'राष्ट्रीय एकता यात्रा' भारतीय जनता पार्टी के भीतरी सत्ता संघर्ष के रूप में उभरकर सामने आया है.भाजपा में नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव से भयभीत सुषमा स्वराज तथा अरुण जेटली जैसे बिना जनाधार वाले नेताओं ने स्वयं को मोदी से आगे ले जाने की गरज़ से इस यात्रा को अपना नेतृत्व प्रदान किया...
तनवीर जाफरी
राष्ट्रीय ध्वज के स्वाभिमान की आड़ में भारतीय जनता पार्टी द्वारा गत् दिनों एक बार फिर भारतवासियों की भावनाओं को झकझोरने का राजनैतिक प्रयास किया गया जो पूरी तरह न केवल असफल बल्कि हास्यास्पद भी रहा। कहने को तो भाजपा द्वारा निकाली गई राष्ट्रीय एकता नामक यह यात्रा कोलकाता से लेकर ज मू-कश्मीर की सीमा तक 12 राज्यों से होकर गुज़री। परंतु यात्रा के पूरे मार्ग में यह देखा गया कि आम देशवासियों की इस यात्रा के प्रति कोई दिलचस्पी नज़र नहीं आई।
हां इस यात्रा के बहाने अपना राजनैतिक भविष्य संवारने की होड़ में लगे शीर्ष नेताओं से लेकर पार्टी के छोटे कार्यकर्ताओं तक ने इसे अपना समर्थन अवश्य दिया। भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपना राजनैतिक जनाधार तलाश करने के लिए पहले भी इस प्रकार की कई 'भावनात्मक यात्राएं' निकाली जा चुकी हैं। लिहाज़ा जनता भी अब इन्हें पेशेवर यात्रा संचालक दल के रूप में ही देखती है। फिर भी भाजपा ने अपने कुछ कार्यकर्ताओं के बल पर निकाली गई इस यात्रा को जम्मू -कश्मीर व पंजाब राज्यों की सीमा अर्थात् लखनपुर बार्डर पर जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा रोके जाने को इस प्रकार प्रचारित करने की कोशिश की गोया पार्टी के नेताओं ने राष्ट्रीय ध्वज के लिए बहुत बड़ा बलिदान कर दिया हो अथवा इसकी आन-बान व शान के लिए अपनी शहादत पेश कर दी हो।
परंतु राजनीतिक विश्लेषक इस यात्रा को न तो ज़रूरी यात्रा के रूप में देख रहे थे न ही इसे भाजपा के चंद नेताओं की राष्ट्रभक्ति के रूप में देखा जा रहा था। बजाए इसके तिरंगा यात्रा अथवा राष्ट्रीय एकता यात्रा को भारतीय जनता पार्टी के भीतरी सत्ता संघर्ष के रूप में देखा जा रहा था। भाजपा में नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव से भयभीत सुषमा स्वराज तथा अरुण जेटली जैसे बिना जनाधार वाले नेताओं ने स्वयं को मोदी से आगे ले जाने की गरज़ से इस यात्रा को अपना नेतृत्व प्रदान किया।
इसके आलावा यह भी था कि हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के पुत्र और सांसद अनुराग ठाकुर भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष होने के बाद स्वयं को राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने की बुनियाद डालना चाह रहे थे। अत:तिरंगा यात्रा की आड़ में देशवासियों की भावनाओं को भड़काने तथा अपने नाम का राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार करने का इससे 'बढिय़ा अवसर' और क्या हो सकता था। यदि यह यात्रा भाजपा नेताओं की आपसी होड़ का परिणाम न होती तो पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह महात्मा गांधी की समाधि पर 26जनवरी को जाकर धरने पर क्यों बैठते। भाजपा का अथवा भाजपा नेताओं का महात्मा गांधी या उनकी नीतियों से वैसे भी क्या लेना-देना।
इधर भाजपा नेता अरुण जेटली व सुषमा स्वराज तथा नीरा राडिया टेप प्रकरण में चर्चा में आने वाले भाजपा नेता अनंत कुमार बार-बार देश को मीडिया के माध्यम से यह बताने की कोशिश करते रहे कि हमें लाल चौक पर तिरंगा फहराने से रोका गया। इनका आरोप है कि जम्मू -कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार ने केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के इशारे पर हमें श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने से रोका है। इन नेताओं द्वारा यह भी कहा जा रहा है कि लाल चौक पर हमें झंडा फहराने से रोककर कश्मीर की उमर सरकार व केंद्र सरकार दोनों ही ने कश्मीर के अलगाववादियों तथा वहां सक्रिय आतंकवादियों के समक्ष अपने घुटने टेक दिए हैं।
बड़ी अजीब सी बात है कि यह बात उस पार्टी के नेताओं द्वारा की जा रही है जिसके नेता जसवंत सिंह ने कंधार विमान अपहरण कांड के दौरान पूरी दुनिया के सामने तीन खूंखार आतंकवादियों को भारतीय जेलों से रिहा करवा कर कंधार ले जाकर तालिबानों की देख-रेख में आतंकवादियों के आगे घुटने टेकते हुए उन्हें आतंकियों के हवाले कर दिया। जिनके शासन काल में ही देश की अब तक की सबसे बड़ी आतंकी घुसपैठ कारगिल घुसपैठ के रूप में हुई। देश के इतिहास में पहली बार हुआ संसद पर आतंकी हमला इन्हीं के शासन में हुआ। परंतु अब भी यह स्वयं को राष्ट्र का सबसे बड़ा पुरोधा व राष्ट्रभक्त बताने से नहीं हिचकिचाते।
अनुराग ठाकूर का चेहरा: स्थापित होने की कवायद |
जिस उमर अब्दुल्ला की राष्ट्रभक्ति पर आज यह संदेह जता रहे हैं वही अब्दुल्ला परिवार इनके साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का सहयोगी दल था तब राष्ट्रभक्त कहते थे. ठीक उसी प्रकार जैसे कि 24अप्रैल 1984को भारतीय संविधान को फाड़ कर फेंकने वाले प्रकाश सिंह बादल आज इनकी नज़रों में सबसे बड़े राष्ट्रभक्त बने हुए हैं। जैसे कि उत्तर भारतीयों को मुंबई से भगाने का बीड़ा उठाने वाले बाल ठाकरे जैसे अलगाववादी प्रवृति के राजनीतिज्ञ इनके परम सहयोगी बने हुए हैं। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भाजपा की तिरंगा यात्रा को लाल चौक पर तिरंगा फहराने से रोकने का प्रयास इसलिए किया था कि उनके अनुसार वे नहीं चाहते थे कि भाजपा की इस यात्रा से प्रदेश के हालात बिगड़ जाएं।
अभी ज़्यादा दिन नहीं बीते हैं जब पूरी कश्मीर घाटी कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के आन्दोलन में शामिल होकर पत्थरबाज़ी कर रही थी। इस घटना में सैकड़ों कश्मीरी तथा कई सुरक्षाकर्मी आहत भी हुए। इससे पूर्व अमरनाथ यात्रा को ज़मीन आबंटित किए जाने के मामले को लेकर जम्मू में जिस प्रकार तनाव फैला था तथा पूरी घाटी शेष भारत से कई दिनों तक कट गई थी यह भी पूरे देश ने देखा था। ऐसे में एक ओर भाजपा ने जि़द की शक्ल अख्तियार करते हुए जहां श्रीनगर के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराने की घोषणा की थी वहीं कुछ अलगाववादी नेताओं ने भी यह चुनौती दे डाली था कि भाजपा नेताओं में यदि हिम्मत है तो वे लाल चौक पर तिरंगा फहराकर दिखाएं।
जाहिर ऐसे में पार्टी के कई शीर्ष नेताओं सहित भाजपा की यात्रा में शामिल सभी कार्यकर्ताओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी राज्य सरकार की हो जाती है। लिहाज़ा यदि राज्य के वातावरण को सामान्य रखने तथा भाजपा नेताओं की सुरक्षा के मद्देनज़र उनकी जि़द पूरी नहीं की गई तो इसमें स्वयं को अधिक राष्ट्रभक्त व राष्ट्रीय ध्वज का प्रेमी बताना तथा दूसरे को राष्ट्रद्रोही या तिरंगे को अपमानित करने वाला प्रचारित करना भी राजनैतिक स्टंट मात्र ही है।
हम भारतवासी होने के नाते बेशक यह मानते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। परंतु यह भी एक कड़वा सच है कि हमारा यह कथन न तो पाकिस्तान के गले से नीचे उतरता है न ही पाकिस्तान से नैतिक,राजनैतिक तथा पिछले दरवाज़े से अन्य कई प्रकार का समर्थन पाने वाले कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के गले से। यदि मसल-ए-कश्मीर इतना ही आसान मसला होता तो हम आम भारतीयों की ही तरह भाजपा नेता व पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी यही कहा होता कि कश्मीर का मसला भारतीय संविधान के दायरे के अंतर्गत ही हल होना चाहिए। परंतु इसके बजाए उन्होंने भी यही कहना उचित समझा कि कश्मीर समस्या का समाधान इंसानियत के दायरे में किया जाना चाहिए।
लिहाज़ा वर्तमान समय में इंसानियत का तक़ाज़ा यही था कि कश्मीर घाटी में बामुश्किल कायम हुई शांति को बरकरार रहने दिया जाए तथा उन कश्मीरी अवाम का दिल जीतने का प्रयास किया जाए जो मुट्ठीभर अलगाववादी नेताओं के बहकावे में आकर कभी हथियार उठा लेते हैं तो कभी पत्थरबाज़ी करने लग जाते हैं। इसलिए लाल चौक पर तिरंगा लहराने की जि़द पूरी करने के पहले तो भाजपा को नक्सलवाद,आतंकवाद तथा अलगाववाद से प्रभावित तमाम ऐसे इलाकों की फिक्र करनी चाहिए जहां तिरंगा फहराना तो दूर की बात है भारतीय शासन व्यवस्था को ही स्वीकार नहीं किया जाता.
लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafri1@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.
नरेन्द्र मोदी का भय भाजपाइयों का सता रहा है और भाजपा को कांग्रेसियों का भय सता रहा है. बिलकुल सही विश्लेषण.
ReplyDeleteतनवीर साहब ने बहुत ही संयमित लेख लिखा है. इंसानियत ही हल का रास्ता नेकलेगी इससे शत -प्रतिशत सहमत.
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