May 11, 2011

संविधान निर्माण ही प्राथमिक


समाजवादी प्रतिस्पर्धा  क्रांति के अंदर दूसरी क्रांति है-विचारधारा के स्तर पर बहुत बड़ी क्रांति है,मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद का एक महत्वपूर्ण विकास है। इसको हम ऐसा मजबूत वैचारिक आधार मानते हैं जिसके कारण हमारी पार्टी भ्रष्टाचार और अधःपतन का शिकार नहीं हो पाएगी...

आनंद स्वरूप वर्मा

अंजनी कुमार की टिप्पणी ‘संसदीय दलदल में धंसती नेपाली क्रांति’की अधिकांश बातों से मेरी सहमति है और जिस खतरे की ओर उन्होंने इशारा किया है उन खतरों को समझते हुए ही मैंने अपनी पहली टिप्पणी की थी। उसमें जब मैंने कामरेड प्रचंड के लिए ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ शब्द का इस्तेमाल किया था तो इसलिए नहीं कि वे विद्रोह की बात कर रहे हैं और मैं विद्रोह की अवधारणा से असहमत हूं,मेरी आपत्ति यह थी कि कामरेड किरण के विपरीत वे कोई स्टैंड नहीं ले रहे हैं- सार्वजनिक तौर पर शांति प्रक्रिया को पूरा करने और संविधान बनाने के काम को प्राथमिकता देने की बात कहते हैं और कार्यकर्ताओं की आंतरिक बैठकों में (जो सार्वजनिक होती रहीहैं)विद्रोह की बात करते हैं। उन्हें अपना स्टैंड स्पष्ट करना चाहिए- मेरा यही कहना था। कामरेड किरण का स्टैंड स्पष्ट है, जिसे मैंने मौजूदा स्थिति में ‘यूटोपिया’ कहा और जिसके लिए लोगों ने मेरी आलोचना की।

अपनी टिप्पणी में मैं वही लिखूंगा जो मैं सोचता हूं। मैं अभी भी मानता हूं कि पार्टी को संविधान निर्माण पर ही जोर देना चाहिए। संविधान निर्माण कोई क्रांतिकारी कार्यक्रम नहीं है यह जानते हुए भी मैं इस पर जोर देने की बात इसलिए कह रहा हूं कि 2006 में जो व्यापक शांति समझौता हुआ था उसमें यह प्रमुख कार्यों में से एक था। अब इसे पूरा करने में वही पार्टियां बाधा डाल रही हैं जिन्होंने शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये थे इसलिए उनको ‘एक्सपोज’ करने के लिए जरूरी है कि पार्टी संविधान निर्माण पर जोर दे। जाहिर है कि उनके एक्सपोज किये जाने से जो वातावरण बनेगा वह विद्रोह के लिए जबर्दस्त जमीन तैयार करेगा। कामरेड किरण मानते हैं कि संविधान बनाने की कवायद से दूर होकर हम केवल विद्रोह की तैयारी करें। मैं अभी भी इससे सहमत नहीं हूं।

अंजनी कुमार की टिप्पणी के छठे पैराग्राफ में जो बातें लिखी गयी हैं उन पर मुझे कुछ कहना है। अंजनी जी, आपको ऐसा कैसे लगा कि मैंने ''1990 में स्वीकृत ‘संवैधानिक लोकतंत्र की प्रणाली’ को माओवादियों के ‘बहुदलीय प्रणाली’ तथा ‘प्रतियोगिता’ की अवधारणा से उलझा’ दिया है।'' मेरी पुस्तक के पृष्ठ तीन से आपने जो अंश उद्घृत किया है उसी में अगले पृष्ठ पर प्रचंड के हवाले से लिखा है 'हमने प्रस्तावित किया है कि जनतांत्रिक विधिक प्रणाली के अंतर्गत और सामंतवाद तथा साम्राज्यवाद विरोधी राजनीतिक शक्तियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा को संस्थागत रूप दिया जाय। हमारी राय में इस तरह की बहुदलीय प्रतिस्पर्द्धा संसदीय प्रणाली के मुकाबले हजार गुना ज्यादा जनतांत्रिक  होगी।’ यह पुस्तक मार्च 2005 में प्रकाशित हुई थी और उन लोगों का जवाब थी जो माओवादियों को तानाशाह और एकदलीय प्रणाली के पोषक होने का आरोप लगाते थे।

फिर जुलाई 2006 में मैंने कामरेड प्रचंड का इंटरव्यू लिया जो विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ और उसमें भी एक सवाल के जवाब में इसी मुद्दे पर उन्होंने कहा कि  ''...हमने ‘21वीं शताब्दी में समाजवाद का विकास’ शीर्षक से एक प्रस्ताव पारित किया। उस प्रस्ताव को हम अपने विचारों के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण मील का पत्थर मानते हैं। उसमें हमने विचार किया है कि सर्वहारा अधिनायकत्व के अंदर भी और जनता के जनवादी अधिनायकत्व के अंदर भी एक संवैधानिक ढांचे के अंतर्गत बहुदलीय स्पर्धा को संगठित किया जाना चाहिए। अगर यह स्पर्धा नहीं रहेगी तो समूचा समाज ज्यादा से ज्यादा यांत्रिक होता जाएगा, आधिभौतिक होता जाएगा। समाज का एक वस्तुपरक नियम है। जनता को हम अधिक समय तक जबरन दबाव डालकर किसी एक दिशा में नहीं ले जा सकते। इसकी परिणति एक शक्तिशाली विद्रोह में होती है। रूस में ऐसा ही हुआ। चीन में भी ऐसा ही हुआ। अगर हम उस से सबक लिए बिना उसी को दुहराते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि मार्क्सवाद को हम विज्ञान के रूप में नहीं बल्कि एक जड़सूत्र (डॉग्मा) के रूप में लेते हैं। हम कठमुल्लावादी नहीं हैं। सच्चा मार्क्सवादी कभी भी कठमुल्लावादी नहीं हो सकता... चीन में क्रांति के बाद माओ के समय में आठ पार्टियों का अस्तित्व तो था जो सामंतवाद और साम्राज्यवाद का समर्थन नहीं करती थीं लेकिन माओ ने उन्हें बने रहने की जो अनुमति दी थी उसका मकसद कम्युनिस्ट पार्टी के साथ सहयोग करना था। हमने इस सहयोग को स्पर्द्धा का रूप दिया है। हमारा मानना है कि एक जीवंत समाज बनाये रखने के लिए, समाज में निरंतर जीवन का संचार होते रहने के लिए सर्वहारा पार्टी को भी स्पर्धा संगठित करने के काम को हाथ में लेना चाहिए। इसका यह मतलब नहीं कि हम पूंजीवादी जनतंत्र (बुर्जुआ डेमोक्रेसी) की दिशा में जा रहे हैं। नहीं, हमने उस दस्तावेज में साफ तौर पर लिखा है कि यह सर्वहारा अधिनायकत्व के अंतर्गत स्पर्द्धा संगठित करने की बात है। लोग इस भ्रम में पड़ सकते हैं कि यह भी संसदीय या बुर्जुआ जनतंत्र की दिशा में बढ़ना है पर ऐसा कतई नहीं है। हम सर्वहारा के नेतृत्व में स्पर्द्धा संगठित करने की बात कह रहे हैं। वे लोग तो बुर्जुआ के नेतृत्व में स्पर्द्धा संगठित करते हैं, इसलिए दोनों अलग-अलग बातें हैं। लेनिन ने अक्टूबर क्रांति के तुरंत बाद कहा था कि समाजवादी स्पर्द्धा को संगठित करो। उन्होंने आर्थिक नीति की बात की थी और विचारधारा के क्षेत्रमें भी समाजवादी स्पर्द्धा को संगठित करने की बात की थी। हमारा मानना है कि अगर लेनिन पांच साल और जिंदा रहते तो निश्चित तौर पर वह राजनीतिक स्पर्द्धा संगठित करने की दिशा की ओर और आगे जाते...हमें लगता है कि यह क्रांति के अंदर दूसरी क्रांति है-विचारधारा के स्तर पर बहुत बड़ी क्रांति है, मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद का एक महत्वपूर्ण विकास है। इसको हम ऐसा मजबूत वैचारिक आधार मानते हैं जिसके कारण हमारी पार्टी भ्रष्टाचार और अधःपतन का शिकार नहीं हो पाएगी। आलोचना करने वाले को हम आगे रखेंगे। अपनी कमजोरी दिखाने वाले को आगे रखेंगे तो हम पतन से बचेंगे। अगर हम गलती करेंगे तो जनता की, सर्वहारा की दूसरी पार्टी हमें खत्म करने के लिए आ जाएगी...''

लगभग 1500 शब्दों के लेख में यह उम्मीद करना बेमानी है कि मैं पार्टी की दुरावस्था का विस्तार से विश्लेषण करूंगा। मेरे लेख का शीर्षक ‘क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है?’अपने आप में सारी बातें कह देता है कि पार्टी अधःपतन की ओर बढ़ रही है। अब इसके लिए कौन जिम्मेदार है यह विस्तृत विश्लेषण का विषय है। आप और नीलकंठ केसी या अन्य बहुत सारे लोग कुछ भी कहें, मैं अभी भी एनेकपा (माओवादी) को क्रांतिकारी पार्टी मानता हूं और इसके शीर्ष नेतृत्व यानी का. प्रचंड, का. किरण और का. बाबूराम को क्रांतिकारी मानता हूं। इनके बीच विचारों का टकराव जारी है लेकिन इस टकराव से ही कोई रास्ता भी निकलेगा। इसलिए मैं अभी भी नेपाली क्रांति के प्रति आशावान हूं। उपरोक्त लेख के माध्यम से मैंने महज अपनी चिंता जाहिर की थी, इसे खारिज नहीं किया था जैसा करने में आप सभी लोग जुट गये हैं।

एक बात और कहनी है। मैं यह मानकर चलता हूं कि इन टिप्पणियों को जो लोग पढ़ रहे हैं और इस पर जो अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं वे कम्युनिस्ट विचारों के हैं। इसीलिए पेरिस कम्यून के प्रसंग पर जब आपने यह सवाल उछाला कि ‘क्या पेरिस कम्यून इतिहास का नकारात्मक पक्ष है?’ तो मुझे हैरानी हुई। आपको पेरिस कम्यून का मेरे द्वारा उल्लेख किया जाना बहुत ‘नायाब’ लगा। आपकी जानकारी के लिए मैं यह बता दूं कि पेरिस कम्यून के उल्लेख का अर्थ यह हुआ कि कोई क्रांति संपन्न तो हुई, लेकिन उसे टिका पाना संभव नहीं हुआ। अगर इस रूप में आप इसे देख सकते तो ‘पेरिस कम्यून’ के मेरे उल्लेख को ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ नहीं मानते।

आपकी यह  चिंता स्वाभाविक है कि नेपाल की क्रांति संसदवाद के दलदल में फंस कर खत्म न हो जाय। आपकी इस चिंता को मैं भी उतनी ही शिद्दत से महसूस करता हूं।




जनपक्षधर पत्रकारिता के महत्वपूर्ण स्तंभ और मासिक पत्रिका 'समकालीन तीसरी दुनिया' के संपादक.

नेपाल के राजनीतिक हालात और नेपाली माओवादी पार्टी की भूमिका को लेकर आयोजित इस बहस में अबतक आपने पढ़ा -



14 comments:

  1. बर्माजी कृपया यह बताने का कष्ट करें कि क्या माओबादी शांति जून २००६ में संपन्न शांति सम्झौत्ते में इसलिए गए थे की वो संबिधान सभा के निर्वाचन से जन पक्षधर संबिधान बनायेंगे अथवा जनबिद्रोह का वातावरण तयार करके नेपाली राज्यसत्ता को बलपुर्बक कब्ज़ा करेंगे, जैसा की कमरेट (पढ़ें-कामरेड) प्रचण्ड और बाबुराम एंड कंपनी शांति समझौते के वक़्त अक्टूबर क्रांति की बातें करते नहीं थकते थे.
    पवन पटेल
    जवाहरलाल नेहरु बिश्वबिद्यालय, नई दिल्ली

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  2. Anand Swaroop VermaThursday, May 12, 2011

    मॉडरेटर महोदय, इंट्रो में वही बात लिखी जाती है जो लेख में है। आपने इंट्रो में लिखा है कि ‘नेपाल में संविधान निर्माण क्रांति के अंदर दूसरी क्रांति है’। प्रचंड के इंटरव्यू के जिस अंश को उद्घृत करते हुए आपने यह वाक्य लिखा है उसमें उन्होंने ‘क्रांति के अंदर दूसरी क्रांति’ वाली बात सर्वहारा के नेतृत्व में राजनीतिक स्पर्द्धा संगठित करने के संदर्भ में कही है न कि आज के नेपाल में संविधान निर्माण के संदर्भ में। उन्होंने यह बात बहुदलीय स्पर्द्धा की व्याख्या देते हुए कही है। आपका इंट्रो भ्रम पैदा करता है।
    आनंद स्वरूप वर्मा

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  3. Anand Swaroop VermaThursday, May 12, 2011

    इंट्रो ठीक करने के लिए धन्यवाद।

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  4. पवन जी,
    आप से यदि प्रचंड और बाबुराम ने गुपचुप कुछ कहा हो तो अलग बात है लेकिन शांति समझौते के बाद से ही प्रचंड और बाबुराम ने सार्वजानिक स्तर जनविद्रोह कभी नहीं की.

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  5. पवन जी,
    आप से यदि प्रचंड और बाबुराम ने गुपचुप कुछ कहा हो तो अलग बात है लेकिन शांति समझौते के बाद से ही प्रचंड और बाबुराम ने सार्वजानिक स्तर जनविद्रोह की बात कभी नहीं की.
    आपका

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  6. कमरेटों और कामरेडों- वर्मा जी की इज्ज़त करना सीखिए. वह पूर्वी उत्तर प्रदेश से लौटे हैं और थके हुए हैं. अभी वह ठीक से जवाब नहीं दे पाये हैं. अभी बन्दूक लोड कर रहे हैं. उनकी ओर से मैं बस इतना कहना चाहता हूँ कि आपलोग उनको अ - क्रन्तिकारी न कहिये. खेती नष्ट मत कीजिये. बच्चों को गन्दी बातें नहीं करनी चाहिए. वैसे वर्मा जी एक बच्चे अंजनी को पटा रहे हैं अब दूसरी तैयारी पवन पटेल की है. लेकिन अजय प्रकाश तो बड़ा शातिर निकला वर्मा जी. कल तक आपकी तारीफ करता था और अब पकी फसल में पानी चला रहा है. मैं इसे चित्रगुप्त समाज पर ब्रह्मणवादी करार देता हूँ.

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  7. जनज्वार पर चले इस बहस में मेरी भागीदारी का उद्देश्य नेपाल के हालात के बारे में सही मूल्यांकन और वहां के जनान्दोलन को समर्थन करना था। नेपाल के जनांदोलन में भारत की जन एकजुटता व समर्थन में मेरी सिय हिस्सेदारी रही है। 2002 से नेपाल में चल रहे ांतिकारी आंदोलन और वहां समय समय पर बनी राजनीतिक जटिलताओं व उसके प्रति नेकपा-माओवादी के दृिटकोण की सूचना माध्यमों व कार्यमों, बहसों से सीधी जानकारी हासिल होती रही है। नेपाल की ांति पर भारत व अंतर्राटीय कम्युनिस्ट पार्टियों के दृिटकोणों की चर्चा भी खूब होती रही है। यह बहस इन संदर्भों से बाहर नहीं है। और यह व्यक्तिगत आक्षेप या दुख पहुंचाने की मंषा से जुड़ा हुआ नहीं है। इस बहस में मेरी भागीदारी का अर्थ यही है कि नेपाल के जनांदोलन में भारतीय जन एकजुटता किस ओर हो।
    आनंद स्वरूप वर्मा की पुस्तक ‘नेपाल से जुड़े कुछ सवाल जबाब’ के जिस हिस्से को मैंने उद्धृत किया है उसमें संसदीय प्रणाली का अर्थ वर्तमान के संसदीय चुनाव व उसकी प्रणाली से है। और प्रचंड के वक्तव्यों का संदर्भ उस जनतांत्रिक विधिक प्रणाली या नव जनवादी प्रणाली से है जिसमें सर्वहारा का अधिनायकत्व होता है। नेकपा-माओवादी के ‘21वीं सदी में समाजवाद का विकास’ की अवधारणा में बहुदलीय स्पर्धा की अवधारणा इस नव जनवादी प्रणाली के संदर्भ में है। वर्मा जी के अंतिम जबाब में प्रचंड का उद्धरण इसे स्पट करता हैः ‘इसका यह मतलब नहीं कि हम पूंजीवादी जनतंत्रबुर्जुआ डेमोेसी की दिषा में जा रहे हैं। नहीं, हमने उस दस्तावेज में साफ तौर पर लिखा है कि यह सर्वहारा अधिनायकत्व के अंतर्गत स्पर्द्धा संगठित करने की बात है।’ इस संदर्भ को पुस्तकों व लेखों में देखा जा सकता है। यहां इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि नेपाल की वर्तमान संसद सर्वहारा के अधिनायकत्व की राजनीतिक प्रणाली नहीं है। अंतर्राटीय साम्राज्यवादी पूंजीवादी सत्ता के बल पर वहां की बुर्जुआ पार्टीयों ने बहुुमत की पार्टी को बाहर कर सत्ता को अपने कब्जे में बनाए रखा और ‘स्पर्धा’ को अधिनायकत्व में वैसे ही बनाए रखा जैसा की बुर्जुआ इतिहास में चला आ रहा है। पाठक उपरोक्त संदर्भ आनंद स्वरूप वर्मा की पुस्तक मंे देख सकते हैं। वैसे यह पुस्तक अपने रूप व अंतर्वस्तु में उलझाने वाली भी है। जिस समय यह पुस्तक तैयार व छपकर आई उस समय तक नेकपा-माओवादी का नेतृत्व सामने आ चुका था। उस समय नेतृत्व सवालों का विस्तृत जबाब दे रहे थे। यह वही समय है जहां से राजनीतिक कशमकश शुरू होता है और नेकपा-माओवादी नेतृत्व मार्क्सवादी दर्शन में छलांग लगाने की दावेदारी करता है। ऐसे में नेपाल की ांति के संदर्भ में विभिन्न सवालों का संकलन व उसका खुद ही जबाब देने का यह चलन अतिरिक्त दावेदारी जैसा लगता है।

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  8. ‘21वीं सदी में समाजवाद का विकास’ की अवधारणा अंतर्वस्तु में न तो नई है न ही मौलिक। इसकी प्रस्थापनाओं की आलोचना भारत, अमेरीका, फिलीपिन्स की माओवादी पार्टियों ने विस्तार से किया है। प्रचंड के राज्य व जनतंत्र विाय पर लिखे गए लेखों में प्रतिनिधिक राजनीतिक प्रणाली पर काफी जोर है। वह मार्क्स के पेरिस कम्यून से हासिल अनुभवों का सारसंकलन करते हुए सर्वहारा जनवाद की मूल विशिटताओं को इस तरह प्रस्तुत करते है: ‘स्थाई सेना का अंत’, राज्य की सारी कार्यकारी संस्थानों का जनता द्वारा चुनाव और जब जनता जरूरी महसूस करे तो उन्हें वापस बुलाने का अधिकार, सभी कार्यकारी संस्थानों में एक समान वेतन। जनता के लिए इससे सक्षम जनतंत्र और क्या हो सकता है?’ऑन द स्टेट एण्ड डेमोेसी-प्रचंड, पिपुल्स पॉवर इन नेपाल-एडिटर, रामकेश विश्वकर्मा, मानक प्रकाशन, दिल्ली। मार्क्सवाद का सामान्य पाठक भी यह जानता है कि मार्क्स ने पेरिस कम्यून का सारसंकलन करते हुए सर्वहारा अधिनायकत्व व इसके नेतृत्व में बुर्जुआ राज्य मशीनरी को ध्वस्त कर जनतंत्र की नई राज्य व्यवस्था का आह्वान किया था। प्रचंड ने इसका पाठ इन दो सीखों को हटाकरडीलीट कर किया है। जिसका नेपाल के संदर्भ में सवर्था एक नया अर्थ ग्रहण कर लेता है। जिसे प्रचंड मौलिक योगदान के रूप में प्रस्तुत करते है। जबकि सच्चाई यह है कि सर्वहारा अधिनायकत्व की जनतांत्रिक प्रणाली पेरिस कम्यून से सर्वहारा सांस्कृतिक ांति तक विस्तारित व व्यापक होती गई है। इन व्यवस्थाओं की असफलता के बारे में काफी कुछ लेखन व बहस में अब भी विमर्श जारी है।
    प्रचंड के लेखन में यह जोर और रोजमर्रा का ‘छल-फल’ का राजनीतिक निहितार्थ आज उनके व्यवहार में दिख रहा है। चाहे वह सेना का मुद्दा हो या संसदीय स्पर्द्धा की राजनीति हो। हमारी चिंता अपने उस बुद्धिजीवी से है जिसके साथ भारत का एक बड़ा बौद्धिक व कार्यकर्ता समुदाय नेपाल के जनांदोलनों के समर्थन में खड़ा होता रहा है और जिसके लेखन से लोग नेपाल के हालात के बारे में जानकारी हासिल करते रहे हैं। ऐसे में आनंद स्वरूप वर्मा से हम उम्मीद कर रहे थे कि वह न केवल नेपाल के हालात की जटिलाताओं को खोलकर सामने लाए साथ ही प्रचंड की चल रही लफ्फाजियों की राजनीति के असली चेहरे को उजागर भी करें। जनांदोलनों को कुंठित करने वाले कारकों व इसके पतित राजनीतिक दर्शन की असलियत को सामने लाएं। वर्मा जी, हम आपसे प्रचंड व बाबूराम भट्टाराई के नेतृत्व में चल रही संसदीय राजनीति की आलोचना की उम्मीद लगाए बैठे थे। लेकिन हमें आपके लेखन व विचार में उनकी संसदीय राजनजीति के वे दार्शानिक बिंदु दिखाई दे रहे हैं जहां से जनांदोलन ांति की राह से न केवल भटक जाएगा साथ व्यापक जनएकजुटता का दर्दनाक अंत भी सामने आएगा। इसकेे परिणाम दूरगामी होंगे। हमने अपनी आलोचना इसी संदर्भ मंे रखी है। इस मुद्दे पर कभी और.........।
    अंजनी कुमार, 12 मई 2011, दिल्ली

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  9. अंजनी की टिप्पड़ी पड़ने के बाद लगता है कि आने वाले समय में मार्क्स, लेनिन और माओ के राजनीतिक दर्शन को समझने के लिए भारत के अंजनी जैसे बुद्धिजीवियों को पढना होगा. अंग्रजी और अन्य भाषा की किताबों में मार्क्सवादी दर्शन को समझने के दिन लद चुके. अंजनी ने अपनी टिप्पड़ी में आनंद वर्मा की बात का सार स्पष्ट तो किया ही है साथ ही सही मार्क्सवाद और 'लफ्फाज' संशोधनवाद में अंतर को भी स्पस्ट किया.
    नेपाली क्रांति का अदना सा समर्थक, हाल दिल्ली

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  10. अरे बाकि टिप्पड़ी कहाँ गयी? क्या ये अजय की वर्मा जी को बचाने की कोशिश है? तब तो उनके लेख और उसपर अंजनी, नीलकंठ और पवन के जवाब को भी मिटा देना चाहिए.

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  11. अंजनी ने भी क्या चेले पाल रखे हैं. अच्छा मंच दिया जनज्वार ने अंजनी को.लग रहा है जनज्वार भी मठाधीशी की परम्परा में शामिल होने को बेताब है.

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  12. janjwar par lekhon ko padhna acha hota hai par logon ke comments bohot hi bakwas hain.ROHIT JI kisi ko bhi vaad vivad me bhag lene ka awsar hai par is trah ki geir jimedarana vektigat comments se bachen to acha rahega or kuch ache lekho se hum jaise adne se pathak labanwit ho paenge.

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  13. चंदू जी की बात से मैं सहमत हु. रोहित तुम आनंद स्वरुप जी के चेले तो नहीं?

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  14. यकीं नहीं होता कि वर्मा जी लगातार उलझाने वाले तर्क देते रहे और हम सब उन्हें उतना आदर दे जिनता उन्हें लगता है उन्हें मिला चाहिए. आनंद जी जागीए. क्या कोई दिमाग वाला आदमी मान सकता है के एक पार्टी में जब तीन लाइन हो और तीनो क्रन्तिकारी हो!
    पवन

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