Jan 20, 2011

क्या मेरी भी आभा है इसमें...



हमारे चारों तरफ ऐसी लड़कियों की रौनक है जो पीरियड्स और प्रेगनेंसी के मुश्किल दिनों में भी पैड व अन्य चिकित्सीय सुविधाओं के चलते हर मौसम में साल के 365दिन देश-दुनिया नापती फिर रही हैं। लेकिन हममें से कितने लोग जानते हैं कि गणतंत्र के केन्द्र दिल्ली से कुछ सौ किलोमीटर पर एक अलग ही दुनिया है लड़कियों की। उनके पास पीरियड्स के लिए सिर्फ एक-दो कपड़े हैं जिन्हें वे तब तक इस्तेमाल करती हैं जब तक या तो वे धुल-धुलकर फट नहीं जाते या फिर कोई दूसरा उसे उठा नहीं लेता...


गायत्री आर्य

बासठवें गणतंत्र दिवस के जश्न का माहौल चारों तरफ है। स्कूल के बच्चों के नृत्य, झांकियां, एनसीसी के कैडेट और सेनाओं के जवानों की परेड के रिहर्सल...यहां तक कि अत्याधुनिक शस्त्र भी साज-सज्जा में मशगूल हैं। भारत के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक भारतीय संविधान का बनना और लागू होना।

बासठ साल किसी व्यक्ति, समाज, देश और सभ्यता के जीवन में काफी लंबा और महत्वपूर्ण समय है। संविधान लागू होने की खुशी के जश्न पर साल दर साल करोड़ों रुपया खर्च करना चाहिए या नहीं, यह सवाल बहुत सारे दिलों में है,लेकिन उससे भी अहम सवाल यह है कि हमारा संविधान पूरी तरह से लागू कब होगा? स्त्रियां, बच्चे, दलित, आदिवासी, जाति-जनजाति समूह आज भी संविधान के पूरी तरह से लागू होने के इंतजार में हैं।

असल स्थिति तो यह है कि इन तमाम वंचित और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए संविधान जैसी कोई चीज है ही नहीं। इस देश की आधी आबादी (जिसे कि आधी भी नहीं रहने दिया जा रहा) के नजरिये से गणतंत्र को देखने की कोशिश कर रही हूं। गणतंत्र की 62वीं वर्षगांठ के उत्सव भरे माहौल में स्त्रियों की स्थिति और उपस्थिति को खोजने की कोशिश कर रही हूं तो त्रिलोचन की पंक्तियां जेहन में आ रही हैं :-

''नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है/यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है/ मेरी भी आभा है इसमें!''

लेकिन सवाल यह उठता है कि इस विशाल गणतंत्र की चमक में स्त्रियों की आभा को किसने और कितना स्वीकार किया है? आज भी जिन परिवारों में स्त्रियां सिर्फ घर का काम संभालती हैं उन घरों के बच्चे पारिवारिक परिचय के वक्त यही कहते हैं ''पापा फलां-फलां हैं और मां कुछ नहीं करती!'' यदि ''कुछ नहीं करती?'' सवाल सामने से आए तभी एक खिसियायी सी हंसी के साथ जवाब आता है ''मतलब घर का काम करती हैं।'' अन्यथा जवाब पर्याप्त है ही।

मसलन उम्र के अंतिम पड़ाव में मेरी मां बिना किसी अफसोस के मानती हैं कि उन्होंने जिंदगी भर सिवाय रोटियां थापने के और कुछ नहीं किया है। बावजूद इसके कि उनके पति सिर्फ उनके कारण अपनी प्रोफेसरी बिना किसी बाधा के निभाते रहे। बावजूद इसके कि तीन में से दो बच्चे बिना उनके सबकुछ सहने की प्रवृत्ति, सेवा, स्नेह और अथक परिश्रम के बहुत ऊंचे पदों पर नहीं पहुँच पाते। वे अपने जीवन की उपलब्धि शून्य मानती हैं।

आखिर यह जवान होता गणतंत्र उन असंख्य महिलाओं को यह भरोसा क्यों नहीं दिला पाया कि इस सबसे बड़े लोकतंत्र के स्थायित्व की नींव में उनकी ही सहनशक्ति है...कि दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए उनका यह अदृश्य श्रम और भी न जाने क्या-क्या बराबर का जिम्मेदार है। इस विशाल गणतंत्र में घरेलू कामकाजी महिलाओं का एक विशाल तबका भला कहां अपनी आभा ढूंढ पाता है? लेकिन सवाल यह है कि क्यों नहीं?

कामकाजी मजदूर  औरतें : नहीं जानती गणतंत्र का मतलब

झुग्गी-झोपडियों, कच्ची बस्तियों, मैली बस्तियों में पापड़ से लेकर खिलौने, छोटे-मोटे पुर्जे, कालीन, कांच के सामान, बीड़ी, माचिस आदि बनाने वाली करोड़ों औरतों के लिए संविधान और गणतंत्र दूसरे ग्रह के शब्द हैं। 24 में से 10-12 घंटे आंखफोडू काम करके भी सिर्फ हजार-दो हजार प्रतिमाह कमाने वाली ये औरतें नहीं जानतीं कि बराबर काम के लिए बराबर मजदूरी जैसा भी कोई कानून है।

वे यह भी नहीं जानती कि विकास दर का क्या मतलब है?....और अर्थव्यवस्था की इस वृद्धि दर का उनके काम से भी कोई संबंध है या नहीं? वे नहीं जानती कि हर रोज होने वाले अरबों-खरबों रुपयों के व्यापार की रीढ़ वे ही हैं। इस देश की समृद्धि, लोकतंत्र के स्थायित्व और गणतंत्र के विकास में उनकी भूमिका के बारे में उन महिलाओं को कभी नहीं बताया गया। आखिर क्यों? क्या इसलिए कि वे कहीं लिंगभेद और गैरबराबरी पर सवाल न उठा दें!...कहीं अपने बराबरी के हक के लिए हड़ताल न कर दें!

कुल खेतिहर काम का लगभग 45.57 प्रतिशत काम करने वाली इस देश की करोड़ों महिलाओं के घरों में आज भी न तो भरपेट खाना है, न ही बेटी के दहेज के पैसे और न ही चेहरे पर पूरे देश का पेट भरने का फख्र। हर साल डॉक्टर  बनकर निकलने वाले लगभग पांच लाख युवाओं, इंजीनियर बनने वाले लगभग आठ लाख युवाओं के चेहरों पर जो अभिमान और फख्र होता है उसका सौंवा हिस्सा भी इन मजदूरिनों, महिला किसानों और गृहणियों के चेहरों पर नहीं होता। क्यों? ये बात अलग है कि ये युवा अपने देश की बजाए पराए मुल्क की तरक्की में काम आते हैं और ये सारी औरतें इस मुल्क की रोटी-रोजी और तरक्की में दिन-रात खपती हैं।

निःसंदेह बहुत सी वजहें हैं जिनके चलते स्त्रियों को भी गणतंत्र दिवस के समारोह में दिल से शामिल होना चाहिए। मसलन, लड़कियों को पढ़ने और बढ़ने के जितने मौके आज मिले हैं पहले नहीं थे। पचास के दशक में जहां महिलाओं की साक्षरता दर 8.86 प्रतिशत तक सिमटी थी, आज उसका ग्राफ 52.67 प्रतिशत तक पहुँच गया है। जिन महिलाओं ने व्यक्तिगत आजादी हासिल की है, वे पहले इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती थी।

संपत्ति में बराबरी का हक, दहेज विरोधी कानून, घरेलू हिंसा निरोधक कानून, बाल विवाह पर रोक, सती प्रथा की समाप्ति, लगभग हर क्षेत्र में रोजगार का हक, बराबर काम के लिए बराबर वेतन, हर तरह के शोषणों से निपटने के लिए हमारे हक में बने तमाम तरह के सख्त और नरम कानून। तमाम तरह के धार्मिक फतवों के बावजूद कुछ भी कहने, लिखने, घूमने-फिरने, कहीं भी आने-जाने, कुछ भी पहनने की आजादी और भी बहुत कुछ....

लगभग हर वर्ग की औरतें नौकरी करने और कमाने में लगी हैं। उनकी कमाई पर उनका कितना हक है यह अलग बहस का मुद्दा है, लेकिन मोटामोटी अपने पैसे पर हक न होने के बावजूद भी घर से निकलने और तरह-तरह के काम करने से जो आत्मविश्वास उन्हें मिला है वह किसी भी बाप, भाई या पति की बपौती नहीं है। पितृसत्ता या कोई भी सत्ता औरतों/लड़कियों से उनके हुनर और मेहनत से कमाया हौंसला नहीं छीन सकती।

लेकिन महिलाओं के लिए इतने सारे कानून होने के बावजूद भी हम जीवन के बहुत से क्षेत्रों में खुद को अभी भी बहुत कंगाल पाती हैं। हमारे गणतंत्र ने न सिर्फ लिंगगत, भाषागत, मजहबी, जातिगत, श्रेत्रगत आधार पर भेदभाव बरता है, बल्कि स्त्री-स्त्री के बीच भी भेद किया है। मोबाइल पर बात करती, लाखों का सालाना पैकेज पाती, महंगी गाड़ियों में महंगे लिबासों में आती-जाती, कॉलेज में मनचाही डिग्री लेती, मनचाहा जीवनसाथी और जीवन चुनती लड़कियों का प्रतिशत निःसंदेह काफी बढ़ा है।

हमारे चारों तरफ ऐसी लड़कियों की रौनक है जो पीरियड्स और प्रेगनेंसी के मुश्किल दिनों में भी पैड व अन्य चिकित्सीय सुविधाओं के चलते हर मौसम में साल के 365 दिन देश-दुनिया नापती फिर रही हैं। लेकिन हममें से कितने लोग जानते हैं कि गणतंत्र के केन्द्र दिल्ली से कुछ सौ किलोमीटर पर एक अलग ही दुनिया है लड़कियों की। उनके पास पीरियड्स के लिए सिर्फ एक-दो कपड़े हैं जिन्हें वे तब तक इस्तेमाल करती हैं जब तक या तो वे धुल-धुलकर फट नहीं जाते या फिर कोई दूसरा उसे उठा नहीं लेता।

उनके पास सेनिट्री नैपकिन पहुंचना तो दूर, स्कूल में लड़कियों के लिए टायलेट तक नहीं हैं। पूरे दिन स्कूल में पेशाब रोकने से हुई बीमारियों के लिए क्या यह गणतंत्र खुद को जिम्मेदार (दोषी तो दूर की बात) समझता है? बाल-विवाह पर रोक के तमाम 'कड़े' कानून बने हैं, बावजूद इसके अक्षय तृतीया पर लाखों बाल-विवाह हर साल होते हैं। इसी की बदौलत बचपन में ही मां बनने की अकल्पनीय पीड़ा झेलने वाली बच्चियों के लिए क्या इस समाज और देश में से कोई खुद को दोषी ठहाराता है?

और बच्चियां...जो इस गणतंत्र की आर्थिक रीढ़ को मजबूत करने में अपनी भूमिका निभाती आई हैं, निभाती जा रही हैं, उनके योगदान को खुलकर स्वीकार नहीं किया जाता है। विदेशी पर्यटन को बढ़ाने के लिए निहायत जरुरी मुफ्त और सस्ती सेक्स सेवाओं के लिए इस मुल्क की 14 साल से छोटी लगभग 20-25 प्रतिशत बच्चियां हलाल होती हैं। उनकी गिनती....? खेतों में महिला किसानों द्वारा किये जाने वाले 45.57 प्रतिशत काम का लगभग 20 प्रतिशत काम 14 साल से कम उम्र की बच्चियां ही करती हैं।

कालीन, फुटबाल, माचिस, बीड़ी, अगरबत्ती, जरी, चूड़ियां, आभूषण बनाने वाले कारखानों में काम करने वाली बच्चियों की गिनती इस इकसठ साला गणतंत्र में कहां है? जीवन के दूसरे क्षेत्रों की तरह बाल श्रम में भी बालकों की अपेक्षा बच्चियों ने काम का ज्यादा बोझ उठाया हुआ है। पुरुषों द्वारा किये गए श्रम का 24.74 प्रतिशत हिस्सा जहां बालकों के कंधे ढोते हैं, वहीं बच्चियों ने 46.83 प्रतिशत काम को अपने कच्चे (लेकिन समय से पहले पक गए) कंधों पर उठाया हुआ है। लेकिन जिस देश में करोड़ों मांओं के दृश्य और अदृश्य श्रम की गिनती नहीं, वहां इन छोटी बच्चियों के काम की गिनती भला कैसे होगी?

संयुक्त परिवार में जैसे-जैसे बुजुर्ग की उम्र बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे परिवार और समाज में उनका सम्मान और रुतबा बढ़ता जाता है। तमाम तरह के बैर और कलेश होने के बावजूद भारत एक अनोखा संयुक्त परिवार है, उसके जैसा दुनिया में कोई दूसरा देश नहीं है। लेकिन आश्चर्य कि उस परिवार को चलाने वाला 61 साल का बुजुर्ग हमारा संविधान, समय के साथ उतना सम्मान नहीं पा सका है जितने का वह हकदार था। संविधान में दर्ज कानूनों की हेकड़ी से कोई नहीं डरता। देश का लगभग हरेक आदमी संविधान और उसकी सभी धाराओं का वैसे ही मखौल उड़ाता है, जैसे सवर्ण तबका दलितों का, संपन्न वर्ग गरीबों का और पुरुषसत्ता स्त्रियों का!

जैसे इकसठ सालों बाद भी जंगल में रहने के बावजूद जंगल और वहां की जमीन आदिवासियों की नहीं हुई, वैसे ही स्त्रियां भी अपने घरों में अपनी जमीन पर लिंगभेद के कारण बहुत से अधिकारों और सम्मान से अभी भी वंचित हैं। सबसे ताकतवर भारतीय महिलाओं, सबसे अमीर महिलाओं, सबसे ऊंचे ओहदों पर पहुंचने वाली महिलाओं पर लगभग हर रोज किसी न किसी अखबार या पत्रिका में आंकडे छपते हैं। जिसकी मैं आलोचना नहीं कर रही, लेकिन सबसे कम मजदूरी, सबसे ज्यादा उपेक्षा के बावजूद सबसे ज्यादा श्रम करने वाले, सबसे बड़े स्त्री वर्ग के लिए कभी कहीं खबर नहीं आती। कोई सर्वे नहीं होता...आखिर क्यों? क्यों उन्हें कभी भी इन इकसठ सालों में यह अहसास नहीं दिलाया गया कि इस देश के आर्थिक ढांचे की रीढ़ वे ही हैं?

असल में 62वां गणतंत्र हम स्त्रियों/ लड़कियों/ बच्चियों के लिए एक पेंचीदा सी स्थिति बनाए हुए है। स्त्रियों के हक में ढेर सारे कानूनों का अंबार लगाया गया है। पढाई और नौकरी के बहुत सारे विकल्प हमारे सामने खुले हैं। महिलाओं के हित में ढेर सारी लाभकारी योजनाएं बन रही हैं। अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने की थोडी़-थोड़ी आजादी हमें मिलने लगी है, लेकिन दूसरी तरफ हमारे व्यक्तित्व के लिए ढेर सारी नकारात्मक चीजों को खतरनाक तरीके से प्रोत्साहन नहीं तो सहयोग तो दिया ही जा रहा है।

भ्रूण  हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार, जबरन वैश्यावृत्ति, छेड़खानी, यौन शोषण का तेजी से बढ़ता ग्राफ हमारा जीना नरक बना रहा है। कब, कौन, कहां, कैसे, कोई हमें अपना निवाला बना लेगा, लड़कियां/औरतें इसी डर में जीते हुए आगे बढ़ रही हैं। हमारी दिमागी ताकत का बड़ा हिस्सा इस ‘बचने‘ की जुगत सोचते जाने में ही खर्च हो जाता है। जो दिमाग हम तकनीक, विज्ञान और रचनात्मकता में लगाकर इस देश को और आगे पहुंचा सकते थे वो सिर्फ 'शिकार होने से बचने' में ही खर्च हो जाता है।

यह इस देश और गणतंत्र की बहुत बड़ी 'क्षति' है जिसकी पूर्ति संभव नहीं। भविष्य में इस 'क्षति' से खुद को बचाना और स्त्रियों को उनकी अस्मिता और वजूद का अहसास दिलाना इस 62वें गणतंत्र के लिए बड़ी चुनौती है। ऐसे में निर्मला पुतुल याद आ रही हैं...''धरती के इस छोर से उस छोर तक/ मुठ्ठी भर सवाल लिए मैं/ दौड़ती-हांफती-भागती/ तलाश रही हूं सदियों से/ निरंतर.../अपनी जमीन, अपना घर, अपने होने का अर्थ...''






लेखिका जेएनयू  में  शोधार्थी और स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे gayatreearya@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

3 comments:

  1. अत्यधिक प्रभावशाली, संवेदनाओं और गवेषाणाओं से सराबोर एक सार्थक आलेख लिखने के लिये लेखिका को साधुवाद। शब्दों का चयन और भावाभिव्यक्ति लेखन के स्तर को स्वत: प्रमाणित करती है। यही है निरन्तर सार्थक लेखन का परिचय।
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश
    0141-2222225
    098285-02666

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  2. bahatrin lekhan ke liye badhia...
    sahas k sath mahtwapurn mudda saskkat sabdo me prastut kiya hain...
    sanjay
    kota

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  3. lekh me ya bolna aasan hai practically it is none of use.............

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