याद नहीं पड़ता कि पिछली ऐसी कौन—सी फिल्म थी, जिसने बिना भारी भरकम मार्केटिंग के बस अपनी कहानी के दम पर दर्शकों को सिनेमा की खिड़की की तरफ खींचा हो। महीनों उस फिल्म की गली—मोहल्लों, स्कूल—कॉलेजों में चर्चा रही हो.....
तैश पोठवारी
पिछले एक दशक में सिनेमा उद्योग में बहुत भारी अंतर आया है। एक तरफ सस्ते परम्परागत सिनेमाहाल जहां देश की आम मेहनतकश जनता फ़िल्में देखने जाती थी, टूटकर माल या ब्रांडेड मल्टीप्लेक्स सिनेमा हाल में बदल गया, वहीँ दूसरी तरफ आम आदमी व उसका जीवन सिनेमा की कहानी से पूरी तरह गायब हो गया और हर फिल्म की कहानी धनाढ्य युवा वर्ग की अराजक जीवनशैली के इर्द गिर्द घूमने लगी।
फिल्म का कथानक मैनेजमेंट और मार्केटिंग विशेषज्ञ तय करते हैं कि कैसे एक निश्चित वर्ग को टारगेट करके बस 2—4 दिन के लिए सिनेमा तक खींच लिया जाएं। कुछ एक अपवाद को छोड़कर याद नहीं पड़ता कि पिछली ऐसी कौन—सी फिल्म थी, जिसने बिना भारी भरकम मार्केटिंग के बस अपनी कहानी के दम पर दर्शकों को सिनेमा की खिड़की की तरफ खींचा हो। महीनों उस फिल्म की गली—मोहल्लों, स्कूल—कॉलेजों में चर्चा रही हो।
हो भी कैसे सिनेमा के बाजार के लिए देश की 80 फीसदी जनता जो 250 रुपए का टिकट नहीं खरीद सकती, न बाजार उसे अपना ग्राहक मानता है और न ही उसके लिए सिनेमा बनाता है। आजकल फिल्म के सुपरहिट होने का मतलब उसकी आम जनता में लोकप्रियता नहीं, बल्कि मल्टीप्लेक्स में हुआ कलेक्शन है।
अगर किसी फिल्म का टिकट 250 रुपए है और 125 करोड़ की आबादी वाले देश में सिर्फ 40 लाख लोग ही सिनेमा में किसी फिल्म को देखते हैं, तो उसका कलेक्शन 100 करोड़ हो जाता है। उस पर कई फिल्म निर्माता फिल्मों के टिकट इससे कहीं ज्यादा दुगने, तिगुने दामों पर भी रखने लगे हैं।
देश के उच्च मध्यम वर्ग को सिनेमा तक खींचने के लिए भारी भरकम मार्केटिंग की जाती है। मीडिया खरीदा जाता है। उसके नायक—नायिकाएं टीवी के तमाम लोकप्रिय कार्यक्रमों में जा पहुंचते हैं।
औपनिवेशिक संस्कृति के खुमार में डूबे तमाम युवा रिपोर्टर बिना फिल्म देखे फिल्म की रिलीज से पहले एक ऐसा कृत्रिम माहौल तैयार करते हैं कि दर्शक सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि चलो फिल्म को देख लिया जाए और दूसरे दिन ही पेड मीडिया जो सिनेमा के लिए एक सेल्समैन बन चुका है उसके कलेक्शन के रिकॉर्ड के साथ फिल्म के सुपरहिट होने की घोषणा कर देता है।
देश की बहुसंख्यक जनता को बाजार ने देखते ही देखते सिनेमा से बाहर कर दिया और भांड मीडिया इसकी आलोचना करने की बजाए उसका भोंपू बना हुआ है। फिल्मों का सिनेमाघरों में बस 2—4 दिन चलना और उस पर सिर्फ 2—4 लोगों का इसके निर्माण और वितरण पर अधिकार क्या यह दर्शकों का संकट है या सिनेमा का। न तो यह सिनेमा का संकट है, न ही दर्शकों का, असल में यह पूंजीवाद का संकट है। जहां फ़िल्में और हीरो हीरोइनें एक सीमित वर्ग के लिए खाली पड़े मल्टीप्लेक्स में बाजार में अन्य चीजों की तरह जबरदस्ती बिकने वाले प्रोडक्ट हैं।
भूमंडलीकरण के बाद हर देश में पूंजी का सकेंद्रीयकरण हुआ है और इस पूंजी ने सिनेमा के साथ हर छोटे बड़े व्यवसाय पर अपने ब्रांड के साथ एकाधिकार कर लिया है, जिसमें बड़े निवेश के साथ बने मल्टीप्लेक्स को मुनाफे में रखने के लिए बस एलीट सिनेमा बन रहा है, वहीँ फिल्म का अराजक, बाजारू खाओ—पियो ऐश करो का कथानक दिन—ब—दिन संकट में जा रहे कृत्रिम बाजार के लिए खरीदारी का माहौल तैयार कर रहा है।
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