प्रचंड के अनुसार एमाले का बहुदलीय जनवाद बुर्जुआ संसदवाद में वर्ग समन्वय और सुधारवादी लाइन को अभिव्यक्त करता है, तो क्या प्रचंड इतने नादां हैं जो अपनी उसी अधोगति नहीं समझ पा रहे हैं...
अंजनी कुमार
आनंद स्वरूप वर्मा नेपाल पर चल रही बहस के अपने ‘संक्षिप्त’ जवाब में कहते हैं, ‘नेपाली क्रांति का नेतृत्व समूह और एक-एक कार्यकर्ता भी यही कहता है कि क्रांति जारी छ।'नेपाली राजनीतिक परिदृश्य में माओवादियों की भूमिका को लेकर आनंद जी का यह निष्कर्ष उनके बाद के तर्कों में भी लगातार पुष्ट होते हुए चलता है। इसके लिए वह इतिहास का हवाला भी देते हैं और वर्तमान के हालात की जरूरतों के अनुरूप संभलकर चलने की हिदायतें भी,लेकिन क्या यह उपरोक्त निष्कर्ष वस्तुगत स्थितियों को बयान करता है?
क्या नेपाल का सारा नेतृत्व समूह और एक-एक कार्यकर्ता इस बात का कायल है कि क्रांति जारी छ?' यदि ऐसा होता तो खुद आनंद स्वरूप वर्मा के ही आंकड़ों के अनुसार, ‘2006 और 2011 में आपके पीएलए,वाईसीएल और सामान्य कार्यकर्ता की जो आत्मगत तैयारी थी वह आज 60प्रतिशत से ज्यादा कम’न हो चुकी होती। नेतृत्व समूह में इतना घमासान न मचा रहता। और खुलेआम यह बात न उठती कि एनेकपा-माओवादी धीरे धीरे संशोधनवाद,दक्षिणपंथ आदि के गर्त में गिरती जा रही है। सच्चाई तो यही है कि वहां कार्यकर्ताओं के बड़े हिस्से और नेतृत्व के दूसरी श्रेणी के बहुमत को लगने लगा है कि शांति ठहर गई है... कि संक्रमण के इस दौर की सड़ांध में क्रांति का दम घुट रहा है।
फिर भी जब आप यह दावा करते हैं कि क्रांति जारी है तो निश्चय ही इस बात के पीछे एक विचार प्रणाली हैं। आपके विभिन्न लेखन और प्रसिद्ध पुस्तक ‘रोल्पा से डोल्पा’तथा ‘नेपाल से जुड़े कुछ सवाल’में यह ध्वनित होता रहा है कि संसदीय पार्टियों ने जनवाद का एजेंडा लागू नहीं किया इसलिए माओवादियों को जनता का समर्थन मिला। आपका ही यह कथन है :‘पिछले दस वर्षों के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों ने जिस तरह के जोड़-तोड़ किए और जनता के हितों को तिलांजली दी, उसका ही यह नतीजा है कि आज माओवादियों को देश के अंदर व्यापक समर्थन प्राप्त है।’
आप इन पार्टियों की कथनी में जनवाद देखते हैं,पर करनी में इनकी कमजोरी देखते हैं। क्या जनवाद का प्रश्न इच्छा-अनिच्छा से जुड़ा हुआ है?राजनीति में इसे वर्ग चरित्र के माध्यम से ही समझा जाता है। नेपाल में संघर्ष का मुख्य पहलू राजतंत्र विरोधी आंदोलन ही रहा है। यह संघर्ष भी तभी मजबूत होकर उभरा,जब यह आमूल बदलाव के नारे और कार्यक्रम के साथ जुड़ा। वहां कम्युनिस्ट आंदोलन तब=तब पतित हुआ जब आमूल बदलाव के सवाल को गौण बना दिया गया।
नेपाल में जनतंत्र का सवाल सिर्फ राजतंत्र विरोधी आंदोलन पर ही नहीं टिका था। यह समाज के अर्द्धसामंती-अर्द्धऔपनिवेशिक संरचना के निषेध और नवजनवादी क्रांति कार्यक्रम पर ही मजबूती से खड़ा हो पा रहा था। यह अकारण नहीं था कि एनेकपा-माओवादी अपने शुरूआती दिनों में इन्हीं संसदीय पार्टियों के खिलाफ संघर्ष करते हुए ही उभरकर आई। यह संसदीय पार्टियों की कमी से छूट गई जमीन नहीं, बल्कि वर्गीय पूर्वाग्रहों का परिणाम था जहां से एनेकपा-माओवादी ने व्यापक जनता को गोलबंद करते हुए संघर्ष को आगे बढ़ाया।
आप इनसे जनवाद की उम्मीद ही नहीं कर रहे हैं,साथ ही इनके द्वारा वर्ष 1990में स्वीकृत ‘संवैधानिक बहुदलीय लोकतंत्र की प्रणाली’ को माओवादियों के ‘बहुदलीय प्रणाली’ तथा ‘प्रतियोगिता’ की अवधारणा से उलझाते भी हैं। आपने अपनी पुस्तक ‘नेपाल से जुड़े सवाल’में एक सवाल के जवाब में लिखा है, ‘माओवादियों का कहना है कि उन्होंने बीसवीं सदी की क्रांतियों से सबक लेते हुए जो निष्कर्ष निकाले हैं उसमें बहुदलीय प्रणाली का बने रहना समाज के स्वाथ्य के लिए जरूरी है’ (पृश्ठ ३) आपने यह बात ज्ञानेन्द्र को सत्ता से बेदखल करने एवं एक नई संविधान सभा बनाने के संदर्भ में संसदीय पार्टियों के साथ मोर्चा गठन और एकदलीय तानाशाह शासन की आशंका के संदर्भ में कही है।
माओवादियों की इक्कीसवीं सदी की क्रांति और समाजवाद की अवधारणा में बहुदलीय व्यवस्था ‘संवैधानिक बहुदलीय लोकतंत्र’ की अवधारणा से पूरी तरह भिन्न है। प्रचंड के शब्दों में, ‘एमाले का बहुदलीय जनवाद बुर्जुआ संसदवाद में वर्ग समन्वय और सुधारवादी लाइन को अभिव्यक्त करता है’ तथा ‘एमाले के जनवाद और हमारे जनतांत्रिक गणराज्य के सार में ही बहुत बड़ा अंतर है’(13 फरवरी 2006 को द वर्कर में छपा साक्षात्कार पृष्ठ 20, अनुवाद : आनंद स्वरूप वर्मा।)
चुन्वांग सम्मेलन में लिए गए निर्णय एक तात्कालिक कार्यभार को पूरा करने के लिए था। यह निर्णय इस बहुदलीय व्यवस्था में लोटपोट होने के लिए नहीं था। प्रचंड के ही शब्दों में,‘आज के विश्व में संसद को इस्तेमाल करने की कार्यनीति की उपयोगिता अब लगभग समाप्त हो चुकी है लेकिन देश की और जनता की परिस्थिति को समझे बिना किसी व्यवस्था का निरंतर बहिष्कार मार्क्सवाद नहीं है.’(उपरोक्त, पृष्ठ 22।)निश्चय ही यह कार्यनीति व्यवस्थागत बदलाव के लिए संक्रमणकारी भूमिका निभा सकने में सक्षम नहीं है। किसी पार्टी का संसद में जाना ही संशोधनवाद नहीं होता, लेकिन जब यह कार्यनीति पार्टी के रणनीति की शक्ल अख्तियार करने लगती है,तब समझना चाहिए कि वहां खतरा पैदा हो चुका है।
अब तक का अनुभव यही बताता है कि नेपाल में जनता का जनवादी गणराज्य तो दूर,बुर्जुआ जनवादी गणराज्य की भी स्थिति बनती हुई नहीं दिख रही है। आज संसद का प्रयोग रणनीतिक स्तर के व्यवस्थागत बदलाव के लिए करना असंभव हो चुका है। यदि हम 2006से भी शांतिकाल मानें और इसमें संसदीय समयावधि जोड़ दें,तब इतनी लंबी समयावधि में इसके व्यवस्थागत बदलाव के प्रयोग की गुजांइश ही नहीं बनती। बल्कि अर्द्धसामंती और अर्द्धऔपनिवेशिक समाज व्यवस्था की नेतृत्कारी पार्टियाँ इस समयावधि में अपने को मजबूत करने में ही मशगूल रहीं। रिकार्ड स्तर पर नए प्रधानमंत्री का चुनाव टलता रहा। माओवादी पार्टी को सत्ता से बाहर रखा। अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क को मजबूत किया। उन गांव तक पुलिस-सेना की घुसपैठ को बढ़ाया जहां उसकी आज तक पहुंच नहीं थी। जबकि माओवादी पार्टी इस शांतिपूर्ण काल में अनेक स्तरों पर विभिन्न तरह की कमजोरी की शिकार हुई। सात साल बाद वह शांतिपूर्ण तरीके से ‘पेरूवीयन परिस्थिति’में जाकर फंस गई। आनन्द स्वरूप वर्मा का लेखन इस फंसान की परिस्थिति के कारणों की पड़ताल नहीं करता। जो इन कारणों पर रोशनी डाल रहे हैं, इससे निकलने की जद्दोजहद करने का आग्रह कर रहे हैं उन्हें आप ‘यूटोपिया’ कहकर नकार रहे हैंऔर विपरीत तथा गलत निष्कर्ष तक ले जा रहे हैं।
संविधान सभा और संसद में संविधान तथा सरकार बनाने को लेकर जो जोड़तोड़ चलती रही है, उससे ‘बुर्जुआ संसदीय’ पार्टियों का वर्ग चरित्र खुलकर सामने आया है। एमाले जैसी संशोधनवादी पार्टियों का भी वर्ग चरित्र जनवाद की जरूरतों से मेल नहीं खाता और इनका व्यवहार जनता के दबाव में भी नहीं बदलता। तब हम कांग्रेस जैसी पार्टियों से क्या उम्मीद कर सकते हैं?इन पार्टियों की भारत परस्ती और सामंतवाद के साथ गठजोड़ घिनौने रूप में बार-बार सामने आया है। इनका सारा जोर इस बहुदलीय प्रणाली में ‘संविधान’ एवं ‘प्रतियोगिता’की नैतिकता माओवादियों के खिलाफ प्रयोग कर उन्हें सत्ता से बाहर रखने और संविधान को न बनने देने और कुत्सा प्रचार करने का ही रहा।
यह प्रणाली नेपाल के पूरे समाज के बदलाव की आकांक्षा को संसद के दड़बे में बंद कर देने की आसान सी जुगत में बदल गयी। इसने एनेकपा-माओवादी और नेपाल की जनता की क्रांतिकारी गति को बारह सूत्रीय समझौते और चुन्वांग सम्मेलन के निर्णय का मोहताज बना दिया है। आज वहां एक ऐसा राजनीतिक माहौल बन गया है जिसका खामियाजा आम जनता का उठाना पड़ रहा है। जबकि चतुर खिलाड़ी नैतिकता का लबादा ओढ़े क्रांति को ‘फिलहाल’टाल देने के लिए अड़े हुए हैं। यह सबकुछ मार्क्सवाद के लबादे में किया जा रहा है और नेपाल की ‘विशिष्ट स्थिति’का राग लगातार अलापा जा रहा है।
वर्मा जी,आप इस वर्तमान प्रणाली के चरित्र,सीमा को चिन्हित करने के बजाय माओवादियों को लताड़ते हैं कि ‘आप अपनी हर खामियों के लिए कब तक भारत को दोषी ठहराते रहेंगे’ और ‘पार्टी की आंतरिक कमजोरी के कारण भारत एक हद तक सफल हो सका’है। आप सलाह देते हैं कि ‘आज विद्रोह की स्थितियां नहीं हैं और पार्टी को हर हाल में शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए’ और ‘किसी भी तरह संविधान निर्माण का काम पूरा किया जाय।' आप इस बहुदलीय प्रणाली में लोटपोट हो रही संसदीय पार्टियों के बारे में बात करने के बजाय एनेकपा-माओवादी के बारे में लिखते हैं कि ‘आज स्थिति यह है कि हर मोर्चे पर पार्टी की विफलता उजागर हो रही है। संविधान बनाने का इसका लक्ष्य कोसों दूर चला गया है।’
क्या सचमुच माओवादी पार्टी संविधान बनाना नहीं चाहती?आप किरण की प्रस्तावित राजनीतिक कार्यदिश ‘जनांदोलन श्रृंखला’, ‘सड़क से संसद की ओर’ एवं ‘जनविद्रोह’ से सहमति नहीं रखते, क्योंकि यह 'यूटोपिया' है, और प्रचंड की कथनी-करनी का फर्क ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ है, तब तो एक ही रास्ता बचता है कि वर्ष 1990के समय से अस्तित्व में आई संवैधानिक बहुदलीय प्रणाली के तहत संसदीय राजनीति में गोते लगाते हुए माओवादी पार्टी जनतंत्र का खेल खेले.शांतिपूर्ण प्रतियोगिता और शांतिपूर्ण संक्रमण के माध्यम से ‘नवजनवादी’ और ‘हो सके तो ‘समाजवादी क्रांति’ करे।
दरअसल,आप संवैधानिक बहुदलीय प्रणाली के तहत ही एनेकपा-माओवादी पार्टी को‘व्यवहारिक राजनीति’ करने की सलाह दे रहे हैं। यह व्यावहारिक राजनीति और कुछ नहीं, बल्कि संसदवाद व सत्ता का वह दलदल है जिसमें चंद महीनों के ‘राज करने’का परिणाम खतरनाक रूप से सामने दिखाई दे रहा है़।
आप जब यह कहते हैं कि ‘किसने रोका था एक और पेरिस कम्यून बनने से?’तो इसके बहुत से निहितार्थ निकलते हैं। संदर्भ अप्रैल 2006 में जनांदोलन-2 के दौरान ज्ञानेंद्र को सत्ता से खदेड़ देने का है। पहली बात यह है कि क्या पेरिस कम्यून इतिहास का नकारात्मक पक्ष है? दूसरा, क्या नेपाल के राजनीतिक हालात फ्रांस जैसे ही थे कि वहा सत्ता दखल का अंतिम परिणाम क्रांति की हार में ही बदल जाए? क्या भारत कैजर की भूमिका निभाता? और, क्या संसदीय पार्टियां गृहयुद्ध में निर्णायक भूमिका में आतीं? यह मुद्दा क्रांतिकारी पार्टियों व बुद्धिजीवियों के बीच जेरे बहस रहा है।
यहां हमें यह बात जरूर याद रखना चाहिए कि नेपाल में उस समय एनेकपा-माओवादी पार्टी का एकीकृत नेतृत्व था जिसके पास एक मजबूत जनसेना, जनमिलिशिया, जनसंगठन और आधार क्षेत्र में राजसत्ता चलाने का अनुभव था। नेपाल में किसी भी बाहरी हस्तक्षेप के खिलाफ जनता की मजबूत एकजुटता बनती रही है। वहां की भौगोलिक स्थिति और दक्षिण एशिया में माओवादी आंदोलन की उपस्थिति उसके पक्ष को मजबूत करता था। बहरहाल,मुद्दा बहस का है और प्रचंड तथा बाबूराम भट्टाराई अब तक सत्ता दखल के सवाल से कतराते रहे हैं। इस बहस का ‘पेरिस कम्यून’ के रूप में सूत्रीकरण दुर्भाग्यपूर्ण है। पेरिस कम्यून पर मार्क्स से लेकर माओ तक सभी ने लिखा है और शायद ही कोई कम्युनिस्ट पार्टी हो जिसने इस पर अपने विचार व्यक्त न किए हों।
आनंद स्वरूप वर्मा ने जिस तरह से पेरिस कम्यून का उल्लेख किया है,वह नायाब है। शायद यह सर्वहारा की तानाशाही की अवधारणा पर बहुदलीय संवैधानिक प्रणाली के जोर का ही नतीजा है। बहरहाल, एनेकपा-माओवादी वर्तमान में जिस बहुदलीय संवैधानिक प्रणाली के तहत जो प्रयोग कर रही है वह न तो उनके ही सैद्धांतिक अवधारणा से मेल खाते हैं और न ही 12 सूत्रीय समझौता ही लागू हो पा रहा है। आज इन दोनों पर जोर का अर्थ संसदीय दलदल में फंसकर खत्म होना है।
निश्चय ही नेपाल की जनता में इस दलदल से निकलने की छटपटाहट है। यह विभिन्न रूपों में उभरकर सामने आ रही है। इतिहास का सबक समय के पहिए को आगे तो बढ़ाकर ले ही जाएगा, यह आने वाले दिनों में और भी निखरकर सामने आएगा।
- नेपाल के राजनीतिक हालात और नेपाली माओवादी पार्टी की भूमिका को लेकर आयोजित इस बहस में अबतक आपने पढ़ा -
अंजनी जी का लेख वर्मा जी के 'वैचारिक पक्ष' को सही तरह से समझने का आधार देता है. एक तरफ तो वे क्रांति की बात करते है और दूसरी तरफ एक पार्टी को ऐसा करने से रोकने का प्रयास करते है. उनके ऐसा करने का मोटिव समझ में नहीं आता. यदि नेपाल के क्रांति का परिणाम इसी संसदीय व्यवस्था में फसें रहना है तो फिर इतने बलिदान की आवश्कता क्या थी? वर्मा जी की समझ पर ये जरूरी सवाल है और वर्मा जी को इसका उत्तर देना चाहिए.
ReplyDeleteएक और बात क्या वर्मा जी खुद कंफुज़ है या जान्भूझ्कर भारतीय पाठक को भ्रमित कर रहे है.
अंजनी के लेख से स्पष्ट है कि आनंद वर्मा जी जैसे journalists और intellectuals नेपाल की क्रांति को भारत के सत्ता पक्ष के आनूकुल करने में लगे है. देर से ही सही लेकिन जन्मैत्री मंच की सच्चाई सामने आने लगी है. और अब जब प्रचंड ने आत्मसमर्पण कर दिया है तो इसकि गतिविधि बंद हो गई है. मेरा समय मुझे लौटा दो वर्मा जी.
ReplyDeleteनेपाल क्रांति का अदना सा समर्थक, हाल दिल्ली
अरे भाई अब तो हम परेशान हो गये कि प्रचंड, आनंद स्वरुप वर्मा, बाबुराम एक लाइन के समर्थक है या वर्मा जी 'संवैधानिक बहुदलीय लोकतंत्र की प्रणाली' 'को माओवादियों के ‘बहुदलीय प्रणाली’ तथा ‘प्रतियोगिता’ की अवधारणा से उलझाते भी हैं'. इस तरह से ये बात सामने आ रही है कि वर्मा जी कुछ दूसरा ही पक्ष ले रहे है जो माओवादीयो से अलग है. अब इतना और कह दीजिये के वर्मा जी समाजवादी नहीं है बल्कि बुर्जुअजी लोकतंत्रवादी है.
ReplyDeleteअंजनी स्पष्ट के अनुसार आनंद स्वरुप वर्मा ये कहना चाहते है:
ReplyDelete१) नेपाल में जनतंत्र का सवाल सिर्फ राजतंत्र विरोधी आंदोलन से जुड़ा है
२) माओवादियों की इक्कीसवीं सदी की क्रांति और समाजवाद की अवधारणा और बहुदलीय व्यवस्था ‘संवैधानिक बहुदलीय लोकतंत्र’ की अवधारणा एक है
३) चुन्वांग सम्मेलन में लिए गए निर्णय इस बहुदलीय व्यवस्था में लोटपोट होने के लिए था
४) आनंद स्वरुप वर्मा उन्हें, जो इस दुष्चक्र से पार्टी को निकलना चाहते है. ‘यूटोपिया’ कहकर नकार रहे हैंऔर विपरीत तथा गलत निष्कर्ष तक ले जा रहे हैं।
५)वर्मा जी सलाह देते हैं कि ‘आज विद्रोह की स्थितियां नहीं हैं और पार्टी को हर हाल में शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए’ और ‘किसी भी तरह संविधान निर्माण का काम पूरा किया जाय.
६) वे ‘जनविद्रोह’ से सहमति नहीं रखते, क्योंकि यह 'यूटोपिया' है, और प्रचंड की कथनी-करनी का फर्क ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ है.
७) वे पेरिस कम्यून को इतिहास का नकारात्मक पक्ष है मानते है.
८) वे सर्वहारा की तानाशाही की अवधारणा पर बहुदलीय संवैधानिक प्रणाली पर जोर दे रहे है.
यदि ऐसा है तो ये उनका पतन ही है...
once again a great work.
ReplyDeleteThis debate in Janjwar has once again exposed the true character of opportunist 'intellectuals' like Anand Swarup Verma and his cohorts like Gautam Navlakha. These people have consistently tried to dislodge and liquidate the revolutionary movement in Nepal wearing the mask of 'well-wishers of the revolution'. It is high time that we identify such elements and denounce them. This will be the true tribute to the thousands of martyrs of the gloriuos Peoples' War in Nepal, and only this will strengthen the revolutionary line within the Maoist party of Napal. The open criticism and opposition to Prachanda and Baburam's revisionist line within and outside Nepal is an encouraging sign for all genunine revolutionaries. The revolutionary line in Nepal will definitely prevail, and the opportunists will definitely be thrown into the dustbin of history!
ReplyDeleteAnonymous said...
ReplyDeleteThis debate in Janjwar has once again exposed the true character of opportunist 'intellectuals' like Anand Swarup Verma and his cohorts like Gautam Navlakha. These people have consistently tried to dislodge and liquidate the revolutionary movement in Nepal wearing the mask of 'well-wishers of the revolution'. It is high time that we identify such elements and denounce them. This will be the true tribute to the thousands of martyrs of the gloriuos Peoples' War in Nepal, and only this will strengthen the revolutionary line within the Maoist party of Napal. The open criticism and opposition to Prachanda and Baburam's revisionist line within and outside Nepal is an encouraging sign for all genunine revolutionaries. The revolutionary line in Nepal will definitely prevail, and the opportunists will definitely be thrown into the dustbin of history!
Friday, May 11, 2011