Jan 31, 2011

आंदोलन के 'प्याज' और जनयुद्ध की शुरूआत


तो जी आप जे कह रहे हो कि विनायक सेन आंदोलनों के प्याज हो गये हैं। जैसे महंगायी के नाम पर मीडिया और सरकार ऐसे बात करते हैं मानों प्याज को छोड़ बाकी पर तो कोई महंगायी ही न हो...

अजय प्रकाश

महात्मा गांधी के पुण्यतिथि  30जनवरी को देश के तमाम हिस्सों में भ्रष्टाचार विरोधी रैली का आयोजन किया गया। इसी अवसर पर दिल्ली के लालकिला से शहीद भगत सिंह पार्क तक माओवादियों के सहयोगी होने के आरोप में बंद डॉक्टर विनायक सेन के रिहाई के समर्थन में एक संक्षिप्त रैली भी निकाली गयी। भ्रष्टाचार के विरोधियों की रैली में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध के शुरूआत की घोषणा हुई,तो वहीं विनायक समर्थकों ने सरकारी हिंसा के मुकाबले अहिंसा की ताकत के पक्ष में क्रांतिकारी गीतों और भाषणों का आयोजन किया।

संक्षिप्त और वृहत रैली की संयुक्त सफलता के बाद विश्लेषकों ने दोनों रैलियों को मिलाकर ‘हॉलीडे रैली’की संज्ञा दी है। रैली को हॉलीडे कहने वालों का तर्क था कि 30 जनवरी को रविवार होने की वजह से वे ऐसा कह रहे थे, जबकि तरफदारों ने गांधी जी के जन्मदिन की मजबूरी कहा। बहरहाल भगत सिंह पार्क के पास नौकरी बजा रहे दिल्ली पुलिस के सिपाही यशवीर को इस बात से राहत रही कि जो लोग सरकार की हिलाने-उखाड़ने की बात कर रहे हैं, बेसिकली यह उनकी ड्यूटी है। आंदोलनकारियों को संभालने की ड्यूटी में लगे सिपाही यशवीर की राय में ऐसा करके वे लोग अपने चुन्नु-मुन्नु का पेट भरते हैं।

सिपाही की बात सुन रहे एक बुद्धिजीवी जो कि सभा के भागीदार थे,ने कहा ‘ऐसा नहीं है। पार्क में जमा हुए और नारा लगा रहे लोग विनायक सेन की नाजायज गिरफ्तारी के खिलाफ लड़ रहे हैं। ये लोग चाहते हैं कि सरकार बिना शर्त विनायक सेन को छोड़े। इसमें किसी का कोई स्वार्थ नहीं है, जैसा कि आप सोच रहे हैं। सिर्फ ड्यूटी ही न बजाइये, थोड़ा पढ़ा लिखा कीजिए।’

बुद्धिजीवी का तेवर देख सिपाही उभरने वाली झंझट को ताड़ गया। अपनी बात से पीछे हटते हुए बोला ‘साहब जी हमको कहां पढ़ने की फुरसत, आप ही बता दीजिए।’

बुद्धिजीवी- ‘क्या बतायें आपको, आप लोगों को तो सिर्फ निरीह जनता पर गोली चलानी है।’

सिपाही-‘ना जी ना। मैंने तो कभी किसी को एक थप्पड़ भी नहीं मारा, गोली की कौन कहे।’

बुद्धिजीवी-‘अरे आपने नहीं चलायी होगी,बाकी तो चलाते हैं न।’


सिपाही-‘बाबूजी मैं भी तो आपको यही बात समझाना चाह रहा हूं  कि आपकी रोटी आंदोलन से भले न चले लेकिन बाकियों की तो चलती है।’

बुद्धिजीवी-‘सो तो है। पर जब देश ही भ्रष्टाचार और अपराध की गिरफ्त में हो तो क्या किया जा सकता।’

सिपाही- ‘हां जी-हां जी, कुछ नहीं हो सकता।’

‘ये लीजिये हमलोगों ने एक पर्चा निकाला है। अकेले सिर्फ विनायक सेन की ही रिहाई बात क्यों  की जा रही है? जरूरी है कि काले कानूनों के खिलाफ और उन हजारों लोगों के पक्ष में भी संघर्ष हो जो देशद्रोह और अन्य जन संघर्षों  के मामलों में जेलों में बंद हैं।’ -इतना कह एक  एक ने पर्चा बुद्धिजीवी की ओर बढ़ाया तो सिपाही भी उचक कर देखने लगा। तभी बुद्धिजीवी बोले, ‘कॉमरेड इन्हें भी दीजिए यह लोग भी पढ़े-लिखें।’

उसके बाद पर्चा बांट रहे सज्जन ने सिपाही की ओर पर्चा बढ़ा बोलना शुरू किया ‘बेशक विनायक सेन के खिलाफ सरकार ने जो मुकदमा दर्ज किया है वह गलत है। मगर सिर्फ विनायक की बात कर बाकियों को भूल जाना पैर में कुल्हाड़ी मारना है। हो सकता है कल को सरकार विनायक को छोड़ दे,फिर क्या जुल्मतों पर बात बंद हो जायेगी।’-इतना बोल सज्जन ने सिपाही को पर्चा थमा दिया।

सिपाही-‘तो जी आप जे कह रहे हो कि विनायक सेन आंदोलनों के प्याज हो गये हैं। जैसे महंगायी के नाम पर मीडिया और सरकार ऐसे बात करते हैं मानों प्याज को छोड़ बाकी पर तो कोई महंगायी ही न हो।’

पर्चा वाले सज्जन, ‘बिल्कुल सही समझा आपने। हमलोग भी यही कह रहे हैं कि जिस तरह प्याज-प्याज चिल्लाकर सरकार बाकी चीजों की महंगायी चुपके से बढ़ाती जा रही है और हम हैं कि महंगायी के खिलाफ लड़ने के नाम पर सिर्फ प्याज के लिए आंसू बहाये जा रहे हैं। उसी तरह ज्यादातर बुद्धिजीवी और समर्थक विनायक माला का यों जाप कर रहे हैं,मानों बाकी सब छटुआ हों। परिणाम के तौर पर देखिये जबसे प्याज की कीमत थोड़ी कम हो गयी है तबसे मीडिया वाले महंगायी गायन में डायन शब्द का इस्तेमाल भूल रहे हैं,जबकि इसी महीने फिर से कई चीजों में महंगायी बढ़ी है। तो सोचिये विनायक मामले में भी तो यही होगा।’

बहस में नया मोड़ आते देख बुद्धिजीवी पर्चा बांटने वाले सज्जन की ओर मुखातिब हुए। पर सज्जन थे कि ‘विनायक सेन हुए प्याज’ कथा पर धारा प्रवाह बोले जा रहे थे। सिपाही यशवीर की निगाह बुद्धिजीवी से मिली तो उसने कहा, ‘ये देखिये आपके सरजी कुछ कह रहे हैं...’

बुद्धिजीवी- ‘हमलोगों में कोई सर या नौकर नहीं होता। हम सभी लोग कार्यकर्ता होते हैं।’

सिपाही- ‘ओह जी सॉरी। देख कर लगा था कि आप साहब हैं और ये आपके....’

‘कोई नहीं’- सिपाही से बुद्धिजीवी इतना बोल पर्चा वाले सज्जन की ओर मुखातिब हुए, ‘अरे आप माक्र्सवादी हैं या नहीं। प्रधान अंतरविरोध, मुख्य अंतरविरोध आदि का नाम सुना है या नहीं जो एक सिपाही से आंदोलन की रणनीति समझ रहे हैं। अगर माक्र्सवाद नहीं समझते तो भी इतना जान लीजिए कि कभी पूरी मछली का शिकार नहीं किया जाता है, टारगेट आंख पर किया जाता है।’

अभी बुद्धिजीवी इतना बोले ही थे कि मंच संबोधित करने के लिए उनकी बुलाहट हो गयी और वे वहां से मछली की आंख पर टारगेट करने लगे। उधर रामलीला मैदान से दोपहर में भ्रष्टाचार के खिलाफ चला जनयुद्ध जंतर मंतर तक पहुंच चुका था और वहां एक बुद्धिजीवी कह रहे थे कि ‘भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध की शुरूआत हो चुकी है।’

बेचारे ड्यूटी पर तैनात सिपाही यहां भी हंस रहे थे कि भ्रष्टाचार के विरोध वाले भी खूब उल्लू बना रहे हैं और लोग हैं कि जंगलों में चलाये जा रहे माओवादियों के जनयुद्ध को यहां चलाने की बात पर तालियां बजा रहे हैं।  उन्हीं सिपाहियों में एक ने कहा,‘फिर तो यह भी एक भ्रष्टाचार हुआ,भरमाने का भ्रष्टाचार।’


2 comments:

  1. हेमचन्द्र नैथानीTuesday, February 01, 2011

    सामाजिक संगठनों को समर्थन की यह त्रुटी ठीक करनी चाहिए. इससे आन्दोलन कमजोर होंगे और सरकार मजबूत.

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  2. अजय भाई आपको और आपकी टीम को धारा के विरुद्ध मोर्चा लेने के लिए बधाई. मैं बहुत सारे हिंदी के चर्चित ब्लॉग-वेब पढता हूँ. उसमें से जनज्वार का तेवर बिलकुल ही अलग है. मैंने अपने छात्रों को कहा है अब आदर्श बरखा दत्त और वीर संघवी नहीं रहे तो जनज्वार जैसे वेबसाइटों से ही उम्मीद बंधती है. मेरी जानकारी में हमारे यहाँ का शायद ही कोई पत्रकारिता का छात्र है जो जनज्वार को फॉलो न करता हो.

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