प्रचंड ने साहस के साथ झलनाथ खनाल को प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देने का निर्णय लिया। इस फैसले ने संविधान सभा के अन्य दलों के साथ-साथ भारत को भी सकते में डाल दिया...
आनंद स्वरूप वर्मा
नेपाल की दो बड़ी वामपंथी पार्टियों-माओवादी और एमाले-का किसी न किसी बिंदु पर पहुंच कर मिल जाने की ऐतिहासिक आवश्यकता बहुत दिनों से जरूरी लग रही थी। ऐसा नहीं है कि पहले इसका प्रयास नहीं हुआ। संविधान सभा के निर्वाचन के समय भी इसकी कोशिश हुई थी लेकिन सफलता नहीं मिली थी। इन दोनों पार्टियों को न मिलने देने में नेपाल के प्रतिक्रियावादी और सामंती तत्वों के अलावा भारत की बड़ी भूमिका थी।
भारत यह नहीं चाहता था कि माओवादियों के समर्थन और सहभागिता में नेपाल में कोई सरकार बने। उसमें भी माओवादियों के समर्थन में एमाले की सरकार बनने को वह कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता था क्योंकि अभी की सरकार पूरी तरह एक कम्युनिस्ट सरकार है। नेपाल में जो परिस्थिति विकसित हुई है वह भारत के लिए ठीक नहीं है -ऐसी प्रतिक्रयाएं भारत के कुछ अखबारों में आई है।
इतिहास में झांकने पर समझ आता है कि ये प्रतिक्रियाएं नई नहीं हैं। 1994में जब एमाले के नेता मनमोहन अधिकारी की सरकार बनी थी उस समय भी भारतीय अखबारों में आई प्रतिक्रियाएं प्रचंड की सरकार बनने के बाद की प्रतिक्रियाओं जैसी ही थीं। प्रचंड की सरकार पर भारत के सत्ताधारी वर्ग ने जो जो आरोप लगाए थे वही आरोप मनमोहन की सरकार पर भी लगाये थे। मसलन नेपाल का झुकाव चीन की तरफ हो गया है,वह कम्युनिस्ट हो गया है,लाल हो गया है,अब भारत के साथ उसके संबंध खराब हो जायेंगे,दोनों देशों के बीच की संधियों का विरोध होगा आदि आदि।
भारत के सत्ताधारी वर्ग की ओर से भी वाम सरकार के लिए ऐसी ही प्रतिक्रियाएं आती रहती हैं। आज तो स्थिति यह है कि भारत अमेरिका का जूनियर पार्टनर हो चुका है। विश्व परिप्रेक्ष्य में दिखायी पड़ता है कि अमेरिका को चीन से लगातार चुनौतियां मिल रही हैं। चीन की चुनौती बढ़ रही है और भविष्य में इसमें और इजाफा होने के संकेत मिल रहे हैं। इसलिए इस भूभाग में अमेरिका की रणनीतिक दिलचस्पी लगातार बढ़ी है। उसने अपने रणनीतिक साझेदार भारत के जरिए चीन को घेरने की नीति बनायी है।
ऐसी स्थिति में अमेरिका नेपाल में किसी भी प्रकार की वाम सरकार को नहीं देखना चाहता। वह जानता है कि भले ही नेपाल की वाम सरकार का झुकाव चीन की ओर न हो लेकिन वह अमेरिका के खिलाफ तो होगी ही। अमेरिका नेपाल में ऐसी स्थिति का विकास ठीक नहीं मानता। इसलिए जो अमेरिका चाहता है भारत उसे लागू कर रहा है। नेपाल में वाम गठबंधन या वाम सरकार भारत बर्दाश्त नहीं करता।
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत की नेपाल में दिलचस्पी के और भी कारण हैं। जैसे विश्व परिप्रेक्ष्य में नेपाल चीन की वजह से महत्वपूर्ण है उसी तरह भारत के लिए नेपाल की आंतरिक राजनीति भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। भारत में इस वक्त माओवादी आंदोलन तेजी से बढ़ रहा हैं। यदि नेपाल के माओवादी अपने देश में कुछ अच्छा काम करके दिखाते हैं और माओवादियों के सहयोग से कोई सरकार बनती है तो भारत में इसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ेगा।
माओवादियों द्वारा जनहित में किये गये कामों के उदाहरण भारतीय जनता के लिए महत्वपूर्ण होंगे। माओवादी अच्छा काम करते हैं -इस तरह का संदेश जाने से भारत के माओवादियों को नैतिक बल मिलेगा। भारत के संचार माध्यम यह प्रचार करते है कि माओवादी गलत लोग हैं। नेपाल के माओवादियों के जनहितकारी कामों से इस तरह के प्रचार गलत साबित होंगे। भारत यही नहीं चाहता।
कुछ समय पहले थिम्पू में माधव नेपाल से अपनी मुलाकात में मनमोहन सिंह ने यह आश्वासन दिया था कि यदि संविधान सभा भंग भी हो जाती है तो भारत की सरकार उन्हें समर्थन देती रहेगी। यह मेरा अनुमान नहीं है। माधव नेपाल ने खुद एमाले की केंद्रीय समिति को यह बात बतायी थी और एमाले के उपाध्यक्ष बामदेव गौतम ने बीबीसी को दिये अपने इंटरव्यू में इसका उल्लेख किया था। यह तथ्य अब सार्वजनिक हो चुका है। संविधान सभा के विफल हो जाने पर भी माधव नेपाल को टिकाये रखने की मनमोहन सिंह की इच्छा से बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है।
प्रचंड ने साहस के साथ झलनाथ खनाल को प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देने का निर्णय लिया। इस फैसले ने संविधान सभा के अन्य दलों के साथ-साथ भारत को भी सकते में डाल दिया। ‘टाइम्स आफ इंडिया’के ऑनलाइन संस्करण में उसी दिन यह खबर आयी कि नेपाल में भारत विरोधियों की विजय हुई है। मधेशी नेता विजय गच्छेदार प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार क्यों बने?
भारत में नेपाली राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि गच्छेदार इसलिए उम्मीदवार बनाए गए ताकि प्रचंड को सरकार बनाने से रोकने के मकसद से मधेशी दलों को ‘इंगेज’रखा जा सके। मधेशी उम्मीदवार को चुनाव में खड़ा कर देने से पहले की उस स्थिति से बचा जा सकता था जिसमें मधेशी नेताओं ने प्रचंड को वोट दिया था। उस वक्त श्याम शरण भागे- भागे नेपाल आए थे और मधेशी नेताओं को एक बार फिर प्रचंड को वोट देने से रोका था।
नेपाल की राजनीति में भारत का हस्तक्षेप लगातार होता रहा है। 2008के चुनाव से एक सप्ताह पहले एमके नारायण ने घोषणा की थी कि भारत कोइराला के पक्ष में खड़ा है। नेपाल के पक्ष से देखें तो ऐसे हस्तक्षेपों को तुरंत रोकना जरूरी था। प्रचंड के अभी के कदम ने न केवल झलनाथ खनाल को प्रधानमंत्री बनाया है बल्कि भारत के हस्तक्षेप को भी रोका है। प्रचंड ने अपने भाषण में भी उल्लेख किया है कि हम किसी के इशारे पर नहीं चलेंगे, नेपाली जनता खुद अपना निर्णय ले सकती है। जाहिर है राष्ट्रीय स्वाभिमान और संप्रभुता को प्रचंड ने स्थापित किया है।
जैसा कि माओवादियों ने कहा है ‘अभी सही अर्थों में नेपाली जनता की सरकार बनी है’। प्रधानमंत्री के चुनाव के बाद नेपाल के ही एक अखबार ने लिखा कि झलनाथ खनाल की सरकार रिमोट कंट्रोल से चलेगी और रिमोट प्रचंड के हाथ में होगा। यह तो अजीब बात हुई। एक पल के लिए ऐसा मान भी लें कि झलनाथ खनाल प्रचंड के रिमोट कंट्रोल से चलेंगे तो भी कम से कम यह रिमोट नेपाल का तो होगा। माधव नेपाल की सरकार तो भारत के रिमोट कंट्रोल से चलती थी। रिमोट कंट्रोल देश का ही होने में क्या गलत है?
झलनाथ खनाल के प्रधानमंत्री होने से जो वामगठबंधन अस्तित्व में आया है उससे संविधान लिखने के काम पर निश्चित रूप से असर पड़ेगा. माओवादियों का एजेंडा नेपाल की सामाजिक संरचना में आमूल परिवर्तन लाने का है। उस पर संवाद होना जरूरी है। अपने एजेंडा के अनुसार संविधान लिखने के लिए माओवादियों के पास संविधान सभा में दो तिहाई बहुमत होना जरूरी है। माओवादी-कांग्रेस या एमाले-कांग्रेस के गठबंधन में जिस तरह की समस्याएं हो सकती थीं, वैसी समस्याएं इस गठबंधन में नहीं होंगी।
अब नेपाल की शांति प्रक्रिया के तर्कसंगत निष्कर्ष की ओर बढ़ने की अपेक्षा की जा सकती है। शांति और संविधान लिखने के कार्य को पूरा करने का मौका आया है। यदि ऐसा हो सका तो यह नेपाल और नेपाली जनता के लिए ऐतिहासिक घटना होगी।
जनपक्षधर मासिक पत्रिका 'तीसरी दुनिया' के संपादक और नेपाल की राजनीति के महत्वपूर्ण विश्लेषक. यह लेख काठमांडो से प्रकाशित नेपाली दैनिक ‘नया पत्रिका’से साभार लिया जा रहा है.लेख बातचीत पर आधारित है.उनसे vermada@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
बहुत ही उम्दा विश्लेषण. आनंदजी हिंदी जगत में तीसरी दुनिया की खिड़की है.
ReplyDeleteअजीब हालत है. पता नहीं हमारे देश की क्या दुखती रहती है कि हमेशा ही नेपाल में फ़साये रखता है. बहुत जरूरी लेख है और विश्लेषण भी.
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