Feb 28, 2011

मध्य-पूर्व एशियाई देशों में मचा कोहराम तथा भारत



लीबिया के गृहमंत्री ने गद्दाफी का साथ छोड़ दिया है। सेना का एक बड़ा भाग गद्दाफी के विरुद्ध हो चुका है। शासकीय असहयोग,व्यापक जनविद्रोह तथा सत्ता से चिपके रहने की गद्दाफी की जि़द ने लीबिया में गृहयुद्ध छिडऩे जैसे हालात पैदा कर दिए हैं...


तनवीर जाफरी

मध्य-पूर्व एशिया के कई प्रमुख देश इस समय शासन व्यवस्था के परिर्वतन के लिए चल रहे जनआंदोलन के दौर से गुज़र रहे हैं। जागरूक हो चुकी आम जनता तानाशाहों, बादशाहों तथा सत्ता पर जबरन क़ाबिज़ हुक्मरानों को अब सिंहासन खाली करने की सलाह दे रही है। मिस्र और टयूनिशिया के हुक्मरानों ने जान बचाने की कीमत पर आखिरकार गद्दी छोड़ ही दी। दूसरी तरफ  लीबिया के विचित्र प्रवृति के तानाशाह कर्नल मोअ मार गद्दाफी ने अपनी अंतिम सांस तक सत्ता से चिपके रहने का संकल्प लिया है।

इस जनविरोधी आकांक्षा को अमल में लाने के लिए यदि लीबिया को बरबादी के मुहाने तक भी ले जाना पड़ा तो शायद उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। यही वजह है कि हुक्मरानी के आखिरी क्षण गिन रहे गद्दाफी ने अपने समर्थकों से यह अपील की है कि वे ''विद्रोहियों को कुचल डालें,काकरोच की तरह उन्हें मसल डालें,उनपर हमले किए जाएं तथा उनकी पहचान कर उन्हें घरों से बाहर निकाल उनका दमन किया जाए।''

 कल्पना कीजिए कि जिस तानाशाह के सिंहासन के नीचे की ज़मीन खिसक रही हो और ऐसे संकटकालीन समय में वह इस प्रकार के आक्रामक तेवर दिखा सकता है तो समझा जा सकता है कि सत्ता पर अपनी मज़बूत पकड़ रखते हुए गद्दाफी जैसा शासक अपने विरोधियों तथा आलोचकों का क्या हश्र करता रहा होगा। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे तानाशाह शासक चंद दिनों पहले हुआ इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन का हश्र इतनी जल्दी भूल जाते हैं।

बहरहाल,गद्दाफी के इस आक्रामक आह्वान का लीबिया की जनता पर थोड़ा बहुत असर तो ज़रूर पड़ रहा है। वह गद्दाफी समर्थक सेना और पुलिस द्वारा बरती जा रही हिंसा का शिकार भी हो रही है। चूंकि अब गद्दाफी के ज़ुल्मो-सितम ने अपनी सभी हदें पार कर दी हैं लिहाज़ा धीरे-धीरे वह सभी लोग उसका साथ छोड़कर विद्रोहियों के पक्ष में खड़े हो रहे हैं जिनके समक्ष गद्दाफी बेनकाब हो चुके हैं।

लीबिया के गृहमंत्री ने गद्दाफी का साथ छोड़ दिया है। कई मंत्री साथ छोडऩे वाले हैं। सेना का एक बड़ा भाग गद्दाफी के विरुद्ध हो चुका है। आधा दर्जन से अधिक लीबियाई राजदूतों व तमाम राजनयिकों ने भी उसका साथ छोड़ दिया है। शासकीय असहयोग,व्यापक जनविद्रोह तथा सत्ता से चिपके रहने की गद्दाफी की जि़द ने लीबिया में गृहयुद्ध छिडऩे जैसे हालात पैदा कर दिए हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि गद्दाफी आसानी से गद्दी नहीं छोड़ते तथा गद्दी से चिपके रहने की अपनी जि़द पर अड़े रहते हैं तो देश में भारी नरसंहार भी हो सकता है। अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों की नज़रें लीबिया में हो रही उथल-पुथल पर लगी हुई हैं। मध्य-पूर्व एशियाई देशों में चल रही व्यवस्था परिवर्तन की इस बयार के चलते कच्चे तेल की कीमतों में भी भारी इज़ाफा होने की संभावना है।

व्यवस्था परिवर्तन किए जाने के पक्ष में फैला यह जनाक्रोश मुस्लिम बाहुल्य देशों तक ही सीमित है। विद्रोह की इस लहर को अलग-अलग नज़रिए से देखा जा रहा है। कहीं अल्पसंख्यक सुन्नी समुदाय के तानाशाह के विरुद्ध बहुसंख्यक शिया समुदाय विद्रोह पर आमादा हो गया है तो कहीं अमेरिकी पिट्ठू शासक के विरुद्ध जनता का गुस्सा फूट पड़ा है। कई देशों के लोग अपने निरंकुश, निष्क्रिय,भ्रष्ट तथा विकास की अनदेखी करने वाले तानाशाह से रुष्ट हैं तो कहीं राजशाही को ठेंगा दिखाकर जनता-जनार्दन प्रजातंत्र लागू करना चाह रही है।

 मध्य-पूर्व एशियाई देशों के जनता की अलग-अलग प्रकार की समस्याएं हैं। कई सदियों से यह धारणा बनी हुई थी या इस्लाम विरोधी ताकतों ने इस बात को आम धारणा का रूप दे डाला था कि इस्लाम धर्म के मानने वाले बादशाहत या तानाशाही को ही पसंद करते हैं। इस प्रकार का दुष्प्रचार करने वालों को भी मध्य-पूर्व एशियाई देशों में फैली इस ताज़ातरीन जनक्रांति की लहर ने माकूल जवाब दे दिया है। इस क्रांति ने साबित कर दिया है कि मुस्लिम समाज का मिज़ाज न केवल लोकतांत्रिक है, बल्कि अहिंसक भी है।

 इस भारी जनाक्रोश के बीच भारत जैसे विशाल देश के तमाम राजनीतिक विश्लेषक इस विषय पर चिंतन-मंथन करने लगे हैं कि क्या यहाँ भी उसी प्रकार के हालात पैदा हो सकते हैं? ये कयास लगाए जाने का कारण केवल यही है कि देश के आमजन आज़ादी के 64 वर्षों बाद भी भयंकर गरीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, घपलों व घोटालों के शिकार हैं।

माओवाद तथा नक्सलवाद जैसी समस्या बहुत तेज़ी से भारत में अपनी जड़ें गहरी करती जा रही है। इसका कारण भी बढ़ती गरीबी, भूख, बेरोज़गारी तथा शासन व्यवस्था का इन ज़मीनी हकीकतों की तरफ से मुंह मोड़े रखना है। देश की आम जनता भारतीय शासन व्यवस्था की उदासीनता तथा निष्क्रियता के चलते त्राहि-त्राहि कर रही है।

देश के कई हिस्सों में कर्जदार किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने के समाचार प्राप्त हो रहे हैं। गरीब आज भी भूख के चलते दम तोड़ देता है। देश में सर्वोच्च समझी जाने वाली भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी  की कहीं भ्रष्टाचारियों द्वारा गोली मारकर तो कहीं जिन्दा   जलाकर हत्या की जा रही है तो कहीं माओवादियों द्वारा उनका अपहरण किए जाने के समाचार प्राप्त हो रहे हैं। भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर विपक्षी दल संसद की कार्रवाई को बाधित करते हैं। मंहगाई इस समय अपने चरम पर है। राजनेता जनता के मध्य अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं।

भारत में चारों ओर ऐसा वातावरण बनता जा रहा है कि आम लोगों का वर्तमान राजनैतिक दलों, राजनेताओं तथा  राजनीतिक व्यवस्था से विश्वास ही उठ रहा  है। आम आदमी को यह कहते सुना जा सकता है कि इस देश में कानून और न्याय का डंडा केवल गरीबों पर ही चलता है,जबकि संपन्न लोग इन सबसे ऊपर या इनसे निपटने में सक्षम नज़र आते हैं।  प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं इस आशय की स्वीकारोक्ति कर भी चुके हैं।

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भी यह महसूस कर चुके हैं कि भारतीय जनमानस के चेहरों पर मुस्कुराहट नहीं, बल्कि मायूसी के भाव नज़र आते हैं। ऐसे में यदि कुछ विश्लेषक इस बात की चिंता ज़ाहिर करें कि कहीं मध्य-पूर्व एशियाई देशों अर्थात् मिस्र, टयूनिशिया, लीबिया, यमन जैसे हालात कहीं यहाँ भी पैदा न हो जाएँ तो इसमें बिलकुल भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए। नि:संदेह यहाँ की जनता के भीतर भी व्यवस्था को लेकर तथा अपने और अपने परिवार के भविष्य को लेकर उतना ही गुस्सा व चिंता व्याप्त है जितनी कि कई मध्य-पूर्व एशियाई देशों में देखी जा रही है। बावजूद इसके कि हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा एवं सफल लोकतांत्रिक देश माना जाता है।

भला हो हमारे संविधान निर्माताओं का जिन्होंने देश की राजनैतिक प्रणाली तथा भारतीय संविधान के साथ राजनैतिक व्यवस्था के समन्वय का ऐसा ताना-बाना रचा है जिसके परिणामस्वरूप राजनैतिक तौर पर पूरे देश की जनता एक-दो नहीं बल्कि सैकड़ों राजनैतिक दलों,विचारधाराओं, वर्गों, क्षेत्रों आदि में विभाजित हो गई है। भारतीय सेना के गठन का ढांचा भी कुछ ऐसा ही पेंचीदा  है कि हमारे शासक सेना के अनुशासन और इसके वर्गीकरण का पूरा लाभ उठाते हुए सेना की ओर से पूरी तरह बेफ़िक्र रहकर अपना राजपाट चला सकते हैं।

दूसरी तरफ लोकतंत्र की ज़मीनी हकीकतों पर पर्दा डालते हुए हमारे शासक दुनिया को बार-बार यह बता कर अपनी पीठ स्वयं भी थपथपाते रहते हैं कि हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे आदर्श लोकतंत्र है। इन शासकों तथा वर्तमान शासन व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों को इस वास्तविकता की अनदेखी हरगिज़ नहीं करनी चाहिए कि मनुष्य सबकुछ एक सीमा तक सहन कर सकता है। भय, भूख, गरीबी तथा अपने बच्चों के भविष्य के प्रति अनिश्चितता का वातावरण जागरुक समाज अधिक दिनों तक सहन नहीं कर सकता।

यदि भारत के विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का भ्रम दुनिया में बनाए रखना है तो आम लोगों की आम ज़रूरतों तथा उनकी आम परेशानियों से यथाशीघ्र रूबरू होना तथा उनका समाधान करना ही होगा। अन्यथा परिवर्तन की यह बयार कब किस देश की व्यवस्था की चूलें हिला बैठे,कुछ नहीं कहा जा सकता।




लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafri1@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.



 
 
 
 

3 comments:

  1. असलम अलीMonday, February 28, 2011

    अपने देश में ऐसा कुछ हो तो मजा आये. बहुत बढ़िया मैं लगातार आपको जनज्वार पर पढ़ रहा हूँ.

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  2. कल्पना कीजिए कि जिस तानाशाह के सिंहासन के नीचे की ज़मीन खिसक रही हो और ऐसे संकटकालीन समय में वह इस प्रकार के आक्रामक तेवर दिखा सकता है तो समझा जा सकता है कि सत्ता पर अपनी मज़बूत पकड़ रखते हुए गद्दाफी जैसा शासक अपने विरोधियों तथा आलोचकों का क्या हश्र करता रहा होगा।- jayj chinta. bahut accha lekh

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  3. नीरज पाठकMonday, February 28, 2011

    आपकी चिंता को सरकार समझे इसकी कामना ही की जा सकती है.

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