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Dec 28, 2010

जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश

मैं छत्तीसगढ़ नहीं गया,अरुंधति की तरह पहले नहीं बोला,मेधा पाटकर के साथ नर्मदा पर नहीं लड़ा.दूर रहा,सुरक्षित लेखन किया,उड़ीसा और कर्नाटक और गुजरात मेरा जाना नहीं हुआ.मैंने खुद को किसी जोखिम में नहीं डाला. फिर भी मैं डरा हुआ क्यों हूं...


शिव प्रसाद जोशी

21वीं सदी के पहले दस साल पूरे हो गए हैं और एक अभूतपूर्व विकास दर की कुलांचे भरते देश में दुश्चिंता का न जाने ये साया क्यों नहीं जाता कि क्या हम सब वलनरेबल हैं.यानी हम सब आम नागरिक.

मुझे बार बार आशंका होती है कि मुझे कभी भी गिरफ़्तार तो नहीं कर लिया जाएगा.हालांकि अगले ही पल मैं सोचता हूं कि मैने तो कोई अपराध किया नहीं.पत्रकार हूं ख़बरें की हैं,कविताएं-निबंध लिखता हूं, ईमानदारी से लेखन करता हूं. बस. और तो मेरा कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. पर फिर भी मुझे क्यों लगता है कि कोई मुझे देख रहा है, घूर रहा है, मेरा पीछा कर रहा है.मुझे कभी भी दबोचा जा सकता है.मैं कार ड्राइव कर दफ्तर जाता हूं, मुझे कोई किसी आधार पर फंसा सकता है.

क्या मैं सरकार या सत्ता के किसी नुमायंदे के लिए असहनीय होने की स्थिति में आ चुका हूं. क्या मैं शांति भंग कर सकता हूं. क्या मैं सत्ता राजनीति या दबंग समाज की आंख में खटका हूं. क्या मेरी शिनाख्त दुर्योग से एक व्यवस्था विरोधी शख़्स के रूप में हो चुकी है. क्या किसी को भनक लग गई है कि दमनकारी रवैये का मैं विरोधी हूं. क्या मुझे देशद्रोही माना जाएगा.



दिल्ली में में प्रदर्शन
 
मैं अरुंधति रॉय का समर्थक हूं.मैं वरवर राव को हमारे समय का एक बड़ा कवि क्रांतिकारी मानता हूं.मुझे सांप्रदायिकता से नफ़रतहै. मुझे अमेरिकापरस्ती  नापसंद है.मैं इस्राएल की दमनकारी नीतियों का विरोधी हूं.मुझे हुसैन एक बड़े आर्टिस्ट लगते हैं.मुझे सचिन तेंदुलकर के व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं पर एतराज़ है.मुझे टीवी समाचार में फैले हुए अघाएपन और अपठनीयता और एक घमंडी किस्म की नालायकी से नफ़रत है.

मुझे हिंदी में ज्ञानरंजन, चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल,विनोद कुमार शुक्ल,असद ज़ैदी, वीरेन डंगवाल,देवीप्रसाद मिश्र और योगेंद्र आहुजा की रचनाएं सबसे ज़्यादा पसंद हैं.मुक्तिबोध के बाद रघुबीर सहाय की कविता आने वाले वक़्तों की भयावहता को सबसे पहले दर्ज करती हैं,ये मैं भी आगे बढ़कर मानता हूं.

मेरे कुछ पत्रकार ब्लॉगर कवि लेखक साथी हैं,वे मुझे पसंद करते हैं,मैं उनसे निकटता महसूस करता हूं.मुझे नॉम चॉमस्की पसंद हैं,एडवर्ड सईद पसंद हैं,रोमिला थापर और पी साईनाथ पसंद हैं.हमारे कुटुंब के एक बड़े बुज़ुर्ग मार्क्सवादी हैं.हमारे आसपास लोकतंत्रवादी विचारधारा के बहुत से कवि लेखक संस्कृतिकर्मी और एक्टिविस्ट हैं.

क्या ये सब वजहें हैं जिनके चलते मुझे डरा रहना चाहिए.एक निहायत ही दुबकेपन में रहना चाहिए.घिरा घिरा सा अपने ही डर दुविधा और सवालों में. अपने बच्चों और परिवार की फ़िक्र करता हुआ. नौकरी करता हुआ. कोई कड़वी बात न कह दूं इसके लिए सजग रहता हुआ,हर महीने तनख्वाह घर लाता हुआ.रोटी मक्खन चैन से खाता हुआ और ईश्वर को प्रणाम कर एक बेफ़िक्र नींद में जाता हुआ.

मैं छत्तीसगढ़ नहीं गया,अरुंधति की तरह पहले नहीं बोला,मेधा पाटकर के साथ नर्मदा पर नहीं लड़ा.दूर रहा, सुरक्षित लेखन किया, उड़ीसा और कर्नाटक और गुजरात मेरा जाना नहीं हुआ. मैंने खुद को किसी जोखिम में नहीं डाला.फिर भी मैं डराहुआ क्यों हूं. जब से डॉक्टर बिनायक सेन को उम्रक़ैद देने की ख़बर आई है,मेरा डर और बढ़ गया है.वो तीस साल से छत्तीसगढ़ में अपनी डॉक्टरी को आम आदिवासियों के बीच अमल में ला रहे थे.

उनको मदद पहुंचा रहे थे.वो शंकर गुहा नियोगी के अघोषित शागिर्द थे.उन्होंने अपनी डॉक्टरी के नए आयाम खोलते हुए इतना भर किया था कि इलाक़े में नक्सलवाद पर काबू पाए जाने के नाम पर की जा रही बर्बरताओं का खुला और पुरज़ोर विरोध किया था. उन्होंने लोगों को मिटाए जाने की उस रौद्र षडयंत्र भरी रणनीति को अन्याय कहा था. बस.

अदालतें इंसाफ़ का एक ठिकाना होती हैं.पर उन्होंने मेरा डर बढ़ा दिया है.हम सबका डर बढ़ा दिया है. मेरे पिता का, मेरी मां का, मेरी पत्नी का, मेरे बच्चे डरेंगे. हम सब डरे हुए हैं. हमारा परिवार, हमारा समाज, हमारे लोग. क्यों?

दशमलव के नीचे की या उससे थोड़ा ऊपर की आबादी दिल्ली मुंबई कोलकाता बंगलौर,हैदराबाद, चेन्नई, पटना, सूरत, बड़ौदा, अहमदाबाद, देहरादून, लखनऊ, जयपुर आदि में अविश्वसनीय किस्म की विलासिता भोग रही है. वह हमारे समय के समस्त सुख भोग रही है.हमारे महादेश की बाकी आबादी न जाने क्यों भुगतते रहने पर विवश है.नीरा राडिया की कंपनी बहुत कम समय में करोड़ों अरबों की कंपनी बन जाती है.उसके लिहाज़ से ये ऊंचा और ऊंचा उठती विकास दर तो ठीक है.

लेकिन छत्तीसगढ़ से लेकर उत्तराखंड और कर्नाटक,उड़ीसा केरल तक एक आम मज़दूर और एक खेतिहर के लिए,किसी भी वक़्त नौकरी न रहने की आशंका में झुलसते एक बड़े निम्न मध्यवर्ग के लिए विकास दर आखिर कहां सोई रहती है. क्या वो इन सोए हुए,डरे हुए, भुगतते हुए और खपते हुए पसीने और धूल से सने हुए लोगों की आकांक्षाओं और सपनों के किनारों से किसी शातिर शैतान बिल्ली की तरह दबे पांव निकल जाती है.

बिनायक सेन की सज़ा क्या हम सबको मिली हुई सज़ा नहीं है.क्या इस चिंता से पीछा छु़डाने का य़े वक़्त नहीं है कि हमें कोई क्या दबोचेगा, हम पहले से सज़ायाफ़्ता हैं, हम इस क़ैद में हैं और मुक्ति के लिए संघर्ष हमारा जारी है. 2010 की अभूतपूर्व आर्थिक तरक्की अगले दस साल यानी 2020 में एक नया मकाम हासिल कर लेगी. वो अकल्पनीय विकास का पड़ाव होगा. लेकिन वह कुछ जद्दोजहद कुछ बेचैनियों कुछ लड़ाइयों का भी एक पड़ाव होगा.

उन पड़ावों तक आते आते बहुत सी जेलों में बहुत से बिनायक सेन आ चुके होंगे.पोस्को और वेदांत एक नया सामाजिक चोला पहन लेंगे.वे कानूनों के पास एक चमकीला रिसॉर्ट बना देंगे.सरकारें उनसे अंततः अभिभूत होती जाएगीं.पर अरुंधति रॉय जैसे और स्वर भी तो आएंगें. नवारुण भट्टाचार्य ये याद दिला चुके हैं कि 'यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश,यह जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश.'


  • पत्रकार,युवा कवि और अनुवादक.सहारा चैनल में उत्तराखंड ब्यूरो प्रमुख रहने के बाद जर्मन रेडिओ डोयेचे वेले में चार साल तक कार्यरत. स्टीफन हॉकिन्स के अनुवादों के लिए चर्चित.