Jun 18, 2011

मीडिया के सुशासन पर सवारी गांठते नीतीश कुमार


नीतीश सरकार ने बिहार के ज़्यादातर मीडिया संस्थानों की आर्थिक नब्ज दबा रखी है। राज्य सरकार से मिले कागज़ के टुकडे यह बताते हैं कि सरकार काम पर कम, विज्ञापन पर ज्यादा ध्यान देती है...

अफरोज आलम 'साहिल'

अख़बारों को देख यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि बिहार खूब तरक़्क़ी कर रहा है। हर दिन विकास की नयी-नयी योजनाओं की घोषणाएं हो रही हैं। विकास कार्यों के विज्ञापन अखबारों में खूब छप रहे हैं। हर दिन किसी न किसी काम का शिलान्यास हो रहा है। इसके लिए बधाई के पात्र हैं हमारे ‘सुशासन बाबू’ यानी नीतीश कुमार जी। लेकिन विकास की जो तस्वीर मीडिया ने बिहार और देश की जनता के सामने पेश की है, वो  ‘सच’ नहीं है। बल्कि नीतीश कुमार का सच तो कुछ और है,जिसे पूरे देश की जनता ने 3 जून को बिहार के अररिया जिले के फारबिसगंज गोलीकांड में देख लिया  है।

फारबिसगंज पुलिस गोलीकांड की घटना को दो सप्ताह से अधिक का समय बीत  चुका है, लेकिन दोषियों पर कोई करवाई नहीं हुई है। प्रदर्शनकारियों का कसूर  इतना भर था कि ये भजनपुर गांव के पास स्टार्च और ग्लूकोज फैक्ट्री स्थापित करने के लिए प्राईवेट कंपनी मैसर्स औरो सुन्दरम इंटरनेशनल के लिए सरकार द्वारा 36.65 एकड़ आवंटित जमीन के रास्ते से होकर आने-जाने का अधिकार मांग रहे थे। जमीन आवंटित किये जाने के पहले लोग यहीं से होकर जाते थे, जो उन्हें  ईदगाह, करबला और बाज़ार तक पहुंचाता था। लेकिन अब इस रास्ते को रोक दिया गया है. सरकार रोक इसलिए लगा रही है क्योंकि  यह कंपनी भाजपा एम.एल.सी.अशोक अग्रवाल के बेटे सौरभ अग्रवाल की है और सौरभ की शादी प्रदेश के  उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की बेटी से होने वाली है.

उस दिन 3 जून को हुए पुलिसिया जुल्म की दास्तान यह रही कि फारबिसगंज   में जमीन पर बेसुध पड़े एक प्रदर्शनकारी युवक को एक  पुलिसवाला जूतों से कुचलता  रहा और मौके पर मौजूद एसपी गरिमा मलिक तमाशाबीन बनी रहीं । बाद में उस युवक की मौत हो गयी। सिर्फ यह युवक ही नहीं,बल्कि मृतकों में एक गर्भवती महिला और छह महीने की एक बच्ची भी शामिल है। पुलिस ने न केवल प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई,बल्कि उनका उनके घरों तक पीछा करके उन्हें पॉइंट ब्लैंक रेंज में गोली मारी। इस घटना में नौ लोग घायल भी हुए हैं। गौरतलब है की सभी मृतक मुस्लिम समुदाय से हैं।

फारबिसगंज की घटना नीतीश के लिए बहुत बड़ा सवाल है,जिसका जवाब उनको देना ही पड़ेगा। और उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार गुजरात की तर्ज पर बिहार का विकास चाहते हैं? अगर हां!  तो नीतीश कुमार कान खोलकर सुन लें बिहार की जनता इसे कतई बर्दाश्त नहीं करेगी। बिहार की जनता को ऐसा विकास कतई नहीं चाहिए जो मानवअधिकारों के उल्लंघन पर आधारित हो।

ऐसा नहीं है कि फारबिसगंज की घटना बिहार के लिए नई है। पिछले एक साल में ही राज्य में किसान कई बार पुलिस का शिकार बने हैं। पटना जिले के बिहटा,औरंगाबाद के नबीनगर और मुजफ्फरपुर के मड़वन इलाके में फोर-लेन सड़क, थर्मल पावर प्लांट और एस्बेस्टस फैक्ट्री का विरोध करने पर किसानों पर पुलिस का कहर बरपना इसके कुछ उदाहरण भर हैं। औरंगाबाद में तो किसान मारे भी गये थे।

इसके अलावा पिछले छह सालों के दौरान अन्य कई मौकों पर भी पुलिस बर्बर कारवाइयों को अंजाम दे चुकी है। कहलगांव में वर्ष 2008 के जनवरी महीने में नियमित बिजली की मांग कर रहे लोगों में से तीन शहरी पुलिस की गोलियों के शिकार हुए थे। वर्ष 2007में भागलपुर में चोरी के आरोपी औरंगजेब का 'स्पीडी ट्रायल' करते हुए एक पुलिस अधिकारी ने उसे अपने मोटरसाइकिल के पीछे बांधकर घसीटा था। कोसी इलाके में उचित मुआवजा और पुनर्वास की मांग करने वाले बाढ़-प्रभावित भी पुलिस की गोली का निशाना बने।

यह सब कुछ हुआ है नीतीश के 'सुशासन' में बिहार के विकास के नाम पर। जब बात सुशासन और विकास की चल रही है,तो क्यों न उनके विकास की कुछ सच्चाइयों के आंकड़ों को भी प्रस्तुत कर दिया जाए। जिस विकास की गंगा से राज्य को सींचने का दावा नीतीश कुमार कर रहे हैं, उसमें केन्द्र का पानी कितना है और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का कितना? यह जानना दिलचस्प होगा।

यह सरकारी सच है कि नीतीश कुमार को राज्य में विकास और योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए केन्द्र से पिछली सरकारों से ज़्यादा पैसा मिला है। सरकारी कागज़ों में दर्ज आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के शासनकाल में वर्ष 2003-04 में राज्य सरकार को 1617.62 करोड़ रुपये मिले थे। इसके बाद सरकार बदली और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए-1 और यूपीए-2 सत्ता में आई। यूपीए सरकार ने वर्ष 2005-06 में बिहार को 3332.72 करोड़ रूपये दिए। यह राशि एनडीए के समय के अनुदान से दोगुनी थी। वित्तीय वर्ष 2006-07 में 5247.10 करोड़, वर्ष 2007-08 में 5831.66 करोड़ और फिर वित्तीय वर्ष 2008-09 के लिए केन्द्र सरकार ने राज्य सरकार को 7962 करोड़ रुपये का अनुदान दिया। यहां स्पष्ट कर दें कि यह सहायता राशि है,इसमें राज्य सरकार को केन्द्र से मिलने वाला कर्ज या अग्रिम अनुदान शामिल नहीं है।

इतना ही नहीं, बिहार सरकार को विश्वबैंक से मिल रहे अनुदान में भी कई गुना की बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2006-07 में विश्वबैंक से उसे 92 लाख मिले। इसमें से 60 लाख लाख खर्च भी हुए। वर्ष 2007-08 में यह राशि बढ़कर 464 करोड़ हो गई। जिसमे से खर्च सिर्फ छह करोड़ हो पाए। वर्ष 2008-09 में 18 करोड़, वर्ष 2009-10 में 552 करोड़ रुपये और पिछले वित्तीय वर्ष में 15 अगस्त, 2010 तक नीतीश सरकार को विश्वबैंक 74 करोड़ रुपये दे चुका है।

नीतीश सरकार ने बिहार के ज़्यादातर मीडिया संस्थानों की आर्थिक नब्ज दबा रखी है। इसके लिए जरिया बनाया गया है सरकारी विज्ञापनों को। क्योंकि राज्य सरकार से मिले कागज़ के टुकडे यह बताते हैं कि वर्तमान राज्य सरकार का काम पर कम और विज्ञापन पर ज़्यादा ध्यान रहा है। बिहार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा वर्ष 2005-10 के दौरान 28फरवरी 2010 तक यानी नीतीश के कार्यकाल के चार सालों में लगभग 38हज़ार अलग-अलग कार्यों के विज्ञापन जारी किए गए और इस कार्य के लिए विभाग ने 64.48 करोड़ रुपये खर्च किये। जबकि लालू-राबड़ी सरकार ने अपने कार्यकाल के 6 सालों में सिर्फ 23.90 करोड़ ही खर्च किए थे। सिर्फ वर्ष 2009-10 में नीतीश सरकार ने योजना मद में विज्ञापनों पर 1.69करोड़ रूपये खर्च किए, वहीं गैर-योजना मद में यह राशि 32.90 करोड़ है। पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2010-11 के शुरुआती तीन महीनों में ही यानी चुनाव से ठीक पहले राज्य सरकार समेकित रूप से 7.19 करोड़ विज्ञापनों पर खर्च कर चुकी थी।

ज़ाहिर है कि नीतीश के कार्यकाल में सबसे ज़्यादा फायदा यहां के मीडिया उद्योग को हुआ है, इसलिए वो ‘विकास’ के पीछे के सच को जनता के सामने लाना मुनासिब नहीं समझते। मीडिया को इस बात का डर है कि अगर इन सच्चाइयों पर से पर्दा उठा दिया तो सरकारी विज्ञापनों से हाथ धोना पड़ सकता है (क्योंकि राज्य विज्ञापन नीति, स्टेट एडवर्टिजमेंट पॉलिसी- 2008 के तहत अगर किसी मीडिया संस्थान का काम राज्य हित में नहीं है तो उसे दिये जा रहे विज्ञापन रोके जा सकते हैं। उसे स्वीकृत सूची से किसी भी वक़्त बाहर किया जा सकता है।)। ऐसे में न्यूज़ की बात तो छोड़ ही दें,अगर किसी ने एक लेख भी बिहार सरकार के खिलाफ लिखा तो अगले ही दिन उस लेखक को मुख्यमंत्री कार्यालय बुला लिया जाता है।

नीतीश कुमार के झांसे में अल्पसंख्यक भी आये। जिन पैसों को अल्पसंख्यक छात्रों के बीच स्कॉलरशिप के रूप में बांटकर उन्होंने अपनी पीठ थपथपाई,दरअसल वह पैसा केन्द्र की यूपीए सरकार ने अपनी स्कीम के तहत उपलब्ध कराया था। बिहार सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण विभाग द्वारा सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के मुताबिक बिहार में वर्ष 2007-08के दौरान कुल 3,72,81,738 रुपये मेधा-सह-आय आधारित योजना के अन्तर्गत अल्पसंख्यक छात्र-छात्राओं के बीच केन्द्र सरकार ने बांटे, न कि बिहार सरकार ने। 15 अगस्त 2008 को नीतीश कुमार ने मुस्लिम गरीब बच्चों के लिए ‘तालीमी मरकज़’ खोलने का ऐलान किया, लेकिन जब बिहार सरकार से सूचना अधिकार कानून के तहत यह पूछा गया कि अब तक कितने ‘तालीमी मरकज़’पूरे बिहार में खोले गए हैं, तो उसने इस संबंध में कोई जानकारी देना मुनासिब नहीं समझा।

जो नीतीश कुमार मुसलमानों के दम पर दुबारा बहुमत के साथ सत्ता में आए, वही भागलपुर दंगे की जांच को लेकर टालमटोलपूर्ण रवैया अपना रहे हैं। सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के मुताबिक नीतीश सरकार ने जस्टिस एनएन सिंह की अध्यक्षता में एक जांच आयोग का गठन किया, जिसे छह माह के भीतर अपनी रिपोर्ट देनी थी, लेकिन यह आयोग छह माह तो क्या, सरकार के पूरे कार्यकाल में भी वह काम नहीं कर सका,जिसके लिए ढोल पीटकर इसका गठन जनवरी 2006 में हुआ था। जबकि इस जांच आयोग के सदस्यों की सैलरी पर ही अक्तूबर 2009 तक 1,44,83,000 रूपये खर्च किए जा चुके हैं।

सूचना के अधिकार से मिले आंकड़े बताते हैं कि नीतीश सरकार को अल्पसंख्यक मद में खूब पैसे मिले,लेकिन अपने को अल्पसंख्यकों का मसीहा कहने वाली इस सरकार ने यह पैसा अल्पसंख्यकों पर खर्च करना मुनासिब नहीं समझा।  



सूचना अधिकार कार्यकर्त्ता से पत्रकारिता तक की यात्रा करने वाले अफरोज अंग्रेजी वेबसाइट www.beyondheadlines.in के संपादक हैं .






No comments:

Post a Comment