Jul 29, 2011

किस दुनिया में रहते हो कॉमरेड?


वामपंथी समूह क्रांतिकारी लोकअधिकार संगठन और इंकलाबी मजदूर सभा के नेता जाति के सवाल पर दलित बुद्धिजीवियों का क्या महत्व  मानते हैं,उन्होंने अपने लेख 'दो पेज भी नहीं लिख सकते दलित बुद्धिजीवी' में बताया है.  इस पर पहली प्रतिक्रिया सामाजिक कार्यकर्त्ता जेपी नरेला की आई है. उन्होंने पूरी पुस्तिका के सन्दर्भ  में बिन्दुवार यहाँ अपनी राय रखी है...

जेपी नरेला

सर्वहारा प्रकाशन ने पिछले दिनों मायावती-मुलायम परिघटना और उसकी वैचारिक अभिव्यक्ति के नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित की,जिसको लेकर यहाँ बहस आमंत्रित की गयी है.इस पुस्तिका को पढने के बाद मेरे मन में कई सवाल उठे.उन सवालों के  मद्देनजर मैं यहाँ अपने मत व्यक्त कर रहा हूँ...
  • पुस्तिका में लिखा है,‘आज अपने देश में बहुत सारे लोग जो खुद को मार्क्सवाद के समर्थक या मार्क्सवाद से सहानुभूति रखने वाले कहते हैं,वे मार्क्सवाद की जड़ खोदने में लगे हुए हैं...’

यह बात तो सही है,लेकिन आपके पास सही मार्क्सवादी होने का कौन सा प्रमाण है,अभी तो इस मुल्क में पिछले कई दशकों में कोई बड़ा सामाजिक प्रयोग भी नहीं हुआ है. क्या आप भी उसी श्रेणी में तो नहीं आते जिन्होंने मार्क्सवाद को स्वीकार तो कर लिया, लेकिन उसकी (मार्क्सवादी दर्शन द्वंद्वात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद की) आंखें धुंधली हैं. उन्हें नहीं पता है कि भारतीय क्रांति का सम्पूर्ण कार्यक्रम का सही लेखा-जोखा क्या है?उसका रास्ता कौन सा है?

क्या आप यह काम कर पाए,यदि नहीं तो आप यह दावा कैसे कर सकते हैं कि बाकी दुनिया में नकली मार्क्सवादी हैं और आप असली हैं?यह बात केवल बातों से नहीं बल्कि भारतीय जनता के तमाम शोषित, उत्पीड़ित हिस्सों की लड़ाइयों और आप के नेतृत्व से ही स्थापित हो पाएगी.तब तक आप अपने और दूसरे मार्क्सवादियों के लिए इस डिग्री के संबंध में देखें -परखें  का रास्ता अपनाए तो ज्यादा बेहतर होगा.खुद को पाक-साफ घोषित करने से कोई पाक-साफ नहीं हो जाता है.इससे व्यक्तिवाद का खतरा बढ़ता है.आप कहां-कहां पर मार्क्सवाद को खारिज करते जा रहे हैं,इसका आपको अंदाज भी नहीं है.

  • आप लिखते हैं,‘...हम सारे दलित बुद्धिजीवियों को चुनौती देते हैं कि वे आज के अपने ज्ञान के आधार पर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास पर दो पृष्ठ की रूपरेखा प्रस्तुत करके दिखाएं... हम इन्हें चुनौती देते हैं कि केवल जाति के मुद्दे पर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में जो अलग-अलग सोच मौजूद रही है, वे उसकी ऐतिहासिक रूपरेखा प्रस्तुत करके दिखाएं.’
कौन दलित बुद्धिजीवी आपकी बात सुन रहा है और आपके कहने से वे भारत में कम्युनिस्ट के इतिहास की दो पृष्ठ की रूपरेखा लिखकर दिखाएगा.आपकी कूवत क्या है? पूरे भारतीय समाज में और सामाजिक आंदोलनों में और जाति के सवाल पर आप आज कहां खड़े हैं, इसका आकलन यदि आप करेंगे तो आपका सारा दंभ निकल जाएगा,जो मार्क्सवाद की चार किताबें पढ़ लेने भर से पैदा हो गया है.यह आपके लेखन में भी दिख रहा है.जाति के सवाल पर आपकी समझ भी क्या है? इसका आपको अंदाजा नहीं है,इस सच्चाई को आप छू भी नहीं पाए हैं.इसके लिए कार्यक्रम के निर्माण की तो आप बात ही छोड़ दीजिए.

मैं यह पहले ही साफ कर देना चाहता हूँ कि न तो मैं कोई दलित बुद्धिजीवी हूं और न उनका समर्थक. मैं सिर्फ समस्याओं को मार्क्सवादी द्रष्टिकोण से पढ़ने और समझने का प्रयास कर रहा हूं. मैं आपके इस घमंड और व्यक्तिवादी नजरिए का घोर विरोधी हूं. आपके लेखन से जो झलक रहा है, वह अपने आप में कोई मार्क्सवादी नजरिया नहीं है. मार्क्सवाद सर्वहारा की मुक्ति का दर्शन है और केवल आप ही उसके वाहक हैं, यह हम कैसे मान लें?

  • ‘...डीडी कोसाम्बी, रामशरण शर्मा, रोमिला थापर, इरफान हबीब और सुमित सरकार जैसे मार्क्सवादी इतिहासकार इसका जवाब देते हैं.जरा इनके जवाब की तुलना आंबेडकर की रचनाओं से करें, आपको अंतर तुरंत पचा चल जाएगा.’
मनुस्मृति का मजबूत भौतिक आधार सामाजिक उत्पादन संबंधों में मौजूद था.मनुस्मृति उसी का अधिरचना में विधान है.इससे मैं भी सहमत नहीं हूं कि महज मनुस्मृति के षड्यंत्र ने भारतीय समाज में जाति पैदा कर दी. हां, इसके बाद मनुस्मृति ने वैचारिक धरातल, उसको खाद-पानी देने का काम बखूबी किया और आज भी कर रहा है.

डीडी कोसाम्बी,रामशरण शर्मा,रोमिला थापर,इरफान हबीब और सुमित सरकार जैसे मार्क्सवादी इतिहासकार इसका यही जवाब देते हैं कि जाति व्यवस्था उत्पादन संबंधों में मौजूद रही है.भारतीय समाज में आज भी उसका ठोस भौतिक आधार है इसलिए इतनी मजबूती से यह अधिरचना में भी मौजूद है.इसको समझिए कामरेड.हां,यह बात सही है कि इन सभी इतिहासकारों और डॉक्टर भीमराव आंबडेकर के द्रष्टिकोण में मूलभूत फर्क है,इतिहास को देखने और समझने का नजरिया.

अंबेडकर पूंजीवादी व्यवस्था की सीमाओं में बचते हैं और उनका रास्ता संसदीय जनतंत्र के बाद बंद हो जाता है. यह बात भी सत्य है कि आंबेडकर मार्क्सवादी दर्शन और वैज्ञानिक समाजवाद के चैतन्य तौर पर विरोधी थे. इसलिए उन्होंने राजकीय समाजवाद की कल्पना पेश की, जो अपनी अंतर्वस्तु में पूंजीवादी राज्य है. यह निजी संपत्ति और शोषण की व्यवस्था की गारंटी देता है.

  • ‘...अंग्रेज भारत आए. वे अपने साथ सामंतवाद नहीं पूंजीवाद लाए. भारतीय सामंतवाद इस पूंजीवाद के सामने ठहर नहीं सकता था. वह ठहरा भी नहीं. वह ध्वस्त हो गया और उसी के साथ भारत की हजारों सालों की वर्ण-जाति व्यवस्था ध्वस्त हो गई.आज आर्थिक संबंधों के क्षेत्र में वर्ण-जाति व्यवस्था समाप्त प्राय है...’
कॉमरेड,सूत्रीकरण से आप इस गंभीर समस्या के हल तक नहीं पहुंच सकते.आपको सूत्रीकरण से बाहर आकर आंखें खोलकर देखना होगा.आप कह रहे हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था के मुकाबले सामंतवाद टिक नहीं सकता, इसलिए अंग्रेजों ने जैसे ही भारत में पूंजी का विकास किया भारत में जाति व्यवस्था चरमरा गई और बाद में खत्म हो गई.आपको मेरी सलाह है कि शेखचिल्लियों की तरह दिन में सपने देखना छोड़ दें कॉमरेड.

क्या सन 1947में भारतीय राजसत्ता कांग्रेस के हाथ में आने के बाद यहां सामंतवाद खत्म और पूंजीवाद आ गया था.जाति प्रथा खत्म हो गई थी.यानी सामंती उत्पादन समन्वय क्या बुनियादी व प्रमुख तौर पर अस्तित्व में नहीं थे.क्या उसके बाद यहां कोई पूंजीवादी क्रांति हुई?या भारतीय राजसत्ता ने क्या जाति व्यवस्था के ढांचे और उसकी विचारधारा को जान-बूझकर नहीं बनाए रखा? इन सवालों का आपको संपूर्णता में जवाब देना होगा.

  • भारत में भी इस मामले में 1930-40 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रम और आंबेडकर के कार्यक्रम की तुलना कर लेना पर्याप्त होगा.इस तरह देखा जाए तो कम्युनिस्ट ही भारत में दलित मुक्ति के सबसे बड़े चैम्पियन रहे हैं.
कम्युनिस्टों ने 1930-40 के दशक में जाति के सवाल पर कौन से राष्ट्रीय आन्दोलन खड़े किए.इसका कोई लिखित इतिहास मिलता नहीं है. यदि आपके पास है तो आप दीजिए, हम देखना चाहेंगे. फिर 50 के दशक से 2011 तक के लंबे अंतराल में क्या कम्युनिस्ट आंदोलन को सांप सूंघ गया था. यहां आप चुप क्यों हैं कॉमरेड? इस अंतराल का भी इतिहास बता दीजिए और जाति के सवाल पर पूरा का पूरा वाम आंदोलन कहां खड़ा है? इसका भी लेखा-जोखा आपको देना चाहिए.

  • ‘...जमींदारों की सारी जमीन को जब्त करना और जमीन जोतने वाले उसूल पर भूमिहीन गरीब किसानों के बीच इसका पुनर्वितरण जाति व्यवस्था को खत्म करना.’
जमीन के बंटवारे का सवाल किसानों के वर्ग की लड़ाई है, न की जाति के सवाल का केंद्रीय एजंडा. दूसरी बात, जाति व्यवस्था को खत्म करना कार्यक्रम में लिखा हुआ है, लेकिन जाति की समस्या के समाधान के लिए क्या कोई कार्यक्रम पेश किया और उसको जनता के विभिन्न हिस्सों में उसे लागू किया? नहीं. यह लिखा हुआ दिखा देने से कोई बात नहीं बनती. उस समय भी दलितों के बीच जो संगठन बने वे वर्गीय संगठन थे, जिनकी आप बात कर रहे हैं. वर्ग और जाति अलग है. आपस में इनका गहरा संबंध भी है.



इसलिए पूरी जाति व्यवस्था, ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ जाति विरुद्ध संगठनों का निर्माण करना होगा जो टोटल सिस्टम के खिलाफ बनेंगे न कि किसी एक विशेष जाति के खिलाफ. शेष समाज में विभिन्न वर्गों की लड़ाइयों के साथ इसको जोड़ना होगा. इस रूप में यह लड़ाई वर्ग संघर्ष का हिस्सा है.इस काम को छोड़कर आप कहीं भी आगे नहीं जा सकते,न ही किसी व्यापक परिवर्तन या वर्ग संघर्ष की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.यह भी समाज का एक बड़ा हिस्सा है जिसे आप आज दरकिनार किए हुए हैं. इसको एजंडे में लाना होगा. कॉमरेड हमारा आपसे यही कहना है.


11 comments:

  1. रमेश पोखरियाल, देहरादूनSaturday, July 30, 2011

    आपका लेख पढ़ा और अच्छा लगा. आपने सही तरीके सी दुवन्नी छाप कम्युनिस्टों की औकात लगायी है. ये न घर के हैं न घाट के लेकिन टांग भोंकने में भी अड़ाएंगे और ढोने में भी. यह बहस इसी तरह चले तो अच्छा. बहस में गालियों की भरमार अभी नहीं हुई है.

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  2. ये संगठन कौन सा है जो कहता है दलितों जवाब दो. अंग्रेजों की उपनिवेशी औलादों तुम कौन हो . तुम्हारी पूरी पुस्तिका मैंने पढ़ ली है, अब बताओ मार्क्सवाद का कौन सा इतिहास जानना चाहते हो. बेशर्मों कुछ तो लिहाज करो. जिनको स्कूल से तुमने दूर रखा, जिनके बेटों को कभी अगवा पनकी का कामरेड नहीं बनने दिया, वह कुछ बोल रहे हैं तो तुम आँख दिखाते हो, पढाई की आडम्बर खड़ा करते हो. तुम भूल गये कि तुम्हारे अच्छे और बुरे दिनों में हम ही हमेशा साथ रहे, झंडा धोया, नारे लगाये. अब तुम हमसे मार्क्सवाद लिखवाना चाहते हो. मार्क्सवादियों ने दलितों के लिए क्या किया इसमें लिखने की नहीं दिखने की बात है ब्रम्हान्वादी सुरमा. दिखने में तुम्हारी वकत ये है कि तुम देश के जिस कोने में भी रहते हो तुम्हारे पड़ोसी भी तुम्हारी राजनीति करने से कभी लाभ पाए हो तो कहना. अपना फटा सिलो नकली कामरेडों, नहीं तो पढाई का धुंध बहुत दिन तुम्हे जीवित नहीं रहने देगा.

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  3. This is the level of debate then i would say it is futile. Janjwar has mastery in glamorising and promoting such gutter level debate on serious issue. Those who have nothing to do for the society and sacrifice any thing having access to internet are doing JUGALI. Ram bachaye aise bahaswajon se.

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  4. This is the level of debate then i would say it is futile. Janjwar has mastery in glamorising and promoting such gutter level debate on serious issue. Those who have nothing to do for the society and sacrifice any thing, have access to internet are doing JUGALI. Ram bachaye aise bahaswajon se.

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  5. कामरेड गुस्से में क्यों हो. बच्चा कामरेड तो नहीं हो. ज्यादा गुस्सा आये तो जलेबी खा लो फिर क्रांति का रहस्य समझ में आ जायेगा. जेपी नरेला ने अपने लेख में जो बातें कहीं हैं उनका जवाब दो, भैये. अन्यथा तुम गटर के लेवल पर आना चाहते हो तो बता दो. फिर हम बताएँगे कि तुम्हारी दो बित्ते की पार्टी में कितने गटर बहते हैं और उठती सड़ांध से ऊब कर कितने बेचारे निकल लिए हैं और कुछ तैयारी में हैं. इसलिए मुद्दे पर उतर आओ और जाति के सवाल पर अपनी उलटबासियाँ बांचो, बहको नहीं.

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  6. Ek taraf bachha kah rahe hain aur doosri taraf comrade. Agar koi bat samajhdari ki kare to bahas usse hoti hai. Ane jane ka silsila to prakriti ka niyam hai. Aap bhi ek din jayenge isme naya kya hai R.Singh Nainitalwale.

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  7. this dibet is very searious please close non searious talk.

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  8. सलीम मलिक, रामनगर, नैनीताल.Monday, August 01, 2011

    बहस तो यार सही उठाई हे, लेकिन जेसे कमेन्ट आ रहे हे, उससे लगता नहीं कि ये किसी अंजाम तक पहुँच पायेगी. भाई लोगो ने अभी से फेक नेम से तीर चलने शुरू कर दिए, आगे भी एक-दूसरे के कपडे उतारने से ज्यादा क्या होगा ??

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  9. mr educateall jara apni mand se baher to nikle apna muhu kyu chipa rahe ho apna parichay do.pardanasih to nahi ho.

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  10. I have read the pamphlet in question and comment also. All these comments are not addressing the view point of the writer of pamphlet. Few of them are only trying to malign working class movement in anger due to their personal anguish, some is just abusing like a Nukkar ka Goonda. In fact a debate of this type can not go on a blog where people who are giving comments have no responsibility towards any one. In fact only Vishnu Sharma And Jay Prakash have tried to put his view point, however they have interpreted the contention of writer of the pamphlet according to their own convenience. Even biasses of moderator is quite visible when he pick up some lines from the body of the Pamphlet and put it out of perspective in sensationalized manner.This is journalistic dishonesty.I would again say that debate in this manner is futile.

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  11. my dear educateall aapke sangthan ke netao se puch lenge ki kya cast ke swar ko aap ka sangthan bhi gattar ki bahas manta hai.aur aap kuon hai.yah bhi puch lenge.yese hamare kendar me jati ka parsan hai. aap ki bate aur aap nahi hai.

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