अन्ना के पास जैसे मोदी की पसंदगी का जवाब है,ऐसा ही कोई जवाब पेप्सी के लिए हो. वैसे भी विकास के दौर में गाँधी के आदर्श दूसरे गाँधी यानि अन्ना ढो भी नहीं सकते. यह दौर तो भ्रष्टाचार के खिलाफ राहुल बजाज जैसों से समर्थन लेने का है...
जंतर मंतर डायरी - अंतिम किस्त
बात अब अनशन से आगे बढ़ चुकी है और अन्ना हजारे के पवित्र आन्दोलन का लगातार विस्तार जारी है.कल के हुए विस्तार के मुताबिक उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और बिहार के विकास पुरुष नीतीश कुमार भातें हैं.
लेकिन अन्ना के इस मत पर सवाल उठने लगे हैं.सवाल उठाने वालों में उनके अपने और पराये दोनों हैं.तो अन्ना भी इन सवालों से विचलित नहीं हो रहे.बड़े ही अहिंसक तरीके से बारीक विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं.जैसे अन्ना को नरेन्द्र मोदी पसंद हैं, मगर गुजरात 2002 में नरसंहार कराने वाले मोदी नहीं, विकास वाले मोदी.
पेप्सी कम्पनी की सौगात दिखाता एक अनशनकारी |
वैसे भी अन्ना और उनके सहयोगी बारीकी का बड़ा ध्यान रखते हैं. जन लोकपाल विधेयक के लिए 5 अप्रैल से अनशन पर बैठे अन्ना ने 9 अप्रैल को जब अनशन खत्म किया तब भी उनके सहयोगियों ने 'देश में कौन ईमानदार है जो अन्ना को जूस पिलाएगा'को लेकर बारीकी का निर्वाह किया था.जिसके बाद बाबूराव ऊर्फ अण्णा हजारे ने शनिवार को एक बच्ची के हाथ से नींबू पानी पीकर अपना अनशन खत्म कर दिया.उनके सहयोगियों का मत था की ईमानदारी के इकलौते चाँद अन्ना ही हैं, बाकि तो....
लेकिन अनशन पर बैठे अन्य 400 लोगों को पेप्सी कम्पनी का निंबुजा(बोतल बंद नींबू-पानी) पिलाया गया, वह भी काफी अपमानजनक तरीके से. इस पर भ्रष्टाचार विरोधियों को कोई तकलीफ न हुई. जाहिर है फिर सवाल उठा होगा की भारत समेत दुनिया के किसानों-मजदूरों का खून चूस, पर्यावरण के सवालों को ताक पर रख जल दोहन करने वाली पेप्सी कंपनी के उत्पाद से अनशन तोड़ने में अन्ना को भ्रष्टाचार की बू क्यों नहीं आई. अन्ना के गृह जनपद महाराष्ट्र के अहमद नगर से अनशन पर बैठे दत्तात्रय गोपीनाथ चाह्वान कहते हैं, 'मैं हतप्रभ था नींबू-पानी की बोतल पकड़ कर. कौन नहीं नहीं जनता की पेप्सी क्या करती है.'
सवाल है की क्या नींबू पानी या जूस का इंतजाम इतना मुश्किल था. जो चैनल और एनजीओ वाले लोगों के लिए थाली बजाने से लेकर मोमबत्ती तक का इंतजाम करा रहे थे, उनसे ही कह दिया होता तो वह ख़ुशी-ख़ुशी इंतजाम कर देते.अनशन तोड़ा जा रहा है, नींबू- चीनी मिलाया जा रहा है, का विजुअल भी तो अच्छा बनता.
बहरहाल, अन्ना के पास जैसे मोदी की पसंदगी का जवाब है,ऐसा ही कोई जवाब पेप्सी के लिए हो. वैसे भी विकास के दौर में गाँधी के आदर्श दूसरे गाँधी यानि अन्ना ढो भी नहीं सकते. क्योंकि यह दौर तो भ्रष्टाचार के खिलाफ राहुल बजाज जैसों से समर्थन लेने का है.
हुआ यूं कि मंच पर विराजमान स्वामी अग्निवेश अनशनकारियों से कह रहे थे कि आप लाइन लगाकर आ जाइए, मैं आपको जूस दूंगा. वह भी पेप्सी का. हालांकि अग्निवेश खुद अनशन पर नहीं बैठे थे और दोनों टाइम सात्विक खाना खा रहे थे.
इस अभियान का नेतृत्व अधिकतर वही लोग कर रहे थे जिन्होंने पेप्सी और कोका कोला के खिलाफ केरल से लेकर बनारस तक झंडा बुलंद किया हुआ है.अनशन खत्म होने पर यही लोग पेप्सी का निंबुजा बांट रहे थे. धन्य हैं आप लोग और आपकी माया. चलिए! कोई बात नहीं, अण्णा का अनशन तो टूटा. वरना सैकड़ों लोग एक जन लोकपाल के लिए खाना-पीना छोड़कर अनशन पर बैठे थे. जिद थी कि लोकपाल नहीं मिला तो जान दे देंगे.
अण्णा ने जब अनशन शुरू किया तो मांग की थी कि सरकार उनके जन लोकपाल विधेयक को स्वीकार करे. इसके बाद कहा कि अगर नया कानून बनाने के लिए कोई समिति बनती है तो उसका अध्यक्ष उनकी ओर से होगा. उन्होंने कुछ नाम भी उछाले, इनमें कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा और पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह का नाम प्रमुख था.
ऐसे में सवाल अब यह उठता है कि जिस जन लोकपाल विधेयक का 33पेज का मसौदा अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण और संतोष हेगड़े ने मिलकर तैयार किया था, अण्णा उससे पीछे क्यों हटे और नया मसौदा तैयार करने पर राजी क्यों हुए?
दूसरी बात यह कि क्या प्रशांत भूषण, अरविंद केजरीवाल, संतोष हेगड़े और अण्णा हजारे को क्या इतना पता नहीं था कि किसी भी विधेयक को संसद में पेश करने का अधिकार उसके अध्यक्ष को होता है. संसद में विधेयक वही पेश कर सकता है, जो उसका सदस्य हो. अगर पता था तो उन्होंने प्रारूप बनाने वाली समिति के अध्यक्ष पद के लिए जिद क्यों की?
जंतर-मंतर पर कई लोग इन सवालों का उत्तर ढूंढ़ते नजर आए, तो कई लोगों को लग रहा था कि अण्णा बैकफुट पर आ गए हैं.हुजूर! अगर बैठफुट पर ही आना था तो,इतना बड़ा अभियान क्यों चलाया?
नेताओं के प्रति नफ़रत का यह आलम है |
जंतर-मंतर पर शनिवार को कालेज के दो छात्र भी अण्णा को समथर्न देने आए थे. दोनों अण्णा के समर्थन में जमकर नारे लगा रहे थे. 'भारत माता की जय.' उनमें एक ने दूसरे से अचानक पूछा, 'यार ये शांति भूषण कौन हैं?' दूसरे ने कहा 'अबे! नहीं जानता शांतिभूषण जी, प्रशांत भूषण जी के डैडी हैं.' पहले छात्र ने अचानक एक दूसरा सवाल फिर आसमान में फेंका, 'अबे! ये शांतिभूषण तो अब तक कहीं नजर नहीं आ रहे थे, अचानक कहाँ से टपक पड़े.' इसके जवाब में दूसरे ने कहा 'भाई! इतने भोले भी मत बनो. अरे यार, जब राजनीति में वंशवाद चल सकता है तो अभियानों में क्यों नहीं.'
मुझे लगा कि शायद पहला वाला लड़का यह नहीं जानता है कि शांतिभूषण कितने बड़े वकील हैं, क्या-क्या रह चुके हैं और भ्रष्टाचार के खिलाफ कब से लड़ रहे हैं.
दिन बीतते-बीतते यानी शाम को आश्चर्य तब हुआ,जब देश के सबसे नए औद्योगिक घराने के स्वामी और इस अभियान को तन,मन और धन से समर्थन देने वाले बाबा रामदेव (रामदेव ने शनिवार को अमेरिका के साउथ कैलिफोर्निया स्थित नेचुरामिक एलएलसी नाक की कंपनी का अधिग्रहण किया है.) ने भी यही सवाल उठा दिया.
उन्होंने कहा कि लोग उनसे कह रहे हैं 'लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए जो समिति बनाई गई है उन्हें उसमें से वंशवाद की बू आ रही है.' बाबा को जंतर-मंतर अभियान के पीछे एक लंबी कहानी भी नजर आई, जिसके एक पात्र वे खुद हैं. लेकिन रामदेव जी ने कहानी का पर्दाफाश नहीं किया, क्योंकि कहानी स्वांत: सुखाय की है. आप लोग रामदेव जी के नए उपक्रम के लिए उन्हें शुभकामनाएँ दें और उसके बेहतर भविष्य की कामना करें!
रामदेव का कहना है कि उनके साथ अण्णा एंड कंपनी ने छल किया है.वे किरण बेदी के साथ गठबंधन के प्रयास में हैं.
चलते-चलते एक बात और.बात शायद 20वीं सदी के अंतिम दिनों की है,जब देशभर के मंदिरों में गणेश की प्रतिमाओं ने लड्डू खाना छोड़कर दूध पीना शुरू कर दिया था.असर यह हुआ कि लोग बिना कुछ सोचे-समझे दूध लेकर चल दिए थे, गणेश जी को दूध पिलाने. आस्था का सवाल था. उस समय भी मीडिया ने इसे खूब दिखाया था, बिल्कुल अण्णा की तरह. बाद में क्या पता चला, यह तो आप जानते ही हैं. अण्णा के अभियान को दिखाने वाला यह मीडिया उस समय अभी पैदा ही हुआ था, लेकिन पूत के पांव पालने में ही नजर आने लगते हैं.
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