पिछले वर्ष 2 जुलाई को माओवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता चेरुकुरी राजकुमार उर्फ़ आजाद के साथ आंध्र प्रदेश पुलिस ने उत्तराखंड के पत्रकार हेमचन्द्र पाण्डेय उर्फ़ हेमंत पाण्डेय को फर्जी मुठभेड़ में मार डाला था. हेमचन्द्र पाण्डे की यह हत्या पुलिस ने तब की जब वे आजाद का साक्षात्कार लेने नागपुर गए थे. लेखन और संघर्ष दोनों को पत्रकारिता की बुनियाद मानने वाले हेमचन्द्र की कल 2 जुलाई को पहली पुण्यतिथि है. इस मौके पर हेम के जीवन, राजनीति और अन्य विशेष पहलुओं पर उनकी पत्नी बबीता उप्रेती से विशेष बातचीत...
हेमचन्द्र पांडे : लेखन और संघर्ष साथ-साथ |
बबीता उप्रेती से अजय प्रकाश की बातचीत
सीपीआई (माओवादी) के राष्ट्रीय प्रवक्ता आजाद और आपके पति हेमचंद्र पांडेय पिछले वर्ष 2 जुलाई को एक साथ हैदराबाद के अदिलाबाद के जंगलों में मारे गये थे। फिलहाल इस मामले में क्या प्रगति है?
सरकार से न्याय न मिलने की स्थिति में हमने मानवाधिकार मामलों के प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण के जरिये सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। सारे तथ्यों को देखने के बाद सुनवाई के दौरान न्यायालय ने हेम और आजाद की हत्या में शामिल उस पूरी टीम के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने का आदेश दिया। फिलहाल एक-डेढ़ महीने से दोनों हत्याकांडों के मामले में सीबीआई जांच चल रही है।
इस मामले में सीबीआइ जांच तो बड़ी उपलब्धि मानी जायेगी?
मैं इसे एक सामान्य जांच प्रक्रिया मानती हूं, जो अदालत के हस्तक्षेप के बाद संभव हो पायी है। रही बात सीबीआइ की तो यह एजेंसी उसी गृह मंत्रालय के अंतर्गत है, जिसने आजाद और हेम को मरवाने की साजिश रची थी। हत्या की यह साजिश तब रची गयी थी, जब आजाद सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश की मध्यस्थता में माओवादियों का पक्ष रखने की प्रक्रिया में शामिल थे और पत्रकार होने के नाते हेम आजाद का साक्षात्कार लेने नागपुर गये थे। ऐसे में सीबीआइ पर भरोसे का सवाल, मेरे लिए खुद ही एक सवाल है। हां, मैं इतना जरूर कहूँगी कि अदालत ने एक सकारात्मक भूमिका निभायी है और हमें न्याय मिलने की उम्मीद है।
हेम और आजाद के मारे जाने पर सरकार ने इसे ‘मुठभेड़ में आतंकवादियों’ की मौत कहा', जबकि अदालत इस पूरे मामले को एक दूसरे नजरिये से देख रही है, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच इस फर्क का आप क्या कारण मानती हैं?
आंध्र प्रदेश पुलिस द्वारा की गयी इन हत्याओं के बाद पिछले वर्ष दो जुलाई की सुबह से अदिलाबाद, हैदराबाद और दिल्ली से घटनाक्रमों का जो सिलसिला आना शुरू हुआ, उसी से साफ हो गया था कि हत्या करने के बाद पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ की कहानी गढ़ी है। बाद में डॉक्टरों की एक टीम ने जहर देने की भी पुष्टि कर दी, मीडिया ने भी संदेहों की तथ्यजनक पुष्टि की। संभव है अदालत ने इन बारीकियों पर गौर किया हो और इस नतीजे पर पहुंची हो.
हेम आपसे आखिरी बार कब मिले थे?
तीस जून 2010 को। उस दिन वह अपने दफ्तर से डेढ़ बजे ही आ गये थे, क्योंकि उन्हें नागपुर जाना था। मैंने उनका सारा सामान पैक किया और घर से ख़ुशी-ख़ुशी विदाई की। वे 2 जुलाई की सुबह वापस आने का वायदा कर गये थे। 2 जुलाई को उनके लिए खाना बनाकर मैं इंतजार ही कर रही थी कि उनके मारे जाने की खबर आयी। उनके लिए बनाये खाने को मैंने अभी कुछ महीने पहले फेंका है।
न्याय में आप क्या चाहती हैं?
जिन लोगों ने भी हेम को मारा है उन्हें सख्त से सख्त सजा दी जाये। दूसरा, इस हत्या में सिर्फ वही पुलिसवाले शामिल नहीं हैं जो मौके पर उस टीम के हिस्सा थे, बल्कि हेम और आजाद को मारने की साजिश में उच्चाधिकारी भी शामिल थे। मेरा मानना है कि माओवादियों की ओर से शान्तिवार्ता की तैयारी में शामिल आजाद और उनके साथ मारे गये मेरे पति हेम की हत्या गृह मंत्रालय की इजाजत के बगैर संभव नहीं है। नहीं तो एक तरफ आजाद शांतिवार्ता के लिए चिट्ठियों का आदान-प्रदान कर रहे थे और दूसरी तरफ पुलिस वाले ठन्डे तरीके से उनकी हत्या की फिराक में क्यों गलते। इसलिए सजा उन्हें भी होनी चाहिए जो देश में शांति के दुश्मन हैं।
हेम से बिछड़े हुए आपको कल सालभर हो चुके हैं, आपको उनकी कमी किस रूप में ज्यादा खलती है?
हेम के नहीं रहने की कमी मेरे जीवन में बहुत खलती है, जिसके बारे में मैं कम-ज्यादा नहीं बता सकती। हेम मेरे प्रेमी, पति, राजनीतिक शिक्षक और सबसे बढ़कर इंसान बहुत अच्छे थे। उस तरह के व्यक्तित्व वाले लोगों को मैं अपने आसपास बहुत कम देखती हूं। मेरी उनसे दोस्ती उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में तब हुई जब मैं बारहवीं में और वे बीए प्रथम वर्ष में थे। उस दौरान वे आइसा नाम के छात्र संगठन में सक्रिय थे और मेरे भाई विजयवर्धन उप्रेती जो अब पत्रकार हैं, वह भी आइसा के कार्यकर्ता थे। घर में आइसा के लोगों का आना-जाना लगा रहता था, उसी दौरान मेरा झुकाव हेम की तरफ हुआ और प्रेम हो गया। हेम की गंभीरता और चीजों के प्रति उनकी सहजता मुझे हमेशा उनके और करीब करती रही।
उनके साथ जीवन का यह छोटा सा सफर कैसा रहा ?
बहुत ही शानदार और खूबसूरत। उनके साथ जीये आठ साल के समय की वह खूबसूरती और जीवंतता शायद अब मेरे हिस्से न आये। हेम अद्भुत इंसान थे। कभी मेरे प्रति बहुत प्रेम का प्रदर्शन नहीं किया। किसी पार्क आदि में हम बहुत कम घूमने जा पाये, शायद दो-चार बार। मगर इंसान और इंसानियत के प्रति उनका जो प्रेम था, वह हमारी जिंदगी में रफ्तार ला देता था। वर्ष 2002 में हमारी शादी हुई और कभी लगा ही नहीं कि जिंदगी झोल खा रही है। हेम जैसे समाज में थे, वैसे जीवन में भी।
बबीता और हेम : आदर्श भी, प्यार भी |
मैं उनसे कभी -कभी कहती कि हम कभी अपने बारे में बैठकर बातें क्यों नहीं करते। फिर हमारी बात शुरू होती और थोड़ी देर में वह सामाजिक मसलों की बात बनकर रह जाती। इन सिलसिलों ने मुझे समाज के बारे में खासकर महिला अधिकारों के प्रति एक नजरिया विकसित करने में बड़ी भूमिका निभाई।
तो हेम के साथ ने आपको राजनीतिक रूप से भी समझदार बनाया?
समझदार ही नहीं, बल्कि उन्होंने मुझे राजनीति का कहहरा भी सिखाया। बारहवीं तक मुझमें कोई राजनीतिक समझदारी नहीं थी। मैं बचपन से चुलबुली थी और खेलने में लगी रहती थी। घर में राजनीतिक माहौल होने के बावजूद मेरी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं बनती। हालाँकि नेपाल में उसी वक्त माओवादी आंदोलन परचम लहराने की तरफ बढ़ रहा था और इसे लेकर हमारे घर आने वाले लड़के-लड़कियां खूब बहसें करते। तो उन बहसों में मुझे यह सुनकर अच्छा लगता कि चलो ऐसे भी दुनिया बनने की ओर है, जिसमें लोगों की बेहतरी की चिंताएं की जाती हैं। इन बातों में हेम के तर्क और समझदारी ठीक लगती,जिससे मेरा झुकाव हेम की तरफ बढ़ा और वहीं से मेरी राजनीतिक जीवन की यात्रा शुरू हुई।
तो फिर हेम का राजनीतिक सफर कहां से कहां तक चला?
वह शुरू में आइसा से जुड़े और पिथौरागढ़ पीजी कॉलेज से दो बार छात्रसंघ का चुनाव भी लड़ा। एक बार चुनाव हार गये और दूसरी बार 2001 में जब जीतने की स्थिति में थे, तब उन्होंने चुनाव लड़ने से खुद ही मना कर दिया और आइसा को छोड़ दिया। क्यों छोड़ा? के बारे में उन्होंने कहा था कि आइसा जो कि माले का छात्र संगठन है, वह भी चुनावों के जरिये समाज बदलने के सपने देखता है, जो कि संभव नहीं है। उनकी इस समझदारी के बनने में उस बीच किये उनके गंभीर अध्ययन और नेपाली समाज में मचे उथल-पुथल ने मदद की, जिसके बाद वह उत्तराखंड में काम करने वाले छात्र संगठन एआइपीएसएफ से जुड़े। इस संगठन से जुड़ने का कारण था चुनाव नहीं लड़ना और क्रांतिकारी तरीके से समाज बदलने की राजनीतिक पहुंच। लेकिन इस संगठन में भी वह ज्यादा समय इसलिए नहीं रह सके कि वह संगठन बात ही करता था, व्यवहार न के बराबर था। उसके बाद से वह उत्तराखंड के जल, जंगल, जमीन की लड़ाई से जुड़े और सभी जनांदोलनों में शिरकत करते हुए किसान मसलों पर गंभीरता से लिखने लगे।
हेम जिन अखबारों में लिखते थे, उनके मारे जाने के बाद उन्हीं अखबारों के संपादकों ने जो रवैया अख्तियार किया, क्या वह उचित था?
हेम नई दुनिया, दैनिक जागरण और राष्ट्रीय सहारा में लिखा करते थे। उनका अंतिम लेख 2 जुलाई (जिस दिन मरे जाते हैं ) को ही दैनिक जागरण में छपता है, लेकिन इन तीनों अखबारों में सफाइयां छपती हैं कि हेम चंद्र पांडेय नाम का कोई लेखक इनके यहां लेख नहीं लिखता है। सरकार के चरण की धूल साफ करने वाली इन सफाइयों के बाद यह संपादक शर्मिंदा नहीं होते हैं और कहते हैं कि हमें क्या पता कि हेमंत पांडे ही हेमचंद्र पांडे है। जबकि इन सफाइयों के छपने से पहले मैं पचासों बार मीडिया में बोल चुकी थी कि हेम अखबारों में हेमंत पांडे के नाम से लिखते थे। साफ है कि आज के संपादकों में एक व्यावसायिक एकता भी नहीं है, जो मौका पड़ने पर पत्रकारों के पक्ष में सरकार से टकरा सकें।
माना जाता है कि ऐसा अख़बारों ने इसलिए कहा क्योंकि हेम पर माओवादी होने का आरोप था. अगर हेम आरोपी के बजाय घोषित माओवादी होते तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होती ?
यही प्रतिक्रिया होती और न्याय के लिए कोशिश का तेवर भी यही होता. माओवादी हो जाने से उस व्यक्ति विशेष का इंसानी हक़ तो नहीं छिन जाता और न्याय पाना इंसानी हक़ की बुनियाद है. अब तो सर्वोच्च अदालत भी कह चुकी है कि माओवादी विचार मानने से कोई सजा का हकदार नहीं हो जाता.
इस कठिन सफर में आप किन दोस्तों, रिश्तेदारों और सामाजिक सहयोगियों को विशेष रूप से याद करना चाहेंगी?
इस प्रश्न के जवाब में किसी का नाम लूं उससे पहले मैं साफ कर देना चाहती हूं कि हेम को जानने वाले और न जानने वाले उन सभी लोगों ने इस बुरे वक्त में मेरा साथ दिया, जो समाज की बेहतरी में भरोसा करते हैं। कई सारे साथी डर भी गये, लेकिन उनसे मुझे कोई शिकायत नहीं है। उन्हें सिर्फ सुझाव दूँगी, खड़े होइये कि वक्त साथ आने का है। इस मुश्किल समय में साथ देने वाले संगठनों में पहला नाम हैदराबाद एपीसीएलसी का है। वे साथी जो मुझे नहीं जानते, मेरी भाषा नहीं जानते और जहां दमन सर्वाधिक है, वहां के लोग जिस तरह हेम और आजाद के लिए खड़े हुए, उसका बड़ा कारण एपीसीएलसी है। क्रांतिकारी कवि वरवरा राव, आरडीएफ के जीएन साईंबाबा, मेरा भाई विजयवर्धन उप्रेती, पत्रकार भूपेन सिंह, हेम के भाई राजीव पांडे, नैनीताल समाचार के संपादक राजीव लोचन शाह समेत सैकड़ों दोस्त जिनका नाम मैं नहीं गिना पा रही हूं, सबका मुझे बिखरने से बचाने में बड़ा योगदान है।
बबिता के साक्षात्कार ने नेत्रित्व के ईमानदार पहलू को करीने से छुआ, प्रेम की परिभाषा और उसका निर्वहन साथी की लडाई के लिए दिलेरी को 'प्रणाम' भारत बनेगा तो इन्ही से. शहीद हेमंत पांडेय की पुण्य तिथि की पूर्व संध्या पर नमन.
ReplyDeleteडॉ.लाल रत्नाकर
गाजियाबाद
bahut hi accha sakshatkar hai, padhkar ankhen bhar aayin.bahoot badhai ajay prakash ji ko
ReplyDeleteहेम और बबीता से जुडी यह बातचीत बहुत ही सुन्दर ढंग से पाठकों के मन में उठ रहे सवालों के साथ चलती है .भाषागत त्रुटियों के साथ इसे एक अच्छा साक्षात्कार कहा जा सकता है,अगर उसको मोडरेटर सुधार लें तो अच्छा रहेगा.बबीता जी ने बड़े ही हिम्मत से सवालों का जवाब दिया है. सालभर पहले की बात पढ़कर आज की लग रही है. बबीता जी हिम्मत न हारना इस संघर्ष में हम आपके साथ हैं
ReplyDeleteaipsf aur parivartankaami chatra sangthan do alag alag chtra sangthan hai..sampadak mahodaya kripya ise theek kre.....
ReplyDeleteHem ko mai vyaktigat taur per nahi janta tha lekin khabron se jana to unse pyar ho gaya.mera ek lekh pahle VARTIKA me chapa tha.oose parhane ke liye dekhen www.docarun.blogspot.com
ReplyDeleteA.K.Arun