बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए स्कूल और कालेजों में पर्यावरण शिक्षा को पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से जोड़ने का निर्देश दिए थे। कोर्ट के आदेश पर पर्यावरण को पाठ्यक्रम में शामिल तो कर लिया गया, लेकिन इससे लोगों में जागरूकता नहीं आई...
राजेंद्र राठौर
जंगलों में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और लगातार बढ़ती जनसंख्या के अलावा बड़े पैमाने पर लग रहे उद्योगों से छत्तीसगढ़ का पर्यावरण असंतुलित होने लगा है। उद्योगों के कारण उपजाऊ भूमि सिमट रही है, वहीं फैक्ट्रियों से निकलने वाले धुएं और अपशिष्ट पदार्थो से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। बढते प्रदूषण के कारण धान का कटोरा कहलाने वाले छत्तीसगढ़ के आगामी वर्षों में राख के कटोरे में तब्दील हो जाये तो संदेह नहीं ।
छत्तीसगढ़ राज्य में तेजी से पांव पसारते औद्योगिक इकाईयों से यहां प्रदूषण का खतरा दिनों-दिन बढ़ने लगा है। पर्यावरण प्रदूषण से मनुष्य सहित पेड़-पौधे व जीव-जन्तु भी बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। औद्योगिकीकरण व जनसंख्या में वृद्धि के कारण पिछले एक दशक में छत्तीसगढ़ के कई जिलों के भूजल स्तर में काफी गिरावट आई है। वहीं रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से भी भूमि प्रदूषित हो रही है। छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले की बात करें तो इस जिले में वर्तमान में 10 से अधिक छोटे-बड़े उद्योग लग चुके है, जिससे आम जनजीवन प्रदूषण की मार झेल रहा है। बावजूद इसके राज्य सरकार ने यहां पावर प्लांट लगाने उद्योगपतियों द्वार खोल दिए हैं।
आज 5 जून को देश भर में पर्यावरण दिवस के मौके पर एक बार फिर औपचारिकता निभाई जाएगी। एयरकंडीशनर कमरों में बड़े-बड़े नेता, अधिकारी और सामाजिक संगठन के लोग जुटेंगे, घंटों चर्चा करेंगे तथा फोटो खिंचवाकर सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित कराएंगे। दूसरे दिन लोगों को समाचार पत्रों व टीवी चैनलों से पता चलेगा कि कुछ लोगों को देश व जनजीवन की चिंता है, जिन्होंने पर्यावरण को सुरक्षित रखने घंटों सिर खपाया है। क्या वास्तव में इस तरह की औपचारिकता निभाना सही है? हमारे पास शुध्द पेयजल का अभाव है, सांस लेने के लिए शुध्द हवा कम पड़ने लगी है। जंगल कटते जा रहे हैं, जल के स्रोत नष्ट हो रहे हैं, वनों के लिए आवश्यक वन्य प्राणी भी लुप्त होते जा रहे हैं।
आज छत्तीसगढ़ में पर्यावरण सबसे ज्यादा चर्चित मुद्दा है। हम जब पर्यावरण की बात करते हैं तो धरती, पानी, नदियाँ, वृक्ष, जंगल आदि सभी की चिन्ता उसमें शामिल होती है। पर्यावरण की यह चिन्ता पर्यावरण से लगाव से नहीं, मनुष्य के अपने अस्तित्व के खत्म हो जाने के भय से उपजी है। आजकल पर्यावरण की इसी चिन्ता से कुछ नए नए दिवस निकल आए हैं। किसी दिन पृथ्वी दिवस है तो कभी जल दिवस और कोई पर्यावरण दिवस। पिछले दो-तीन दशकों मे हमनें तरह-तरह के दिवस मनाने शुरू किए हैं। पर्यावरण, जल, पृथ्वी, वन, बीज, स्वास्थ्य, भोजन आदि न जाने कितने नए-नए दिवस सरकारी, गैर-सरकारी तौर पर मनाए जाते हैं। मगर विडम्बना यह है कि जिन विषयों पर हमने दिवस मनाने शुरू किए, वे ही संसाधन या चीजें नष्ट होती जा रही हैं।
पर्यावरण के इतिहास पर नजर डाले तो संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित यह दिवस पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनितिक और सामाजिक जागृति लाने के लिए मनाया जाता है। पर्यावरण दिवस का आयोजन 1972 के बाद शुरू हुआ। सबसे पहली बार 5 से 15 जून 1972 को स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम मे मानवी पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन हुआ, जिस में 113 देश शामिल हुए थे। इसी सम्मेलन की स्मृति बनाए रखने कि लिए 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस घोषित कर दिया गया। सवाल तो यह है कि पर्यावरण दिवस के इस दिन का हमसे क्या रिश्ता? क्या 1972 के बाद लगातार पर्यावरण दिवस मना लेने से हमारा पर्यावरण ठीक हो रहा है? यह सोचने वाली बात है।
एक अहम बात यह भी है कि बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए स्कूल और कालेजों में पर्यावरण शिक्षा को पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से जोड़ने का निर्देश दिए थे। कोर्ट के आदेश पर पर्यावरण को पाठ्यक्रम में शामिल तो कर लिया गया, लेकिन इससे भी लोगों में कोई जागरूकता नहीं आई। स्कूल-कालेजों में इस विषय पर वर्ष भर किसी तरह की पढ़ाई नहीं होती, जबकि परीक्षा में सभी को मनचाहे नंबर जरूर मिल जाते हैं। बहरहाल, आज पर्यावरण संतुलन की उपेक्षा जिस तरह से हो रही है, उससे कहीं ऐसा न हो कि एक दिन इस भयंकर भूल का खामियाजा हमें और हमारी भावी पीढ़ी को भुगतना पड़े।
छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र पत्रकार और समसामयिक मसलों पर लगातार लेखन.
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