ही छोड़ देता है तो आम लोगों को लेकर आपकी अंधेरी और गहरी निराशा साफ दिखी. उसमें एक बूढ़े का प्रकट होना और खोका से कहना कि वह सच्चे आत्म की तलाश करे- यह क्रांतिकारी कम और किसी पुरोहित का उपदेश ज्यादा लगता है. वैसे भी आपके नाटक ईसाइयों के पाप प्रायश्चित करनेवाले नाटकीय कर्मकांडों से ज्यादा प्रभावित लगते हैं. अन्याय का भुक्तभोगी उत्पीड़ित कोई पापी नहीं होता, जिसके लिए उसे अपने ऊपर प्रायश्चित करना पड़े.

आपका आम आदमी हमेशा अपने आपको कोसता हुआ मर जाता है, या पागल हो जाता है. एक हद तक जबरन मान भी लूं कि कुछ चीजों के लिए आम आदमी जिम्मेवार है, लेकिन सब कुछ उसी पर डाल देना कहां तक उचित था? कब तक आम आदमी आपके बेहूदे सवाल ‘मैं कौन हूं’ और ‘मैं क्यों हूं’ की जद्दोजहद में जीता रहेगा? जबकि उसे पता है कि वह कौन है, उसका वर्ग क्या है और उसका (वर्ग) दुश्मन कौन है. शासक वर्ग कौन है. क्या मैं जान सकता हूं आपके आम आदमी का वर्ग क्या था बादल दा? क्या आपने भोमा पर अपने खुद के वर्ग की मानसिकता (साइकोलॉजी) और विचारधारा नहीं थोप दिया था? यह कौन-सी नीतिपरकता थी?

मुझे आपके नाटक की बुनावट बहुत अच्छी लगती थी. वह काफी निजी और अपने में दर्शक को रमा लेने वाली होती थी. लेकिन मुझे निराशा तब होती है जब आपकी सारी राजनीति इस रमा लेने के आकर्षण में ही खत्म हो जाती है. क्रांति खिलवाड़ में खत्म हो जाती है. आपके यहां आकर्षण एक विमर्श बन कर रह जाता है. मुझे आज भी लगता है कि आप चाहते तो इसे एक शानदार और क्रांतिकारी दिशा में मोड़ सकते थे. लेकिन आपको जटिलता की सनक थी. आपको किसी भी क्रांतिकारी समाधान से परहेज था. आपने अपने नाटकों को इस तरह बुना कि उनसे क्रांति की हर एक गुंजाइश खत्म हो जाए. यहां पर कुछ लोग कहेंगे कि समाधान देना रंगमंच का मकसद नहीं होना चाहिए, लेकिन लोगों को भारी भ्रम और हताशा में डालना, लोगों को निराश बना कर छोड़ देना और हर क्रांतिकारी समाधान की संभानवाओं को नाटकों में से खत्म कर देना कैसी क्रांतिकारिता और नीतिपरकता है? और फिर, क्या एक क्रांतिकारी समाधान नहीं देना भी अपने आप में समाधान देना नहीं है? दुख की बात तो यह है कि आपके द्वारा दिये गये समाधान लोगों को अपने विनाश और पीड़ा की एक अनंत और अंधेरी कोठरी में बंद कर देते हैं.

बादल दा, मुझे दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आप अपने नाटकों में आम लोगों के लिए वही कुछ गिने-चुने ही समाधान छोड़ते थेः वह जहर खा ले, फांसी लगा ले, पागल हो जाए, या कम से कम क्रांतिकारी रास्ते से भटक ही जाए. और आदमी यह सब इसीलिए करे कि उससे आम आदमी की समस्याओं को मान्यता मिलेगी. बचपन में एक कहानी पढ़ा करता था कि कैसे अपने बारे में अखबार में छपवाने के लिए आदमी कार के नीचे आ गया था. आपके नाटक हर बार उस कहानी की याद दिला देते हैं. फांसी लगा लेना या खुदकुशी करने से राज्य आम लोगों की समस्याओं को मान्यता नहीं दे देता. और मान्यता मिल जाने से समस्या का हल नहीं हो जाता. ऐसा ही होता तो हमारे देश के किसानों की समस्याएं कब की हल हो गयी रहतीं. हो सकता है कि आप मध्यवर्ग से उन समस्याओं की मान्यता दिलवाना चाहते थे, यह जानते हुए भी कि आपका भद्रलोक मध्यवर्ग नाटक के चरित्र को मान्यता तो दे सकता है कि लेकिन वह ‘अभद्र’ आम आदमी के अस्तित्व को ही नहीं स्वीकारता. और वैसे भी आप कमोबेश 40 साल में किस वर्ग की किस समस्या को मान्यता दिलवा पाए? विषय को मान्यता दिलवाने का आपका यह तरीका हास्यास्पद ही नहीं, अनैतिहासिक भी था.

आपके नाटक के बारे में कहा जाता है कि आपके नाटक क्रांतिकारी थे, राज्य विरोधी और सत्ता विरोधी थे. जब राज्य और सत्ता विरोधी ही थे तो उनके खिलाफ आम लोगों के खड़े होने की आपने हिमायत क्यों नहीं की. कौन-सा क्रांतिकारी रंगमंच या सौंदर्यशास्त्र इसकी इजाजत नहीं देता? और फिर जो लोग सत्ता विरोधी थे, राज्य विरोधी थे, उनसे आपने अपने नाटकों में लगातार पश्चाताप क्यों करवाया है? नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान या उसके पहले के इतिहास में लोगों ने ऐसी कौन-सी गलती की थी, ऐसा कौन-सा पाप किया था, जिसका पश्चाताप उनको पूरे नाटक के दौरान करना पड़ता था. अपने आपको छोटी-छोटी गलतियों के लिए कोसते रहना पड़ता था. और अगर वह पश्चाताप आत्मालोचना थी तो उसका उत्तर लोगों का संघर्ष और क्रांति क्यों नहीं थी बादल दा?

अगर आपके नाटकों का दार्शनिक विश्लेषण किया जाए जो वह दो तरह के दर्शन का नेतृत्व करता है. पहला तो अस्तित्ववाद है, जिसका कुछ लोगों ने उल्लेख किया है. लेकिन आपका अस्तित्ववाद सार्त्र और सिमोन द बोउवार का अस्तित्ववाद नहीं बल्कि सैमुएल बेकेट और नीत्शे का अस्तित्ववाद है. आपके नाटकों का दूसरा दर्शन उत्तर आधुनिकता है, जो उसी अस्तित्ववाद का विस्तार है और रिचर्ड शेसनर (Richard Schechner) से प्रभावित है. बाद में इसकी अधिक पुष्टि तब हो गयी जब पता लगा कि आपका काम उसी उत्तर आधुनिक परफॉर्मेंस स्टडीज के विद्वान रिचर्ड शेसनर से प्रभावित था.

आपने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘बहुत लोगों को लगता है कि मेरा नाटक ब्रेख्त से प्रभावित है, लेकिन मेरा नाटक ब्रेख्त से प्रभावित नहीं है.’ बता नहीं लोगों को आपके नाटक के बारे में ऐसा भ्रम क्यों था. शायद ऐसा उन्हीं को लगता होगा जो आपको क्रांतिकारी मानते हैं. आपका काम ब्रेख्त से दूर दूर तक प्रभावित नहीं लगता. आपका मिछिल हमेशा वेटिंग फॉर गोदो की याद दिलाता रहा और भोमा रिचर्ड शेसनर के एब्सर्ड थिएटर की. आप भारत के बेकेट थे और भारतीय रंगमंच के सभी उत्तर आधुनिकतावादियों के पितामह थे. दूर-दूर तक आप ब्रेख्त नहीं थे.

बादल दा, आपकी कुछ-कुछ निजी प्रतिबद्धताएं बहुत अच्छी लगी थीं. आपने जिस तरह पद्म विभूषण लेने से इनकार कर दिया था, आप ऐसे समय कोलकाता में रंगमंच करते रहे जब इप्टा मुंबइया सिनेमा का भर्ती दफ्तर बन गया था और बहुत सारे प्रगतिशील कलाकार व्यावसायिक उद्योग की ओर रुख कर रहे थे. कलाकार कारपोरेट के पैसे के लिए हाथ फैलाये खड़े थे, तब आपने जमीन से जुड़ाव और सादगी का परिचय देते हुए भारतीय रंगमंच का सिर ऊंचा किया. आपका सरोकार तब और भी अच्छा लगा जब बहुत सारे भद्रलोकी कलाकार ऐतिहासिक रूप से बेशर्म, पथभ्रष्ट और फासीवादी वामपंथ के साथ खड़े थे और पूरी बेशर्मी से भारतीय राज्य द्वारा शुरू किए गए ऑपरेशन ग्रीन हंट का समर्थन कर रहे थे, तब आप क्रांतिकारी गदर के साथ जुलूस में खड़े थे. आपका ऐसे कई जुलूसों में शामिल होना ही साबित करता है कि लोग जुलूस का इंतजार नहीं करते, लोग जुलूसों का नेतृत्व करते हैं. आपके जीते जी इतिहास ने आपके नाटकों को बार-बार गलत साबित कर दिया था बादल दा. क्या अपनी वह ऐतिहासिक भूल आप समझ पा रहे थे बादल दा?

इस बार फरवरी में जब मैं लंदन लौटने की तैयारियां कर रहा था, तो दिल्ली में आपका एक नाटक अंत नहीं देखा. कुछ लोग कह रहे हैं कि आपका जाना एक युग का अंत है. मैं इसे क्या समझूं बादल दा, ‘अंत नहीं’ या ‘एक युग का अंत’? देखो, इस बार कन्फ्यूज करने की कोशिश नहीं करना बादल दा. वैसे भी मैं आपके कन्फ्यूजन से बाहर आ गया हूं.

क्या अब मैं आपके जवाब का इंतजार करूं?

जेएनयू में आरसीएफ से जुड़े एक सक्रिय रंगकर्मी .लंदन विश्वविद्यालय से जन कलाओं पर शोध कर रहे हैं और इसे पूरा करने की व्यस्तता के बावजूद उन्होंने हाशिया ब्लॉग के अनुरोध पर यह लेख भेजा है. इसे वहीं से साभार प्रकाशित किया जा रहा है.








May 15, 2011

इस्लाम को संक्रमित करता ओसामा का महिमामंडन


आखिर कश्मीर में ओसामा बिन लादेन को महिमामंडित किए जाने का जिम्मा  कश्मीर में अलगाववादी धड़े के हुर्रियत नेता तथा कश्मीर में फैले आतंकवाद की पैरवी करने वाले सैय्यद अली शाह गिलानी ने क्यों उठाया? क्या 26/11 मुंबई हमले मामले में वे ऐसा करेंगे...

तनवीर जाफरी 

पूरी दुनिया में इस्लाम के नाम पर फैले आतंकवाद का सबसे बड़ा प्रतीक समझा जाने वाला ओसामा बिन लाडेन आखिरकार  अमेरिकी कमांडो सैनिकों द्वारा पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के निकट एबटाबाद में  2 मई को ढेर कर दिया गया। लादेन की मौत के बाद अब उसपर,उसके नाम पर तथा उसकी दिशा व विचारों को लेकर राजनीति करने की कोशिश की जा रही है।

दुनिया के मुस्लिम समाज से संबंध रखने वाले तमाम ऐसे नेता जिनका अपने समुदाय में या तो कोई जनाधार नहीं है या फिर वे अपना जनाधार तलाश कर रहे हैं,या फिर जिनका पेशा ही धर्म व संप्रदाय की राजनीति करने का है, ऐसी शक्तियां ओसामा  के नाम पर मुस्लिम समाज में तरह-तरह की गलतफहमियां पैदा करना चाह रही हैं। इतना ही नहीं बल्कि ऐसे लोगों की यह कोशिश भी है कि लाडेन के नाम पर मुस्लिम समाज को भडक़ाया जाए तथा आगे चलकर उस आक्रोशित मुस्लिम समाज का प्रयोग अपने अन्य क्षेत्रीय,राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक हितों को साधने में किया जाए।
लादेन की हत्या के खिलाफ पाकिस्तान में प्रदर्शन

ऐसी ही शक्तियों ने चाहे वे पाकिस्तान में हों,दुनिया के किसी अन्य मुस्लिम देश में या फिर भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य में,इन सभी ने ओसामा के मारे जाने के बाद उसका महिमा मंडन करना तथा उसे शहीद का रुतबा देने की कोशिश करना शुरु कर दिया है। दरअसल आतंकवादी संगठन अलकायदा भले ही विश्वव्यापी स्तर पर कितना ही संगठित,खतरनाक तथा दुनिया के किसी भी कोने में आतंकी कार्रवाई करने की क्षमता वाला संगठन क्यों न हो गया हो परंतु बहरहाल अब तक अलकायदा के पास इस्लाम के नाम पर शहीद कहा जा सकने वाला कोई ‘आदर्श आतंकवादी’नहीं था जोकि लाडेन की मौत के बाद अब आतंकवादियों को अलकायदा संस्थापक बिन लादेन  के रूप में ही मिल चुका है।

यही सोच न सिर्फ अलकायदा को जीवित व सक्रिय रखने में सहायक होगी बल्कि इस बात की भी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि अलकायदा लादेन की मौत के बाद अब पहले से भी अधिक सक्रिय तथा विशाल आतंकी संगठन बन जाए। इसी दूरगामी संभावना का अंदाज़ा लगाते हुए अमेरिका ने लाडेन की क्षतिग्रस्त लाश को समुद्र में किसी अज्ञात स्थान पर दफ्न किए जाने का फैसला लिया था। निश्चित रूप से अमेरिका का यह निर्णय अत्यंत दूरदर्शी निर्णय था। अन्यथा नि:संदेह इस्लाम के नाम पर अपनी राजनीति चलाने वाले तथा इस्लाम को आतंकवादी धर्म के रूप में बदनाम करने का ठेका लेने वाले लोगों ने तो लाडेन के समाधि स्थल को एक महापुरुष आतंकी प्रतीक के रूप में स्थापित कर ही देना था।

लादेन  को लेकर निश्चित रूप से कई पहलूओं पर लोगों की भिन्न-भिन्न राय हो सकती है। तमाम ऐसे प्रश्र हैं जो आम लोगों के ज़ेहन में पैदा होते हैं तथा वे सभी प्रश्र अपनी जगह पर जायज़ भी हैं। जैसे लाडेन को लाडेन बनाने वाला कौन था?  दुनिया का यह आरोप है कि लाडेन को यहां तक पहुंचाने में अमेरिका का ही भरपूर योगदान है। बेशक इस विषय पर बहस जारी रहनी चाहिए तथा दुनिया को चाहिए कि वह अमेरिका से इस बात का जवाब मांगे कि दुनिया में लाडेन जैसे तमाम आतंकवादियों को आखिर  अमेरिका संरक्षण क्यों प्रदान करता है? परंतु इस बात पर तो कोई मतभेद हो ही नहीं सकता कि लाडेन ने 9/11 के बाद तथा उससे पूर्व भी अमेरिकी विरोध के नाम पर हज़ारों बेगुनाहों को आतंकी हमलों का निशाना बना डाला।

इस्लाम का परचम अपने हाथों में लेकर चलने वाला ओसामा बिन लाडेन हो या आज उसकी मौत के बाद उसका महिमा मंडन करने वाले या उसे शहादत का मरतबा देने वाले चंद नासमझ लोग, क्या उन्हें इस इस्लामी व कुरानी शिक्षा का ज्ञान नहीं जो हमें यह सीख देती हैं कि-‘यदि तुमने किसी एक बेगुनाह का कत्ल कर दिया तो गोया तुमने पूरी इंसानियत को कत्ल कर डाला’?  एक ओर तो इस्लाम बेगुनाह के कत्ल के प्रति कितना सीधा व साफ संदेश दे रहा है। दूसरी ओर यही इस्लाम व कुरान बदले की कोई भी कार्रवाई करने के बजाए माफी दिए जाने को ज़्यादा तरजीह दे रहा है।

बड़े आश्चर्य की बात है कि राक्षसरूपी इस आतंकवादी के मारे जाने के बाद कई देशों में उसके समर्थन में मुस्लिम समुदाय के तमाम लोग सडक़ों पर उतर आए। कई जगहों पर लाडेन की गायबाना (अनुपस्थिति में पढ़ी जाने वाली) नमाज़ अदा की गई। इसमें पाकिस्तान के साथ-साथ भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य के भी कुछ इलाक़े शामिल हैं। पाकिस्तान में लाडेन का रहना,वहां उसे संरक्षण मिलना तथा उसका वहीं मारा जाना व उसकी मौत के बाद वहां उसे मिलने वाला समर्थन व उसकी नमाज़-ए-गायबाना अदा करना कोई खास अचंभे की बात नहीं है। क्योंकि विभिन्न इस्लामी विचारधाराओं के द्वंद्व का पाकिस्तान में क्या हाल है तथा इसी वैचारिक द्वंद्व ने पाकिस्तान को कहां पहुंचा दिया यह सब दुनिया भलीभांति देख व समझ रही है।

लेकिन  भारत के सीमांत राज्य जम्मू-कश्मीर में जब ओसामा बिन लाडेन जैसे आतंकवादी सरगना का मरणोपरांत महिमा मंडन किया जाए तो किसी भी भारतीय नागरिक विशेषकर भारतीय मुसलमानों का चिंतित होना स्वाभाविक है। क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी का देश होने के बावजूद भारत का एक भी व्यक्ति अभी तक अलकायदा का सदस्य प्रमाणित नहीं हुआ। फिर आखिर भारतीय कश्मीर में ओसामा बिन लाडेन को महिमामंडित किए जाने का जि़म्मा कश्मीर में अलगाववादी धड़े के हुर्रियत नेता तथा कश्मीर में फैले आतंकवाद की पैरवी करने वाले सैय्यद अली शाह गिलानी ने क्यों उठाया? गिलानी ने पूरे जम्मू-कश्मीर में लाडेन की गायबाना नमाज़ अदा किए जाने का आह्वान आम कश्मीरी मुसलमानों से किया था।

लाडेन को अपना समर्थन देने के लिए गिलानी के पास यह तर्क था कि-‘किसी शहीद के लिए नमाज़ पढऩा उनका धार्मिक कर्तव्य है। लाडेन ने इस्लाम की राह में अपनी जान दी है लिहाज़ा उसे शहीद का रुतबा हासिल हो’। गिलानी ने केवल इन शब्दों से ही लाडेन को ही महिमामंडित नहीं किया बल्कि इसी भीड़ के मध्य उन्होंने पाकिस्तान की सलामती की दुआएं भी मांगीं। श्रीनगर में एक स्थान पर उन्होंने स्वयं लाडेन की नमाज़-ए-गायबाना भी पढ़वाई। अब इसी परिप्रेक्ष्य  में गिलानी साहब को यह भी बताना चाहिए कि मुंबई में 26/11को हुए हमले के बाद जिन नौ आतंकवादियों को भारतीय कमांडो तथा सुरक्षाकर्मियों ने मार गिराया था उनके विषय में आखिर  गिलानी की क्या राय है?

मुंबई के मुसलमानों ने उस समय एक स्वर से यह घोषणा की थी कि इन आतंकवादियों को मुंबई के क़ब्रिस्तानों में दफन नहीं होने दिया जाएगा। और काफी दिनों तक यह लाशें  सरकार की सुरक्षा में लावारिस पड़ी रहीं। आखिरकार सरकार को गुप्त तरीके से किसी गुप्त स्थान पर इनका अंतिम संस्कार करना पड़ा। उस वक्त गिलानी ने इन आतंकवादियों को शहीद कहना मुनासिब क्यों नहीं समझा? गिलानी को इनकी भी नमाज़-ए-गायबाना अदा किए जाने का आह्वान करना था। इसी प्रकार संसद पर हुए हमले में तथा रघुनाथ मंदिर,अयोध्या,संकटमोचन मंदिर जैसे कई स्थानों पर भारतीय सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों को मार गिराया। उस समय गिलानी जैसे लोगों ने ‘धार्मिक कर्तव्य’ का निर्वहन करने का साहस क्यों नहीं किया?

यहां एक बार फिर यह समझना ज़रूरी होगा कि इस्लाम को सबसे अधिक नुकसान व बदनामी किसी अन्य धर्म या संप्रदाय के लोगों के चलते नहीं बल्कि स्वयं को मुसलमान,इस्लामी तथा धर्मगुरु व मुजाहिद कहने वाले लोगों की वजह से ही उस समय भी उठानी पड़ी थी जबकि इस्लाम धर्म का उदय हुआ था तथा आज लगभग साढ़े चौदह सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी ऐसे ही लोग इस्लाम को बदनाम करते आ रहे हैं।

अन्यथा जहां तक वास्तविक इस्लामी शिक्षा का संबंध है तो इस्लाम में न तो किसी बेगुनाह की हत्या को किसी भी सूरत में जायज़ ठहराया गया है,न ही बेगुनाहों के हत्यारों के महिमा मंडन तथा उसके लिए जन्नत में जाने की दुआएं करने को उचित बताया गया है। ऐसे गैर इस्लामी व गैर इंसानी लोगों के महिमामंडन का सिलसिला बंद होना चाहिए अन्यथा इन जैसों का महिमामंडन भी इस्लाम की बदनामी का एक बड़ा सबब साबित होगा।


लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafari1@gmail.कॉम पर संपर्क किया जा सकता है.



किसानों के राष्ट्रीय नेता 'टिकैत' नहीं रहे


टिकैत राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में तब आये जब उन्होंने दिसंबर 1986में ट्यूबवेल की बिजली दरों को बढ़ाए जाने के ख़िलाफ़ मुज़फ्फरनगर के शामली से एक बड़े  आंदोलन की शुरुआत की थी...

संजीव वर्मा

किसान नेता और भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष  चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का लम्बी बीमारी के चलते आज सुबह मुजफ्फरनगर में निधन हो गया. 76 वर्षीय स्वर्गीय टिकैत पिछले कई महीनों से आंत के कैंसर से पीड़ित थे.उनका इलाज दिल्ली के अपोलो अस्पताल में चल रहा था. टिकैत का अंतिम संस्कार कल सुबह 11 बजे उनके पैतृक गांव सिसौली में होगा.

टिकैत के परिवार में उनके चार बेटे और दो बेटियां हैं.उनके पुत्र राकेश टिकैत पहले से ही उनके साथ किसान यूनियन का काम देखा करते थे.चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने हमेशा किसानों के हितों के लिए चाहे वह गन्ना मूल्य हो या फिर बिजली के लिये,आन्दोलन किये. अपनी इसी कार्यशैली के चलते वे किसानों के चहेते थे. वे लगभग तीन दशक से किसानों की समस्याओं के लिए संघर्षरत थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाट किसानों में तो उनकी गहरी पैठ थी.

सिसोली   में  टिकैत : कौन संभालेगा भाकियू की विरासत  
सबसे पहले टिकैत राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में तब आये जब उन्होंने दिसंबर 1986में ट्यूबवेल की बिजली दरों को बढ़ाए जाने के ख़िलाफ़ मुज़फ्फरनगर के शामली से एक बड़ा आंदोलन की शुरुआत की थी. इसी आंदोलन मे 1 मार्च 1987 को किसानों के एक विशाल धरना-प्रदर्शन के दौरान पुलिस गोलीबारी में दो किसानो और एक पीएसी जवान की मौत हो गयी थी.तब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह टिकैत के नेतृत्व मे चले किसान आन्दोलन को शांत करने के लिये खुद सिसौली गांव गये और वहां जाकर किसानों की पंचायत को संबोधित किया. इस आन्दोलन के बाद से टिकैत ने पूरे देश में घूमकर किसानों के लिए काम करना शुरू कर दिया था.

पचास साल की अवस्था में उन्होंने भारतीय किसान यूनियन का गठन कर राज्यों और केंद्र सरकारों तक सीधे किसान हितों की बातें पहुंचाई। वर्ष 1986 में किसान, बिजली, सिंचाई, फसलों के मूल्य आदि को लेकर जब पूरे उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलित थे,तब एक किसान संगठन की आवश्यकता महसूस की गयी। इसके लिए 17अक्टूबर 1986 को सिसौली में एक महापंचायत आयोजित कर भारतीय किसान यूनियन का गठन किया गया। इसमें सर्वसम्मति से चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत को भारतीय किसान यूनियन का राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोनीत किया गया।
 
भाकियू गठन के बाद टिकैत के नेतृत्व में 1 अप्रैल 1987 मुजफ्फरनगर के गांव खेड़ीकरमू बिजली घर का घेराव कर किसान महापंचायत का आयोजन किया गया,जिसमें तीन लाख किसानों ने ट्रेक्टर-ट्रॉली सहित हिस्सा लिया तथा सरकार को बिजली की दरें घटाने पर मजबूर किया। टिकैत के नेतृत्व में भाकियू ने कई बड़े आंदोलन किये। वर्ष 1988को भाकियू द्वारा नई दिल्ली वोट क्लब पर धरना दिया गया। इसमें देश के अलग-अलग राज्यों से कई प्रमुख किसान नेता शामिल हुए। तीन अगस्त 1989को टिकैत के नेतृत्व में भाकियू ने नईमा काण्ड को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार के विरूद्ध 39 दिन तक भोपा गंगनहर पर धरना दिया, जिसमें उत्तर प्रदेश सरकार को झुकना पड़ा तथा किसानों की पांच मांगें माननी पड़ी। लखनऊ में भाकियू ने 1990 में एक विशाल किसान पंचायत का आयोजन किया गया,जिसमें टिकैत को गिरफ्तार कर लिया गया तथा उनकी पत्नी बलजोरी देवी को पुलिस लाठीचार्ज में गंभीर चोटें आयी।

यह टिकैत के नेतृत्व का ही असर था कि 11दिसम्बर 1990को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर एवं उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भाकियू की किसौली किसान पंचायत में शामिल हुए तथा किसानों के समर्थन में कई घोषणाएं की। सितम्बर 1993 में लालकिले पर डंकल प्रस्ताव विरोधी रैली का आयोजन किया गया,जिसमें करीब दो लाख किसानों ने भाग लिया। जिस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने टिकैत को वार्ता का निमंत्रण भेजा और टिकैत एवं किसान प्रतिनिधियों की प्रधानमंत्री के साथ वार्ता सफल रही।

महेंद्र सिंह टिकैत किसान परिवार मे पैदा हुए थे.हमेशा पैरो में चप्पल,बदन प़र कुरता-धोती और हाथ में छड़ी रखने वाले बाबा टिकैत शांत स्वभाव और निर्भीक किस्म के किसान नेता थे. वे हमेशा किसानों के हक के लिए लड़ते रहे.कहा जा रहा है कि उनके निधन से किसानों के आन्दोलन और फिलहाल ग्रेटर नोयडा मे चल रहे भट्टा-पारसोल आन्दोलन प़र भी फर्क पड़ेगा. टिकैत के निधन प़र सभी राजनीतिक पार्टियों ने दुःख प्रकट किया.प्रशासन ने उनके अंतिम दर्शन के लिए सिसौली में आने वाले नेताओं की सुरक्षा के मद्देनजर गाँव में भारी पुलिस बल तैनात कर दिया है.उनके पैतृक गाँव सिसोली में तो उनके निधन की खबर से  गम का माहौल है.किसानों की राजधानी कहे जाने वाले सिसौली गाँव के पंचायत भवन पर 28सालों से बाबा टिकैत द्वारा प्रज्ज्वलित अखंड ज्योत भी उनके निधन के साथ ही भुझा दी गयी है.



साहित्यिक षड्यंत्र हुआ सरेआम


पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन की देखरेख में चल रहे प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की पत्रिका ’पांडुलिपि’ में तीन युवा कवियों महेश चंद्र पुनेठा, केशव तिवारी और सुरेश सेन निशांत  की कविताएं छपीं थीं। 'पांडुलिपि' पत्रिका में कविताएं देख इन कवियों के प्रतिबद्ध साहित्यिक मित्रों ने आश्चर्य, आपत्ति और अफसोस व्यक्त किया और कहा कि यह पत्रिका तो पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन  की साहित्यिक उपादेयता के लिए निकलती है। उपरोक्त कवियों के मित्रों ने उन्हें यह भी बताया कि पत्रिका का मकसद हिंदी साहित्यिक बिरादरी में विश्वरंजन की प्रगतिशील छवि बनाने की कोशिश है,जिससे आदिवासियों के खून में सने विश्वरंजन थोड़े धवल दिखें... दरअसल महेश चंद्र पुनेठा,केशव तिवारी और सुरेश सेन निशांत से  'पांडुलिपि' पत्रिका के लिए कविताएं  मंगवाई गयीं थीं। लेकिन उन्हें यह नहीं बताया गया कि  यह पत्रिका आदिवासियों के खून से सनेविश्वरंजन के प्रगतिशील प्रोग्राम का हिस्सा है , जिसे प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान की और से निकाला जाता है. जिस कारण इन कवियों ने कविताएं तो भेज दीं, मगर जैसे ही इनको पता चला कि पर्दे के पीछे का खेल क्या है तो उन्होंने समानधर्मा मित्रों के आग्रह पर इस आशय का स्पष्टीकरण फेसबुक पर चस्पां कर दिया। स्पष्टीकरण के साथ फेसबुक सोशल वेबसाइट पर शुरू हुई  यह  बहस साहित्यिक प्रतिबद्धता के सवाल को बड़े ढंग से रखती है और साबित करती है कि अफसरों और अकादमियों के चौखट पर मत्था टेकने की परंपरा के इतर भी साहित्यकार हैं।

फेसबुक पर चली बहस ...

महेश चंद्र पुनेठा (22 फरवरी) : हमें भी इस बात का अफसोस है । दरअसल, हमें यह पता ही नहीं था कि विश्वरंजन भी इस पत्रिका से जुड़े हैं। यह हमें उस दिन पता चला जिस दिन पत्रिका हमारे हाथों में आई । छत्तीसगढ़ के एक कवि मित्र ने आग्रह किया और हमने मित्रता का मान रखते हुए कविताएं भेज दीं। हमारी 'पांडुलिपि' पत्रिका के साथ कोई वैचारिक सहमति नहीं है।

जय प्रकाश मानस (23 फरवरी) : चलिए आपने स्पष्ट कर दिया कि आपकी प्रतिबद्धता किसके साथ है । पर मित्र, 'पाण्डुलिपि' की यह सीमा नहीं है कि वहाँ छपने वाला उसके ही प्रति प्रतिबद्ध हो, पर वह साहित्य, समाज और संस्कृति के प्रति जरूर अपनी प्रतिबद्धता दिखाये जो आपमें भी है। विचलित ना हों कृपया।
उनकी इस प्रतिक्रिया के बाद फेसबुक में एक बहस चल पड़ी । इस बहस के दौरान तथा फेसबुक में छत्तीसगढ़ के हालातों को लेकर लगी अन्य पोस्टों पर समय-समय पर जयप्रकाश मानस ने जो प्रतिक्रियायें व्यक्त कीं, उससे इस संस्थान की स्थापना के गुप्त ऐजेंडे का पता चलता है और संस्थान का असली चेहरा सामने आता है। कभी जो काम अज्ञेय की अगुवाई में कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम ने किया वही काम आज प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान करने जा रहा है।

नीलाभ.....ए ह्यूमन- (23 फरवरी) : मानस जी क्या अब ऐसा वक्त आ गया है कि ग्रीन हंट और सलवा जूडूम जैसे ऑपरेशन चलाने वाली जनविरोधी ताकतों के संरक्षण में आप साहित्य, समाज, संस्कृति के प्रति अपनी प्रतिबध्द्धता व्यक्त करेंगे ?

जयप्रकाश मानस : आदररणीय भैया, हम ग्रीनहंट और सलवा जुड़ूम जैसे आपरेशन चलाने के पीछे की प्रजातांत्रिक विवशताओं, आवश्यकताओं, उसकी असलियत, उसकी जमीनी वास्तविकता, उसके संचालनकर्ताओं, उसके खलिाफ एकांगी दुष्प्रचार करनेवाले, दुष्प्रचार करने वालों की आवश्यकता, उनकी नियत, विवशता, उसकी वास्तविकता से बगैर वाकिफ हुए, शेर आया और भागो-भागो की लय में बहकने वाले और उसे संचालित करनेवाली संवैधानिक-असंवैधानिक, मानवीय-अमानवीय लगभग सारी कमीवेशी से पिछले कई वर्षों से वाकिफ होने के लिए शापित हैं और कथित जनताना सरकार की स्थापना ( लक्षित रणनीति के अनुसार सन् 2050 तक ) के नाम पर हिंसा, आतंक, विध्वंस, लूट, दमन, अपहरण, चौंथ वसूली, बलात्कार, जनसंपति का विनष्टीकरण, निरीह और अबोध बच्चों को हथियार पकड़ाने वालों अमानवीय तथा आमजन सहित, भोले-भाले आदिवासियों के साथ घिनौनी अत्याचार करनेवालों ताकतों,दोनों को ही दूर से नहीं, बल्कि बहुत नजदीकी से देख-परख रहे हैं ।
भैया, अभी ऐसा भी वक्त नहीं आ गया है (जिन आम और आदिजनों की और से आपकी चिंता है उन लोगों की कथित चिंता के लिए ) जंगली, बर्बर, तानाशाहीपूर्ण और फासीस्टवादी तरीकों से जनयुद्ध (आमजन को ही आमजन के खिलाफ विवश और लाचार कर देने वाले) चलाने वाली ताकतों, संरक्षकों, संचालकों, विश्वासियों, मित्रों, दासों के साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति हम अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त कर दें। क्या यह भी जनविरोधी नहीं होगा ?
जिस दिन हमें विश्वास हो जायेगा कि जनता के वास्तविक विकास और उत्थान के लिए सबसे योग्य, गैरधोखेबाज, गैरषडयंत्रकारी, पूर्ण ईमानदारी अंतिम और एकमात्र मसीहा इस धरती पर अवतरित हो चुका है तथा जिस दिन उनका उज्ज्वल और पारदर्शी चेहरा भी आर-पार देखा जा सकेगा उस दिन आपकी बात मानने में मुझे सुविधा होगी कि किसके प्रति प्रतिबद्ध हों....किसके प्रति नहीं।

नीलाभ .....ए ह्यूमन (23 फरवरी ) : मानस जी, यह जो आप बता रहे हैं, पूंजीवादी अखबार रोज ही बताते हैं । इसमें कुछ भी नया नहीं है.आप बात को अनावश्यक रूप से दूसरी ओर मोड़ रहे हैं। मैं उन लोगों के मानवाधिकारों की बात कर रहा हूँ जो लोकतांत्रिक तरीके से आन्दोलनरत हैं या अपनी जिंदगी शांतिपूर्वक जीना चाहते हैं। अग्निवेश और उनके साथियों की शांति यात्रा को क्यों रोक दिया जाता है? हिमांशु कुमार जो गाँधीवादी हैं उनके आश्रम को क्यों ध्वस्त किया जाता है? उन्हे शांतिपूर्वक काम क्यों नहीं करने दिया जाता है? लिंगाराम कोडापी जैसे आदिवासी युवाओं और उनके परिजनों को क्यों परेशान किया जाता है? पढ़िये समकालीन जनमत के दिसंबर अंक में हिमांशु कुमार और सत्यप्रकाश के लेख,गरीबों का इलाज करने व मानवाधिकारों की बात करने वाले विनायक सेन को क्यों देशद्रोही साबित कर दिया जाता है ? आपने जिन मानवाधिकारों की बात की है उन सभी की रक्षा की जानी चाहिए पर क्या वह सलवा जुडूम और ग्रीन हंट से ही संभव हैं।  ये आभियान माओवादियों का तो कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे हैं, माओवादियों के नाम पर आदिवासी जनता और उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे लोगों का दमन कर रहे हैं। लोकतान्त्रिक अधिकारों से भी लोग वंचित हो गए हैं। 
वैसे यह सब बातें आपसे कहने का कोई मतलब नहीं क्योंकि आपने तो आँखें बंद कर ली हैं। आभासी यथार्थ ही आपको सारतत्व नजर आता है। ऐसा होना भी स्वाभाविक है क्योंकि सारतत्व को देखने का मतलब है उन सारे लाभों से वंचित होना है जो सत्ता की नजदीकी के चलते अभी आप को मिल रहे हैं।

जयप्रकाश मानस-(23 फरवरी) : भैया,मैं पूँजीवादी अखबार की नहीं, मैं अखबार नहीं पढ़ता, सिर्फ वर्षों से खुली आँखों से देखेने के आधार पर बता रहा हूँ । अखबार से राय तो दूर वाले पाठक बना सकते हैं। नया क्या होगा, किन्तु पुराने और जहरीले प्रश्नों को छोड़ नहीं दिया जा सकता ।
भैया,लोकतांत्रिक तरीकों से आंदोलन करने वालों और शांतिपूर्वक जीवन जीने वालों को सदैव रास्ता मिलना चाहिए। क्या जंगल खेड़े के आदिवासी शांति नहीं चाहते? क्या गरीब बाप के बेटे और पेट पालने के लिए व्यवस्था की छोटी-छोटी वर्दी नौकरी में लगे लोग शांति नहीं चाहते? अपने आश्रम ध्वस्त होने पर गांधीवादियों को प्रजातांत्रिक तरीके से न्यायालय जाना चाहिए। आश्रम चलानेवाले गांधीवादियों को जंगली और बर्बर लोगों के द्वारा सताये जाने पर गरीब आदिवासियों और महिलाओं के पक्ष में भी प्रजातांत्रिक उपाय करना चाहिए जो कि कभी नहीं करते वे। न कि सिर्फ बर्बर लोगों के बाद और उनसे जंगल में उत्पन्न हुई अशांति और आतंक से बचाने पहुँची प्रजातांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ ही प्रश्न उठाते हैं, आखिर ये गांधीवादी डरते क्यों हैं हिंसक और जंगली लोगों से? जो उनकी बर्बरता और फासीस्टवादी रवैयों के खिलाफ नहीं बोलते?

नीलाभ.....ए ह्यूमन (24 फरवरी) : मानस जी, जहाँ आप खड़े हैं वहां से ऐसा ही दिखाई देता है. चीजों को देखने के लिए भौगोलिक रूप से नजदीक होना ही पर्याप्त नहीं होता दृष्टि का होना भी जरूरी होता है.
जो कुछ आप कह रहे हैं ये सरकारी पक्ष है और उन लोगों का पक्ष है जो ग्रीन हंट और सलवा जूडूम के बहाने नागरिकों के लोकतान्त्रिक एवं मानवाधिकारों का हनन कर रहे हैं. विनायक सेन, हेमं पाण्डेय जैसे अनेक उदाहरण हमारे पास हैं जिनसे सिद्ध होता है कि ग्रीन हंट और सलवा जूडूम के बहाने क्या हो रहा है?

अशोक कुमार पांडेय (28फरवरी) : मानस जी, बताते तो आप यही हैं कि 'पाण्डुलिपि' से विश्वरंजन जी का कोई लेना-देना नहीं है। खैर यह जानते-बूझते हुए भी मैंने कवितायें दी हैं और इसे आपत्तिजनक नहीं मानता। प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान से पुरस्कृत होने या उपकृत होने को और कविता छपने को बराबर मान लेना भी एक तरह का भावुक अतिवाद है। जबकि हिन्दी में साभार की लंबी परम्परा है तो आपके जाने बिना भी कविता किसी भी जगह छप जाती है। मेरा स्पष्ट मत है कि केवल कविता छप जाने से किसी की भर्त्सना करना बेमानी है। हां उनके पक्ष में खड़ा होकर प्रलाप करने वाले अजय तिवारी जैसे लोगों की भरपूर भर्त्सना की जानी चाहिये।
विश्वरंजन सत्ता के क्रूर पंजे हैं जिन्होंने दमन तंत्र को मजबूत किया है, प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान उसी क्रूर पंजे पर ओढ़ाई हुई मखमली खाल है। मानस जी को मैं दोष नहीं देता, वे स्वयं को दिया गया काम बखूबी निभा रहे हैं। मेरा बस यह कहना है कि उस पत्रिका में छपना कोई गुनाह नहीं है। हां, उनके कार्यक्रमों में शिरकत (खासतौर से इस बार की रिपोर्ट पढ़कर और दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर और सीपीएम से निष्कासित एक प्रोफेसर साहब का बयान पढ़ने के बाद) निश्चित तौर पर गलत है और उस क्रूर पुलिस प्रशासक को मान्यता दिलाने जैसी है। मैं खुद एक बार उनका आमंत्रण ठुकरा चुका हूं और आगे भी वहां कभी नहीं जाऊंगा।

जय प्रकाश मानस (1मार्च) : अशोक महान था, अशोक महान् हैं.. अशोक महान रहेंगे...। दमन जंगली भी कर रहे हैं, कल उन्होंने दंतेवाड़ा के कुसेल ग्राम में धावा बोला। दो भाइयों का अपहरण कर लिया, फिर धारदार हथियार से गला रेत दिया। जो मारे गये, वे सरकारी लोग नहीं थे, वे बुद्धिजीवी भी नहीं थे, वे अमीर भी नहीं थे, वे शिक्षित भी नहीं थे, वे कविता भी नहीं लिखना जानते थे। उनके दमन के खिलाफ आज कहीं कोई धरना नहीं होने जा रहा, कहीं कोई मानवाधिकार वादी आगे नहीं आने जा रहा। कोई है जो आयेगा इनके पक्ष में... ? ? ?

अशोक कुमार पांडेय (1 मार्च) : मानस जी, आपसे बहस का वैसे तो कोई अर्थ नहीं है, लेकिन सत्ता के दमन और जनता या अपराधियों के कृत्य में फर्क होता है। जिनके दांतों में खून लगा हो और आंखें रुपयों की चमक से धुंधलाई हों उनकी स्मृति तथा चेतना के मदांध हो जाने में कोई आश्चर्य नहीं होता। किसी साहित्यिक कार्यक्रम के ठीक बगल में एक पुलिस अधिकारी की प्रेस कांफ्रेस का प्रचार मेरे लिये शर्मनाक है। उसे देखने के बाद उसका हिस्सा हो पाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता।

जयप्रकाश मानस (1 मार्च) : ये सामान्य अपराधी की बात नहीं कर रहा अशोक जी, उनकी बात कर रहा हूँ जो संगठित होकर देशभर और इधर बस्तर में प्रतिदिन किये जा रहे हैं...भाई क्यों नहीं है मुझसे बहस का अर्थ। असहमत लोगों के साथ ही तो बहस होती है । समान सोच वालों के साथ तो चुटकुलाबाजी ...

अशोक कुमार पांडेय : बहस उनसे की जाती है जिनके पास खुली आंखें होती हैं, सत्ता के भोंपुओं से क्या बहस होगी? आपसे बहस का लंबा अनुभव है मुझे, उसी आधार पर यह कह रहा हूं। नक्सली हिंसा का विरोध सरकारी दमन का समर्थन नहीं हो सकता। विनायक सेन के मुद्दे पर आपका व आपके अधिकारी पेट्रन का स्टैण्ड सत्ता से नाभिनालबद्धता स्पष्ट करता है। एक बहस में आपने विनोद कुमार शुक्ल से लेकर तमाम लोगों पर जो तथ्य दिये थे, मैने उसकी भी पड़ताल की और पाया कि अपने प्रदेश की पुलिस की ही तरह आप भी तथ्य गढ़ लेने में माहिर हैं। इसके बाद क्या और क्यूं बहस की जाय? बाबा होते तो इस समय लाल भवानी प्रकट हुई है सुना है तिलंगाने में की तर्ज पर कुछ कह रहे होते।

जयप्रकाश मानस (1 मार्च) : खुली आँखें भी हैं मेरे पास और हर तरह की सत्ता (विचार, वाद, साहित्य, दल, राजनीति, आंतक, मूढ़ता, विद्वता) आदि के भोपूओं की परख भी। मुझे भी लंबा अनुभव आपके कुतर्कों, विचारों आदि का उसी आधार पर कह रहा हूँ। नक्सली हिंसा का विरोध सरकारी दमन का समर्थन नहीं हो सकता। बिलकुल सही, कहाँ कह रहे हैं हम ऐसा। किन्तु नक्सली हिंसा का विरोध उसी स्वर में नहीं होना भी गैरसरकारी अर्थात सिर्फ जनता का वास्तविक समर्थन नहीं हो सकता । जिसने सरकारी दमन किया, उस पर केस चल रहे हैं, वह कटघरे में है, उसे नौकरी से हटाया जा चुका है। हाँ, उसकी हत्या नहीं कर रही हैं सरकारें।
नक्सली हिंसा का छद्म विरोध भी जनता के पक्ष का झूठा समर्थन से कतई कम नहीं । आधाशीशी जनभक्ति है । हर तरह की हिंसा का विरोध होना चाहिए और वह हम कर रहे हैं । नक्सली हजारों आदिवासी, गरीब, निहत्थे को मार चुके हैं, उनके विरोध में ठीक वही कृत्य क्यों नहीं हो रहा जो एक कथित जनहितैषी और वर्णित व्यक्ति का हो रहा है, जिसके आप दीवाने हैं? सिर्फ इसीलिए क्योंकि वह पढ़ा-लिखा है और आदिवासी मूर्ख हैं, नगण्य हैं । बाबा होते तो आपके जैसे आधाशीशी वाले का ही पक्ष नहीं लेते और सिर्फ आपके ही नहीं हो जाते । बड़बोला और कोरी भावुकता से वे भी बचते रहते। विनोद जी के बारे में क्या कहा था और आप क्या समझे, आपके झूठ और अर्थापन आपको मुबारक।

शैल जोशी (2 मार्च) : मानस!  विनायक सेन, हिमांशु  कुमार  के  बारे  में आप  क्या  राय  रखते  हैं  उसे  क्या  हमने  नहीं  पढ़ा। छत्तीसगढ़ में  होने  वाली  हर  आपराधिक  घटना  को  नक्सलियों  के  खाते  में  डाल देना  यह  सरकार  की और  आप  जैसे  सरकारी  लेखकों  की  पुरानी  आदत  है - आप  जो  भी  तथ्य  दे  रहे  हैं  यह  पुलिस  से  प्राप्त  हैं - पुलिस  तो  खुद  इसी  घटनाओं  को  अंजाम  देकर  नक्सलियों  को  बदनाम  करने  में  पीछे  नहीं  रहती  है - अशोक  पांडे  ने  आपको  बिलकुल  सटीक  उपाधि  दी  है -  अशोक  जनता  के  पक्ष  में  खड़े  रचनाकार  हैं - आप  जैसे  दोहरे  चरित्र  के  नहीं ,एक  और  आदिवासियों  की  लड़ाई  लड़ने  वालों  को  जंगली  और  बर्बर  कहते  हो  और  दूसरी  और  उनके  कवि  नागार्जुन  की  जयंती  मनाते  हो - उस  अवसर  पर  पुलिस  की  प्रेस  कांफ्रेंस  करते  हो - अशोक  भाई  आपके  साहस  के  लिए  मेरी  बधाई। 
हाँ, एक  प्रश्न  अशोक  भाई  आपसे। आप  कहते  हो  उस पत्रिका में छपना कोई गुनाह नहीं है। क्या आप एक ऐसी पत्रिका में  छपना चाहेंगे जो  प्रतिक्रियावादी  ताकतों  द्वारा  निकाली  जाती  हो । क्या उसमें  आप  जैसे  जनपक्षधर  लोगों  का  छपना  उनको  मान्यता  देना  नहीं  है?

जयप्रकाश मानस (2 मार्च) : जोशी जी, हिमांशु-विनायक से पहले लाखों हजारों है शैल जोशी जी, जिसके खिलाफ हो रहे दमन के बारे में आप जैसे लोग चुप्पी साधे बैठ गये हैं । छत्तीसगढ़ ही नहीं आपके आसपास भी दमन हो रहा है, उसे भी देखें, उसके खिलाफ आवाज उठायें। कइयों को प्रतिदिन सजा सुनायी जा रही है उसके बारे में भी उवाचे कुछ....सिर्फ एक ही आदमी के लिए इतना स्नेह और करोड़ों की आबादी में हो रहे हर तरह के जुल्म के खिलाफ भी दृष्टि रखें अपनी कुछ....
आपने जो पढ़ा है, आप जो अर्थ निकालते हैं उससे हमें भी कोई फर्क नहीं पड़ता। नक्सलियों के खाते में अनपढ़ों को शिक्षित करने का रिकार्ड नहीं है। नक्सलियों के खाते में अस्पताल खोलने का श्रेय नहीं है। सड़कें बनवाने का श्रेय नहीं है। यदि ऐसा होता जो जनता की चुनी हुई सरकारें नहीं होती वहाँ। सारे के सारे नक्सलियों की सरकार के साथ होते। आप शायद नहीं जानना चाहते- पुलिस सड़कें नहीं खोद देती। पुलिस स्कूल भवन नहीं ढहा देती। पुलिस बस नहीं उड़ा देती। पुलिस रेलवे नहीं उड़ा देती। पुलिस समूचे बस्तर की बिजली गुल नहीं कर देती। करोड़ों-अरबों की संपत्ति नष्ट नहीं कर देती। जब चाहे बस्तर का हाट बाजार बंद नहीं करा देती। पुलिस जोर-जबरदस्ती से युवाओं को बंदुक नहीं पकड़ा देती । पुलिस अपने से हर उस असहमत आदमी को सरेआम ग्रामीणों के जन अदालत में गला नहीं रेत देती । पुलिस ग्रामीण लोगों को किडनैप कर अपनी शर्ते नहीं मनवाती । पुलिस बहुत सारे अनर्थ करती है, पर यह नहीं किया करती। और आप भी अपनी कानूनी अधिकारों के हनन पर नक्सलियों के पास नहीं जाते। पुलिस स्टेशन ही जाते हैं ।
कुछ गैर सरकारी लेखक भी होते हैं जो अपने गैर सरकारी होने का छद्म ओढ़कर कुछ खास तरह के हत्यारों की वकालत करते हैं । अशोक पांडेय कैसे लेखक हैं यह भी उनके स्टॅड से पता चलता है । हर वह व्यक्ति जंगली और बर्बर है जो स्कूल के बदले बच्चों को अपनी सेना में तानाशाह की तरह रंगरूट बनाता है ।
नागार्जुन की जंयती मनाने की अनुमति आपसे लेने से तो हम रहे। बहुत सारे अपने छद्मों के बारे में भी सोचें कभी- पूरी ईमानदारी से।

अशोक कुमार पांडेय (2 मार्च ) : तानाशाहों को सफेद और काले के बीच कुछ नहीं दिखता। बुश से लेकर मोदी और इन तक सबका सीधा फंडा है या तो हमारे साथ या दुश्मन। इन्हें लोकतंत्र का स्पेस दिखता ही नहीं, दिखता है तो खटकता है।

जयप्रकाश मानस (2 मार्च) : कुछ लोगों को इतनी गलतफहमी हो गई है कि वे ही देश और जन को बचा रहे हैं, लेखन के अलावा वे ही कुछ कर रहे हैं बाकी सब दलाल हैं। मुझे किसी अशोक का 'शोक' देखते बहुत दुख होता है, तुम किसके बिके हो यह तो नहीं पता, मैं नहीं बिका हूँ अब तक। याद रखें मन में। दमन मेरी बातों का करके आप बहुत बड़े पुण्यवान नहीं बनने जा रहे । कौन सा सरकारी पैसा? और कौन सा फतवा। आपके कुछ समझने। आपको कोई अपराधी नहीं कहा जा रहा है। अपराध वह है जो न्याय करने में, न्याय की बात करने में सिर्फ अपने मतलब की चीजों को देखता है। उस पत्रिका और नक्सलवाद से कोई संबंध नहीं है। यह तो आप लोगों की सोची-समझी चालें है कि कई चीजों को ऐसा मिला दो और इतने बार झूठ बोलों कि वह सच की तरह दिखने लगे। आपकी अपील जाये भाड़ में। सिर्फ आप ही युगपुरुष नहीं हो। जिसके कहने पर देश के साहित्यकार आपकी अँगुली थामें बच्चों की तरह पीछे-पीछे नहीं चले जायेंगे । आप डिसोन करो क्या कुछ, एक साहित्यिक पत्रिका को कोई फर्क नहीं पड़ता ।

शैल जोशी - आश्चर्य ....महाआश्चर्य .....'पाण्डुलिपि' से तो मार्क्सवादी कवि केदारनाथ सिंह और गाँधीवादी लेखक विजय बहादुर सिंह भी जुड़े हैं ! क्या है इनकी पक्षधरता मेरे तो कुछ समझ में नहीं आता ? यह गोलमाल क्या है ? साहित्य में प्रतिबद्धता जैसी कोई बात भी रह गई है कि नहीं?

जयप्रकाश मानस (2 मार्च ) :  मुख्यमंत्री ही नहीं, मंत्रिमंडल हीं नहीं, खाकी वालों में ही नहीं, समाज के सारे अंगों जैसे मीडिया, साहित्य, कला, फिल्म, संगठनों, सबके सब एक एक सलवा जुडूम चला रहे हैं जिन्हें अपने अलावा औरों से कोई लेना-देना नहीं। कोई अपनी गिरेबां को झाँक कर नहीं देखता । कोई अपनी कमीनगी को नहीं देखता। हाँ मैं इतना जानता हूँ - जिस दिन आदिवासियों को कोई अपना प्रवक्ता मिलेगा उस दिन देखेंगे आप और हम - न कथित आदिवासी हितैषी, न सरकारें उसे हांक पायेंगे ना ही कथित आदिवासी विरोधी। वह सबको ठिकाने लगा देगा । दरअसल, अब तक इनकी आवाज का सच सामने आया ही नहीं है।

अनिल मिश्र (2 मार्च) : जयप्रकाश जी, 'सबके सब सलवा जुडूम चला रहे हैं', इस प्रतीक को अगर थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए, (हालांकि इसमें प्रथम दृष्टतया ही कई बेतुके पेंच हैं और आप भी जानते होंगे कि यह बात असंदिग्ध तौर पर सही नहीं है.) तो भी यह  सवाल बना रहेगा कि संवैधानिक उसूलों की रक्षा करने की प्रतिज्ञा कर सत्ता में आसीन होने वाली सरकार ने एक घिनौने और बनैले खूनी खेल के लिए किन-किन गुटों को हथियारों से लैस किया? ताकि देशी विदेशी कंपनियों के हित में, और यह सब 'विकास' के चमचमाते नाम पर, आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन को हड़पने-हथियाने का रास्ता साफ किया जा सके। 
और एक बात मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं दंतेवाड़ा में नहीं रहता हूं इसलिए वहां की वाजिब जानकारियां मुझे नहीं हैं।  लेकिन मीडिया का शोधार्थी होने के नाते मुझे यह इल्म है कि छत्तीसगढ़ का अधिकांश हिंदी मीडिया सरकारी भोंपू से ज्यादा कुछ नहीं हैं और कि वहां 'खुला खेल फरूखाबादी' की तर्ज पर 'विकास' के नाम पर जो कुछ हो रहा है उससे कॉर्पोरेट कंपनियों, बाहरी तथा देश के आंतरिक युद्ध-पिपासु, बौने राजनीतिक और सैन्य प्रतिनिधियों के सिवाय आम जनता का कोई भला यकीन नहीं हो रहा है। 
दुनिया में कम ही इसकी मिसाल मिलती है कि कोई महान लेखक या कवि या रचनाकार और कलाकार किसी सत्ता के पायदानों से आंशिक आत्मीय तालमेल बना पाया है. हां, आधुनिक भारत में, इक्कीसवीं सदी में एकाधिक डीजीपी कवियों के अपवाद को छोड़कर.....जो सलवा जुडूम को 'डार्लिंग' बनाए हुये हैं।

महेश चंद्र पुनेठा : हम लक्ष्मी की सेवा/सुविधाजनक नौकरियों/सरकारी तमगों के लिए/समझौतों की कालाबाजारी नहीं कर सकते इतने गाफिल नहीं हैं हम। सत्ता से नाभिनालबद्ध होकर ये सारी कालाबाजारी करने और दूसरों को इस धंधे में जोड़ने के लिए कटिबद्ध साहित्यकारों की कमी नहीं। उसके लिए संस्थान खड़े किये गए हैं। आप जैसे दो -चार के न होने से क्या फर्क पड़ जाता है? समय पर समझ जाओ, अन्यथा उनके पास कुछ खास कानून भी हैं विकास की परिभाषा नहीं समझते हो -जल- जंगल - जमीन से आदिवासियों को खदेड़कर वहां बहुराष्टीय कंपनियों को बसाना विकास कहलाता है।
 

जयप्रकाश मानस : अनिल जी, तो क्या यह भी बतायेंगे कि जिस तरीके से गणतांत्रिक (बची-खुची) व्यवस्था में अव्यवस्था हो रही है वह प्रस्तावित तंत्र की स्थापना से नहीं होगी? सुना है संघाई में दुनिया का सबसे बड़ा मॉल है और आधा चीन फटेहाल। क्या उस तंत्र के स्वप्नदृष्टा, प्रायोजक, प्रस्तोता के पास कोई ऐसा रोडमैप है जिसमें यह सब नहीं होने की गारंटी है ? आपको कहीं से भी गलतफहमी न हो, इस लिए यह कहना लाजिमी है कि आदिवासियों को सरकारें तड़पा रही हैं तो वे भी इससे कम नहीं कर रहे हैं उनके साथ जिस पर आदिवासी विश्वास करे कि वे सबसे योग्य और अंतिम भाग्य विधाता हों।

नोट : टेक्स्ट लम्बा और उबाऊ न हो इसलिए फेसबुक  पर चली लंबी बातचीत को संपादित कर यहाँ  प्रकाशित किया गया है.