दिल्ली के गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में 24 जुलाई को जाति के सवाल पर आयोजित एक सेमीनार में बांटी गयी सर्वहारा प्रकाशन की एक पुस्तिका का पहला हिस्सा छापकर यहां बहस की शुरूआत की गयी थी . उस पर पाठकों की लगातार प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. बहस की अगली कड़ी में प्रस्तुत है, सामाजिक -राजनीतिक कार्यकर्ता सुधीर का लेख - मॉडरेटर
जाति के सवाल पर खालिस मार्क्सवादी अवस्थिति के दावे के साथ लेखक दरअसल प्रकाश झा के साथ कब खड़ा हो जाता है उसे पता ही नहीं चलता। लेख आरक्षण का पुरजोर विरोध करता है। आरक्षण को भारतीय क्रांति की राह में सबसे बड़ी बाधा घोषित करता है...
सुधीर
‘मायावती मुलायम परिघटना और उसकी वैचारिक अभिव्यक्तियां’ एक दशक पहले ‘इतिहासबोध’ पत्रिका के अंक-29 में जनवरी 1998 में प्रकाशित हुआ था। यह लेख इकबाल छद्मनाम से लेख लिखा गया था। उसी लेख को कुछ मामूली सुधारों के साथ दुबारा प्रकाशित किया गया है, जिसे लेकर जनज्वार में बहस चल रही है.
दलित सवालों को संबोधित इस पुस्तिका की सामान्य मार्क्सवादी प्रस्थापनाओं के अलावा लेख की सभी बातें आज अप्रासंगिक हो चुकी हैं। हालांकि शीर्षक से लेख की अंतर्वस्तु तब भी बेमेल थी जब यह लेख लिखा गया था और अब भी जब इसे पुनर्प्रकाशित किया गया है. हालाँकि आज तो मुलायम मायावती परिघटना का स्वरूप ही बदल चुका है। मुलायम परिघटना दुर्घटना के दौर में है तो मायावती की यात्रा सर्वजन से बहुजन के मुकाम पर पहुंच चुकी है।
‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ का नारा ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी दिल्ली जाएगा’ में संक्रमित हो चुका है। ऐसे में इस लेख को मामूली फेरबदल के साथ पुस्तिका में रूप में प्रकाशन लेखक की उस समय की आत्ममुग्धता का स्वयं को क्रांतिकारी मानने वाले संगठनों की सामान्य इच्छा में परिवर्तित हो जाना भर है।
लेख का प्रकाशन सोवियत संघ में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना समेत मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, माओ की दसेक पुस्तिकाओं का प्रकाशन कर चुके सर्वहारा प्रकाशन के पतन की भी दुखद शुरुआत है। लेख से एक अकर्मण्य मार्क्सवादी के सैद्धांतिक अपच के खट्टे डकारों की बू आती है। जो राजेंद्र यादव (मूल और पुराने लेख में राजेंद्र यादव और श्योराज सिंह बेचैन को ही केन्द्रित किया गया था) के साहित्यिक कद तक पहुंचना चाहता है और उनकी मण्डली को शास्त्रार्थ की दंभपूर्ण चुनौती देता है, क्योंकि इस चुनौती की स्वीकारोक्ति मात्र ही उसे हिंदी साहित्य जगत की मुख्यधारा तक पहुंचा देती। जय-पराजय बाद की बात है।
लेख की 90 प्रतिशत बातें सामान्य मार्क्सवादी बातें हैं, जिन्हें हर बुद्धिजीवी जानता समझता है। शेष अहमक गाली-गलौच जो हर हारा बुद्धिजीवी करता है। लेखक भारत के क्रांतिकारी आंदोलन की स्वार्णिम उपलब्धियों का तमगा खुद के सीने में लगाकर उसी पर कालिख पोतता चलता है।
जाति के सवाल पर खालिस मार्क्सवादी अवस्थिति के दावे के साथ लेखक दरअसल प्रकाश झा के साथ कब खड़ा हो जाता है उसे पता ही नहीं चलता। लेख आरक्षण का पुरजोर विरोध करता है। आरक्षण को भारतीय क्रांति की राह में सबसे बड़ी बाधा घोषित करता है। न पक्ष, न विपक्ष, हमारा तीसरा पक्ष की आरक्षण विरोधी अवस्थिति के कारण ही यह क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन और इंकलाबी मजदूर संगठन जैसे संगठनों का प्रिय बन जाता है। ये संगठन आरक्षण का औपचारिक समर्थन जरूर करते हैं परन्तु व्यवहार में उसके विरोधी हैं। एक तरफ यह आरक्षण को अप्रासंगिक बताते हैं दूसरी ओर उसे भारतीय क्रांति का सबसे बड़ा रोड़ा मानते हैं।
क्रालोस, इमके और पछास जैसे संगठनों के लिए क्रांतियां समाज में नहीं इनकी प्रयोगशाला में घटित होती है। इनके शिविर, सम्मेलनों ने जाति व्यवस्था को लगभग खत्म घोषित कर दिया है। अंग्रेजों ने जाति व्यवस्था के उन्मूलन के ऐतिहासिक कार्यभार की शुरुआत की और भारतीय बुर्जुआ ने इसे लगभग खत्म कर दिया है और बचा-खुचा वह जल्द ही खत्म कर देगा। इनके रासायनिक प्रयोग इन्हीं निष्कर्षों तक पहुंचते हैं।
अपने जन्म से आज तक इन संगठनों ने जाति उत्पीड़न के सवाल पर व्यावहारिक कार्रवाई तो क्या प्रेस वक्तव्य भी नहीं दिए हैं। इन संगठनों की कर्मस्थली उत्तराखण्ड में बीते चार महीनों में तीन दलितों की हत्या सुर्खियां बनीं, ढेरों दलित उत्पीड़न के मामले सामने आए मगर इनकी कोई पहलकदमी नहीं दिखायी दीं। अलबत्ता आस्ट्रेलियाई छात्रों पर नस्ली हमले इन्हें व्यथित कर देते हैं। जिस सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण का चश्मा यह सिर्फ अपनी ही आंखों में चढ़े होने का दावा करते हैं उसकी गर्द इन्हें समय-समय पर साफ करनी चाहिए।
तीनों ही संगठनों के नेतृत्वकारी निकायों की बैठकों से लौटने के बाद कई दफा दूसरे दर्जे के नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं के मुंह से मैंने सुना की उत्तराखण्ड में जातिवाद नाम-मात्र को है। ऐसा उन्हें शीर्ष नेतृत्वकारियों ने बताया था। इन अकादमिकता के चैम्पियनों को जातिगत उत्पीड़न दिखता ही नहीं। इन संगठनों के शत प्रतिशत सक्रीय कार्यकर्ता संगठन से सजातीय जीवन साथी तलाशने का अनुरोध करते हैं। यहां पर इनका जाति व्यवस्था की क्रूर सच्चाई से सामना होता है। जिसके नजरअंदाज कर दिया जाता है।
क्रांतिकारी संगठनों को वैचारिक नेतृत्व प्रदान कर रहे लेखक के सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण पर तब तरस आता है। सवाल हे कि दलित गैरबराबरी का शिकार तो तब होगा जब उसे समाज का हिस्सा माना जाएगा। सम्पन्न या विपन्न दलित के लिए दलित होने का अर्थ है अस्पृश्य, समाज बहिष्कृत होना। सवर्णों के लिए वे कुत्ते, बिल्लियों, कबूतरों से भी ज्यादा गया गुजरा है। आज भी सवर्ण हरसंभव दलितों के साथ पराम्परागत तुलसीदासी व्यवहार करते हैं। जहां संभव नहीं होता वहां वह मन मसोसकर रह जाते हैं।
एक ब्राह्मण चपरासी दलित आईएएस को बराबर का नहीं मान लेता, वह उसे झेलता है, बर्दाश्त करता है। एक दलित अफसर के बेटे के साथ सवर्ण, संविदा चपरासी भी अपनी बेटी नहीं ब्याहेगा, न ही आप ‘कम्युनिस्ट’ ऐसा दुस्साहस करते हैं। एक दलित अफसर सजातीय विपन्न के साथ जो व्यवहार करेगा वह गैर बराबरी है। वह उसे छूने योग्य इंसान तो मानता है। अकारण नहीं है कि ओहदेदार दलित अपने नाम-उपनाम को संक्षिप्त और जाति को गोल-मोल कर देते हैं। और आप अपनी जाति को नाम से चिपकाने का मोह नहीं त्याग पाते। एक धनाढ्य दलित के लिए नाम के आगे का पुछल्ला अंतर्वस्तु है और आपके लिए आपके नाम के आगे रूप।
दरअसल आपकी प्रजाति के कम्युनिस्टों ने सर्वहारा दलितों के बीच मार्क्सवादियों की विभ्रमित छवि गढ़ी है। आप लोग इंकलाबी इतिहास की उपलब्धियों की ट्राफी हाथ में लहराकर उसी पर कीचड़ उछालते हैं। आप अपने लिए छोटी सी चुनौती तय करें, जिस तरह आप दहेज वाली शादियों का बहिष्कार करते हैं उसी तरह उन करीबियों का भी करें जो जात-पात या छुआछूत मानते हैं। ऐसा करते ही आपको आवाज सुनायी देगी, वह आवाज जाति व्यवस्था के टूटने की भी हो सकती है। मगर आप ऐसा नहीं कर पाये। इसलिए आपका लेखन बरबस उस बंदर की याद दिलाता है जिसे हल्दी की गांठ मिली और वह पंसारी बन बैठा।
दरअसल आपकी प्रजाति के कम्युनिस्टों ने सर्वहारा दलितों के बीच मार्क्सवादियों की विभ्रमित छवि गढ़ी है। आप लोग इंकलाबी इतिहास की उपलब्धियों की ट्राफी हाथ में लहराकर उसी पर कीचड़ उछालते हैं। आप अपने लिए छोटी सी चुनौती तय करें, जिस तरह आप दहेज वाली शादियों का बहिष्कार करते हैं उसी तरह उन करीबियों का भी करें जो जात-पात या छुआछूत मानते हैं। ऐसा करते ही आपको आवाज सुनायी देगी, वह आवाज जाति व्यवस्था के टूटने की भी हो सकती है। मगर आप ऐसा नहीं कर पाये। इसलिए आपका लेखन बरबस उस बंदर की याद दिलाता है जिसे हल्दी की गांठ मिली और वह पंसारी बन बैठा।
सम्बंधित लेख - 'दो पेज भी नहीं लिख सकते दलित बुद्धिजीवी'
great article.
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ReplyDeleteये तर्क हैं या निजी खुन्नस. अभी समझने कि कोशिश कर रहा हूँ. कमेन्ट सोच-विचार के बाद, लोग कहते भी हैं 'दो हाथियों कि लड़ाई मे घास के हिस्से मे सिर्फ कुचलना ही आता हे'.
ReplyDeleteSalim Bhai kya bat kahi.
ReplyDeletekhisiyani billi khamba noche, mudde par to kuchh kaha hi nahin kash tum kabhi in muddon par bhi bolte ya bole hote
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