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Jul 2, 2011

क्यों चुप है सरकार

आपरेशन ग्रीनहंट के इस नेतृत्वकर्ता ने जब देश की आंतरिक सुरक्षा का कार्यभार संभाला, उसके बाद देश के भीतर ही जगह-जगह उपनिवेश दिखने लगे हैं। सेना, अर्धसेना, पुलिस, गुप्तचर, प्रशासनिक अधिकारी से लेकर निजी सुरक्षाकर्मियों का पूरा लाव-लश्कर जमीन हथियाने के अभियान का अगुआ बन गया है...

अंजनी कुमार

हर्फ ए हक दिल में खटकता है जो कांटे की तरह
आज इजहार करें और खलिश मिट जाए।।
न तो यह कांटा निकल रहा है और न ही खलिश मिट रही है। आज यानि 2 जुलाई को पूरा एक साल बीत गया है  माओवादी प्रवक्ता आज़ाद और पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डेय की हत्या को।  इस बीच पीयूसीएल की टीम ने मानवाधिकार मामलों के वकील प्रशांत भूषण  के नेतृत्व में छानबीन कर अपनी रिपोर्ट में बताया कि सीपीआई माओवादी के प्रवक्ता आजाद और पत्रकार हेमचंद्र पांडे को पकड़ कर हत्या की गई। यह रिपोर्ट आंध्र प्रदेश पुलिस और गृहमंत्री चिदंबरम के ‘मुठभेड़’ के दावे को झुठलाती है।

अपने सितंबर 2010 के अंक में 'आउटलुक' पत्रिका ने आजाद के पोस्टमार्टम रिपोर्ट की स्वतंत्र समीक्षा को छापा था। विशेषज्ञ डाक्टरों की राय में आजाद को अत्यंत पास से सीधे कोण पर गोली मारी गई थी। पुलिस की कहानी के अनुसार आजाद आदिलाबाद के जंगल में एक ऊंची पहाड़ी पर लगभग 20 माओवादियों के साथ थे। वहां पर हुई मुठभेड़ में आजाद और हेमचंद्र पांडे मारे गए। पुलिसिया कहानी के अनुसार माओवादी ऊंची पहाड़ी (500मीटर ऊपर) पर थे और पुलिस इसके निचले हिस्से में।

पीयूसीएल और अन्य जांच रिपोर्टों में यह बताया गया है कि आसपास के गांव वालों ने उस रात गोली चलने की बात को ही सिरे से नकार दिया। एफआईआर रिपोर्ट और मीडिया द्वारा प्रसारित इस खबर के बीच भी काफी गड़बड़ी दिखती है। एफआइआर  रिपोर्ट के अनुसार आंध्र प्रदेश पुलिस इंटेलिजेंस की खबर के आधार पर 1 जुलाई को आदिलाबाद के जंगल में जाती है और एनकाउंटर होता है। जबकि वेंकेडी पुलिस स्टेशन में 2 जुलाई को एफआईआर दर्ज होता है। इसके अनुसार 20 माओवादियों के साथ 30 मिनट तक मुठभेड़ हुई, जो रात 11 बजे से चली और अलसुबह दो लोगों के शव मिले। यह एफआइआर सुबह 9.30 बजे दर्ज होती है, जबकि चैनल इस कथित मुठभेड़ की खबर को सुबह 6 बजे से प्रसारित करने लगते हैं। इस मुठभेड़ में एक भी पुलिस वाला घायल नहीं हुआ। आंध्र प्रदेश पुलिस की इस मुठभेड़ की कहानी को स्वामी अग्निवेश और प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने 4 अप्रैल 2011 को इसकी जांच सीबीआई से कराने का आदेश दिया। बहरहाल यह जांच जारी है।

इस पूरे प्रकरण में गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की चुप्पी खतरनाक ढ़ंग से बनी रही। आपरेशन ग्रीनहंट के इस नेतृत्वकर्ता ने जब देश की आंतरिक सुरक्षा का कार्यभार संभाला, उसके बाद देश के भीतर ही जगह-जगह उपनिवेश दिखने लगे हैं। सेना, अर्धसेना, पुलिस, गुप्तचर, प्रशासनिक अधिकारी से लेकर निजी सुरक्षाकर्मियों का पूरा लाव-लश्कर जमीन हथियाने के अभियान का अगुआ बन गया है। अपने ही देश में अपने देश के लोगों से दरबदर होते लोगों की जमीन पर कौन काबिज हो रहा है, किसका हित सध रहा है, किसका राज स्थापित हो रहा है, ...?

आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने सीपीआई माओवादी के साथ चिदंबरम ने वार्ता की एक कूटनीति को अख्तियार किया। सीपीआई माओवादी के प्रवक्ता आजाद ने स्वामी अग्निवेश की पहल पर इस कूटनीति पर सकारात्मक रुख अपनाया। इसके चंद दिनों बाद ही कथित मुठभेड़ की कहानी में आजाद और हेमचन्द्र की हत्या कर दी गई। चिदंबरम आंतरिक सुरक्षा और वार्ता की कूटनीति के कर्ताधर्ता होने के बावजूद इस हत्या पर और आगे किसी वार्ता की संभावना पर खतरनाक ढ़ंग से चुप रहे। कांग्रेस और पूरे विपक्ष ने भी इस हत्या और वार्ता के मुद्दे पर चुप्पी को बनाए रखा। इस चुप्पी पर बहुत से सवाल खुले और परोक्ष रूप से उठाए गए, आरोप लगाए गए लेकिन संसद में इस मुद्दे पर चुप्पी बनी रही । इस चुप्पी के बहुत से मायने हैं। चुप्पी परत दर परत खोली जा सकती है। इस चुप्पी के पीछे की राजनीतिक संकीर्णता, गजालत और क्रूर आर्थिक लोभ को भी पढ़ा जा सकता है। इस चुप्पी के पीछे चल रहे नजारों को देखा जा सकता है। 

पर, मसला नागरिक समाज का भी है, जिसके सामने बोलना और चुप रह जाना वैकल्पिक हो गया है। नक्सलवादी, माओवादी के मसले पर तो यह वैकल्पिक चुप्पी खतरनाक ढंग से दिख रही है। वर्ष 1967 के बाद से उभरे इस राजनीतिक विकल्प को अब लगातार विभिन्न धाराओं और कानूनों के तहत अपराध की श्रेणी में डाला जाता रहा है। और, इस श्रेणी के तहत अब तक हजारों लोगों को मुठभेड़ में मारा जा चुका है। इस अपराध के तहत मनमानी सजा मुकर्रर की गयी। हजारों लोगों ने जेल की सलाखों के पीछे जीवन गुजार दिया। आज भी यह बड़े पैमाने पर जारी है।

वर्ष 1970 के दशक में नागरिक राजनीतिक अधिकारों को लेकर बड़ी लड़ाईयां लड़ी गयीं और जीती भी गयीं। कई सारे संगठन अस्तित्व में आए। आज भी इसकी एक क्षीड़ धारा इस तरह की लड़ाइयों में लगी हुई है। आज जितने बड़े पैमाने पर राजनीतिक नागरिक अधिकारों पर हमला बोला जा रहा है, उससे यह चुनौती कई गुना बढ़ चुकी है। ऐसे में वैकल्पिक चुप्पी और संघर्ष का रास्ता खतरनाक नतीजे की ओर ले जाएगा। आजाद और हेमचंद्र पांडे की हत्या पर सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप सकारात्मक है। एक सकारात्मक पहल ही दमन की पहली खिलाफत है। आजाद और हेम की हत्या के मसले पर नागरिक समाज के पहल की दरकार है।



स्वतंत्र पत्रकार व राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता.फिलहाल मजदूर आन्दोलन पर कुछ जरुरी लेखन में व्यस्त.

Jun 26, 2011

झारखण्ड में कलाकार को फांसी


जनज्वार.झारखण्ड के गिरिडीह जिले की अदालत ने चिलखारी हत्याकांड मामले में 23जून को चार माओवादियों को फांसी की सजा सुनाई है.झारखण्ड के इतिहास में यह पहली बार है कि माओवादियों को किसी मामले में फांसी की सजा हुई है. सजायाफ्ता लोगों में मनोज रजवार, छत्रपति मंडल, अनिल राम और जीतन मरांडी हैं, जिनमें जीतन मरांडी झारखंड के प्रसिद्ध प्रगतिशील लोक कलाकार हैं.

चिलखारी में 26अक्टूबर 2007 को हुई गोलीबारी में 19 लोगों की जान गई थी. मृतकों में झारखण्ड के  पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का बेटा अनूप भी था.माओवादियों ने यह हमला तब किया था जब वहां एक रंगारंग  कार्यक्रम चल रहा था.इस मामले को रेयरेस्ट ऑफ़ द  रेयर मानते हुए  जिला और सत्र न्यायधीश इन्द्रदेव मिश्र ने सजा सुनाई है.  हालाँकि अदालत के इस फैसले का झारखंड में व्यापक विरोध हो रहा है.फांसी की सजा के विरोध में झारखण्ड के कई जेलों में बंद कैदी भी हैं और वे  आमरण अनशन कर रहे हैं.

बायीं  ओर जीतन और उनकी पत्नी : एक नए विनायक  
 जीतन मरांडी के खिलाफ हुए फैसले के बारे में झारखण्ड बचाओ आन्दोलन और पीयूसीएल का कहना है कि जीतन को फर्जी तरीके से फंसाया गया है.  संगठन के मुताबिक संदिग्धों में एक जीतन मरांडी था, जो फरार होने में सफल रहा. पुलिस उसे पकड़ने में अब तक नाकाम रही है और हमारे संगठन के मानवअधिकार कार्यकर्ता जीतन मरांडी को इस मामले में अभियुक्त बना दिया,जबकि हत्याकांड के वक्त वह गांव में नहीं थे.संगठन का दावा है कि पुलिस मानवाधिकार कार्यकर्ता जीतन मरांडी के खिलाफ फर्जी गवाह पेश कर उन्हें मौत की सजा दिलाने में सफल रही है. 

संगठन की जारी विज्ञप्ति के मुताबिक  जीतन मरांडी नक्सलवादी नहीं है,वे एक सांस्कृतिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. जीतन मरांडी एक प्रतिभाशाली कलाकार है, वे संगीत बनाते है, गीत लिखते है,और नुक्कड़ नाटक करते है.वे अपनी कला का इस्तेमाल गिरिडीह जिले के गावों में लोगो का मनोरंजन करने और उनकी जीवन की समस्यों के बारे में उन्हें जागरूक करने में करते है.ऐसे में जाहिर है कि वहां के प्रशासन और पुलिस के लिए वे एक खतरनाक व्यक्ति थे और वे उन्हें सबक सिखाने का मौका तलाश रहे थे.

झारखण्ड बचाओ आन्दोलन से जुड़े लोगों का आरोप है कि 'पुलिस ने हत्याकांड में शामिल असली जीतन मरांडी को पकड़ने का किसी भी प्रकार का प्रयास नहीं किया.उनके लिए हमारे साथी को पकडना और उसे आरोपी बताना बहुत आसान था.पुलिस के लिए तथा कथित ‘गवाह को पेश करना कोई बड़ी बात नहीं थी जो अदालत में कबूल करते कि उन्होंने मरांडी को हत्याकांड की जगह देखा था और कोर्ट के लिए ये तथा कथित  गवाह सजा मुकर्रर  करने के लिए काफी थे.

वो सुबह कभी तो आएगी

जैसे ही कोर्ट ने सजा दी मरांडी ने कोर्ट परिसर में जोर जोर से ‘वो सुबह कभी तो आएगी’गीत गाना शरू कर दिया.जीतन की पत्नी अपर्णा ने भी 2साल के अपने बच्चे को गोद में उठाये हुए उनकी आवाज़ के साथ अपनी आवाज़ मिला दी.इस सजा के पीछे की कहानी एक राजनीतिक षड़यंत्र है जो पूर्व मुख्य मंत्री की पार्टी के नेताओं और पुलिस की मिलीभगत में रचा गया है ताकि जनता को डरा कर चुपचाप दमन सहते रहने को मजबूर किया जा सके.

 कोर्ट में जतीन ने घोषणा की कि वे इस सजा के खिलाफ अपील करेंगे. कोर्ट से बाहर  उनकी बीबी अपर्णा ने भी इस बात की पुष्टि की.अपर्णा के कहा कि वह न केवल उच्च न्यायालय  में बल्कि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग में भी सजा के खिलाफ अपील करेंगी.