बिखरती पुस्तकों की दुनिया
जिस हिन्दी के गाने, संगीत, शब्द हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में दुनियाभर के लोगों का मन मोह लेते हों, घर—बाहर, बाजार, केरल से लेकर आसाम, अरुणाचल, कश्मीर तक जिस भाषा के बूते लोग जुड़ते हों, वह सरकारी दरवाजों पर पहुंचते ही भिखारी, दयनीय बना दी जाती है...
प्रेमपाल शर्मा
23 अप्रैल दुनियाभर में पुस्तक दिवस के रूप में घोषित है। संयुक्त राष्ट्र की विश्व संस्था ने सारी दुनिया में किताबों की महत्ता को मानते हुए एक दिन किताबों के लिए रखा है जिससे दुनियाभर के नागरिक किताबों के महत्व को समझ सकें। पढ़े, लिखें और उसमें अपना योगदान करें। पुस्तक दिवस में कापी राइट आदि भी शामिल है।
दुनियाभर के मनीषियों के इन कदमों का मानव जाति की सुख समृद्धि शांति के लिए बडे़ दूरगामी प्रभाव हैं। अपनी अपनी मातृभाओं के लिए 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस, योग दिवस, जल, वातावरण जैसे कई दिवस इसीलिए मनाए जाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र के चार्टर से बंधे होने के कारण मनाते तो हम भी हैं, कई संस्थान, सरकारें आयोजन भी करती हैं लेकिन यह एक रीति से ऊपर क्यों नहीं उठ पाता? किताबों की महत्ता जितनी भारत जैसे अविकसित, अर्धशिक्षित देश के लिए है उतनी तो अमेरिका, यूरोप की भी नहीं। कहने की जरूरत नहीं शिक्षा, ज्ञान को जन जन तक पुस्तकें तो ही पहुंचायेंगी। यह तो सभ्यता का वाहन है। इसलिए पुस्तकों की दुनिया का सबसे बड़ा आविष्कार कहा जाता है। क्या रामायण, कुरान, बाईबिल आज जिंदा रह पाते यदि इन्हें पुस्तकों के रूप में संरक्षित नहीं किया होता?
हमारी भारतीय मनीषा, ग्रंथ भी बार बार पुस्तकों, विद्या को पूज्य रूप में स्वीकार करते हैं। कई त्यौहारों पर्व पर पुस्तकों को पूजा भी जाता है लेकिन मौजूदा समाज क्या वाकई उनके महत्व को समझ पा रहा है? मैं एक–दो उदाहरणों से बात को रखूंगा।
फरवरी मार्च के महीने ज्यादातर विश्वविद्यालयों, सरकारी संस्थानों में कुछ-कुछ बजट को ठिकाने लगाने, कुछ अकादमिक सरगर्मी के होते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलिज में शिक्षा संस्कृति के आसपास के विषय का सेमिनार था। अच्छी बात यह भी कि उन दिनों पूरा कॉलिज सांस्कृतिक कार्यक्रमों, नाटक, नृत्य, पेन्टिग्स, कविता, भांगड़ा से लेकर खेल के कार्यक्रमों में तरबतर था। 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस था। मैंने सुझाव दिया कि अच्छा हो अपनी भाषा- हिन्दी पंजावी-उर्दू की किताबों का एक स्टॉल भी लगा दिया जाए और उसकी महत्ता भी बताई जाए। यूएन का घोषित दिवस है अच्छी तरह मनाया जा सकता है।
विशेषकर जब कॉलिज में हजार-पांच सौ विद्यार्थी हों तो और भी बड़ी बात है वरना आजकल ऐसे दिवस मनाने के लिए राजभाषा सप्ताह की तरह लोगों को पकड़—पकड़कर लालच देकर शामिल किया जाता है। प्राचार्य हिन्दी की थीं उन्होंने लगभग अनसुना कर दिया। फिर समझाया तो बोली जो प्रकाशक किताबें लगायेगा, यहां बेचेगा वो हमारे लिए क्या करेगा-बदले में।
इस सौदेबाजी से कोई भी चौंक सकता है। उन्होंने खुद ही कहा-वे हमारे बच्चों के आई कार्ड बनवा दें या कोई और मदद कर दें तो किताबों की स्टॉल लगा सकते हैं। मुझे कहना पड़ा कि मेरा कोई प्रकाशक जानने वाला नहीं है आप जिसे चाहे बुलायें। मैं तो बस मातृभाषा की सार्थकता के बारे में कह रहा हूं। आखिर मातृभाषा दिवस यूं ही चला गया।
ऐसा ही एक अनुभव एक मंत्रालय का। कुछ वर्ष पहले सोचा कि पुस्तक दिवस पर कुछ अच्छी किताबें कर्मचारियों को दी जाएं। राजभाषा विभाग तुरंत तैयार, लेकिन जब बांटते वक्त किताबों का बंडल खोला तो न उसमें प्रेमचंद थे न टैगौर न, गांधी, नेहरू। कुछ कुंजीनुमा किताबें उन्होंने अपने किसी कमीशन के तहत मंगा ली थी।
सैकड़ों उदाहरण बिखरे पड़े हैं रोजाना की जिंदगी में यानि की वही पुराना जुमला-आप घोड़े को तालाब के किनारे खींच तक ला सकते हो, पानी नहीं पिला सकते। यू एन घोषित करे या भारत सरकार, हमारे सारे दिवसों की यही नियति बन चुकी है। जरूरत है तो समाज को चेताने की कि किताबें क्यों जरूरी हैं? क्यों शिक्षा में सिर्फ पाठयक्रम की चंद किताबों से काम नहीं चलने वाला?
हर मां-बाप और शिक्षक को किताबों का महत्व बताने की जरूरत है। पुस्तकालय को समृद्ध करने की कि इनके बिना शिक्षा ज्ञान के किनारों तक भी नहीं पहुंच सकते। लेकिन सबसे मुश्किल यही काम है। विशेषकर पढ़े लिखे मध्यम वर्ग को समझाना क्योंकि उन्हें भ्रम है कि वे सब समझते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइस्टाइन ने इन्हीं को इशारा करके कहा है कि किसी भी नए ज्ञान की वाधा ऐसे ही लोगों का पूर्व ज्ञान और अभिमान है।
पुस्तक दिवस के बहाने बार बार इसी भूमिका को पहचानने, जानने और परखने की जरूरत है। लेकिन वक्त के साथ बदलने की जरूरत भी है। अब केवल पिछले पांच सात सौ साल से चली आ रही जिल्द को ही पुस्तक न माना जाए। अब उसके अनेकों रूप हैं। कम्पयूटर पर, किंडल पर। नाम पुस्तक ही है। प्रयोजन भी वही तो सिर्फ कागज पर छपी पुस्तक हठ का क्यों?दुनिया भर में इस नए रूप का स्वागत हो रहा है। इसी उपयोगिता के कारण एक मुटठी में बंद उपकरण और उसमें चार-छ: सौ किताबें। अनेकों भाषाओं की।
आप विदेश यात्रा पर हैं या पहाड़ की सैर या किसी सेमिनार में इतना बोझ न लाद सकते, न जरूरत। पूरी नयी पीढी़ इसका आनंद ले रही है। कभी हाथ से लिखी किताब होती थी, फिर छपाई शुरू हुई। हर रूप में किताब ने दुनिया को बदला है। वस एक ही शर्त कि किताबों के बिना काम नहीं चलने वाला और पश्चिमी सभ्यता ने इसे समझ लिया है। अब बारी हमारे जैसे पूर्व उपनिवेश देशों की है।
इसी से एक बड़ा प्रश्न और जन्म लेता है। कौन सी किताबें? किस भाषा में? किस विषय की। यहां सबसे महत्वपूर्ण पक्ष अपनी भाषा का है। शिक्षा का बुनियादी शब्द। पढ़ने का जो आनंद अपनी भाषा में होता है वह परायी में नहीं। इसलिए विदेशी भाषा यदि जरूरत हो तो हम सीखें, सिखायें लेकिन मातृभाषा की कीमत पर नहीं। दुर्भाग्य से हिन्दुस्तान जैसे पूर्व गुलाम देशों में आज यही हो रहा है और इसलिए पूरी नयी पीढ़ी किताबों से दूर भाग रही है। हर स्कूल, कॉलिज में बच्चों, छात्रों पर अंग्रेजी माध्यम लाद दिया गया है। लादने की यह प्रक्रिया पिछले 20 वर्षों में शिक्षा के निजीकरण और ग्लोलाइजेशन की आड़ में और तेज हुई है और उसी अनुपात में पुस्तक पढ़ने की संस्कृति में कमी आई है।
हमारे लोकतंत्र में कुछ शासक भी पिछले दिनों ऐसे आये जो आक्सफोर्ड, केंब्रिज, वाशिंगटन को ज्यादा जानते हैं बजाए इस देश, उसकी भाषा, संस्कृति को। इसलिए जब तक अंग्रेजी एक विषय के रूप में छठी के बाद पढ़ाई जाती रही नुकसान नहीं हुआ। माध्यम बनाने से शिक्षा भी चौपट हुई, किताबें पढ़ने की रूचि, अभिरूचि भी। बच्चे रटते जरूर हैं लेकिन किताबों की तरफ उस आनंद से नहीं देखते जैसा हम सब ने अपने अपने बचपन में प्रेमचंद, रवीन्द्र, गोर्की को अपनी अपनी भाषाओं में सारी दोपहरी फिर सूरज छिपने तक या फिर ढिबरी, लालटेन जलाकर पढ़ा था। किताबों की इसी दुनिया ने पूरी दुनिया को हमें इतना मोहक दिखाया, बनाया।
किताबों की संस्कृति बढ़ाने के लिए इस बुनियाद पर काम करने की जरूरत है। यह कोई नयी बात नहीं है। आजा़दी के बाद देश के सभी कर्णधारों में अपनी अपनी भाषा, संस्कृतियों के लिए यह भावना थी और उसके विकास, संवर्धन के लिए प्रयास भी किए गए। 1964- 1966 में गठित कोठारी आयोग और भारतीय भाषाओं के पक्ष में उनकी सिफारिशों इसी दिशा में बढ़ाने का प्रयास था। समान शिक्षा और अपनी भाषाओं में।
वर्ष 1968 में संसद ने भी माना इन सिफारिशों को।फिर उल्टा क्यों हुआ? बहुलता वाद, बहु भाषावाद के ऊपर अकेली अंग्रेजी क्यों हावी होती गयी? कौन सी पार्टी सत्ता में थी? इन सब कारणों से जहां हिन्दी के बड़े बड़े पत्र धर्मयुग, दिनमान डूबते गए, बडे़ बड़े लेखक भी सिकुड़ कर तीन सौ के संस्करणों तक आ गए। जब अपनी भाषा की किताबें बिकेंगी ही नहीं तो लिखेगा भी कोई क्यों? सामाजिक विषयों की किताबें अपनी भाषा में दरिद्रता का एकमात्र यही कारण है।
इतिहास के पन्ने पलटकर देखने पर यह संतोष होता है कि आज़ादी के वक्त लगभग हर भारतीय भाषा का साहित्य ज्यादा समर्थ पठनीय था। जाने माने समाज शास्त्री, लेखक, इतिहासकार पार्थो चटर्जी ने एक लेख में लिखा है कि उन्नीसवी सदी के अंत में बंगला में समाज विज्ञान, विज्ञान की किताबें मूल बंगला में पहले लिखी गयी हैं, उनका अंग्रेजी में अनुवाद बाद में हुआ और इसके पीछे कोई सरकारी प्रश्रय संरक्षण नहीं था। सब निजी प्रयास थे। ज्ञान को फैलाने की तमन्ना थी। कुछ कुछ यही अनुभव हिन्दी का है। नागरी प्रचारणी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, रामचंद शुक्ल प्रमृति विद्वानों ने अपने अपने बूते भाषा पुस्तकों की दुनिया को समृद्ध किया है।
सबक यह भी कि केवल सरकारी आयोजन, ग्रांट, वजीफे से ही संस्कृति के स्रोत जिंदा नहीं रहते । कई बार तो बर्बाद ही करते हैं। ऐसा नहीं कि सरकार या स्कूल इस गिरावट से अनभिज्ञ हैं। इसे चाहे यूएन के आदेशों का पालन कहिए या दुनियाभर के शिक्षाविदों की बातें, आग्रह कि लाइब्रेरी, पठन—पाठन की दुनिया को बढ़ावा दिए बिना वांछित अकादमिक स्तर तक नहीं पहुंचा जा सकता।
कुछ वर्ष पहले संभवत: एनसीईआरटी या माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की पहल पर केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने कुछ पहल भी की थी जिसमें देशभर में 6000 पुस्तकालय खोलना आदि भी शामिल था। सीबीएसई के स्कूलों में पाठयक्रम में भी साहित्य की किताबें –प्रेमचंद, मंटो, रवीन्द्र शेक्सपियर को पढ़ने की छूट दी थी ओर उसका आकलन यानि नंबर भी। बड़ज्ञ अच्छा लगा जानकर लेकिन स्कूलों में वह कभी उस रूप में लागू नहीं हुआ। कुछ स्कूलों ने इसी आड़ में अंग्रेजी की कुछ और नीरस किताबें बच्चों को थमा दीं। पैसे भी कमाए। लेकिन बच्चों ने उन्हें नहीं पढ़ा।
गलती स्कूलों की भी उतनी नहीं है जितनी अंग्रेजी की तरफ लालच से देखते अभिभावकों की। वे खुद अंग्रेजी की किताबों की मांग करते हैं। अंग्रेजी ठीक करने का ऐस दौरा पड़ा हुआ है कि मैट्रो, एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन पर न हिन्दी की किताबें दिखती न कोई पढ़ता हुआ। क्या अस्सी के आसपास हमें गुलशन नंदा, इब्ने सफी कोई पढ़ने देता था? लेकिन आज ऐसी ही प्रेमकथा की किताब हॉफ गर्ल फ्रेंड-चेतन भगत मां बाप बच्चों को खरीद कर पढ़ने के लिए इसलिए ला रहे हैं कि अंग्रेजी तो ठीक हो जाए। सारी नैतिकता चली गई चूल्हे में। इसलिए पुस्तक संस्कृति पर बात करते हुए भाषा के इस प्रश्न को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
अब जिस पीढी़ ने पहली क्लास से कॉलिज, इंजीनियरिंग कॉलिज, मेडिकल, लॉ या किसी भी पाठयक्रम में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई की है अपनी अंग्रेजी को विदेशी विश्वविद्यालयों में दाखिले की खातिर, अंग्रेजी नावेल, फिल्में, सेमिनार सुन सुनकर मांजा है, उसे क्या भारतीय संस्कृति, अपनी भाषा, संस्कृत की विरासत के एकाध इंजेक्शन से बदला जा सकता है? यह सूखे पेड़ की पत्तियों पर पानी छिड़कने से ज्यादा नहीं है। पानी की जरूरत जमीन और उनकी जड़ों को है और यह जड़ है स्कूली, माध्यमिक और उच्च शिक्षा में अपनी भाषा। अंग्रेजी या दूसरी भाषाएं भी हों, लेकिन उच्च शिक्षा में पहुंचने पर। उससे पहले नहीं।
आश्चर्य की बात है कि जिस हिन्दी के गाने, संगीत, शब्द हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में दुनियाभर के लोगों का मन मोह लेते हों, घर बाहर बाजार केरल से लेकर आसाम, अरूणाचल, कश्मीर तक जिस भाषा के बूते लोग जुड़ते हों, वह भाषा सरकारी दरवाजों पर पहुंचते ही कैसे भिखारी, दयनीय बना दी जाती है। संकेत साफ है- सरकारी दिवसों के बूते न पुस्तकें बच सकती, न भारतीय भाषाएं।
मंडी हाउस के मैट्रो के अंदर आक्सफोर्ड बुक्स ने लगभग बीस किताबों के सुदंर विज्ञापन लगा रखे हैं। सभी अंग्रेजी में। लेकिन कई उनमें से हिन्दी, बांगला, मलयालम की किताबों के अनुवाद भी हैं। अच्छा संकेत है पुस्तकों को पढ़ने को प्रेरित करने का लेकिन क्या हिन्दी का भी कोई प्रकाशक या लेखक ऐसा करने की पहल करेगा?
ऐसा नहीं कि भारतीय भाषाओं में अच्छा नहीं लिखा जा रहा, कारण वे सब हैं जो पूरी शिक्षा संस्कृति और सरकार पर हावी है। पुस्तक संस्कृति को यदि बदलना है तो लेखक, प्रकाशक, अभिभावक, शिक्षक सभी को अपनी अपनी भूमिकाओं पर पुर्नविचार करना होगा।
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