असंतुलित विकास और राजनीतिक पूर्वाग्रह के चलते अधिकांश केंद्रीय विश्वविद्यालय कुछ एक राज्यों, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, उत्तर पूर्व, और उत्तर प्रदेश, में सीमित हो कर रह गए है. इसी तरह राज्य और डीम्ड विश्वविद्यालय भी कुछ शहरों में ही केंद्रित है...
विष्णु शर्मा
दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए शत प्रतिशत अंक की मांग ने जितना हैरान किया उतने ही सवाल पैदा किये है.हालांकि पिछले कई वर्षो के परिक्षा परिणाम इस स्थिति तक पहुंच सकने का संकेत कर रहे थे लेकिन इसे मानने को तैयार कोई नहीं था! इस संकट ने भारत सरकार की उच्च शिक्षा नीति के दिवालियापन को उजागर किया है. यदि इसके बाद भी सरकार नींद से नहीं जागती है तो निकट भविष्य में स्थिति के और भी अधिक विस्फोटक होने से रोका नहीं जा सकेगा.
मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल चाहे लाख कोशिश करें इसकी जिम्मेदारी दिल्ली विश्वविद्यालय और उससे संबद्ध कालेज के प्रबंधन पर डालने की,लेकिन हकीकत यह है कि इसके लिए केंद्र सरकार मुख्य रूप से दोषी है.सरकार की कमजोर नीति,जो हर समस्या का इलाज निजीकरण में तलाशती है,के चलते आज लाखों विद्यार्थियों के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लग गया है.विगत वर्षों में साक्षरता दर को विश्वस्तर तक ले जाने के लिए सरकार ने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर अच्छे प्रयास किये,लेकिन इसके परिणाम स्वरुप बढ़ने वाली उच्च शिक्षा की मांग की आपूर्ति करने में सरकार की ओर से लगभग न के बराबर प्रयत्न हुए.
पिछले दो दशक के दौरान उच्च शिक्षा की मांग में लगातार होती बढोतरी के बावजूद संस्थानों के विकास को सरकार नजरअंदाज करती रही,जिसके चलते मांग और आपूर्ति में अंतर बढ़ता गया। 1950 और 2007 के बीच विश्वविद्यालय की संख्या में 17 गुना बढोतरी तो हुई (आज भारत में 467 विश्वविद्यालय है),लेकिन तब भी यह मांग की तुलना में बहुत कम है। उच्च शिक्षा की जिम्मेदारी मुख्यतः महाविद्यालयों के जिम्मे आ गई है जिनकी संख्या 2009 में 25951 है। उच्च शिक्षा में सरकार का यह निराशाजनक प्रदर्शन उस स्थिति में रहा जबकि सकल नामांकन दर (जी. ई. आर.) में हर साल इजाफा होता रहा। 1984-85 में जहां यह दर 2.9 प्रतिशत थी वही 2009 में यह बढ़ कर 7.2 प्रतिशत हो गई है.
असंतुलित विकास और राजनीतिक पूर्वाग्रह के चलते अधिकांश केंद्रीय विश्वविद्यालय कुछ एक राज्यों, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, उत्तर पूर्व, और उत्तर प्रदेश, में सीमित हो कर रह गए है. इसी तरह राज्य और डीम्ड विश्वविद्यालय भी कुछ शहरों में ही केंद्रित है। विश्वविद्यालय की कमी का दुष्परिणाम यह है कि कई राज्यों में सैकड़ो कालेज एक विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है. एक जगह तो इसकी संख्या 890 है. इससे उच्च शिक्षा की स्तर में नकारात्मक प्रभाव पड़ना लाजमी है.
इसके अलावा महाविद्यालयों का भी असंतुलित वितरण है. पूरे देश में केवल दो ही राज्यों में प्रत्येक 1 लाख छात्रों के लिए 20 कालेज है और 10 राज्यों में यह अनुपात 5 कालेज प्रति 1 लाख छात्र से भी कम है! महाविद्यालयों की गुणवत्ता का आलम यह है कि 16000 महाविद्यालयों, जो यू. जी. सी. के अधिकार क्षेत्र में आते है, में से केवल 10000 ही ऐसे कालेज है जो उसके द्वारा प्रदान किये जाने वाले वार्षिक अनुदान के हकदार है. इसी तरह यू. जी. सी. के अधिकार क्षेत्र वाले 317 विश्वविद्यालय में से केवल 164 ही अनुदान प्राप्त करते है.इसका शिक्षा के गुणवत्ता पर नकारात्मक असर पड़ा है और कुछ चुनिंदा संस्थान जरूरत से अधिक महत्वपूर्ण माने जाने लगे फलस्वरूप इन ‘ऐलीट’संस्थानों में दाखिले की होड छात्रों में बढ़ गई और इसी के चलते आज इन संस्थानों ने अपने यहां प्रवेश के लिए जरूरी अंक को इस हद तक बढ़ा दिया है.
उच्च शिक्षा क्षेत्र के स्तर को समझने के बाद होड़ के कारणों को समझना आसान हो जाता है. पिछले कुछ वर्षों के परिणाम बताते है कि शिक्षा बोर्ड (केद्रीय शिक्षा बोर्ड-सी.बी.एस.ई.- तथा राज्य शिक्षा बोर्ड) अंक बांटने में उदार हुए है. इस वर्ष केंद्रीय शिक्षा बोर्ड की परीक्षा पास करने वालों का प्रतिशत 81.71 प्रतिशत रहा। वही तमिलनाडू बोर्ड में यह 85.9 प्रतिशत, केरल में 82.5 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 80.14 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 76.54, पंजाब में 72.71, महाराष्ट्र में 70.69, बिहार में 67.21 और आंध्र प्रदेश में यह प्रतिशत 63.27रहा.इन सब राज्यों में केवल बिहार में पिछले साल के मुकाबले इस साल यह प्रतिशत घटा है ( पिछले वर्ष उत्तीर्ण होने वाले छात्रों का प्रतिशत 70.19 था)। बाकी अन्य राज्यों में इस प्रतिशत में 10 से 30 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. तमिलनाडु बोर्ड का तो यह आलम है वहां 99.12प्रतिशत तक अंक मिले है और श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में तो एक तिहाई सिर्फ यहीं के बच्चों ने दाखिला लिया हुआ है. यही हाल और भी तथाकथित एलीट कॉलेज का है.
इसके आलावा बहुत से छात्र ‘ऐलीट’ संस्थानों में दाखिला न मिल पाने के चलते विदेश की ओर रुख करते है. फोब्र्स पत्रिका में प्रकाशित एक एक रिपोर्ट के अनुसार विदेश जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या 2006 में 1.23 लाख थी. 2009 में मात्र अमेरिका में भारतीय छात्रों की संख्या 1 लाख से अधिक पहुंच गई थी. वहां पढ़ने आने वालों से उसे हर सार 13 बिलयन अमरीकी डालर (लगभग 6500 करोड रूपये) की आमदनी होती है. इस तरह सरकार अपनी आय का बहुत बड़ा हिस्सा भी हर साल गवांती है. भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण है.
भारत सरकार की मंशा ही कुछ और है. सिवाए निजीकरण के उसे कुछ और नज़र आ ही नहीं रहा और इसके लिए उसने सारे दरवाजे खोल दिए है. लेकिन आंकडे़ बताते है कि यह यह नाकाफी होगा. एक शोध के अनुसार (बशीर 1997)शिक्षा के निजीकारण का भारत में असर नकारात्मक रहा है. निजी संस्थानों के मुकाबले सार्वजनिक शिक्षा संस्थान स्तरीय शिक्षा प्रदान करने में अधिक सफल रहे है. इसका कारण निजी संस्थानों में मुनाफे के लिए योग्य शिक्षकों के स्थान पर कम वेतन वाले शिक्षकों की भरती और मूलभूत सुविधाओं में कटौती है.
दूसरी तरफ निजी पूंजी निवेश ऐसे संस्थानों में नहीं होता जहां मुनाफा कम होता है.अब तक के आंकड़े बताते है कि शिक्षा क्षेत्र में निजी पूंजी के प्रवेश के बाद के वर्षों में पूंजी निवेश तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा प्रदान करने वाले क्षेत्रों में ही अधिक हुआ है.कला एवं मानविकी के क्षेत्र में यह अत्यधिक कम है. तो ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि सरकार अब कौन सी ऐसी नीति ले कर आयेगी जिससे वह निजी पूंजी को इस क्षेत्र में निवेश के लिए आकर्षित कर सकेगी. सरकार यह जरूर कर सकती है कि वह निजी निवेशकों के लिए यह जरूरी कर दे कि तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा प्रदान करने के साथ साथ अपने संस्थानों में कला और मानविकी शिक्षा का भी बंदोबस्त करें लेकिन तब भी गुणवत्ता हासिल करना आसान नहीं होगा.यहां तक की निजी क्षेत्र तकनीकी और चिकित्सा क्षेत्र में भी गुणवत्ता के मामले में सार्वजानिक शिक्षा संस्थानों से लगातार पीछ होते गए है. और सार्वजानिक घाटा कम करने के बड़े बड़े वादों के बावजूद विश्वभर में निजी संस्थान आर्थिक रूप से सरकार पर अधिक आश्रित होते जा रहे है. इस लिहाज से मानविकी जैसे संवेदनशील विषयों को इनके भरोसे छोड़ना जोखिम भरा होगा.
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है. यहां भी मानविकी में पी. एच. डी. की पढाई की व्यवस्था है लेकिन बहुत कम ही छात्र इन संस्थानों को विकल्प के रूप में देखते है. इसका कारण है कि इन संस्थाओं में इस क्षेत्र के प्रति उपेक्षा का भाव रहता है.संस्थानों के पुस्तकालय में भी जरूरी पुस्तकों का आभाव शोध के विद्यार्थियों को लगातार हताश करता है.इसी कारण इतने वर्षों में भी कोई उन्नत शोध,इस क्षेत्र में,इन संस्थानों से नहीं हो पाया है. निजी संस्थानों में तो स्थिति और भी अधिक निराशाजनक है.यह संस्थान केवल पैसों की उगाही के लिए इस विभाग को चला रहे है। लगातार शोध में भारत के पिछड़ने के समाचार इस बात की सिद्ध करते हैं.
इस तरह यह दिखता है कि निजीकरण समस्या का सही समाधान नहीं है और इसके लिए सरकार को ही व्यवस्था करनी होगी। यूरोप का उदाहरण हमारे देश के लिए अच्छा माना जा सकता है. जहां के सार्वजनिक विश्वविद्यालय ने निजी संस्थानों के मुकाबले लगातार उन्नत प्रदर्शन किया हैं. टाइम्स पत्रिका के 2011के सर्वेक्षण के अनुसार यूरोप के 50विश्वविद्यालय में शीर्ष 10विश्वविद्यालय सार्वजानिक विश्वविद्यालय है.
इसके अलावा शिक्षा में निजी पूंजी निवेश उच्च शिक्षा में एकाधिकार की प्रवत्ति को जन्म देता है. इससे एक समय बाद फीस मंहगी हो जाती है और अध्यापकों का जबरदस्त शोषण होने लगता है, ऐसा हो भी रहा है. आज हालत यह है कि उच्च शिक्षा के लिए छात्र निजी कालेज में दाखिला लेने की बजाय अनियमित छात्र की हैसियत से पढ़ना अधिक सुविधाजनक मानते है.
भारत की जरूरत उपलब्ध संस्थानों को स्तरीय बनाते हुए सामान्य पाठ्यक्रम को सभी राज्यों में (जरूरी बदलाव के साथ) लागू करना है. इस तरह ‘ऐलीट’ संस्थानों के आकर्षण से भी मुक्ति मिलेगी और शिक्षा का विकेंद्रीकरण होगा.इसके साथ प्रत्येक राज्य का एक निश्चित कोटा तय कर एक संस्थान और राज्य के एकाधिकार को कम किया जाना चाहिए.लेकिन सबसे जरूरी है राष्ट्रीय स्तर पर प्रवेश परीक्षा का होना. इससे छात्र अलग अलग संस्थानों में दाखिले के लिए होने वाली परीक्षा से तो बचेंगे ही साथ ही ऊंचे प्रतिशत हासिल करने के दवाब और अपने सहपाठियों को शत्रु मानने और उनसे लगातार प्रतियोगिता करने की मानसिकता से भी मुक्त हो सकेंगे.
(समयांतर के जुलाई 2011 अंक से साभार)
एक सुविचारित लेख.
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